इंद्रधनुष सतरंगा - 25 - Last Part Mohd Arshad Khan द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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इंद्रधनुष सतरंगा - 25 - Last Part

इंद्रधनुष सतरंगा

(25)

पंद्रह अगस्त की तैयारियाँ

दो दिन बाद पंद्रह अगस्त था।

आतिश जी पार्क में अकेले खड़े थे। बीती हुई यादें मन में उमड़-घुमड़ रही थीं। पहले पंद्रह अगस्त की तैयारियों में सभी लोग जुटते थे। पार्क की पूरी सपफ़ाई होती थी। बाउंड्री-वॉल तो थी नहीं, किनारों पर तिरछे-तिरछे ईंट गड़े हुए थे। उन्हें रंगा जाता था। किनारे-किनारे पड़ी पत्थर की बेंचों को पेंट किया जाता था। पूरे मैदान की सपफ़ाई होती थी। बारिश में उग आई बड़ी-बड़ी घास सापफ़ करके ज़मीन समतल की जाती थी। झंडा लगाने के लिए पार्क के बीचो-बीच एक ऊँचा चबूतरा-सा बना था। उसकी सफाई कर उसके आस-पास चूना डाला जाता था।

लेकिन इस बार पार्क सूना था। परसों पंद्रह अगस्त था और आातिश जी पार्क में अकेले खड़े थे। पहले आतिश जी को छोड़कर बाक़ी सब लोग तैयारियों में जुटे रहते थे। अख़बार का विशेषाँक निकालने के चक्कर में उन्हें बिल्कुल भी फुरसत नहीं मिलती थी। ऐन वक़्त पर भागते-दौड़ते बड़ी मुश्किल से आते और झंडा फहराते ही उनका स्कूटर फिर स्टार्ट हो जाता। पर आज सिर्फ वह मौजूद थे और बाक़ी लोग ग़ायब थे।

सारी तैयारियों के सूत्रधार घोष बाबू हुआ करते थे। हर काम में उनकी राय ही सबसे ऊपर रहती थी--झंडा कौन फहराएगा? राष्ट्रगान कौन पढ़ेगा? लड्डू कौन बाँटेगा? सारे पफ़ैसले उन्हीं की मजऱ्ी से होते थे। पफ़ैसले भी ऐसे, कि हर कोई संतुष्ट।

झंडा फहराने का काम पंडित जी के जि़म्मे रहता था। मुहल्ले में सबसे बुज़ुर्ग वही थे। माथे पर अक्षत-रोली का टीका लगाए, सफेद धोती-कुर्ते में उनका रूप बड़ा दिव्य लगता। झंडा फहराने के बाद उनका व्याख्यान होता। लोग बड़े ध्यान से सुनते। हर बार वह कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर बताते जो लोगों पर गहरा असर करता। पिछली बार उन्होंने कहा था, ‘‘यदि हर व्यक्ति मात्र अपने द्वार की सफाई कर ले तो सारे देश की सफाई हो सकती है। अच्छाई या बुराई की शुरुआत सदैव व्यक्ति-स्तर से होती है।’’ इस बात पर ख़ूब तालियाँ बजी थीं।

राष्टªगान पढ़ने की जिम्मेदारी मौलाना साहब, कर्तार जी और पुंतुलु की होती थी। इनमें सबसे सुरीले मौलाना साहब थे। लेकिन उनकी भारी आवाज़ सबसे अलग थी। कर्तार जी सुरीले तो नहीं थे पर गाते भरपूर आवाज़ में थे। उनकी आवाज़ पूरे मुहल्ले में गूँजती थी। लोगों में जोश भर देने में वह माहिर थे। पुंतुलु की आवाज़ बहुत महीन थी। गाते भी वह कुछ अलग ढंग से थे। वह सबके साथ राष्ट्रगान पढ़ने के लिए खड़े तो हो जाते थे, पर मन ही मन हिचकते रहते थे।

