श्रेया-विस्तार Sultan Singh द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

श्रेया-विस्तार

सूरज दाहिनी ओर से निकल कर माथे पर चढ़ रहा था। लेकिन श्रेया को इसका शायद ही अहसास हो, आज वह पता नही अपने ही विचारो में खोई खोई सी बैठी थी। शायद सिल्वेस्टर गार्डन के डेस्क पर आज वो किसी के आने का इंतजार कर रही थी। आखिर वह कोन था, जिसके लिए उसके चहेरे पर इतनी बेचैनी थी…? बार बार दरवाजे पर ताकती उसकी नजर यह स्पष्ट कर रही थी कि जो कोई भी आने वाला था, वह उसके लिए बहोत ही खास होगा। लेकिन क्या यह सच था…? क्या कोई सच मे खास था…? श्रेया खुद भी शायद इसी असमंजस में थी।

चहरे से बेचैनी को दूर करने का प्रयास करती श्रेया गार्डन में वही जहाँ तहाँ नजरो को दौड़ा रही थी। वह जहाँ बैठी थी वही आसपास में कई कपल बैठे हुए थे, जो अपनी ही मस्ती में थे। लेकिन श्रेया… श्रेया आज अपने आपको असंतुलित और टूटा हुआ सा महसूस कर रही थी। सेल्विस्टर गार्डन शाम को इन क्षणो के लिए ही तो जाना जाता है, क्योकि यहाँ दिल मिलते है। लेकिन श्रेया का दिल तो आज किसी अनकही उलझन में फंसा हुआ सा था। वैसे तो यहाँ पर कुछ भी गलत नही होता, लेकिन दुनिया की नजरों में तो वह सब गलत है जिसके बारे में सत्य वो नही जानते, या फिर जो उन्हें शिखाया गया है कुछ उससे अलग हो रहा हैं। विस्तार को यह रुढिया ही तो नही भाति थी, लेकिन इसके जवाब में श्रेया के पास कहने के लिए कुछ भी नही था। उसने सिर्फ उसे स्वीकार करने की ही जिद की थी। आज आखरी दिन था, जब रिश्ता तय या फिर खत्म होने वाला था। श्रेया का चहेरा शांत होने के बजाय समय दर समय ओर ज्यादा सोच में डूबता जा रहा था। लेकिन विस्तार… विस्तार तो दुनिया के लिए खुद ही जीता जागता अस्वीकृत विचारधारा वाला व्यक्ति था। उसे हम एक अस्वीकृत व्यक्तित्व भी कह सकते है।

‘विस्तार तुम कब तक इस दूरी को विस्तृत करोगे…?’ श्रेया ने मेसेज टाइप किया और भेज दिया। कुछ देर ऐसे ही मोबाइल स्क्रीन को ताकते हुए श्रेया बैठी रही। मेसेज जा चुका था, ओर रिसीव भी हो चुका था लेकिन पढा गया कि नही यह अनिर्धारित था। बाग में फूलों की महक से आसपास का वातावरण खिलखिला रहा था, लेकिन श्रेया का अंतरवन तो मानो मुरझा जाने को मजबूर था। क्योकि विस्तार तो उसी विस्तार की तरह था जो न ही किसी बिंदु से शुरू होता है और न ही किसी बिंदु पर खत्म। वो क्या है यह कोई नही जानता, लेकिन वह अपने आपको अनंत मानता है। अनंत… अप्रतिम… ओर अनिर्धारित, किसी पहेली की तरह। जो सत्य तो है, साश्वत भी है लेकिन समझ से परे है।

‘श्रेया तुम्हे नही आना चाहिए था।’ पीछे मुह कर बैठी श्रेया से हवा में बहा दिए गए शब्दो में किसीने कहा। आवाज सुनी सुनाई सी लगते ही, श्रेया ने पीछे मुड़कर भी देखा। लेकिन वहाँ कोई नही था। शायद नजर ही धुंधला सी गई थी। दिल मे चल रहे झंझावात इतने तेज थे की उसमे किसी एक खयाल का रुक पाना मुश्किल सा लग रहा था। न जाने क्यों वो अंदर ही अंदर बिखर रही थी। क्यो…? यही सवाल खुद उसे समेटने की नाकामियाब कोशिश में लगा हुआ था। लेकिन उसका तूट कर बिखर जाना ही मानो नियति था। कम से कम इस वक्त तो यही सत्य था, श्रेया के लिए…

‘कौन…?’ श्रेया ने दिशा हीन प्रश्न फेंका, वही जहाँ से सवाल बहकर आया था। लेकिन फिर भी वह सही तरफ जा रहा था।
‘विस्तार…’ उसी दिशा से तुरंत दूसरी आवाज का आगमन हुआ।
‘विस्तार तुम हो क्या…? मुझे लगा की तुम नही आओगे।’ श्रेया ने खुशी और नीरसता मिश्रित भाव से जवाब दिया।
‘जब तक तुम्हारे दिल मे मेरे लिए महोब्बत है, में कैसे तुमसे दूर रह शकता हुं।’ ठंडे स्वर ने फिर शुकुन भरा अहसास श्रेया के अंदर भर दिया।

