फ़ैसला - 1 Rajesh Shukla द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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फ़ैसला - 1

फ़ैसला

(1)

जून का महीना। उफ! ऊपर से ये गरमी। रात हो या दिन दोनों में उमस जो कम होने का नाम नहीं ले रही थी। दिन की चिलचिलाती धूप की तपिस से रात को घर की दीवारें चूल्हें पर रखे हुए तवे की तरह मानों अपनी गरमी उगल रही हों। ऐसे में रात को 12 बजे भी नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। पंखे ओर कूलर तो जैसे हवा की जगह आग उगल रहे हों। ऐसे में आंखों में नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। उसने अपनी टेबल लैम्प का स्विच ऑफ किया और चेयर को पीछे को धकेल कर बालकनी पर आकर चहल-कदमी करने लगा।

बार-बार अपने मुंह पर व्यकुलता के साथ हाथ फिरा रहा था। उफ! ये गरमी जैसे कम होने का ना ही नहीं लेती।ऐसे में नींद भी तो नहीं आ रही है। इसी तरह बड़बड़ाता हुआ वह बालकनी पर चक्कर लगा रहा था कि अचानक मोबाइल की घंटी ने उसके मष्तिस्क को दूसरे विषय ने सोचने को मजबूर कर दिया।

हेलो!

हेलो! हेलो!

सिद्धेश! मैं डा. केडी बोल रहा हूं।

बोलिए जनाब! मैं सिद्धेश बोल रहा हूं। कहिए डाक्टर साहब क्या? आपको भी नींद नहीं आ रही है।

हो-हो। मेरी नींद तो वाकई में उड़ गयी है।

कहिए! क्या हुआ। ऐसी क्या बात हो गयी जो मरे यार की नींद उड़ गयी।

अरे! मेरे दोस्त मैं क्या बताऊं। एक केस आज दिन में ऐसा आ गया कि जिसने मेरे अन्तःकरण को झंझोड़ कर रख दिया। ऐसेा कौन सा केस आ गया। जिससे डाक्टर साअब भी बेचैन हो उठे। कहीं किसी से दिल तेा नहीं....

अरे! नहीं यार, यह मज़ाक का विषय बिल्कुल नहीं है।

तो फिर, जल्दी बताइये। आप भूमिका क्यों बना रहे हैं। मुझसे जो बन पड़ेगा मैं उस विषय में आपकी पूरी-पूरी सहायता करूंगा। आप बताइये तो सही।

अरे! बताऊं क्या? पहले यह बताओ तुम सोने तो नहीं जा रहे थे। जो मैंने तुम्हारी नींद में खलल डाल दिया।

अरे! यार। वैसे तो मुझे नींद आ नहीं रही है। मैं तो बालकनी पर चक्कर लगा रहा था। लेकिन यह बताओ हम दोनेां के बीच में इतनी शिष्टाचार वाली बातें कब से आ गयीं।

तो फिर सुनो।

इतना कहकर डाक्टर साहब आगे बोले। अरे सिद्धेश, आज मेरी क्लीनिक में एक ऐसी महिला आ गयी जिसका आगे-पीछे कोई नहीं। और वह हमें कुछ-कुछ मानसिक रूप से विक्षिप्त भी लगती है।

अरे! तो इसमें क्या हुआ। तुम्हें तो पता ही है कि हमारी यह संस्था ऐसे ही मजबूर लोगों को आश्रय देती ही। जिनका इस संसार में कहीं कोई ठिकाना न हो। वैसे इस समय है कहां?

मैं उसे अपने साथ क्लीनिक से घर ले आया था। आज रात तक केक लिए मैंने उसके रहने आदि का प्रबन्ध कर दिया है। तो फिर ठीक है। कल सबेरे 8 बजे मैं आपके घर आ जाता हूं। और आगे इस बारे में क्या। कैसे। करना है सोचोंगे।

अरे सिद्धेश! तुमने तो मेरे दिल का बोझ ही हल्का कर दिया। अरे डाक्टर साहब! आप लोगों के दिमाग का इलाज करते हैं और मैं। जिसको लोग बोझ समझकर अपने आप से अलग कर भटकने के लिए छोड़ देते हैं उसकी बांह पकड़कर उठा लेता हूं। तो बोझ हल्का करना तो हमारा काम है।

