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एक सार्थक पहल के लिए

एक सार्थक पहल !

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'अगली गोष्ठी में काव्या जी अपनी कहानी का वाचन करेंगी.', सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया और गोष्ठी समाप्त हो गयी.

'काव्या जी,... ' डॉ. ललित ने विदा लेते हुए कहा, ' अगली गोष्ठी में आपकी सार्थक कहानी सुनने का अवसर मिलेगा.' काव्या ने जैसे असमंजस की स्थिति में उनके निमंत्रण को मौन स्वीकृति दे दी. एक निरर्थक जीवन पर सार्थक कहानी कैसे लिखी जा सकती है ? जबकि कहानी की विषयवस्तु स्वयं के जीवन पर आधारित हो. काव्या को लगा मानो परीक्षा की घडी आ गयी.

महीने में एक बार होने वाली इस गोष्ठी में कोई नामचीन कथाकार नहीं आते थे. बस ऐसे लोग जो केवल स्वान्तः सुखाय के लिए सृजन में विश्वास रखते थे. हाँ यह बात अलग है कि काव्या जी और डॉ. ललित जैसे जाने माने कथाकार इससे जुड़ गए हैं. ऐसे कथाकार सार्थक सृजन में विश्वास रखते हैं. वरना आज इतर लेखन की भरमार है. कुछ हद तक इसे सच माना जा सकता है कि साहित्य में समाज को बदलने की क्षमता नहीं है. समाज और देश को बदलने वाली शक्तियां दूसरी होती हैं. एक सजग ओत परिश्रमी लेखक ताउम्र लिखकर भी किसी आदमी के जीवन को सुधार नहीं सकता ! इससे विरोधाभास क्या होगा कि काव्या जी जैसी लेखिका लेखन की दुनिया में खुद को बलशाली साबित कर चुली हैं. किन्तु वह बाहरी दुनिया में विवश, शक्तिहीन और प्रभावहीन महसूस करतीं हैं.

इतने लम्बे रचनाकाल में काव्या जी ऐसा करने से कहाँ बच सकीं हैं. उसने जब भी जीवन से जुड़े सार्थक पहलू को चरितार्थ करने के लिए कलम उठाई है, मंजिल तक पहुँचने का साहस नहीं जुता सकीं. हर बार, घर की जरूरतों को मुंह फाड़े सामने पाया. वह जरूरतों और उनकी पूर्ति के बीच महज़ एक साधन बनकर रह गयी हैं. आज काव्या लेखा में अपने अस्तित्व का परचम लहराने के बावजूद भी स्वयं अपना अस्तित्व तलाश रहीं हैं !

गोष्ठी समाप्त हो गयी. घर को सूनेपन ने आ घेरा. वह इस सूनेपन में जीवन से जुड़े सार्थक पहलू को तलाशने लगी. वह झूठे बर्तनों को समेटने की रस्म अदायगी में लग गयी. कमरे में बिछा कालीन और गालिचा बेतरतीब हो गए थे. मिसेज लक्ष्मी के चार साल के बच्चे ने दो जगह कालीन गीला कर दिया था. वह शहर के मशहूर नाक-कान-गला विशेषज्ञ की पत्नी हैं. लेखन उनका शौक है. डॉ. पति के सहयोग से उन्हें सृजनात्मक बने रहने की प्रेरणा मिलती रहती है. आर.के. श्रीवास्तव और देवदास जी अच्छे लेखक नहीं हैं लेकिन अच्छे पाठक होने का गुण उन्हें इस गोष्ठी में खींच लाता है. वे रसिक श्रोता तो हैं ही, कहानी की समीक्षा भी अच्छी करते हैं. एक आम और रसिक पाठक का प्रतिनिधित्व वे करते हैं. इससे कहानी में निखार लाने में सुविधा होती होती है. खिड़की के पास, सिगरेट के एशट्रे को उठाते समय वह बरबस मुस्कुरा उठी. शर्मा जी अपनी सिगरेट पीने तलब को रोक नहीं पाते और दो घंटे की गोष्ठी के दौरान दी-एक बार बाकायदा अनुमति लेकर खिड़की के बाहर झांकते हुए सिगरेट फूंक लेते हैं. इसके बाद, जैसे रिचार्ज होकर अपने स्वाभाविक चुटीले अंदाज़ में आ जाते हैं - ' ललित जी, आपने अपनी कहानी के इस स्त्री पात्र का नाम गलत रख दिया है !'