यों तो सबकी आवाज़ अलग थी, गाने का ढंग अलग था, पर जब साथ मिलकर गाते तो उनकी आवाज़ एक लय में ढल जाती। स्वर इतना सुरीला हो जाता कि सुनने वालों के हृदय तृप्त हो जाते। उनके साथ-साथ बाक़ी लोग भी गा उठते और जब सबके स्वर मिलते तो आकाश गूँज उठता।

यही सब सोचते-सोचते आतिश जी का मन अचानक दृढ़ निश्चय से भर उठा। वह जैसे ख़ुद से बुदबुदाते हुए बोले, ‘‘स्वतंत्रता दिवस मनेगा और ज़रूर मनेगा। कोई साथ आए न आए। मैं अकेले ही सारी तैयारियाँ करूँगा।’’

आतिश जी पार्क की ओर बढ़ चले। उनकी आँखें दृढ़ निश्चय से दीप्त हो रही थीं। पाजामे को घुटनों तक समेटकर और कुर्ते की बाँहें उलटकर वह साफ-सफाई में जुट गए।

बारिश के कारण पार्क की घास बढ़ आई थी। उसे अकेले साफ कर पाना संभव न था। आतिश जी ने सिर्फ झंडा फहराने के सिर्फ आस-पास की जमीन सापफ़ कर लेने का विचार किया। यह सोचकर वह खुरपी लेकर जुटे ही थे कि उधर से मौलाना साहब निकल पड़े। आतिश जी को जुटा देख मौलाना साहब बेचैन हो गए। पिछले दिनों की सारी यादें मन में ताज़ा हो आईं। हुलसकर आतिश जी के पास जा पहुँचे। लेकिन आतिश जी काम में जुटे रहे। उन्होंने जान-बूझकर मौलाना साहब की तरफ ध्यान नहीं दिया। मौलाना साहब थोड़ी देर तक इंतज़ार में खड़े रहे फिर ख़ुद ही बोले, ‘‘यह काम अकेले आप से हो जाएगा?’’

‘‘किसी को क्या पफ़कऱ् पड़ता है?’’ आतिश जी ने खुरपी चलाते हुए रूखे ढंग से जवाब दिया।

मौलाना साहब चुप हो गए। थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच सन्नाटा छाया रहा। आतिश जी ने महसूस किया कि मौलाना साहब के चेहरे पर लज्जा का भाव है। पर वह अनजान बने चुपचाप घास छीलते रहे।

थोड़ी देर बाद मौलाना साहब फिर बोले, ‘‘मियाँ, तुम्हें तो घास छीलने का तरीक़ा भी नहीं आता।’’

‘‘लेकिन आपको परेशानी क्यों हो रही है?’’ आतिश जी ने उपेक्षापूर्वक कहा।

‘‘--इसलिए कि ग़लत काम मुझसे बर्दाश्त नहीं होता।’’ यह कहकर मौलाना साहब ने आतिश जी के हाथों से खुरपी छीन ली और कपड़े समेटकर खुद जुट गए।

‘‘लेकिन आदमी ग़लती करेगा तभी तो सीखेगा,’’ तभी पीछे से घोष बाबू आते हुए बोले, ‘‘मैं दो खुरपियाँ ले आया हूँ। एक अपनी और एक पत्रकार महाशय की। हम दोनों मिलकर सीखेंगे।’’

मौलाना साहब कुछ न बोले बस काम में जुटे रहे। घोष बाबू भी काम में जुट गए। मौलाना साहब घोष बाबू से बात तो करना चाह रहे थे पर हिम्मत नहीं पड़ रही थी। बात होठों तक आते-आते रुक जाती। आखि़रकार काफी समय बाद हिम्मत करके बोले, ‘‘घोष बाबू मेरे ख़्याल से आप उस कोने से सपफ़ाई शुरू करिए। हम और आतिश जी इधर से जुटते हैं।’’

बात पूरी करते-करते मौलाना साहब के माथे पर पसीना छलछला आया। कितने लंबे समय बाद बात की थी उन्होंने घोष बाबू से। मन तो बहुत बार किया था, पर हर बार यह सोचकर चुप लगा गए कि उधर से जवाब न मिला तो? घोष बाबू की सोच भी उनसे अलग न थी।

मौलाना साहब की आवाज़ सुनकर घोष बाबू पुलक उठे। अबोलेपन की दीवार रेत की तरह भरभरा गई। घोष बाबू चहककर बोले, ‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं। आप कहें और हम इंकार कर दें?’’

