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लाइफ़ @ ट्विस्ट एन्ड टर्न. कॉम - 16

लाइफ़ @ ट्विस्ट एन्ड टर्न. कॉम

[ साझा उपन्यास ]

कथानक रूपरेखा व संयोजन

नीलम कुलश्रेष्ठ

एपीसोड - 16

ईश्वर के क्या आँख है जो देखता ? देखता तो क्यों बोझिल जीवन ढोते हैं जो सहृदय रहे आजीवन ? ईश्वर के अंधे होने का प्रमाण है इस समाज के आईने पर | वो बूढ़ी माँ वृद्धा आश्रम में दिन गिन रही है बाट जोहती अपने बेटे की जो उसकी चिता को अग्नि देने अब आता होगा, तब आता होगा | वो ईमानदार क्लर्क के बेटे सरकारी अस्पताल में उसे कैंसर से तड़पते छोड़ कर चुपके से सरक गए, मौहल्ले के स्कूल टीचर की बेटी का वहशी गुंडों ने रेप कर उसका गला रेत दिया |

यामिनी बेटी के ग़म से बौखलाई बड़बड़ा उठती, `` कौन कहता है कि अच्छों के साथ हमेशा अच्छा होता है -- --?ईमानदारी की कमाई विफ़ल नहीं जाती | झूठ सफ़ेद, झूठ, सच एकदम इसका उलटा है ! वीभत्स है ! घिनौना है ! जन्म –जन्मांतर के कर्मो का लेखा जोखा दिखाने वाले दार्शनिक अपने से लाचार हैं निरुतर हैं इसीलिए दुःख पूर्वजन्मों के फल के साथ जोड़ दिया गया। ’’

दुर्लभ पति उसे सांत्वना देते, ``चुप कर यामिनी, सब ठीक हो जायेगा। तेरी तबियत न बिगड़ जाये। ``

“ हमने इस जन्म में जान बूझ कर कोई कुकर्म किया नहीं , न ही यामिनी बेटी ने.वो तो अपने मुँह का कौर भी दूसरों के मुँह में डाल देती थी | मेडिकल कालेज के हौस्टल में बर्तन माँजने वाली काँता- बेन से लेकर प्रेस करने वाली भूरी- बेन तक उसे याद करती हैं ;"एक माँगो तो दो देती थी। ``, साड़ी के पल्लू से आँसू पोंछ कहती, "मेरी बहू की जचकी थी, अपने बिस्तर से चादर उतार कर दे दी थी ---" और भी न जाने क्या –क्या कथा सुनाती थी, उसके सुहृदया होने का प्रमाण जुटाती थी | वो सुहृदया अब कुलच्छनी कैसे बन गई ?`` कहीं कोई जवाब नहीं था।

अनुभा ने बेटी जो जनी वो थी इतनी प्यारी, जापानी गुड़िया सी ! नाना - नानी के बूढ़े शरीर में नया खून प्रवाहित हो उठा, जब उन्होंने उसे अपनी बाहों में पहली बार उठाया था | अस्पताल में उस खुशी के बण्डल को पाकर वे झूम उठे थे | किन्तु नन्ही, कोमल बच्ची के पिता की जननी के घर मातम छा गया |

समधिन ने बहुत व्यंग से पूछा, ``नाना, नानी तो बहुत ख़ुश नज़र आ रहे हैं ?``

`` क्यों ? कोई पूछे भला, एक नया जीवन संसार में आया था, उनका अपना लहू ब्याज सहित लौट आया था, तो हम ख़ुश क्यों नहीं हों ?’’

“ पुत्र रत्न पैदा होता तो हम ढोल व नगाड़े बजवाते | ’’

“हमारे तो मन में ही ढोल नगाड़े अपने आप बज रहे हैं। बेटा होता तो वो क्या कर लेता है ?’’

“ कहते हैं बुढ़ापे का सहारा होता है बेटा, वंश उसी के नाम पर चलता है | बेटा मुखाग्नि देता है | स्वर्ग के द्वार खोलता है ! बेटी ? बेटी तो पराया धन है, बोझ है, कलेश है |अनुभा पर कोई पिछले जन्म का श्राप होगा जो इसने बेटी जनी है। ”अंकुर की माँ ने बिचकाते हुए कहा ।

“क्या ? बेटी जनने से कोई स्त्री शापित कैसे हो जाती है ?’’

एक बात तो सही है 'बेटी पराई है ' वरना कौन रोकता था ऐसी अभद्र मनोदशा वाले परिवार से उसे वापिस लाने को ? कैसे ले आते ? दान जो कर दी थी ! विद्रुप समाज की आँखें प्रत्येक घर के दरवाज़े पर चिपकी होती हैं । समाज की आँखें उनके दरवाज़े पर चिपक गईं थीं, “ उनकी बेटी मायके वापिस आ गई------------! ’’

“ बहुत दिनों से यहीं है, कई महीने हो गए आये-------- वापिस गई नहीं ?’’

खुसुर –पुसुर बातों की तल्खियत से घबरा कर डरपोक माता-पिता दरवाज़ा बंद कर लेते | पर्दा पड़ा रहा, पर्दे के पीछे बेटी के आँसू उनके गालों पर लुढ़कते रहे |रातों को नींद नहीं आती | फ़ोन की घंटी उन्हें बेकल कर देती | उस काले फ़ोन से डर लगता था |

“ बेटी होने के बाद भी कुछ नहीं बदला “ माँ आँसू पोंछते हुए कहती; “बेटी न हो कर बेटा होता तो शायद कुछ बदल जाता |’’

“ पता नहीं | लगता तो नहीं |’’ पिता की बुद्धि कुंद हो गई | अब वो कोई ज्ञान नहीं बघारते, उनका ज्ञान संसार की प्रयोग-शाला में विफ़ल हो गया | नाज़ था उन्हें अपनी बेटी की शिक्षा पर !

"तू स्वयं एक डॉक्टर है, जब तब कमा -खा कर अपनी बेटी को पाल सकती है |" वो उसे ढाढ़स बंधाते;

“ बच्ची से उसका बाप प्यार तो करता है ?’’

“ हाँ करता है | उसका प्यार समय अनुसार होना चाहिए ’’

“ मतलब ?’’

“ जब फ़ुर्सत होती है तब चूम – चाट लेता है, बाज़ार से महंगे खिलौने भी ले आता है, किन्तु रातों की नींद डिस्टर्ब नहीं होनी चाहिए, ऐसा उसकी माँ का निर्देश होता है, या तो वो स्वयं यहाँ रहती है नहीं तो फ़ोन पर आदेश दिए जाते हैं | मैं क्या करूँ मैं भी तो नौकरी करती हूँ ?”

एक रात उसे बच्ची के साथ घर से बाहर निकाल दिया था | उसी सास ने, जो स्वयं पसंद करके लाई थी अपने बेटे की बहू बना कर | ऐसा क्या था कि कुछ मंत्रोचारण और सात फेरों के बाद पूरी की पूरी धारणा ही बदल गई ? वो ही प्राणी जिसे आप अपने सबसे प्रिय संतान की जीवन संगिनी बनाने के काबिल समझती थी वो कुछ ही मिनटों में उसके साथ एक घर में रहने काबिल भी न रही ?

“ अब क्या होगा ?’’ माँ सशंकित हो उठी | भीरु माँ ! समाज से डरी हुई औरत | घर के भीतर छिप – छिप कर रोती रही | भगवान के सामने विनती करती ;

“ बेटी की गृहस्थी न उजड़े, ”

जाप करती रही जब तक उसकी बेटी के जनक ने आकर ‘ ख़ुश – खबरी’ नहीं दी | |

“ समझा बुझा कर आया हूँ, अब सब ठीक है, गलती तो हमारी बेटी की है, सास को उल्टा जवाब दे रही थी इसलिए एक रात के लिए उसे बाहर निकाल दिया था। |"

कुछ अनुभवहीन चचेरे भाई –बहनों ने आपत्ति जताते हुए कहा ;“ अरे, तो क्या सुनती रहे हमारी दीदी उस औरत के ताने ? जवाब तो देना ही चाहिए, इतनी प्यारी गुड़िया को जो प्यार न कर सके, ऎसी दादी की ऎसी की तैसी

अपनी बिटिया अनुभा भी तो ऐसी ही शादी से पहले ऐसी क्रांतिकारी बातें करती थी। थी | अब देखो कैसी, कैसी सी हो गई ! माफ़ी मांगी, पैर छुए, `` दोबारा, उल्टा जवाब नहीं दूंगी.`` सौगंध खाई |पिता का उदास चेहरा देख नहीं पाई | माँ के गले में अटके प्राणों को वो सुन रही थी | माँ की सिसकी ने उसके पैरों में जंजीर डाल दी | निर- अपराधिन ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया | सयानी सयानी हो गई थी या या सहम गई थी उनकी लाड़ली !

बेटी पुनः स्थापित हो गई उस समाजी मुखौटे को पहन कर जिसे ज़िंदगी बेबात ही चिपका देती है ;

“ बेटी का क्या हाल है ?’’

“ मस्त है अपनी घर गृहथी में व्यस्त है |’’इस उत्तर को देने के लिए उन्होंने बेटी की बलि चढ़ा दी | कायर कहीं के ! डरपोक कहीं के !

