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वैश्या वृतांत - 26

वैश्या वृतांत

यशवन्त कोठारी

करुणा : जीवन का अमृत

अहिंसा और करुणा भारतीय संस्कृति एवं वागंमय के प्रमुख आधार रहे हैं। बिना करुणा के भारतीय चिन्तन धारा का विकास संभव नहीं था। वास्तव में करुणा जीवन का अमृत है। साधना का प्रकाश है। जिस व्यक्ति के मन में करुणा नहीं है, वह नर हो ही नहीं सकता । जीव मात्र के प्रति करुणा मानव जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है । प्राचीन भारतीय ऋषियों, मुनियों, ज्ञानियों, तपस्वियों ने परम—पिता को करुणा—निधान कहा है । साहित्य, संस्कृति, कला सभी में करुणा—रस को प्रधानता दी गई है।

जैन साहित्य में तथा वैदिक साहित्य में क्षमा, करुणा को विशेष स्थान दिया गया है । अहिंसा, करुणा ओर क्षमा ये तीन गुण मिलकर किसी भी साधारण मानव को महामानव या ईश्वर के समकक्ष स्थापित करने वाले गुण हैं । जनकल्याण के लिए करुणा की सर्व प्रथम आवश्यकता है । करुणाहीन व्यक्ति, अफसर, नेता या समाज सुधारक जनकल्याण नहीं कर सकता है । करुणा को एक मानवीय गुण के रूप में विकसित किये जाने की आवश्यकता है । दुर्बल जन में करुणा का वास होता है, आवश्यकता दिखाई पड़ने पर भी करुणा नहीं उत्पन्न हो तो समझो कि हृदय पत्थर है और पत्थर के समान हृदय से प्रशासन तो हो सकता है, मन नहीं जीते जा सकते । देशों को जीता जा सकता है, मगर लोगों के दिलों पर राज नहीं किया जा सकता ।

संत अक्सर कहते हैं कि अहिंसा से संसार का सुधार संभव है । इससे आत्मा का शुद्धिकरण होता है । अहिंसा से करुणा का विस्तार होता है । कृपा करने से मन में फूल खिलते हैं । प्राणी मात्र की सेवा करने की भावना जागृत होती है । भारतीय संस्कृति तथा प्राचीन संस्कृत साहित्य में अहिंसा का पर्याप्त वर्णन है, अहिंसा का आधार करुणा है । करुणा और दया ही अहिंसा को जन्म देते हैं । दया, करुणा, कृपा, मदद आदि का स्वरूप समान हो सकता हैं मगर करुणा सर्वश्रेष्ठ है । भगवान महावीर कहते हैं—‘दया धम्मस्य जणणी'।

भगवान बुद्ध एक कदम आगे जाकर कहते हैं—

पर दुःखे सति साधुन ह्रदय, कर्मन करोतिति करुणा।

किवामी मा पर दुःख हिंसाति, बिना सेती इति करुणा ।।

गीता में भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं, परम योगी करुणा निधान वही है जो सभी जीवों को समान समझता है और परदुःख कातर होता है । वास्तव में करुणा समस्त जीवों के प्रति मित्रता का भाव सिखाने का गुरुतर भार वहन करती है । दया या क्षमा यह भार नहीं सहन कर सकती ।

पैगम्बर मुहम्मद करते हैं—‘जिसमेें रहम है, उसमें ईमान है और जिसमें रहम नहीं, उसमें ईमान नहीं है।' बाइबल में लिखा है— दुःखी के प्रति दया दिखाना मानवता का सर्वोच्च गुण है, किन्तु दुःखी के दुःख को मिटाना ईश्वरीय गुण है । वेदों में भी परोपकार को धर्म का अभिप्राय माना है । तुलसी कहते हैं—दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान ।

कबीर कहते हैं—

भावे जाओ द्वारिका, भावे जाओ गया ।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, सब में मारी दया ।।

अतः महावीर की वाणी पुनः सच्ची सिद्ध होती है कि दया या करुणा धर्म का मूल स्वरूप है । यह धर्म की माता है, मरना कौन चाहता है, सब जीना चाहते हैं । अतः समस्त प्राणियों के प्रति करुणा का विकास ही धर्म है । जीओ और जीने दो कि भावना के विकास का कारण करुणा ही है । दान, सेवा, आश्वासन, मदद, रहम, सांत्वना, संतोष आदि करुणा के ही रूप हैं ।

