इंद्रधनुष सतरंगा - 21 Mohd Arshad Khan द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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इंद्रधनुष सतरंगा - 21

इंद्रधनुष सतरंगा

(21)

आतिश जी की कोशिशें

पंडित जी को दोपहर में सोने की आदत नहीं थी। गर्मियों की अलस दोपहरी में जब मुहल्ले की गलियों में खर्राटे गूँज रहेे होते तो पंडित जी किसी न किसी काम में जुटे होते। दोपहर में सोने से उन्हें सख़्त चिढ़ थी। गर्मियों में वह घड़ी भर के लिए लेट भी जाते थे, पर बारिश की उमस में सोना उनके लिए असंभव बात थी।

एक दिन वह पुस्तकों की अलमारी साफ करने में जुटे हुए थे। तभी दरवाजे़ पर दस्तक हुई। धूल और पसीने से अँटे हुए पंडित जी ने अनमने ढंग से दरवाज़ा खोला तो सामने पोस्टमैन खड़ा था।

‘‘आपके नाम एक पार्सल है।’’ उसने कहा।

‘‘उधर तिपाई पर रख दो। लाओ, कहाँ हस्ताक्षर करने हैं।’’ पंडित जी हाथों की धूल झाड़ते हुए बोले।

पोस्टमैन ने हस्ताक्षर लिए और पार्सल रखकर चला गया।

पंडित जी दरवाजा बंद करके अंदर आ गए। उनके पास अक्सर पुस्तकों के पैकेट आया करते थे। यह कोई नई बात न थी। पर जब उन्होंने चश्मा लगाकर पता पढ़ा तो हैरान रह गए। पार्सल तो मौलाना साहब का था। पंडित जी के पैरों तले की ज़मीन खिसक गई। हड़बड़ी में बाहर की ओर लपके। मगर तब तक पोस्टमैन की सायकिल मुहल्ले का गलियारा नाप चुकी थी।

‘‘मूर्ख---गधा---दुष्ट’’ मन ही मन पंडित जी ने पोस्टमैन को कोस डाला। मगर अब कोसने से क्या हो सकता था।

अब समस्या यह आई कि पार्सल मौलाना साहब तक कैसे पहुँचे? बोलचाल तो थी नहीं। उनके दरवाजे़ जाएँ तो जाएँ कैसे? एक बार तो ख़्याल आया कि पैकेट को कचरे के डिब्बे में डाल दें। मौलाना साहब को भला क्या पता चलेगा? न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। मगर उनके हृदय ने स्वीकार न किया। सोचा पता नहीं कौन-सी आवश्यक वस्तु हो।

पंडित जी बहुत देर तक सोचते रहे। हर संभव उपायों पर दिमाग़ दौड़ाया लेकिन बात नहीं बनी। सोचा किसी राहगीर को पकड़ाकर देने के लिए कह दें, पर अपनी संकोची प्रवृत्ति के कारण यह उनसे नहीं हो सकता था। यह भी डर था कि ऐसा-वैसा कोई आदमी हो, तो कहीं ख़ुद थैले में डालकर चलता न बने। घंटे भर इसी उहापोह में बेचैन बैठे रहे पर कोई हल न निकला। आखि़रकार मन ही मन तय किया कि वे ख़ुद पैकेट चुपचाप गेट के अंदर डालकर चले आएँगे। दोपहर में सब सो रहे होते हैं किसी को ख़बर भी नहीं होगी। लेकिन फिर विचार आया कि कहीं उसे कोई उसे उठा ले गया तो? दोपहर में सन्नाटा होता है। तमाम तरह के लोग गुज़रते हैं। किसी के मन की कौन जाने। पैकेट को इस तरह लावारिस फेंकना समझदारी का काम नहीं होगा।

सब सोच-विचारकर आखि़र में प़फ़ैसला लिया कि मौलाना साहब के हाथ में देकर आना ही ठीक होगा। पंडित जी बड़ी हिम्मत करके घर से निकले। दो क़दम चलने में ही उन्हें पसीना आ गया। मौलाना साहब का घर कोस भर दूर लगने लगा। ख़ैर किसी तरह वह मौलाना साहब के दरवाजे़ पहुँचे। आवाज़ देने को हुए पर हिम्मत नहीं पड़ी, तो कुंडी खटखटा दी।

थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला। मौलाना साहब आँखें मलते हुए बाहर निकले। सामने पंडित जी को देखकर भौंचक रह गए। नींद हवा हो गई।

‘‘आप----’’ वह थरथराती हुई आवाज़ में बोले।

उनके चेहरे पर आश्चर्य या ख़ुशी नहीं, बल्कि आशंका तैर आई। डर गए कि आखि़र क्या गड़बड़ हो गई? बोलचाल थी तब तो दरवाजे़ आते नहीं थे, आज कैसे प्रकट हो गए?

‘‘आपका पार्सल था। पोस्टमैन भूलवश मुझे पकड़ा आया था।’’ पंडित जी ने बताया।

‘‘मेरा पार्सल---?’’

मौलाना साहब ने पार्सल लेकर मिचमिची आँखों से पढ़ने की कोशिश की। प्रेषक का नाम पढ़ते ही उनकी आँखें चमक उठीं। चहककर बोले, ‘‘शुक्रिया पंडित जी। बहुत-बहुत शुक्रिया। आपने सचमुच मुझ पर बड़ा एहसान किया।’’

पंडित जी सीढि़याँ उतरते-उतरते ठहर गए। पलटकर देखा और बोले, ‘‘अरे नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। कोई एहसान-वहसान नहीं किया। भूलवश मेरे पास आ गया था, सो आप तक पहुँचा दिया।’’

उनका स्वर भले ही कठोर लग रहा था, मगर उसमें बनावटीपन भी साफ नज़र आ रहा था। उनकी आँखों में विशेष तरह की तरलता लहरा रही थी।

‘‘अलीगढ़ से लड़के ने भेजा है। हकीम साहब की दवा है।’’ मौलाना साहब कह रहे थे।

पंडित जी रुके नहीं। लौट पड़े। मगर उनकी सारी चेतना मौलाना साहब की ओर केंद्रित थी। मन ही मन चाह रहे थे कि मौलाना साहब कुछ और कहें। तभी मौलाना साहब ने पुकारकर कहा, ‘‘एक गिलास पानी तो पी लेते।’’

पंडित जी ने पलटकर देखा और बोले, ‘‘जी नहीं, धन्यवाद।’’

यह कहते समय उनके चेहरे पर पुलक की एक हल्की-सी रेखा खिंच आई थी।

पंडित जी वापस लौट गए। गर्मी बहुत नहीं थी। सूरज बादलों की ओट में था और हवा में शीतलता थी। मगर पंडित जी ऊपर से नीचे तक पसीने में भीग गए। मलमल का महीन कुर्ता शरीर से चिपक गया।

उधर मौलाना साहब दरवाजे़ पर खड़े-खड़े सोच रहे थे कि हो न हो पंडित जी के मन में अभी भी मेरे लिए जगह बची है। वर्ना उन्हें क्या पड़ी थी कि भरी दोपहरी में मेरे दरवाजे़ आते। पार्सल उठाकर कूड़े में फेंक देते और हाथ झाड़ लेते। मुझे भला क्या पता लगता।

और इधर जब यह घटना घट रही थी, तो आतिश जी पोस्टमैन के साथ घर पर बैठे चाय पी रहे थे और अपनी युक्ति पर मन ही मन पुलकित हो रहे थे।

***