लाइफ़ @ ट्विस्ट एन्ड टर्न. कॉम - 10 Neelam Kulshreshtha द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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लाइफ़ @ ट्विस्ट एन्ड टर्न. कॉम - 10

लाइफ़ @ ट्विस्ट एन्ड टर्न. कॉम

[ साझा उपन्यास ]

कथानक रूपरेखा व संयोजन

नीलम कुलश्रेष्ठ

एपीसोड - 10

यामिनी ने प्रिया को फ़ोन लगाया। उसकी` हैलो ` सुनकर बोली, ``तू ज़िंदा है या मर गई ?मैंने एक सप्ताह पहले फ़ोन किया था तो स्विच ऑफ़ आ रहा था। ``

``अच्छा ? लेकिन मैं तो अपना मोबाइल कभी स्विच ऑफ़ नहीं करती। ओ ---याद आया, मैं व अनिल मुंबई टु दिल्ली फ़्लाइट में होंगे। ननकू बेल्ज़ियम से आई हुई है। उससे मिलने आये थे। अभी भी मैं दिल्ली एयरपोर्ट से बोल रहीं हूँ। हम वापिस जा रहे हैं। ``

``मैं दामिनी दीदी के यहाँ हूँ। वे तुझसे बात करना चाहतीं हैं। तुझे अनुरंजिता का कुछ पता है ?``

``प्लीज़ !यामिनी !मेरे सिर में बहुत दर्द है। हम लोग कॉफ़ी पीने जा रहे हैं। मुझे दीदी का नंबर शेयर कर देना मैं घर पहुंचकर स्वयं बात कर लूंगी। ``

***

"बड़ी अजीब है ये ज़िंदगी, पता नहीं किसको कब कहाँ ले जाए --?" अनुरंजिता को हवाईअड्डे पर अकेले बैठी देखकर उसकी पड़ौसिन उससे बात करने लगी थी |

" जी, यह तो है ही, न जाने भागती ज़िंदगी के पानी के रेले में कब बहाव आ जाए, कब तूफ़ान --और कब बिलकुल शांत हो जाए ---" अनु ने मुस्कुराकर कहा, आखिर कुछ तो उत्तर देना ही था |वह सोच भी नहीं पाई थी कि ज़िंदगी एक सौगात देने वाली है। उसकी बचपन की सहेली प्रिया इसी एयरपोर्ट पर मिलने वाली है।

"इतना आसान कहाँ है ज़िंदगी से जूझना --समय की नज़ाकत उसे कब ठेस लगा दे, किसको पता ----?" पड़ौस में बैठी महिला ने एक लंबी साँस ली |

"आप ठीक है न ---?"

"हाँ जी ठीक ही हूँ ---बेटा लेने आया है सो उसके साथ राँची जा रही हूँ --"

"अच्छा, आप राँची में रहती हैं ?कहाँ ---?"

"हाँ जी, हम बेसिकली राँची के ही हैं --झुमरी तलैया में हमारे अपने बहुत से ऑरकर्ड्स [बगीचे] हैं --अपने पति के जाने बाद बहन के पास आई थी कुछ मन बहल जाएगा -पर इतना आसान कहाँ है जी | बड़े-बड़े महानुभाव समझाते हैं आप बहती नदिया की धार जैसे से बन जाओ --पर मुश्किल है| ``

अनुरंजिता की आँखें भी नम हो आईं पर 'झुमरी तलैया' सुनकर उसके होंठों पर मुस्कुराहट भी पसर गई | जब छोटी थी तब नानी (बड़ी माता जी) कहा करती थीं, " इतनी इतरा के कहाँ जा रही हो ? झुमरी तलैया ?" इस शब्द में उसका मन अटक गया लेकिन वह उस महिला से कुछ और बात करती कि उसे सामने दिखाई देती स्टॉल पर अपनी प्रिय दोस्त प्रिया अपने पति के साथ दिखाई दे.गई दोनों के हाथ में कॉफ़ी थी. वह उस स्त्री से बात करना भूल गई |

`'हाय ! बरसों पुरानी मेरी दोस्त !' `अचानक उसके मुख से निकला, उसके ह्रदय की धड़कनें सप्तम पर पहुँच गईं | कितने बरस हो गए होंगे उसे उससे मिले, उसके खुद के पैर जवाब देने लगे थे इसलिए कहीं भी जाने से पहले उसके लिए व्हील चेयर बुक करवा दी जाती थी. उसने कुर्सी से खड़े होकर अपना बैग कंधे पर लटका लिया, जैसे ही कदम बढ़ाए, वह किसी से टकरा गई, कोई नौजवान था |

"सॉरी आँटी "

" नहीं बेटा , आपकी गलती नहीं थी |"

"आप अकेली हैं ? मैं आपको कहीं छोड़ दूँ --?"