मनुष्य मात्र में करुणा का स्पन्दन आवश्यक है । हृदय की हर धड़कन में करुणा, क्षमा, अनुकम्पा, अहिंसा, दया, मैत्री आदि का समावेश होता है । आवश्यकता इस बात की है कि हृदय में उपजती करुणा, कृपा को होंठों तथा मस्तिष्क तक लाया जाए और आवश्यकता होने पर इसे व्यावहारिक बनाया जाए । भगवान महावीर में विराट करुणा का साकार दर्शन होता है । विराट स्वरूप केवल कृष्ण में ही नहीं, हर जीवित जीव में है, यदि करुणा को आधार मानकर सोचा जाए तो सम्पूर्ण विश्व में शांति, आदर, समरसता स्थापित हो सकती है । हमारे सामाजिक सरोकारों का प्रमुख आधार ही करुणा या दया होनी चाहिए ।

इसलिए कहा गया है —

आत्मवत्‌ सर्व भूतेषु यः पश्चयति स पंडितः।

तथा

ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडिय हो।।

भारतीय जीवन दर्शन के शिखर पर करुणा, प्रेम, दया, स्नेह, ममता विराजमान है। भूख से बिलखते छोटे शिशु को देखकर यदि महिला के आंचल से दूध झरने लग जाये तो सम्पूर्ण विश्व की करुणा प्रकट हो जाती है। महावीर का सम्पूर्ण जीवन इस तरह से संचालित होता है कि पग—पग पर करुणा बोध होता है। तपस्या से, मोह को बांधा जा सकता है। क्रोध और तृष्णा को जीता जा सकता है। बड़े—बड़े सन्तों में यश, एषणा बची रह जाती है, क्याेंकि करुणा के भाव पक्ष का विकास नहीं हो पाता है, यदि तृष्णा और क्रोध को जीत लिया जाये तो सम्पूर्ण विश्व करुणा का सागर बन सकता है, यश एषणा से मुक्ति मिल जाये तो फिर पाने को क्या बच जाता है। फिर न कोई मित्र रहता है और न कोई शत्रु। एक यौगिक भाव का विकास हो जाता है। सब में मैं और मेरे में सब। चाराें तरफ समता, समानता, आत्मतुल्यता की भावना का प्रादुर्भाव हो जाता है।

वास्तव में करुणा तो कलकल बहती नदी की शीतल धारा है जो मानवता के सर्वोेच्च शिखर से चलकर करुणा बीज को वृक्ष का आकार मिल जाने के बाद वट वृक्ष के नीचे सब कुछ समा सकता है। हृदय परिवर्तन बिना करुणा, दया, क्षमा, अहिंसा संभव नहीं है। धर्म परिवर्तन से कुछ नहीं होता दानवता तो हृदय परिवर्तन से नष्ट होती है और हृदय परिवर्तन के लिए सभी धर्मों में दया और करुणा को आधार माना गया है। विश्व शांति के मसीहा बनने के लिए अहिंसा और करुणा का परचम फहराना पड़ता है। वास्तव में एक संत ने ठीक ही कहा है :—

‘सत्संग की आधी घड़ी, सुमिरन बरस पचास।'

किसी भी प्राणी का परिग्रह मत करो। किसी भी प्राणी को परितप्त मत करो। किसी भी प्राणी के प्राणाें का वियोजन मत करो। आचार्य भिक्षु के अनुसार —

‘जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हिंसा मत जाण।

मारण वाले हिंसा कहीं, नहीं मारे ते दया गुण खान।।''

मानवीय चेतना के विकास का आधार और धरातल करुणा ही है। करुणा की धरती पर ही मानवता के वृक्ष फलते—फूलते हैं और आगे जाकर अहिंसा, मैत्री, क्षमा आदि के फल लगते हैं। यह शाश्वत सत्य है। करुणा की साधना से ही वसुधैव कुटुम्बकम्‌ की धारणा विकास पाती है। पूरा विश्व एक नीड़ है और हम सभी समान है। यही स्वर भारतीय मनीषा के चिन्तन का उद्‌घोष है।

दुःख के मूल कारणाें का निवारण करुणा का प्रमुख पाथेय है। ध्येय यह है कि समाज, देश, राष्ट्र, दुःखी जीव सबको शांति मिले। भगवान कृष्ण ने गीता में अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा देते समय स्पष्ट कहा मोह में मत पड़, युद्ध कर। क्याेंकि युद्ध ही तेरा ध्येय है, करुणा में राग—द्वेष या मोह की उपस्थिति विचारणीय है। यदि मानव में राग—द्वेष की मात्रा नहीं है या अत्यंत अल्प है तो करुणा शुद्ध होगी और शुद्ध करुणा सभी के लिए संरक्षण का काम करेगी। करुणा का मूल ध्येय तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः' ही है। वास्तव में सब एक—दूसरे के पूरक हैं, सभी को सभी की मदद की आवश्यकता पड़ती है, इसी कारण फिर कहा गया है —

