मीत न मिला रे मन का Dr. Vandana Gupta द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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मीत न मिला रे मन का



"सुन जल्दी से आजा, कोई खास मेहमान आए हैं.." तृषा का फोन आया और मैं दस मिनट में गाड़ी में थी. मुझे तैयार होने में कम से कम बीस मिनट लगते हैं, किन्तु तृषा के शब्दों से झाँकती खुशी मुझे मेकअप का समय भी नहीं दे रही थी. मेरे और उसके घर में आधे घण्टे की दूरी है... किन्तु दिल में सेकंड के हजारवें हिस्से जितनी भी नहीं. इस आधे घण्टे के सफर में मेरा दिल कितने ही बीते सालों की यात्रा पर चल पड़ा....

"हेलो! आई एम तृषा..." कॉलेज के पहले दिन उसने परिचय के लिए हाथ बढ़ाया..
"हाय! आई एम तृप्ति..." मैंने उसका हाथ थाम लिया...! परिचय दिन ब दिन प्रगाढ़ होता गया. नाम के अनुरूप ही हम दोनों में काफी विरोधाभास था. पर हमारे विषय की जटिलता के कारण बीस बच्चों की क्लास में केवल हम दो ही लड़कियाँ थीं, और यह भी हमारी दोस्ती की एक वजह थी. वह हमेशा तृप्त रहती और मैं तृषित... फिर भी दोस्ती का रंग गहरा होता जा रहा था. ऐसा नहीं था कि हमारे बीच कभी मतभेद नहीं हुए.. होते थे, किन्तु जैसे सर्दी के मौसम में अलसुबह का कोहरा... या कि गर्म चाय की भाप.. या फिर बारिश के मौसम में ए सी कार से बाहर निकलने पर चश्मे पर जमी धुंध की तरह से... जो कि कभी सूरज की तपिश से या वातावरण की ठंडक से तो कभी रुमाल से पौंछकर साफ करने से गायब हो जाए.. इसीलिए हमारे मनभेद कभी नहीं हुए..!

