नादान मोहब्बत - तितलियों के बीच Lakshmi Narayan Panna द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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नादान मोहब्बत - तितलियों के बीच

तितलियों के बीच
लखनऊ शहर के बीच में बसे गाँव जुगौली का दूर दूर तक फैला हुआ मैदान मुझे अब भी याद आता है ।
मैं और मेरे पड़ोस के सभी लड़के और लड़कियां स्कूल से लौटने के बाद अक्सर ही बाहर मैदान में खेलने निकल जाया करते थे । जिस मैदान में हम खेलते थे वह कोई छोटामोटा पार्क या उपवन नही था । कुछ समय पहले तक वहाँ खेत हुआ करते थे , बलुई जमीन थी जिसमें गेंहू , सरसों, मक्का , आलू , गाजर , मूली, शलगम आदि विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती थीं । इंडियन आर्मी और लखनऊ विकास प्राधिकरण के एकाधिकार के दावों के कारण कोर्ट ने उस जमीन पर किसी भी प्रकार की निर्माण, और खेती पर रोक लगा रखी थी । जिसका पूरा फ़ायदा मेरे जैसे ग्रामीण बच्चों को मिला, वरना ग्रामीण इलाकों में पार्क कौन बनवाता है । कई वर्षों से खेती न होने और जमीन की उर्वरता के कारण स्वतः ही कुछ खरपतवार के पौधे उगकर हमारे लिए पुष्पवाटिका तैयार कर चुके थे । इसलिए वहाँ खेलते खेलते दिन कब गुजर जाता पता भी नही चलता था । हमारे खेल में नन्ही नन्ही रंग विरंगी तितलियाँ भी शरीक होतीं थीं । जिनके सुंदर चमकीले और रंग विरंगे पंख हमे बेईमान कर देते । हम सब छोटे छोटे झाड़ीदार पौधे उखाड़कर तितलियाँ पकड़ने का यंत्र बनाते और तरह तरह की तितलियों को पकड़ कर उनकी स्वतंत्रता का हनन करते । बाल स्वभाव में हम बड़े ही स्वार्थी हो गए थे । मेरी दीदी अक्सर समझाती की जितना प्यार तुम्हे इन तितलियों से है , अगर उतना ही प्यार अपनी पढ़ाई से कर लो , तो नही ठीक रहेगा क्या ? मैं चुपचाप सुनता और भुला देता ।
1.
हम रोज तितलियों के पीछे आकर्षित होकर दौड़ते । तितलियाँ भी रोज फूलों की सुंदरता से आकर्षित होकर आतीं और हमसे जीवन संघर्ष में काफ़ी वक़्त गुजार देतीं । हमारे और तितलियों के इस आकर्षण में तितलियों को अक्सर ही अपनी जान गंवानी पड़ती । क्या यह तितलियों का फूलों से प्यार था या जरूरत ? मुझे लगता है कि अक्सर ही जरूरतें प्यार बन जाती हैं । उनकी मौत का दुःख हमें भी होता था पर शायद उन्हें पकड़ने की जिद्द पर हम काबू नही कर पाते थे । हमारा उनके प्रति आकर्षण उनकी जान का दुश्मन हो जाता था । इस तरह हमारी नादान मोहब्बत में न जाने कितनी तितलियाँ अपनी जान से हाथ धो बैठती थीं । हमारी पूरी कोशिश रहती थी कि तितलियों को पकड़ते वक़्त उन्हें चोट न लगने पाए , परन्तु हमसे बचने की कोशिश में उन्हें चोटिल होना पड़ता ।
मुझे आज भी वह दिन याद आता है जब मैं तितलियाँ पकड़ रहा था । एक खूबसूरत तितली आकर एक फूल पर जैसे ही बैठी , उसकी खूबसूरती को देखकर मैं आकर्षित हो गया । मैंने उसे पकड़ने का लक्ष्य बना लिया । जैसे ही मैंने अपना जुगाड़ी तितली पकड़ यन्त्र उसकी तरफ बढ़ाया वह उड़ गई । मैं उसके बैठने और उसे पुनः पकड़ने के लिए उसका पीछा करने लगा । तितली बहुत ही तेज थी वह किसी भी पुष्प पर एक दो सेकेंड से अधिक रुकती ही नही थी । शायद उसे आभास हो गया था कि मैं उसे पकड़ लूँगा । सूरज ढल रहा था अब तितलियों की संख्या भी कम होने लगी थी । क्योंकि धीरे-धीरे तितलियों ने अपने बसेरे की ओर उड़ान भर ली थी । मैं जल्दी से उस तितली को पकड़कर अपने हाथों में लेना चाहता था । इसलिए उसे पकड़ने के लिए झाड़ी वाले जुगाड़ी यन्त्र से मैंने एक तीब्र प्रहार किया तितली गिरी और फिर उड़ने का प्रयास करने लगी । मैं जैसे ही उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ा एक मीठी सी आवाज मेरे कानों में सुनाई पड़ी ।
"मार दिया न बेचारी को , क्या मिला तुम्हे ऐसा करके"