‘लेकिन तुम तो मुझसे दूर हो, मेरे नही हो’ श्रेया फिर से बड़बड़ाई और चुप हो गई।
‘श्रेया तुम तो जानती ही हो ना कि में तो किसीका नही हूं, लेकिन अगर मुझे समझ सको तो में सबका हूं, तुम्हारा भी तो हूं और शायद इसी लिए यहाँ हूं…’
‘हा, तुम मेरे हो। क्योंकि में तुम्हे अपना बनाना चाहती हु।’
‘तुम मुझे अपना सकती हो, लेकिन सिर्फ अपना नही बना सकती।’
‘विस्तार, तुम सच मे यही हो या कहि और…?’ श्रेया अपने आप को दिशाहीन महसूस करने लगी थी।
‘में तो कभी गया ही नही, की मुझे आने की जरूरत महसूस हो।’ आवाज वही थी, लेकिन श्रेया को उसमे अब थोड़ी गंभीरता भी बहती हुई लगी।

‘यह सब मे नही समझ सकती, मुझे बस यही समझ आता है कि में तुमसे महोब्बत करती हूं। में तुम्हे चाहती हुं। अगर एक क्षण भी मुझे तुम्हारी चाहत मीले, तो उस प्रेम के लिए में अपना सर्वस्व तक तुम्हे सौंपना चाहती हु।’ श्रेया ने कुछ ही दूरी पर रहकर विस्तार से कह दिया।

‘तुम वह नही कर सकती, जो तुम कह रही हो।’ विस्तार ने कहा।
‘मुझे अवसर तो दो’ श्रेया स्वस्थ तो थी लेकिन आस्वस्थ नही, उसकी आवाज में गिड़गिड़ाहट थी।
‘लेकिन तुम जानती हो कि में तुम्हारे साथ जी शकता हु, लेकिन में सिर्फ तुम्हारा नही हो सकता। वैसे तुम तो यह तक जानती हो कि में सिर्फ किसी एक का तो हो ही नही सकता। क्योकि मेरा स्थिर होना ही असंभव है, लेकिन अगर में फिर भी यह कर लूंगा तो में वो विस्तार ही नही रह जाऊँगा जिसे तुम इतनी सिद्दत से चाहती हो। वह विस्तार बिखर जाएगा, या फिर यु कहो की तबाह हो जाएगा।’
‘में तुम्हे समझने लगी हु’
‘तुम मुझे समझना चाहती हो, शायद यही वजह है कि तुम यह कर पा रही हो।’
‘बात तो एक ही हैं।’
‘बात कभी भी एक नही है, और श्रेया बात एक हो भी कैसे सकती है।’
‘तुम कहना क्या चाहते हो…?’ श्रेया ने असमंजस में पूछ लिया।
‘वही जो तुम्हे लग रहा है, हर बार मे तुम्हे स्पष्टीकरण शायद न भी दे पाऊं। तब तुम्हारे लिए तो सत्य वही होगा ना, जो तुम समझ रही हो।’ विस्तार अभी भी शांत लहजे में बता रहा था।

‘शायद हा, लेकिन जो मेरे दिल मे है वह…’
‘बेशक वह महोब्बत है, ओर इसी लिए तो में यहाँ हूं। लेकिन कुछ अधूरी सी, और शायद इसी लिए में तुम्हारा होते हुए भी तुम्हे मुझमे कमिया दिख रही हैं।’
‘नही तुम मेरे लिए सम्पूर्ण हो।’ श्रेया ने झुल्लाकर कहा।
‘नही, में तुम्हारे लिए सम्पूर्ण हो ही नही शकता। तब तक, जब तक तुम अपने पूर्वग्रह नही छोड़ देती। तुम भविष्य के लिए मुझे बांधने का खयाल लेकर मुझे वर्तमान में पूर्ण रूपसे पा ही नही सकती। यह असंभव है, इसी लिए तुम मेरे दिल मे तुम्हारे लिए बहती महोब्बत के बावजूद इतना अधूरा सा ही महसूस कर रही हो।’
‘लेकिन…’ श्रेया नही कह पाई।
‘अगर में कल नही हुआ तो…?’ श्रेया के प्रश्न को शायद विस्तार समझ रहा था, लेकिन उसका तर्क वही था जहाँ उसे होना चाहिए।