‘परस्परोपग्रह : जीवानाम्‌।'

आखिर करुणा का जन्म कहां से होता है ? वास्तव में करुणा का जन्म परदुःखकातरता से होता है। मानव मन में अनेक रस हैं, भाव हैं, भावनाएं हैं और इन्हीं में से करुणा है। ‘बिन करुणा सब सून।' मार्मिक घटना, दारुण प्रसंग, के कारण करुणा उत्पन्न होती है और सबसे महत्वपूर्ण स्थिति है कि करुणा हमेशा शोषित, उपेक्षित, दुःखी, दीन, गरीब, असहाय, प्रताड़ित, कमजोर, अक्षम के प्रति उपजती है। क्याें ? क्याेंकि यही तबका है जिसे सब कुछ की जरूरत है। जबकि जो ताकतवर है, सबल है, या जो शोषक है, उसके प्रति घृणा उपजती है। करुणा द्रवित होती है और द्रवण भाव के विकास से करुणा उपजती है। करुणा के जन्म के हेतु अलग—अलग हो सकते हैं। लेकिन मुख्य भाव दया, मदद, रहम का ही रहता है। करुणा मनुष्य के अलावा जीव—जन्तुआें, यहां तक कि पेड़—पौधाें के प्रति जागृत होती है। हरे वृक्ष को कटते देख कर दुःखी मन कातर हो उठता है और करुणा की उत्पत्ति हो जाती है। करुणा करने वाला त्याग करता है। समय, धन, श्रम, आकांक्षा, आयोजन सभी का त्याग करने पर ही करुणा करना संभव है। जो करुणा करना चाहता है उसे सब कुछ सहज नहीं मिल पाता है। उसे सप्रयास सब कुछ पाकर उसे दूसराें के लिए छोड़ना पड़ता है। वाल्मीकि ऋषि मेंे शिकारी द्वारा क्राेंच पक्षी के वध को देख कर ऐसी करुणा उपजी कि रामायण जैसे अमर महाकाव्य की रचना हुई। पार्वती के व्रत अनुष्ठान से शिवजी सन्यासी से गृहस्थ बन गये। स़िद्धार्थ बुद्ध बन गये। त्रिशलान्दन महावीर हो गये। मोहनदास करमचन्द महात्मा गांधी बन गये। आखिर करुणा की यह कैसी स्थिति आती है। वास्तव में भगवान राम भी तो करुणा के सागर थे। वे रावण के अनुज विभीषण के प्रति भी करुणा से ओत—प्रोत थे। रावण के गुप्तचराें को भी राम ने हंसकर छुड़वा दिया। इन्द्र के पु़त्र जयन्त को भगवान राम ने माफ कर दिया क्याेंकि शरणागत की रक्षा में करुणा भाव का जागृत होना आवश्यक है। सीता को खोजते—खोजते राम ने जब मरणासन्न जटायु को देखा तो करुणासागर द्रवित होकर बोल पड़े :

कर सरोज सिर पर सेऊ कृपा सिन्धु रघुवीर।

निरखि राम छवि धाम मुख विगत भई सब पीर।।

वास्तव में करुणा का सहारा समस्त प्राणियाें की समस्त पीड़ाआें को हर लेता है। करुणा का परिणाम हमेशा कल्याणकारी ही होता है। युद्ध के अन्त में भगवान राम ने सभी राक्षसाें को परमधाम भेज दिया ताकि वे जन्म—मरण के बन्धन से मुक्त हो जायें। करुणामय व्यक्ति मित्र और शत्रु में भेद किये बिना सब पर करुणा की कृपा करता है। व्यक्ति की संवेदनशीलता, दूसराें के दुःख को अपना समझने की प्रवृत्ति ही उसे करुणा के निकट ले जाती है जो एक मरते हुए पक्षी तक के प्राणाें को बचाने में स्वयं को समर्पित कर देता है। निःस्वार्थ समर्पण करुणा की पहली शर्त है। जो निःस्वार्थ भाव से जीव मात्र की सेवा कर सकता है वही महावीर बुद्ध, ईसा या पैगम्बर मोहम्मद बन सकता है। किसी शायर ने क्या खूब कहा है —