" थैंक्स, मैं --यहीं तक ---" उसने गर्दन घुमाई तो नज़र पड़ी, प्रिया और उसके पति उसे स्टॉल से जाने के लिए मुड़ने लगे |

" अच्छा, एक काम कर दो --" जानती थी, दौड़कर अपनी सखी के गले नहीं मिल पाएगी | युवक मुड़ा ही था, उसकी उतावली आवाज़ सुनकर ठिठक गया |

"जी, कहिए ---"

" वो जो लोग खड़े हैं न ! सफ़ेद शर्ट में साहब और वो लेडी ! उन्हें ज़रा जाकर कह दो रुकें, मैं उनसे मिलने आ रही हूँ | "

"ओ ! श्योर आँटी ---" कहकर वह उस ओर बढ़ गया जहाँ प्रिया अनिल के साथ खड़ी थी |

" थैंक्यू बेटा --" शायद युवक ने उसका थैंक्स भी नहीं सुना नहीं जो वह शिष्टाचारवश कुछ कहता, वह जल्दी में दिखाई दे रहा था फिर भी वह उसके काम के लिए बढ़ गया|

कमाल है वह भी ! अनु ने अपने बारे में सोचा | किसी से कुछ भी काम कराने में उसे कभी कुछ संकोच नहीं हुआ | अब भी न देखो बेचारा ! शायद वह बोर्ड करने की जल्दी में था, युवक उनके पास पहुँच गया था और उसकी ओर इशारा करके बता रहा था | उसने देखा प्रिया उसकी तरफ़ देख रही है | एक लंबी सी मुस्कुराहट दोनों ओर पसर गई, अनिल के चेहरे पर भी एक सुखद मुस्कुराहट थी | वे वहीं रुक गए और अनु धीमे-धीमे डग भरती उन दोनों के पास पहुंची |

" माय गॉड ! अनु ! तू ज़िंदा है ? ----" वह ज़ोर से हँसी | दोनों बिछुड़ी सहेलियाँ ऐसे चिपटीं जैसे किसी ने उन्हें गोंद से चिपका दिया हो |

" अरे भई अनु ! मैं भी खड़ा हूँ ---" अनु प्रिया से हटकर अनिल के गले लग गई | पारिवारिक मित्र थे ---न जाने कितने वर्ष एक-दूसरे के सुख-दुःख के साथी रहे !

" कमाल है भाई ! आप लोगों की इतने साल से कोई ख़बर नहीं ! और कहाँ हैं महाराज ---? अकेले -अकेले कहाँ चलीं ? आ रही हो या जा रही हो ?"अनिल ने अनु के सर पर टपली मारते हुए पूछा |

"अरे ! दिल्ली आई थी, ऐसे ही ज़रा चक्कर काटने, पुराने रिश्तों को पैच-अप करने, थोड़ी उदासी दूर करने, अब जा रही हूँ वापिस बंबई ---जहाँ ठिकाना है ---"

" बंबई ? तो अभी तक तू बंबई है ?" प्रिया ने कुछ आश्चर्य में पूछा |

"हाँ, मैं तो एक बार जो बसी तो बस वहीं की हो गई | कितने साल हो गए होंगे हमें मिले ? शायद बीस या, उससे भी ऊपर ?"

" अरे तो हम भी तो अब वहीं सैटल हो गए हैं, बंबई ही जा रहे हैं, फ़्लाइट लेट हो गई है."प्रिया बोली |

" ओह ! एक ही फ़्लाइट में हैं हम --वाह ! " अनु का चेहरा हरा -भरा हो आया | जैसे किसी बंजर धरती पर फूल खिला दिए हों किसी ने !

" तो, उधर कहाँ जा रहे हैं, हमारी फ़्लाइट तो नौ नम्बर गेट से जायेगी। ?"

" हाँ, वैसे ही चक्कर मारने जा रहे थे --- "

" अब कोई चक्कर नहीं, उधर बैठते हैं ----" उसे अधिक खड़े होने में परेशानी होती थी | प्रिया व अनिल उसकी इस दिक्क्त को महसूस कर पा रहे थे |

"हाँ, अब क्यों जाऊँगी, यार ! टाइम पास नहीं हो रहा था | "

"हमारे साहब कहाँ है ? आपने जवाब नहीं दिया ?"

अनुरंजिता की आँखें टप टप बहने लगीं | उसके बाद किसी ने किसी से कुछ नहीं पूछा | सब उसकी व्हील चेयर के पास आ गए, वहीं खाली बैंच पर प्रिया और अनिल भी बैठ गए |

"आप चाय, कॉफ़ी कुछ लेंगी? " अनिल ने खड़े होकर पूछा |

अनु के आँसू अभी कटोरों में भरे पड़े थे, जैसे उछलने को व्याकुल !

" अभी रहने दीजिए, थोड़ी देर में ---अभी तो चार घंटे गुज़ारने पड़ेंगे |" प्रिया ने पति से कहा |

" ठीक है, आप दोनों सहेलियाँ बातें करिए, मैं चक्कर मारकर आता हूँ | "उदास से हो उठे थे अनिल.

अनिल के जाते ही दोनों सखियाँ चिपटकर रो पड़ीं जैसे मेघ तड़ातड़ बरस रहे हों | न जाने कितनी देर दिल का मौसम गीला रहा, दिल के बादल भी आखिर कितनी देर बरसते ?

"आप लोग कैसे आए थे यहाँ पर ? कोई काम ?" अनु ने हुए पूछा |

"हाँ, बस यूँ ही --छोटी वाली आई हुई थी बेल्ज़ियम से --उसको ही छोड़ने आ गए थे, उसकी ससुराल है न यहाँ पर ?"

" कैसी है ननकू ? और बच्चे कितने हैं उसके ? अब तो बड़े हो गए होंगे ?"

" अरे ! चैन तो ले ज़रा---सब बताती हूँ | ननकू खूब मज़े में है, दो बच्चे हैं और उसका पति अभय भी बढ़िया है --साउथ अफ़्रीका में था बहुत साल, अब बेल्ज़ियम में है |"

" चलो, बड़ा अच्छा लगा सुनकर ---भई! बच्चे खुश तो माँ-बाप खुश ---"

"हाँ, यह तो बहुत स्वाभाविक है ---"

"हाँ, यामिनी का पता है ? वो कहीं यहीं थी न, ननकू की ससुराल के पास, उसके एक प्यारी सी बेटी भी थी----क्या नाम था ?--याद आया नाम था अनुभा जिसने एम डी किया था ? "

" हाँ, उसकी बेटी की शादी में ही लास्ट टाइम मिलना हुआ सबसे । उसकी ससुराल भी ननकू की ससुराल के पास ही है | "

", कैसी है वो ? कितने बच्चे हैं ? उसका हज़बेंड तो बहुत ऊँची पोस्ट पर है न ?"

"पैसे और पोज़ीशन के अलावा ज़िंदगी में और भी बहुत कुछ चाहिए होता है अनु --" उसकी आँखें बरस पड़ीं |

" क्या हुआ अनुभा के साथ ? सब ठीक तो है न ?"

क्या बताती प्रिया ? वह सदा यामिनी के टच में रही है चोट भीतर होती है जो दिखाई नहीं देती वर्ना आज कौन है जिसके सीने में जख़्म नहीं हैं ? अनुभा बालपन से ही कितनी चपल-चंचल थी ! पिता की लाड़ली !एक मांग होती उसकी, पिता बिछ जाते | ऐसा क्या हुआ होगा? बड़ा सुदर्शन व ऊँची पोस्ट पर था, उसका पति ! फिर?ख़ुद भी तो डॉक्टर थी अनुभा , बंबई मेडिकल कॉलेज में पढ़ा करती और अक्सर अपने दोस्तों के साथ फ़ुर्सत मिलते ही घर आ धमकती, उन दिनों वह पास में ही रहती थी |

अनुरंजिता सोचती रह गई कि आखिर इतनी प्यारी, ज़हीन लड़की के साथ क्या हुआ होगा जो प्रिया की आँखें बह चलीं हैं ?

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डॉ. प्रणव भारती,

ई- मेल ----pranavabharati@gmail.com

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