'क्या मतलब ?', डॉ ललित जैसे ख्यातिलब्ध कथाकार शर्मा जी की टिप्पड़ी से चौंके. काव्य जी भी शर्मा जी की ओर देखने लगीं. शर्मा जी की आँखों में शरारत खेल रही थी, ' इस स्त्री पात्र का नाम काव्या होना चाहिए था.'

एक सामूहिक ठहाके से गोष्ठी और भी अनौपचारिक हो गयी थी. डॉ. ललित हलकी मुस्कराहट के साथ अपनी कहानी का पाठ कर रहे थे. अथाह गहराई में विपुल जलराशि को समेटे समुद्र की सी मर्यादा डॉ. ललित को आम आदमी से ख़ास बना देती है. जिसमे न जाने कितनी नदियाँ अपनी उच्छ्रंखलता भूलकर विसर्जित हो जाती हैं.

ललित सदैव से ऐसे थे. एकदम शांत, मर्यादित, संवेदनशील और दूसरों की मदद के लिए तत्पर. घर के सूनेपन में रात गहराने लगी. काव्या के पुराने यादों के पन्ने फाड़ फड़ाने लगे. और समय की गर्द छांटने लगी. उसके ज़ेहन में जीवन का एक-एक सफा स्पष्ट होने लगा.


'क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ ?', ललित ने कालेज के पार्क में तनहा बैठी कामिनी से कहा. ललित उसकी क्लास में सहपाठी था. कोई और होता तो शायद कामिनी उसे अपनी तन्हाई में दखलंदाजी को आड़े हाथों लेती लेकिन ललित के साथ उसने ऐसा नहीं किया. हांलाकि वह कालेज की उच्छ्रुन्ख्रल एवं बिंदास लड़कियों में शुमार मानी जाती थी किन्तु ललित के व्यक्तित्व के आगे उसकी उच्छ्रंलता को नतमस्तक हो जाना पड़ता था. पिछले कुछ दिनों में उसके जीवन में जो कुछ घटा उससे उसके जीवन की दिशा ही बदल गयी थी. एक कार दुर्घटना में उसके पिता इस दुनिया से कूच कर गए थे. कामिनी को याद नहीं पड़ता कि उसकी माँ कैसी थी. हाँ, पिताजी ने कभी माँ कि कमी का अहसास नहीं होने दिया था. माँ तो जैसे उस मनहूस को देखना भी नहीं चाहती थी. इसलिए उसे जन्म देकर चल बसी और अब यह भूचाल ! परिस्थितियों ने उसे अचानक बेसहारा कर दिया था. ऐसे में उसी शहर में रहने वाले छोटे मामा उसके सहारा बने.

'मैं आपके दर्द को समझता हूँ कामिनी. ऐसे समय यदि मैं आपकी कुछ मदद कर सका तो अपने आप को खुशनसीब समझूंगा.' ललित कि गंभीरता ने उसे संबल प्रदान किया और वह अपने दर्द ललित से बांटने लगी. एक धीर गंभीर और सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी ललित के मर्यादित व्यवहार से, कामिनी की ललित के प्रति श्रद्धा अंदरूनी प्यार में बदलने लगी. वह कठिन परिस्थितियों में हर समस्या का निदान ललित से लेती थी. छोटी मामी के ताने और चरमराती गृहस्थी को संभालते छोटे मामा के आंसू, सब कुछ ललित से छुपा नहीं था.

एक दिन उसके जीवन में फिर भूचाल आया और छोटी मामी की जिद के आगे वह हार गयी. उसे एक बेरोजगार शराबी व्यक्ति के गले मढ़ दिया गया. इस बार भी ललित सहारा बनाकर खड़े थे लेकिन उसका भाग्य और समाज की मर्यादा ने उसे परिस्थितियों का गुलाम बना दिया. वह सब कुछ छोड़कर अपनी ससुराल जबलपुर में आ बसी. समय के चक्र में उसके लिए अभी भी भंवरें बाकी थीं. शादी के छः माह बाद लीवर फेल्योर से उसके पति का देहांत हो गया. अब उसके जीवन में केवल एक सपना शेष था जो उसके पेट में साँसें ले रहा था. घर में विधवा सास के सहारे वह अपने सपने को साकार करने में जुटी रही.

कागज़ पर कलम से कहानियां साकार होने लगीं तो उसका नाम प्रसिद्धियों की बुलंदियों को छूने लगा. काव्या के नाम से वह एक स्थापित कथाकार बन गयी. काव्या की बेटी सपना, बी.इ. एम्. बी. ए. करके मुंबई स्थित प्रतिष्ठित मल्टीनेशनल कंपनी में हायर सेलरीड इंजिनियर बन गयी थी.

जीवन के इस पड़ाव में तूफानों को झेलते काव्या फिर असहाय महसूस कर रही थी. जवान बेटी के हाथ पीले करने की उहापोह में ललित फिर सामने था. एक विचार गोष्ठी में अचानक काव्या की मुलाक़ात ललित से हो गयी थी. ललित अब डॉ. ललित के नाम से ख्यातिलब्ध कथाकार जाने जाते थे. वे अब एक गृहस्थ थे. इधर कामिनी से काव्या तक का सफ़र जानकर डॉ. ललित आश्चर्यचकित थे.

वह आज भी काव्या को अन्दर तक पढ़ सकते थे. तभी तो ललित ने एक दिन काव्या से ऐसा प्रश्न कर डाला जिसकी आशा उसे ललित से नहीं थी, ' काव्या जी, अब वो समय आ गया है कि मुझे अपने दिल कि बात कह देनी चाहिए.'

काव्या अवाक ललित के चेहरे को पढ़ने लगी. ललित कहते जा रहे थे, 'अब हमें अटूट बंधन में बांध जाना चाहिए. वरना मैं अपने आप को माफ़ नहीं कर पाऊंगा. अब आपके धैर्य और मेरी मर्यादा की परीक्षा की घडी आ गयी है.'

तभी दरवाजे की कॉल-बेल बज उठी. काव्या की यादों का तारतम्य टूट गया. ' इतनी रात कौन हो सकता है ? ' उसने बोझिल आँखें दीवार घडी की ओर घुमा दीं. फिर तकिये के नीचे डिब्बे में रखी ऐनक को बूढी आँखों पर चढ़ाया - ' अब तो सुबह हो चली है, पांच बज गए ? ' वह मन ही मन बुदबुदाने लगी. वह बिस्तर से उठकर दरवाजे की ओर बढ़ी तो ऐसा लगा कि वह पूरी रात तनहाइयों में विचरती रही. शरीर का सामर्थ्य जबाब दे रहा है.

उसने दरवाजा खोला, 'अरे ! सार्थक - सपना !! तुम दोनों !!!'

सार्थक ने प्रवेश करते ही काव्या के पैर छुए. वह निहाल हो गयी और स्नेह भरे हाथ सार्थक के बालों पर फिर दिए. फिर अपनी बेटी सपना की आँखों में ख़ुशी के आंसू देखकर पुलकित हो उठी 'हाँ, माँ हमें कल रात ललित पापा ने फोन किया था कि आप बहुत परेशान हैं और हमें याद कर रहीं हैं, 'सपना बोले जा रही थी इसी बीच सार्थक ने बात पूरी करते हुए कहा, ' हमें क्यों, अपनी बेटी सपना को याद कर रहीं थीं. तभी तो मैं सपना को लेकर रात ही फ्लाईट के निकल पडा.'

'अच्छा किया बेटा, ये ललित जी भी ?' काव्या के बूढ़े हो चले गालों पर मासूमियत खिल गयी. कुछ देर बाद सार्थक ने अपने पिता डॉ. ललित को फोन पर अपने जबलपुर पहुचने की सूचना दे दी थी. अलसाया सूरज सुबह के शीतल आकाश में बढ़ रहा था. इधर काव्या, कलम और कहानी एक सार्थक पहल के लिए आत्मसात हो गए थे.

उधर किचिन से सपना और सार्थक की ठिठोली सुनाई दे रही थी.

@ राकेश सोहम्

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