"सुनो! मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। मैं जानता हूँ कि मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है। जीवन के तीस बसंत तुमने मेरे इंतज़ार में गुजार दिए, उनको तो मैं नहीं लौटा सकता, किन्तु जीवन का यह अंतिम प्रहर मैं तुम्हें अकेले नहीं गुजारने दूँगा। दोनों बच्चे अपनी जिंदगी में व्यस्त भी हैं और मस्त भी, मैं मिलकर आ रहा हूँ उनसे। वे भी खुश हुए यह जानकर कि अब पापा मम्मी साथ रहेंगे तो वे भी निश्चिंत रह सकेंगे। मुझे एक मौका और दे दो अपनी जिंदगी में आने का.... वादा करता हूँ अब कभी अकेलेपन का दंश न चुभने दूँगा।"
आज तीस वर्ष बाद नीरज फिर कुहू के सामने था। वही नीरज जो पाँच साल के वैवाहिक जीवन की संगिनी कुुहू की गोद में छः माह और तीन साल के बच्चों को बिलखता छोड़कर, अपनी सहकर्मी नीता के साथ अलग दुनिया बसाने चला गया था। माता पिता और सास ससुर दोनों ने कुहू को केस करने के लिए समझाया, किन्तु उसका एक ही जवाब था... "जब दिल से राजी नहीं तो साथ रहने से किसी को खुशी नहीं मिलेगी। मैं बच्चों के साथ खुश हूँ। वे एक जिम्मेदार पति नहीं हैं, किन्तु पिता की जिम्मेदारी से कभी विमुख नहीं होंगे।" विगत तीस वर्षों में बहुत कुछ बदल गया... बड़े साथ छोड़ गए और बच्चे अपनी दुनिया में रम गए, जो नहीं बदला वह था कुहू का अकेलापन और इंतज़ार....
"हा हा हा.........." अचानक गूँजे अट्टहास से नीरज दहल गया। कुहू तो कभी ऊँची आवाज में बात नहीं करती थी, एकदम सीधी सादी सी... आधुनिक जीवनशैली में अनफिट, इसीलिए तो वह नीता की ओर आकृष्ट हुआ था। उम्र के इस मोड़ पर पाश्चात्य संस्कृति से मोहभंग हुआ और पुरवा की सुहानी बयार उसे फिर कुहू के पास खींच लायी थी। विश्वास था कि भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी पत्नी उसे खुशी से स्वीकार करेगी।
"नीरज! इतने वर्षों में नीता के साथ रहकर भी आप मुझे नहीं भूले... नहीं जानती कि यह मेरी जीत है या उसकी हार...? मेरा एक पल भी ऐसा नहीं गुजरा जब आपकी याद न आयी हो... बच्चों के साथ बचपन जीते हुए या उनके दादा दादी की विवशता झेलते हुए, हर पल खुद को बहुत अकेला महसूस किया है मैंने... सोचती थी कि मैंने बहुत कुछ खो दिया किन्तु आज पता चला कि मुझसे ज्यादा तो आपने खोया है...."
"...................................."
"मैंने तो खुद को पा लिया है, अकेले रहकर महसूस हुआ है कि मेरे अंदर यादों का समंदर बहता है, सूरज की तपन और चाँद की शीतलता मेरी जिंदगी का खजाना है, दिन और रात की तरह मैं बढ़ती घटती रहती हूँ, ये जो वक़्त मुट्ठी से फिसल रहा है रेत की तरह... सुख-दुःख और खुशी-गम के अनमोल शंख और सीपियाँ धरोहर के रूप में देकर जा रहा है... अब मुझे और क्या चाहिए भला......"
"कुहू! मुझे माफ़ कर दो... प्लीज..."
"नीरज आज मेरा इंतज़ार खत्म हो गया... मेरा खुद से परिचय कराने के लिए आपका धन्यवाद.... आज जान गयी हूँ कि इतने सालों तक अकेलापन ही मेरा साथी था और शेष जिंदगी में भी वही रहेगा.... वही मेरा सच्चा जीवनसाथी है....और किसी की मुझे जरूरत भी नहीं है.... "
©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित