इंद्रधनुष सतरंगा - 16 Mohd Arshad Khan द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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इंद्रधनुष सतरंगा - 16

इंद्रधनुष सतरंगा

(16)

घोष बाबू का जन्मदिन

‘‘घोष बाबू!’’ आतिश जी ने लगभग हाँफते हुए अंदर प्रवेश किया, ‘‘एक ज़रूरी काम से निकल रहा था, आपका ध्यान आया तो भागा आया।’’

‘‘क्यों, ऐसी क्या बात हो गई?’’ घोष बाबू ने पूछा।

‘‘अरे---भूल गए?’’

‘‘क्या?’’ घोष बाबू ने दिमाग़ पर ज़ोर डालने की कोशिश की।

‘‘आज सत्ताइस तारीख़ है।’’

‘‘तो---?’’

आतिश जी गंभीर हो गए। बोले, ‘‘घोष बाबू, मैं पिछले बीस वर्षों से आपको जानता हूँ। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि आप यह तारीख़ भूले हों। आज आपका जन्मदिन है।’’

‘‘अरे हाँ, सचमुच,’’ घोष बाबू के चेहरे पर मुस्कान की एक पतली-सी रेखा खिंच गई।

‘‘इस दिन का तो सबको साल भर इंतज़ार रहता था। आप सबको दावत देते थे। पूरा मुहल्ला जुटता था। देर रात तक मौज-मस्ती, गाना-बजाना----’’

‘‘तब की बात और थी,’’ घोष बाबू गहरी साँस भरकर बोले।

‘‘क्यों? अब ऐसा क्यों नहीं हो सकता?’’

‘‘काश ऐसा हो सकता!’’ घोष बाबू की आँखे डबडबा आईं।

आतिश जी की आँखें भी भीग गईं। पर उन्होंने माहौल हल्का करने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘देखिए घोष बाबू, बातें मत बनाइए। कंजूसी से काम नहीं चलेगा। दावत तो करनी ही पड़ेगी। यह भी कोई बात हुई कि इतनी ख़ुशी का मौका है और जनाब हैं कि चुपचाप बैठे हुए हैं।’’

‘‘आप तो जानते हैं, आतिश जी, मुझे दावतें करना कितना अच्छा लगता है। लेकिन अब दावत किसे दूँ। मौलाना साहब मुझे देखकर राह बदल देते हैं। पटेल बाबू मेरा चेहरा तक नहीं देखना चाहते। गुल मोहम्मद ने मेरे खिलाप़फ़ रिपोर्ट लिखाई है कि मैं उनके दरवाज़े कीचड़ फैलाता हूँ। कर्तार जी अब सारा दिन एजेंसी पर रहते हैं। किसे बुलाऊँ? कौन आएगा दावत में?’’

आतिश जी एक पल के लिए ख़ामोश रह गए। फिर अचानक खड़े होते हुए बोले, ‘‘मैं लाऊँगा सबको दावत में। आप बस तैयारी करिए।’’

आतिश जी चले गए। उनके आश्वासन ने घोष बाबू की उदासी दूर कर दी। उन्हें पता था कि आतिश जी जुनूनी आदमी हैं। जो ठान लेते हैं, कर के दम लेते हैं। यह सोचकर वह उत्साह से भर गए।

जन्मदिन पर घोष बाबू अपने ही हाथों से व्यंजन बनाते थे। शुद्ध बंगाली व्यंजन--सोंदेश, रोशोगुल्ला, चमचम, लड्डू। पूरा मुहल्ला जुटता था। कोई गीत गाता, कोई चुटकुला सुनाता, कोई दूसरों की नक़ल करके सबका मनोरंजन करता। सबको देखकर ऐसा लगता मानो धरती पर दुख का अस्तित्व ही नहीं है।

घोष बाबू दिन भर दावत की तैयारियों में जुटे रहते। मदद के लिए भी और लोग भी आ जाते। गुल मोहम्मद तो दिन भर के लिए डेरा डाल देते थे। दोस्तों की मदद से सारे काम कैसे निपट जाते पता ही न चलता था।

पर आज घोष बाबू अकेले थे। और दिनों में वह हर घंटे ठहरकर कमर सीधी करते थे। पर आज जैसे उन्हें अपनी फिक्र ही न थी। सब कुछ भूले काम में जुटे थे। आज वह कोई क़सर नहीं छोड़ना चाहते थे। पूरा इंतज़ाम वैसे ही कर रहे थे, जैसा हर बार होता आया था। मन उत्साह से भरा हुआ था।

सारे काम निपटाकर जब घोष बाबू ने कमर सीधी की तो शाम के सात बज चुके थे। हर तरफ लाइटें जल चुकी थीं। आसमान में बादल छाए हुए थे इसलिए अंधेरा कुछ घना लग रहा था। बारिश के दिनों में अंधेरा वैसे भी गाढ़ा हो जाता है। हवा ठप थी। उमस के कारण मन बेचैन हो रहा था।

घोष बाबू ने फटाफट नहा धोकर नया कुर्ता-पाजामा पहन लिया। आतिश जी के इंतज़ार में बैठे-बैठे वह टैगोर का एक गीत गुनगुनाने लगे--

‘‘श्रावणेर धारार मतो पड़ुक झरे, पड़ुक झरे,

तोमार सुर त आमार मुखेर परे-बुकेर परे।’’

उन्हें पूरा यक़ीन था कि मुहल्ले के लोग ज़रूर आएँगे। ‘जिस परिवार में चार लोग होते हैं, वहाँ थोड़ा-बहुत मन-मुटाव तो होता ही है। लेकिन इससे संबंध थोड़े ही ख़त्म हो जाते हैं। ख़ुशी हो या दुख, जब तक अपनों के बीच न बँटे मन को संतुष्टि नहीं मिलती है’--घोष बाबू बैठे मन ही मन सोच रहे थे।

तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई। घोष बाबू का मन पुलक उठा। पर दरवाज़ा खुलने के साथ ही लाइट भी चली गई। एक पल को घुप्प अंधेरा छा गया। आँखें अभ्यस्त हुईं तो देखा आतिश जी खड़े थे। पसीने से तर-बतर। बाल उलझे। कपड़े बुरी तरह गंदे।

‘‘अरे आतिश जी आप आ गए! बाक़ी सब कहाँ हैं?’’ घोष बाबू हड़बड़ाकर दरवाजे़ की ओर लपके, ‘‘सबको अंदर बुला लो भई। टार्च ढूँढो। गली में अंधेरा होगा। इस लाइट को भी कम्बख़्त अभी जाना था।’’

‘‘लौट आइए, घोष बाबू। बाहर कोई नहीं है।’’ आतिश जी मायूसी भरी आवाज़ में बोले।

घोष बाबू को जैसे काठ मार गया। उनके कदम वहीं थम गए। आतिश जी भी अंधेरे में ख़ामोश खड़े रहे। कोई कुछ न बोला। भला कौन किसे ढाढस बँधाता?

कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद आतिश जी एकाएक गंभीर स्वर में बोले, ‘‘माफ़ करिएगा घोष बाबू, आज भले मैं सफल न हो पाया। पर एक दिन सबको एक साथ लाकर दिखाऊँगा, यह मेरा वादा है। आप ही तो गाते थे--‘जब तुम्हारी पुकार कोई न सुने, तो अकेले ही निकल पड़ो।’ आज से मैं भी एक्ला निकल पड़ा हूँ। लेकिन देखना एक दिन सब लोग मेरे साथ होंगे।’’

आतिश जी चले गए। घोष बाबू अपने कमरे में अकेले रह गए।

बाहर आसमान फिर से झरने लगा था।

***