अच्छा तो सिद्धेश! कल सबेरे फिर मिलते हैं। गुड नाइट।

ऐसा कहकर उधर से डाक्टर केडी ने मोबाइल काट दिया। इधर सिद्धेश का दिमाग डा. केडी की बातों में ही उलझा हुआ था। आखिर उस महिला के साथ क्या हुआ होगा? उसके मानसिक विक्षिप्तता का क्या कारण हो सकता है? कहीं कोई ऐसी घटना तो उसके जीवन में नहीं घटी कि वह उसके दिलोदिमाग में घर कर गयी हो? इसी तरह के अनेकांे प्रश्न उसके मस्तिष्क में एक-एक कर बवन्डर की भांति उठ रहे थे। लेकिन वह किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में असमर्थ था।

सिद्धेश एक समाज सेवक है उसे महिला कल्याण की संस्था चलाते हुए लगभग एक दशक हो रहा है इस दौरान अनेकों महिलाएं समाज द्वारा सतायी हुई, अपने शरीर से असमर्थ उस की संस्था में आयीं। लेकिन वह कभी इतना परेशान नहीं हुआ जितना कि डा. केडी के द्वारा बतायी उस महिला के विषय में सुनकर व्याकुल हुआ। उसका हृदय रह-रहकर उससे मिनले को आतुर हो रहा था। इस समय रात के लगभग 1.30 बजे थे। उसकी आंखों में भी नींद तो जैसे आने का नाम ही नहीं ले रही थी। फिर वह जबरन बिस्तर पर जाकर लेट गया। इधर-उधर करवटें बदलते हुए उसने अपनी आंखों को बन्द कर लिया। वह सोने का प्रयास तो कर रहा था। लेकिन मन को वही बात बार-बार कचोट रही थी। इसी तरह विषयक जाल में फंसे हुए पता नहीं उसे कब नींद आ गयी।

आंख जब खुली तो बिन्डों के रास्ते धूप सीधे कमरे के अन्दर घुस चुकी थी। उसने हड़बड़ाहट में उठकर बगल में मेज पर रखे मोबाइल को उठाया तो वह सिर झटकते हुए अपने आप ही बड़बड़ाने लगा।

अरे! आज तो बहुत देर हो गयी।

बताओ! सवेरे के 7.30 बजने वाले हैं और मैं बिस्तर से अब उठ रहा हूं। डाक्टर से मैंने 8 बजे मिलने के लिए कहा था। उफ! मैं भी कितना लापरवाह हो गया हूं। इतनी लापरवाही अच्छी नहीं होती।

यही सब बड़बड़ाते हुए उसने अपने सबेरे के सारे काम जल्दी-जल्दी निपटाय और फिर कपड़े पहनकर तैयार हो गया। मेज पर रखे अपने बैग और मोबाइल को लेकर खट-खट, खट-खट जीने से होते हुए नीचे खड़ी कार के पास आ गया। उसे देखकर भोला हाथ पोंछते हुए उसे पास आकर बोला।

साहब! आज अभी? इतनी जल्दी।

हां- हां। मैं जरूरी काम से जल्दी जा रहा हूं। और अब मेम साहब आयें तो बोल देना कि मैं उधर से ही संस्था के कार्यालय को चला जाऊंगा।

अरे बाबू! मेम साहब आयें तो सही। यह बात तो आप रोज़ सबेरे कहते हैं। लेकिन मेमसाहब हैं जो कि आने का नाम ही नहीं लेतीं। वो भी कोई दिन होगा, जब मेम साहब आयेंगी और मैं लड्डू बांटूंगा।

ऐसा कहकर एक आशा भरी नज़रों से सिद्धेश की ओर देखते हुए भोला चुप हो गया और सिद्धेश भी उसको बिना कोई उत्तर दिये कार स्टार्ट कर चला गया।

भोला बस कार को जाते हुए देखता रह गया। उसकी ये बातें कार की आवाज़ में विलीन हो गयीं और वह फिर पेड़-पौधों को पानी देने में लग गया। लेकिन वह अन्दर ही अन्दर बार-बार सोचता जा रहा था कि आखिर साहब और मेरी बात का कोई जवाब क्यों नहीं देते। हो न हो मेम साहब और सिद्धेश बाबू के बीच में कोई न कोई बात तो जरूर हुई है। तभी तो...।

***