‘में नही जी पाऊंगी’ श्रेया अपने कथन पर अटल थी।
‘लेकिन हर कल मेरा होना सत्य हो ही नही शकता। बदलाव तो जीवन का अभिन्न अंग है। व्यक्ति, स्थिति और परिस्थिति सबका बदलना तय है। लेकिन महोब्बत ही एकमात्र साश्वत है, जो अनंत है, अप्रतिम है और बंधनो से परे है।’ विस्तार दिव्य भावों से चमक रहा था।
‘लेकिन में तुम्हे, कल के लिए कैसे भूल सकती हूं।’
‘तुम्हे यह शिखना होगा श्रेया! क्योकि आनेवाला कल न तो तुम्हारे हाथ मे हैं, न ही वह मेरे हाथ में है। क्योकि, कल शब्द ही स्वयं अनिश्चितता दर्शाता है। फिर तुम उसे निर्धारित करने की चाह में अपना आज कैसे बर्बाद कर सकती हो।’

‘लेकिन क्या तुम्हें चाहना गुनाह है…?’ श्रेया अपनी बात पर अब भी अड़ी हुई थी।
‘तुम कैसी बात कर रही हो श्रेया। भला किसिको चाहना, गुनाह कैसे हो शकता है…? गुनाह तो उसे चाहत के नाम पर बांधना है, गुनाह तो पाने की चाहत का होना है, गुनाह तो खोने का डर अपने अंदर बना लेना होता है। क्योंकि चाहत तो मुक्त करती है, जबकि तुम तो मानो बांधना शब्द को ही प्रेम समझती हो। भला तुम ही बताओ अगर बांधना ही सत्य होता तो, व्यक्ति मोक्ष की कामना ही क्यो करता…?’

‘में यह सब नही समझती। में सिर्फ तुम्हे चाहती हु।’
‘वह तो में भी करता हूं। में भी तुम्हे चाहता हूं। बस हमारी चाहत का मार्ग अलग है, लेकिन महोब्बत तो कहि न कही एक ही हैं।’
‘तो फिर में ही गलत केसे।’ श्रेया को यह तर्क समझ नही आ रहा था।
‘यह तो तुम खुद भी समझ सकती हो।’
‘वह कैसे…?’
‘में तुम्हे पाकर खुश हूं। लेकिन तुम मुझे खोने के डर से दुःखी। तो किसका मार्ग सत्य हुआ…? सुख का या दुःख का…?’
‘बेशक हम सुख ही चाहेंगे’ श्रेया ने तुरंत जवाब दिया।
‘वही तो…’
‘में भी तो यही कहना चाहता हु।’
‘लेकिन कैसे…?’
‘पाने की लालसा ओर खोने का डर अपने जहन से निकाल फेंको। फिर देखो महोब्बत कितनी हसीन है, यह क्षण कितने दुर्लभ है जिन्हें तुम भविष्य के बारे में सोचकर व्यर्थ कर रही हो।’

‘लेकिन विस्तार…’
‘विस्तार, शब्द ही फैल जाने को शिखाता है। तुम मेरे नाम से ही क्यो नही शुरू करती, मुझे समझना और पाना आसान हो जाएगा। मुझे बस जी लो, मुझे संग्रहित करने की चाह को छोड़ दो। नदी में नहाने का ओर तालाब में नहाने का अपना ही मजा है। लेकिन इनका भेद बहोत ही स्पष्ट है। क्योंकि नदी सदैव आनंद देती है, किंतु तालाब कुछ ही दिनों में दूषित हो जाता है। दूषित पानी नहाने में कदापि आनंद नही दे शकता। प्रेम भी पानी की तरह है इसलिए पानी की गलती नही है, क्योकि तालाब में वह बंधित है ओर नदी का प्रवाह मुक्त। तुम भी अपने प्रेम प्रवाह को कुछ इसी तरह से मुक्त कर लो। यह जीवन ओर प्रेम सिर्फ ओर सिर्फ सुख है, दुख नही। क्योकि दुःख तो इसे हम खुद बनाते जा रहे है।’

‘में समझ रही हु, लेकिन…’
‘लेकिन, शब्द ही तुम्हे पूर्वग्रह से जोड़ देता है। मेने कहा वह अगर सत्य है तो अपना लो, या फिर गलत है तो छोड़ दो। इतना आसान सा है यह महोब्बत को जीना। लेकिन, किंतु, परंतु इसमें कुछ नही कर शकते। सिवाय जीवन के कीमती लम्हो को बर्बाद करने के।’

‘विस्तार….’ श्रेया की आंखे भर आयी। वह अब ओर यह क्षण नही खो सकती थी। उसने विस्तार को अपने आप मे खुला छोड़ दिया और उसके अनंत आवरण में फैलने लगी। क्योकि अब वह सिर्फ बहना चाहती थी, बाधित होना या करना नही। वह नदी के प्रवाह को समझ चुकी थी, प्रकृति के प्रवाह को वह अपना रही थी, वह साश्वत की ओर जाने को सज्ज थी। और महोब्बत भी तो साश्वत तरफ जाने वाले मार्ग का ही हिस्सा है। अनंत, अपार, मुक्त ओर अनादि।

~ सुलतान सिंह ‘जीवन’