फिर आया था सागर हमारी जिंदगी में.. "मोहतरमा! आप अपने कीमती नोट्स क्या इस खाकसार के लिए छोड़े जा रही हैं??" आवाज़ सुन हम दोनों एक साथ पलटीं.. कॉलेज गार्डन के लॉन में छूटी तृषा की कॉपी को सागर के हाथ से लेते हुए 'थैंक यू' कहते हुए मैं मुस्कुरायी थी. मेरी मुस्कुराहट पर तृषा बिफर पड़ी थी बाद में... "क्या जरूरत थी कॉपी लेते हुए मुस्कुराने की..? तू जानती नहीं इन लड़कों को.. मौका ढूँढते हैं.."! मुझे क्या पता था कि मौका सागर ने नहीं ढूँढा था.. उस छूटी हुई कॉपी के साथ जिंदगी खड़ी मुस्कुरा रही थी, हमें अनगिनत मौके देते हुए...! मेरी उस मुस्कान ने वाकई सागर के दिल को घायल कर दिया था और उसकी सदाशयता ने मुझे अभिभूत..! अब कॉलेज कैंटीन में हम दो कुर्सी के बजाय चार कुर्सी वाली खाली टेबल ढूंढने लगे थे.. मैं तृषा से कहती थी कि जल्द ही चौथी कुर्सी का उम्मीदवार ढूँढ ले, वह सिर्फ मुस्कुरा देती. धर्म, समाज, राजनीति, फ़िल्म, साहित्य, परिवार आदि कोई विषय नहीं बचता था हमारी बातों से... हाँ कभी कभी जब सागर और मैं फूल, तितली और सपनों की बातें करना चाहते तो तृषा की उपस्थिति सागर को खलने लगती थी, किन्तु मुझे तो उसकी आदत हो गयी थी और आदतें जल्दी बदलती नहीं.. सागर और तृषा के बिना मेरी जिंदगी के कोई मायने ही नहीं थे. गुजरते दिन के साथ सागर मेरे और मैं उसके दिल में गहरे उतरते गए.. हमारी पसन्द भी काफी मिलती थी. हम दोनों तय करके एक रंग के कपड़े पहनकर कॉलेज आने लगे थे और तृषा साथ रहते हुए भी कभी कभी कहीं खोने लगी थी. प्लेसमेंट होने के साथ ही घरवालों की स्वीकृति से नये रिश्ते में एक कदम और आगे बढ़ाने का इरादा था.
"देख तृप्ति! तुम दोनों साथ में बहुत अच्छे लगते हो लेकिन पूरी जिंदगी का फैसला सोच समझ कर करना.." तृषा की बात की गहराई में जाने का इरादा नहीं था मेरा..
"हम दोनों की पसन्द इतनी मिलती है, जोड़ी भी खूबसूरत लगती है, आर्थिक और पारिवारिक स्तर भी एक जैसा है, अब और क्या सोचना..." मैंने तृषा की बात को हवा में उड़ा दिया. "बस अब तू भी कोई देख ले, फिर हनीमून पर साथ में चलेंगे.."
"मेरी जिंदगी के फैसले में मम्मी की पसन्द पहले और मेरी बाद में होगी.." मेरी बात सुन वह इतना बोल कर खामोश हो गयी थी. सागर और मैंने एक ही कंपनी में प्लेसमेंट लिया और ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग भी एक ही शहर में हो गयी. शादी के बाद मैं पहली राखी पर पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर मायके आयी और तृषा मुझे एक और नयी खुशी देने जा रही है. आज उसकी मम्मी की पसन्द को देखने की मेरी बेताबी कार की स्पीड के साथ बढ़ती जा रही है.
"दीदी कितनी देर लगेगी.." ड्राइवर की बात को अनसुना कर जिस इंद्रधनुषी उत्साह से मैंने घर में प्रवेश किया, वहाँ बैठे उस लड़के को देख सारा रंग फीका पड़ गया.
"यह बादल है..." तृषा मेरा चेहरा देख मेरी नापसंदगी भाँप गयी.
"हेलो.. आप जरूर तृप्ति हैं.." उसके स्वर में अपनेपन का आभास था किंतु फर्स्ट इम्प्रैशन इज द लास्ट के अनुसार मैं 'हूं' कह चुप बैठ गयी. अकेले में मेरी भड़ास निकल पड़ी.. "यही मिला था तुझे? न रूप न रंग.. देख लेना ये बादल कभी नहीं बरसेगा और मेरी तृषा हमेशा ही प्यासी रहेगी..."
"अरे यार! तू तो तृप्त है न सागर से मिलकर.. बस जिंदगी के रंग हैं ये सब... मैं खुश रहूँगी इसके साथ.. तू चिन्ता मत कर.."
.....और फिर उसकी शादी में हर किसी के चेहरे पर सागर और मुझे साथ देखकर प्रशंसा और ईर्ष्या का जो मिश्रित भाव आता, मुझे मेरे भाग्य पर इठलाने का पर्याप्त अवसर दे जाता, साथ ही सहेली के प्रति सहानुभूति वाला भाव भी उदय होने लगा था.. पर हाँ उस उत्सवमयी माहौल में भी मैंने तृषा और बादल के बीच एक केमिस्ट्री महसूस की और इसीलिए सहेली के प्रति मेरी थोड़ी निश्चिंतता भी..!

देखते देखते पाँच साल गुजर गए..! तृषा के भाई की शादी में फिर हम सब साथ में थे.. चार नहीं छः बनकर.. हम दोनों की गोद में एक एक बेटी थी. शादी का घर मेहमानों से भरा था और हम सहेलियाँ मन में भरे भावों को उंडेलने के लिए कुछ सुकून भरे अकेले पल तलाश रहीं थीं.
मैंने देखा कि तृषा तो शादी में बहन की अतिरिक्त जिम्मेदारी में व्यस्त थी, किन्तु बादल एक पिता के साथ पति का फर्ज बखूबी अदा कर रहा था. मुझे मेरे देवर की शादी में बेटी को थोड़ी देर अकेले छोड़ देने पर सागर का गुस्सा याद आ गया.
"लंच के समय बादल और तृषा ने बारी बारी से खाना खाया क्योंकि बेटी को भी संभालना था, जबकि सागर और मैंने हमेशा की तरह एक थाली में, बेटी ने परेशान भी किया पर.... मुझे उन दोनों को देखकर प्यार और परवाह में फर्क नज़र आ रहा था..!
पिछले पाँच सालों से प्यार में होता परिवर्तन मैं फिर महसूस कर रही थी.... प्यार का खुमार जिम्मेदारी का लबादा सहन नहीं कर पा रहा था.. शादी के बाद भी हम दोनों प्रेमी प्रेमिका बने रहना चाहते थे, गलत नहीं था, किन्तु समझौता कौन करे?? दूसरी तरफ तृषा और बादल थे.. कितने खुश और एक दूसरे को समझने वाले....!
"तूने सही कहा था, तुझे मन का मीत मिला है.." मौका मिलते ही मैंने तृषा से कहा...
"और तुझे...?" उसके प्रश्न ने मुझे थोड़ा और रीता कर दिया.. कुछ दरक गया भीतर... मीत न मिला रे मन का.... !
"मैं सागर से मिल कर तृप्त थी... किन्तु भूल गयी थी कि सागर का पानी खारा भी होता है... मैं गलत थी, तूने सही कहा था...." मैंने आँखे भींच लीं, लेकिन तृषा ने आँखों के साथ दिल की नमी भी देख ली..!
"तू फिर गलत है.." उसने शब्दों को चबा चबा कर बोला...
मुझे लगने लगा कि अब ये कहेगी कि बादल से मिलकर भी वह प्यासी है.. शायद दोस्त के दुःख से हमारा दुःख भी कम हो जाता है, कि एक ही नाव में सवार हैं.. साथ तैरेंगे और साथ ही डूबेंगे.. !
"जब बादल बरसता है न, तब अँजुरी खोलकर ही आप पानी सहेज सकते हो.. वरना तो बह जाता है.. मैंने हमेशा बादल के प्यार को सहेजा है... मम्मी ने कहा था कि प्यार पाने से ज्यादा सहेजना जरूरी होता है.. परवाह हो तो प्यार बढ़ता है.. वरना...."!
"तू सही कह रही है... किन्तु...."
"किन्तु परन्तु कुछ नहीं, मेरी बात ध्यान से सुन..." उसने बोला तो मेरी सारी इन्द्रियाँ कान में तब्दील हो गयीं...
मेरा हाथ पकड़कर आँखों में देखते हुए उसने बोलना शुरू किया.... "तेरे और सागर के बीच प्यार के साथ अहमभाव देखकर ही मैंने तुझे सोचकर फैसला लेने को कहा था... कभी कभी एक जैसे विचार और एक जैसी पसन्द भी टकराव का कारण बन जाती है..! पर तुम दोनों की जोड़ी बहुत अच्छी है, बस समझदारी की कमी है... मत भूल कि सागर के खारेपन से ही नमक बनता है, जिसकी कमी जिंदगी के हर स्वाद को फीका कर देती है..!"
"हमारी पत्नीजी को कौन सी घूंटी पिलायी जा रही है..?"
सागर और बादल ने एक साथ प्रवेश किया...!
"जरूर प्यार की बूटी बंट रही है.. हम सही वक्त पर आ गए.." बादल की ओर मैंने पहली बार प्रशंसा भरी नजरों से देखा.
मुझे सागर और बादल का अंतर समझ आ रहा था.. बादल बरस कर, खुद को मिटाकर प्यास बुझाता है, जबकि सागर सबको साथ बहाना चाहता है, उसके प्रवाह के साथ बहते रहो वरना किनारे पर फेंक दिए जाओगे...!

"... हम बात कर रहे थे कि मन का मीत मिल जाए, तब भी उसका मन जीतने का प्रयास करते रहना चाहिए... है न...?"
"हाँजी.. तभी मन की तृषा बुझेगी और तृप्ति का अहसास होगा.." तृषा की बात सुन मैं मुस्कुरा उठी...!

.....मेरा मन फिर से मनमीत के साथ जिंदगी के नवगीत गाने को तैयार था....!

©डॉ वन्दना गुप्ता
उज्जैन
मौलिक एवं अप्रकाशित