दिलों पर छाए उदासी के बादल फट गए। खुशियों का सुनहरा सूरज जगमगा उठा। मौलाना साहब उत्साहित होकर तेज़-तेज़ हाथ चलाने लगे। उनके हाथों में जाने कहाँ की ऊर्जा आ गई थी। लगता था सारे मैदान की घास अकेले साफ कर डालेंगे।

तभी कर्तार सिंह आते दिखे। उन्होंने वहीं से पुकार कर कहा, ‘‘भाइयो, मेरी मानो तो मुफ्ऱत सलाह दूँ।’’

‘‘हाँ-हाँ, बिल्कुल !’’ घोष बाबू और मौलाना साहब सारा काम छोड़कर खड़े हो गए। कर्तार जी की बात इतने ध्यान से उन्होंने शायद ही कभी सुनी हो।

कर्तार जी पास आकर बोले, ‘‘एक बात बताओ जी, क्या तुम तीनों मिलकर सारे पार्क की घास साफ कर पाओगे?’’

‘‘तीनों क्यों? आप भी तो हैं। सवा लाख के बराबर अकेले।’’ मौलाना साहब बोले।

तब तक आतिश जी आगे बढ़ आए और जोश के साथ बोले, ‘‘हम काम में विश्वास रखते हैं। परिणाम की परवाह नहीं करते।’’

‘‘वह सब तो ठीक है, भाई, पर मुझे नहीं लगता कि इस तरह कल तक हमारी तैयारी पूरी हो पाएगी।’’

‘‘हाँ, सो तो है।’’ घोष बाबू विचारकों की-सी मुद्रा में बोले।

‘‘इसीलिए तो मुफ्ऱत सलाह देने चला आया। देखो जी, हम सारी घास सापफ़ नहीं करेंगे। जो बच रहेगी उसे कोई सुंदर आकृति प्रदान कर देंगे। जैसा कि हम अक्सर पार्क वगैरह में देखते हैं।’’

‘‘अरे वाह-वाह ! क्या सवा लाख की बात कही है। बस, अब आगे का काम मुझ पर छोड़ दीजिए। देखते जाइए क्या कमाल दिखाता हूँ।’’ आतिश जी चहककर बोले।

थोड़ी देर बाद गायकवाड़ और पटेल बाबू भी आ गए। वे भी काम में हाथ बटाने लगे।

तभी स्कूटर से गुप्ता जी आते दिखाई दिए। उनके पीछे फाइल सँभाले गुल मोहम्मद थे। स्कूटर खड़ा करके दोनों भागे आए।

‘‘कहाँ से आ रहे हैं, जनाब?’’ मौलाना साहब ने पूछा।

‘‘कचहरी गया था। यह तो कहो कि गुप्ता जी साथ थे वर्ना आज तो शाम हो जाती।’’ गुल मोहम्मद हाँफते हुए बोले।

‘‘कचहरी----?’’ लोग चकित होकर बोले।

‘‘हाँ, पटेल बाबू पर किया हुआ मुकदमा वापस लेने गया था।’’ कहते-कहते गुल मोहम्मद खिसिया गए।

‘‘चलो देर आए दुरुस्त आए।’’ आतिश जी बोले।

‘‘पटेल बाबू, आपका गुनहगार हूँ। हो सके तो----’’ कहते-कहते गुल मोहम्मद का गला रुँध गया।

‘‘मेरी भी ग़लती कम नहीं थी।’’ कहते हुए पटेल बाबू ने उन्हें गले लगा लिया।

तभी पुंतुलु भागते हुए आए और बोले, ‘‘यह ख़ूब रही। यहाँ सब लोग इकट्ठा हैं और मुझे अकेला छोड़ दिया।’’

‘‘अमाँ छूटे कहाँ? तुम तो पहले ही हमारे दिलों में हो।’’ कहते हुए मौलाना साहब ने उन्हें लिपटा लिया।

‘‘अरे भाई, चलो काम में जुटो वर्ना देर हो जाएगी।’’ कर्तार जी ने चिल्लाकर कहा।

सब फिर से काम में जुट गए। मन उत्साह से लबालब भरे हुए थे। घोष बाबू ने मौज में आकर गुनगुनाया--

‘‘निशि-दिन भरसा राखिस ओरे मन, हबेइ हबे!

यदि पण करे थाकिस, से-पण तोमार रबेइ र"बे।

ओरे मन, हबेइ हबे! ’’

तभी पंडित जी लपकते हुए आए और गायकवाड़ से डिब्बा लेकर किनारे-किनारे चूना डालने लगे।

‘‘अरे---रे---रे पंडित जी, यह क्या कर रहे हैं?’’ मौलाना साहब उनकी ओर ऐसे भागे जैसे कोई भारी गड़बड़ी हो गई हो। उनके हाथों से चूने का डिब्बा छीन लिया और बोले, ‘‘यह काम आप नहीं कर सकते।’’

‘‘क---क्यों?’’ पंडित जी सकपका गए।

‘‘इसलिए कि आप हमारे आदरणीय हैं। हम आप से भला काम लेंगे? आप आदेश दीजिए। उसका अनुपालन करने के लिए तो हम लोग हैं ही।’’ मौलाना साहब बोले।

‘‘अरे, नहीं-नहीं, मैं भी आप सब जैसा हूँ। सबके साथ कार्य करने का जो सौभाग्य मिल रहा है उसे न छीनिए।’’ कहते हुए पंडित जी ने चूने का डिब्बा वापस ले लिया।

मौलाना साहब को शुद्ध हिंदी बोलते देख सभी चौंक पड़े। घोष बाबू हैरानी से बोले, ‘‘--अरे मौलाना साहब! आपको तो हिंदी भी अच्छी आती है!’’

मौलाना साहब तनकर बोले, ‘‘ग़लतफहमी में मत रहना, मियाँ। डबल एम0ए0 हूँ--हिंदी और उर्दू दोनों से।’’

‘‘अरे वाह, रहमत भाई, आपने कभी बताया नहीं?’’ पंडित जी ने आश्चर्य से कहा।

‘‘पंडित जी, कुछ बातें सिर्फ हृदय में सहेजकर रखी जाती हैं।’’ मौलाना साहब ने कहा और मुस्करा दिए।

सब लोग भूख-प्यास भूले दिन भर काम में जुटे रहे। आखि़रकार उनकी मेहनत रंग लाई। वह पार्क जो अब तक बड़ी-बड़ी घासों का जंगल बना हुआ था, फिर से चमक उठा। आतिश जी ने घास की कटाई इस तरह की थी कि वहाँ ‘हम एक हैं’ लिख गया था।

.......

पंद्रह अगस्त की सुबह आसमान बादलों से घिरा हुआ था। हल्की-हल्की फुहारें कास के भुओं की तरह झर रही थीं। रात भर हुई झिर-झिर से सारा चूना बह गया था। बाउंड्री-वॉल की ईंटों पर पोता गया गेरू फैल जाने से आस-पास की ज़मीन पर धारियाँ बन गई थीं।

वैसे तो पंडित जी हमेशा झंडा फहराने के समय आते थे, पर आज वह सबसे पहले पहुँच गए थे। थोड़ी देर बाद आतिश जी मौलाना साहब के साथ आते दिखे। फिर कर्तार जी नए कपड़े पहने हुए नज़र आए। धीरे-धीरे बाक़ी लोग भी आ गए। सिवाय घोष बाबू के।

‘‘अपने बंगाली बाबू कहाँ रह गए, भई?’’ कर्तार जी ने पूछा।

‘‘हाँ, हैरत है, वह तो हमेशा सबसे आगे रहते हैं।’’ मौलाना साहब ने कहा।

‘‘कल की मेहनत से कहीं बीमार तो नहीं पड़ गए?’’ आतिश जी बोले।

तभी घोष बाबू रिक्शे पर लड्डुओं का टोकरा लदाए आते दिखे। सभी उत्साह में भरकर तालियाँ बजाने लगे।

‘‘अपने घोष बाबू तो हर बार बाज़ी मार ले जाते हैं। हम लोग तैयारियों में फँसकर मिठाई के बारे में भूल ही गए थे।’’ मौलाना साहब हँसकर बोले।

‘‘अच्छा, चलो अब देरी मत करो। समय हो गया है। फटाफट कायर्क्रम शुरू करते हैं।’’ घोष बाबू ने आते ही कहा।

पंडित जी झंडा फहराने के लिए सामने आकर खड़े हो गए। घोष बाबू ने उनके हाथों में डोरी पकड़ा दी।

डोरी खींचते ही झंडा फहर उठा। फूलों की पंखुडि़याँ खुलकर आसमान में बिखर गईं।

मौलाना साहब, कर्तार जी और पुंतुलु ने राष्ट्रगान पढ़ना आरंभ किया। बाक़ी लोग भी साथ-साथ गाने लगे। पुरवाई के झाेंकों में उनकी आवाज़ ख़ुशबू की तरह बिखर गई। आज उनकी आवाज़ में एक नया जोश था, एक नई ऊर्जा थी। स्वरों से जैसे सूरज की रोशनी फूट रही थी।

राष्ट्रगान समाप्त हुआ तो पंडित जी बोलने को तैयार हुए। उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘मेरे प्यारे भाइयो, राष्ट्र की स्वतंत्रता का यह दिन आप सबको बहुत-बहुत शुभ हो। ईश्वर करे ख़ुशियों का यह दिन सदैव बना रहे। हमारा राष्ट्र दिन दूनी और रात चौगुनी प्रगति करे, आगे बढ़े।’’

लोगों ने ख़ुश होकर तालियाँ बजाईं।

पंडित जी आगे बोले, ‘‘एकता संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। हमारा देश अलग-अलग जातियों, धर्मों और संस्कृतियों का देश है। एक ऐसा उपवन, जिसमें हर रंग के सुमन सुगंध बिखेर रहे हैं। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न रंगों के धागाें से मिलकर बना वस्त्र रंग-बिरंगा होकर खिल उठता है, जिस तरह इंद्रधनुष के सात रंग एक साथ मिलकर अनोखी छटा बिखेरते हैं उसी प्रकार हमारा देश भी विभिन्नताओं में एक होकर कलरव कर रहा है।’’

तालियाँ फिर बज उठीं।

पंडित जी अब तक पूरे जोश में आ चुके थे। कहने लगे, ‘‘विभिन्नताओं को एक सूत्र में बाँधना थोड़ा कठिन अवश्य है, पर उतना भी नहीं जितना हम समझते हैं। बहुत छोटी-छोटी बातें होती हैं, जो हमें आपस में जोड़ती हैं। आपस का उठना-बैठना, बातचीत, हास-परिहास, आपद्-विपद् में साथ खड़े होना--यह सारी बातें लगती तो छोटी हैं, पर यही वे चीज़ें हैं जो एकता की अट्टालिका को गगनचुंबी बनाती हैं। लेकिन ध्यान रहे, यह ऐसी पहरेदारी है, जिसमें सदैव जागते रहना पड़ता है। इन्हीं छोटी-छोटी बातों में छिपकर स्वार्थ का चोर घुसपैठ करता है। हमें पता ही नहीं लगता कि कब और किसके सहारे यह चोर हमारी एकता में सेंध लगाकर ख़ुशियों का ख़ज़ाना लूट ले गया। असावधानी के इन्हीं क्षणों में कुछ लोग हमारी सहानुभूति, हमारे प्रेम और हमारी निश्छलता का लाभ उठाकर हमें पथभ्रष्ट करते हैं। पहले हमारे शत्रु सात समंदर पार से आए थे। अपनी बोली-बानी, धर्म और वर्ण से पहचाने जाते थे। पर आज शत्रु अपने ही बीच के हैं। बहुत बार वे दिखते भी नहीं। उनकी पहचान करना अधिक कठिन है। इसलिए आज हमें अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है।