हद तपे तो ओलिया, बेहद तपे तो पीर।

हद बेहद दोनाें तपे उसका नाम फकीर।।

अतः फकीर ही दया का सागर हो सकता है, राजा नहीं। आज सर्वत्र भौतिकता की अन्धी दौड़ है और मनुष्य को स्वयं की भौतिक समृद्धि के अलावा कुछ नहीं दिखता है। सुई से हवाई जहाज खरीदने की दौड़ में व्यस्त है आज का मनुष्य, गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग मंें मानव जीवन को एक नये क्षितिज के लिए करुणा को स्वीकार करना चाहिए। मानव मात्र के कल्याण के लिए करुणा अवश्याम्भावी है। तभी तो राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की वाणी सच होगी :

यही पशु—प्रवृत्ति है कि आप—आप ही चरे,

वही मनुष्य है जो कि मनुष्य के लिए मरे।,

मानव जीवन में सत्य, प्रेम, करुणा, अहिंसा ही मूल आवश्यकताएं हैं। मानव सत्यनिष्ठा हो यही जरूरी है। अहिंसा परमोधर्म हैः। रामकृष्ण परमहंस की करुणा के क्या कहने और सुदामा की दीन दशा देखकर कृष्ण की स्थिति ? सब कुद करुणा से सराबोर।

देखि सुदामा की दीनदशा करुणा करिके करुणा निधि रोये।

पानी परात को हाथ छुयो नहीं नैनन के जलसाें पग धोये।।'

और नरसिंह मेहता का यह अमर गान —

वैष्णव जण तो तेणे कहिये जो पीड़ पराई जाणे रे।

दुःख उपकार करे तो ये, मन अभिमान न आणे रे।।

महात्मा गांधीकेवल करुणा से बंधे थे और एक वस्त्रहीन महिला को स्नान करते देख ऐसी करुणा उपजी की जिन्दगी भर वस्त्र धारण नहीं किया। गांधीजी ने किसानाें की पीड़ा को अपना दुःख समझा और एक ऐसी लड़ाई का शंखनाद किया जिसमें करुणा और अहिंसा के सहारे पूरे राष्ट्र को स्वतंत्रता के आलोक से भर दिया। सत्य का आग्रह ही गांधी का हथियार था। बिना करुणा के सत्य नहीं और बिना सत्य के आग्रह के स्वतंत्रता नहीं। साधुत्व, श्रावकत्व, ज्ञान, मोक्ष, सब का आधार करुणा है। मानव मूल्याें का हृास का मूल कारण ही करुणाविहीन जीवन है। आवश्यकता है करुणा के इस महासागर में डूब कर जीवन को करुणामय और सफल बनाने की। अपने पराये के भेद भाव को मिटाकर भौतिकता से ऊपर उठकर सोचने की। तब न कहीं यु़़द्ध होगा न होगा तनाव। सब बराबर होंगे और विश्वबन्धुत्व का नारा सफल होगा।

करुणा का सागर है — नारी। मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं —

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।

आचंल में है दूध और आंखाें में पानी।।

नारी की करुणा पुरुष की करुणा से बड़ी है, ज्यादा महत्वपूर्ण है क्याेंकि सृजन का कार्य केवल माता कर सकती है, वह प्रणम्य है ।

करुणा पाश्चात्य जीवन में भी अपना असर दिखा रही है। वहां भी करुणा के महत्व को स्वीकार किया जा रहा है।

विश्व युद्धाें से आक्रांत और तीसरे विश्व युद्ध की संभावना से डरे—डरे पश्चिमी मानव बार—बार पूर्व की ओर आशा भरी निगाहाें से देख रहे हैं। सम्राट अशोक का हृदय परिवर्तन भी कलिंग युद्ध के बाद हो गया था, आज सम्पूर्ण विश्व युद्ध से आक्रांत है और हृदय परिवर्तन की ओर अग्रसर है और परिवर्तन से मिलेगी करुणा, जीव मात्र के प्रति दया। तुलसी कहते हैं —

‘तू दयालु दीन हों, तू दानि हो भिखारी'

मलूकदास कहते हैं :—

तेरो हो आसरो एक मलूक नहीं कोऊ जानत और जसी है।

ऐ हो मुरारी पुकारी कहां या मैं मेरी हंसी नहिं तेरी हंसी है।।

और अन्त में एक अत्यन्त करुणामय दोहा —

कागा सब तन खाईयो चुन—चुन खाईयो मांस।

दुई अंखियां मत खाईयो पिया मिलन की आस।।

तो आईये सम्पूर्ण विश्व में करुणा का विस्तार हो इस आशा के साथ समापन करते हैं।

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