उसी दौरान एक और बिटिया हो गई जिसे दादी ने ‘कीकर' [कांटे वाली झाड़ी ] कह कर ढ़ेरों नफ़रत उपहार में दी | वो तो भला हो उस नौकरी का जो ले गया अंकुर को विदेश | हवाई यात्रा से डरने वाली उसकी सास उसके साथ नहीं जा सकी | सोचा, चलो पिंड छूटा | अब अपने पति और बच्चियों के साथ सुखपूर्वक रह लेगी | सपने देखने लगे माता –पिता |

“ कम से कम रोज़ -रोज़ का क्लेश तो कम होगा | साल में एक बार आयेगी, दो चार दिन को निभा लेगी जैसे तैसे ” माँ ने संतोष की साँस भरी ;

“ अब तुम्हें क्या हो गया ? तुम्हें साँप क्यों सूंघ गया ?” उसने अपने पति की ओर देख कर पूछा जो बेटी के विदेश जाने के प्रस्ताव पर बहुत प्रसन्न नहीं थे |

“ वहाँ उसकी मेडिकल डिग्री रिकग्नाइज़ ( जाएज़ ) नहीं है | इंडियन डिग्री वहाँ काम नहीं करेगी |” पिता ने गहरी श्वाँस छोड़ी |

“ अरे तो क्या हुआ दामाद का तो प्रमोशन हुआ है, अच्छी खासी मोटी तनख़्वाह पा रहे हैं |” माँ डुबकी लगा रही थी, उस सुख सरिता में गोते लगा रही थी, जिसमे वो सोच रही थी कि बेटी सुखी रहेगी, ससुराल से दूर |

“ बात पैसे की नहीं है, उसके अपने वजूद का सवाल है, उसकी क्वालिफ़िकेशन नष्ट होने का भय अधिक बड़ा है |” पिता की दूरदर्शिता व चिंता अकारण नहीं थी |जानती तो वो भी थी पर अनजानी बन कर कुछ देर के लिए सुख की साँस लेना चाहती थी |

विदेश में बेटी को नौकरी तो मिली नहीं ऊपर से घर का भार बच्चों की परवरिश उस अकेली पर आ पड़ा | पति ने पैसा अधिक कमाना शुरू कर दिया, अधिक शहर से बाहर रहने लगा | जब शहर में होता तो देर रात को घर लौटता | वहाँ जा कर अकेलापन और बढ़ गया अकेलेपन से जी घबराने लगा | डिप्रेस्ड रहने लगी | डिप्रेशन में अधिक खाने लगी, नतीजन मोटी हो गई | अनाकर्षक लगने लगी |

“ बेटा वज़न बढ़ रहा है | ठीक नहीं है |’’ माँ ने समझाना चाहा पर उसकी विस्फ़ारित आँखें देख कर कुछ नहीं बोली | बिटिया अब डॉक्टर कम और मरीज़ अधिक दिखने लगी थी |

“ अब तो बेटी फ़ॉरेन कन्ट्री में सैर करती है, बड़ी अच्छी किस्मत है |” ईर्ष्या प्रकट करते कुछ लोग कहते, आप लोग भी घूम आते वहाँ ?”

“ फ़ॉरेन में क्या लड्डू धरे है जो लोग इतने लालायित रहते है ?’’ माँ खीज उठती, `` पता नहीं लोगों को विदेश का इतना मोह क्यों है ?”

“भई डॉलर में कमाई होती है, पैसा दिखता है ! पैसा !” यामिनी के दुर्लभ पति समझाते।

विदेश में मोह है ! पैसा है ! सम्मोहन है और सम्मोहिनी भी ! अभी उन्हें सिंगापुर गए ठीक से दो बरस भी नहीं हुए थे और ब्याह को आठ बरस कि, नोरा का फोन आया था |सुबह के सात बजे वो टैक्सी लेकर घर पहुंचे, बिटिया रो रही थी | बिलख- बिलख कर रो रही थी, “ पापा मेरे बच्चों को सम्भाल लेना, मैं जा रही हूँ !”

पता चला नींद की गोलियाँ खा लीं थीं | समय रहते नोरा ने उसेउल्टी करवा दी थी, नोरा ट्रेंड नर्स, वरना ------------वरना वो न बचती | माता-पिता को देखकर उसके सब्र का बाँध टूट पड़ा, `` मुझे अपने साथ ले चलो । ” वो कातर दृष्टि से निवेदन कर रही थी ।

उसके सिर पर हाथ फेरते हुए माता-पिता उसके टूटे मन को संभालने लगे, दोनों बिटिया सहमी सी नाना-नानी से चिपट गईं, ” मम्मी मर तो नहीं जाएंगी ?” बड़ी छह बरस की सृष्टि ने प्रश्न किया|

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मधु सोसी गुप्ता

ई--मेल ---sosimadhu@gmail.com

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