आवाज मधुर थी परन्तु लहजे में तीखापन भरा हुआ था । वह लहजा मेरे ग़ुरूर को नापसन्द आया । फिर भी मैं चुप रहा , पहले उस तितली को उठाया । उसे अपने हाथों से छूने का अरमान पूरा किया , परन्तु उसे छूकर मुझे संतुष्टि मिलने के बजाय मन दुखी हो गया । उस तितली का एक पंख टूट चुका था , मुझे पता था अब वह कभी उड़ान नही भर पाएगी । मेरी जिद ने आज एक खूबसूरत रचना को नष्ट कर दिया था । उसे उड़ान भरते देख , उसके जिन खूबसूरत पंखों पर मैं फिदा था , उनका रंग छूटकर मेरी हथेली पर चिपक जा रहा था । मेरी हथेली पर लगा उसके पंखों का वह रंग मुझ पर हँस रहा था । वह रंग चीख चीखकर कह रहा था कि--
" देख मेरी खूबसूरती तेरे हाथों में नही है । मेरी खूबसूरती उस पंख पर पड़ने वाली सूरज की किरणों से थी । "
मैंने अफसोस जाहिर किया और कहा -नही! मैं इसे मारना नही चाहता था । मैं समझ गया था कि मैंने अपनी ही पसन्द को आज नष्ट कर दिया । कुछ देर पहले जो मैं स्वयं पर, उस उड़ती हुई तितली को पकड़कर गर्व महसूस कर रहा था , अब बेबस और लाचार महसूस कर रहा था । तभी वही मधुर आवाज मेरे कानों में फिर गूँज उठी, क्या यह पंख जोड़ सकते हो ?
मैं खामोश था , मेरे पास उसके प्रश्न का जबाब नही था । मैं क़ुदरत के आगे बेबस था , मेरे पास इतना हुनर या ताकत नही थी कि मैं उस तितली का पंख जोड़ सकता । शर्मसार आंखों से उस लड़की की तरफ देखा तो वह बोली -
"घूर क्या रहे हो ? एक बात बताओ तितलियों को मारकर तुम्हे, क्या मजा आता है ? "
मैं चाहकर भी जबाब नही दे पाया । सूरज ढल चुका था सारे बच्चे अपने अपने घर जाने लगे थे । मैं भी अपने मन में मातम लिए घर की ओर चल पड़ा । वह लड़की भी घर चली गई ।
उस रात मैं कब सोया , कब जगा , मुझे नही पता , क्योंकि पूरी रात वह तितली और उस लड़की से सवाल मेरे ज़हन में घूमते रहे । कभी देखता की तितली का पंख ठीक हो गया है, और वह फिर से उड़ रही है , जिसे देखकर वह लड़की बहुत खुश हुई । मेरे मन का बोझ हल्का हो जाता , लेकिन अगले पल ही नींद टूटी जाती और मैं फिर ग़मज़दा हो जाता ।
शायद यह भी प्यार था । तितली के प्रति वह आकर्षण उसके न रहने पर प्यार बन गया ।
क्यों ?
जब आँखें उसकी मौत पर नही रोईं, और मन का दुःख अपने चरम पर पहुँच गया , तब मस्तिष्क की भाव ग्रन्थियाँ रो पड़ीं । उनसे निकलने वाले रसायनों ने ही ऐसा किया होगा । परन्तु एक बात मुझे समझ में नही आ रही थी कि उस लड़की का चेहरा बार-बार मुझे परेशान क्यों कर रहा था ? उससे तो मेरा कुछ भी लेना देना न था । उसकी बात मुझे सही क्यों लगने लगी ? उसने तो मुझसे बड़े तीखे अंदाज में बात किया था । मैं चौथी क्लास में पढ़ने वाला बच्चा , मुझे उस वक़्त पता भी नही था कि प्यार या मोहब्बत क्या है ? पूरी रात उलझन में गुजर गई । अगली सुबह फिर कुछ नई उम्मीदें लेकर आई , लेकिन मैं अभी भी बीते हुए कल से निकल नही पाया था । उसकी यादों में खोया हुआ दिनचर्या पूरी करता रहा । कुल्ला दातून की नहाया धोया , स्कूल गया आदि । पुनः सांझ हुई सब बच्चे रोज की भाँति मैदान में खेलने और तितली पकड़ने चले गए लेकिन मैं आज खेलने नही गया ।
एक दिन बाद जब दुःख कुछ कम हुआ तो मैदान में खेलने गया । उस दिन मैंने एक भी तितली नही पकड़ी , मैंने सोंच लिया था कि अब तितलियों से उनकी आजादी नही छीनूँगा । मैं सीख चुका था वह सबक , जो उस तितली ने मरते-मरते मुझे पढ़ाया था । अब मुझे ज्ञान हो चुका था कि असली सुंदरता स्वतंत्रता में है । पराधीनता में सुंदरता अपना वजूद खो देती है ।
वह लड़की आज भी खेलने आई थी । वह मेरी तरह दूर - दूर तक खेलने नही जाती थी । गाँव से लगा हुआ एक खाली प्लॉट था जहाँ उस दिन मैंने खूबसूरती को नष्ट किया था , वह वहीं खेलती थी । प्लॉट के चारो ओर से लगभग तीन से चार फीट ऊंची ईंटों की चाहरदीवारी बनी थी , जो देखरेख की कमी के कारण कहीं कहीं टूट चुकी थी । अक्सर हम लोग टूटी हुई दीवार के सहारे ऊपर चढ़कर बैठते और उड़ान भरती तितलियों को देखकर आनंदित होते थे । वह लड़की भी वहीं बैठकर उड़ती हुई तितलियों की खूबसूरती का आनंद लेती थी । इस दिन से पहले मेरे और उसमें एक फर्क था कि वह तितलियों को सिर्फ देखती थी और मुझे उन्हें पकड़ने में मजा आता था ।
जब उसने मुझे देखा तो पहले ही बोल पड़ी - क्या आज तितली नही मारना है ?
आज मेरे पास जबाब था । मैंने कहा- नही , मैं अब उन्हें नही पकडूँगा । ऐसा करने से कई बार तितलियाँ मर जाती हैं , जो मुझे अच्छा नही लगता । अब मैं भी उन्हें दूर से देखूँगा । वे दूर से बहुत खूबसूरत दिखती हैं ।
उसने कहा -जब तुम लोग तितलियों को मारते हो तब मुझे बहुत दुःख होता है । लेकि कोई नही मानता सब मारते हैं । कल मुझे बहुत गुस्सा आया था इसलिए मैं तुमसे ऐसा बोली थी ।
वह जो कुछ भी बोल रही थी मुझे न जाने क्यों बहुत अच्छा लग रहा था । मेरे और उसके बीच बहुत सारी बातें हुईं । सूरज घड़ी की सूइयों के साथ अस्त हो रहा था और हमारी दोस्ती का उदय होता जा रहा था । सांझ का मध्यम अंधेरा होते होते हम अच्छे दोस्त बन चुके थे ।
2.
अभी हमारी दोस्ती को बहुत दिन नही हुए थे कि स्कूल में गर्मियों की छुट्टी होने वाली थीं । मुझे अपने घर जाना था । लेकिन मेरा मन घर जाने से मना कर रहा था । मुझे कुछ खो जाने का डर लग रहा था । लेकिन क्या ? मुझे समझ नही आया । एक तरफ मेरे माँ पिताजी का प्यार था , जिनसे मिले महीनों बीत चुके थे । दूसरी तरफ मेरी बेचैनी । मैंने घर जाने का निर्णय लिया , वैसे भी छुट्टियों में दीदी के घर रहकर क्या करता ? माँ की ममता और पिता का प्यार मुझे बुला रहा था , इसलिए मुझे जाना था ।
मैंने उससे बताया कि छुट्टियों में घर जा रहा हूँ तो पता चला कि वह भी अपने गाँव जाने वाली है । हम दोनों छुटियों के बाद फिर मिलने की उम्मीद लिए हुए अपने-अपने गाँव चले गए ।
छुट्टियाँ खत्म होने पर जब स्कूल फिर से खुले और मैं गाँव से लौटकर आया । दो चार दिन तो घर और माँ पिता जी की यादों में खोया रहा , फिर बाद में याद आया कि वह लड़की नही दिखी । शायद वह लड़की अभी नही आई थी , मुझे उसकी याद आ रही थी । हफ्ते गुजरे महीने गुजरे लेकिन वह नही दिखी तब मैंने अपने साथ के लड़कों से उसके बारे में पूँछा तो पता चला कि उसके पापा यहाँ किराये पर रहते थे । वह किसी सरकारी नौकरी में थे और उनका ट्रांसफर कहीं और हो गया है इसलिए वह लड़की अब उनके साथ वहीं चली गई होगी ।
अभी जुलाई का फुहारों वाला मौसम था । मैदान ज्यादा वक्त खाली ही रहता था , बारिश के कारण तितलियाँ भी नही आती थीं । सभी बच्चे अपने-अपने घर पर ही ज्यादा वक्त बिताते या फिर शाम के वक़्त आसपास ही खेलते । घर के भीतर खेलते और पढ़ते मेरा मन भी ऊब जाता था । फिर भी यह मौसम तो एक दो महीनों का था और फिर से वही धूप , मैदान में घास फूस के रंग विरंगे फूल और तितलियाँ लौट आईं । मैदान में तितलियाँ , फूल , मेरे दोस्त लगभग सब कुछ तो था फिर भी कुछ खाली खाली सा लगता था । मुझे नही मालूम कि यह प्यार था या भावनाओं का सीखा हुआ ऐहसास ।
खाली प्लॉट की उस टूटी हुई दीवार पर बैठी वह लड़की , फूलों पर मंडराती तितलियाँ , आज भी मेरे सपनों में आते हैं ।

नादान मोहब्बत का दूसरा अध्याय "नही यह प्यार नही" अगले भाग में पेश है .....