‘‘मेरे भाइयो, आइए, आज हम शपथ लें कि अब हम सोएँगे नहीं। जागते रहेंगे--अपनी ख़ुशियों को बचाए रखने के लिए, अपने सपनों को जीवित रखने के लिए, अपने उपवन को सदा-सदा महकाए रखने के लिए। हिंदुस्तान जिं़दाबाद, हमारी एकता जिं़दाबाद, हिलमिल मुहल्ला जि़ंदाबाद।’’

पंडित जी ने भाषण ख़त्म किया तो तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूँज उठा। मौलाना साहब ने लपककर पंडित जी को गले से लगा लिया। सब मिलकर ‘हिलमिल मुहल्ला जि़ंदाबाद’ के नारे लगाने लगे।

कार्यक्रम ख़त्म होने पर जब लड्डू बँटने की बात आई तो घोष बाबू हँसकर बोले, ‘‘अरे मौलाना साहब, अपने मेहमानों को तो बुला लो। कहाँ छिपा रखा है?’’

‘‘चले गए।’’ कर्तार जी ने मुँह बनाकर कहा।

‘‘चले गए---!’’ लोग चौंक उठे।

‘‘हाँ, हमें पता भी नहीं चला। सुबह देखा तो कमरा ख़ाली था। अपना सब सामान समेटकर ले गए।’’ पंडित जी ने बताया।

‘‘अल्लाह बचाए ऐसे मेहमानों से---’’ मौलाना साहब ने कान पकड़ लिए।

देर तक हँसी-हंगामा होता रहा। सब हँसते-खिलखिलाते रहे। तभी घोष बाबू कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘पत्रकार महाशय, एक बात समझ में नहीं आ रही है। कहाँ तो पहले आपके पास इतना समय नहीं होता था कि हम लोगों के साथ दो पल चैन से खड़े हो सकें और कहाँ अब पूरा का पूरा दिन मुहल्ले में घूमते नज़र आते हैं। आखि़र मामला क्या है?’’

‘‘मैंने नौकरी छोड़ दी,’’ आतिश जी बोले।

सब अवाक रह गए। कानों पर जैसे विश्वास ही न हुआ।

‘‘लेकिन क्यों?’’ मौलाना साहब ने बेचैन होकर पूछा।

आतिश जी हौले से मुस्कराए। मौलाना साहब की ओर घूमकर कहने लगे, ‘‘मौलाना साहब साहब, याद करिए, एक बार आपने ही कहा था कि मेरे अंदर जोश है, जज़्बा है। छोटे उद्देश्यों के चक्कर में पड़कर उसे नष्ट न करूँ। मैं वह बात भूला नहीं। आज मुझे स्वयं पर गर्व है कि मैंने अपनी ऊर्जा का सही उपयोग किया है। नौकरी छूटने का मुझे कोई दुख नहीं है।’’

मौलाना साहब ने लपककर आतिश जी को बाहों में भींच लिया और फफक पड़े। बाक़ी लोग की आँखें भी भीग गईं।

आज प्रकृति भी जैसे सबका मिलन देखकर भावुक हो उठी थी। फुहारों के रूप में उसका स्नेह झरझरा उठा। प्रेम की उस बारिश में सभी सिर से पैर तक सराबोर हो गए।

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----समाप्त----