मायामृग - 17 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मायामृग - 17

मायामृग

(17)

उदय के जाने के बाद शुभ्रा की बड़ी सी मित्र-मंडली उसे इस पीड़ा से दूर रखने के सौ-सौ उपाय करती | कभी उसे अपने घर बुला लेना, कभी उसके पास ही आ जाना, कभी किसी होटल में तो कभी किसी न किसी कार्यक्रम में वे सब उसे ज़बरदस्ती ले जाते | शुभ्रा के मुख पर उदासी पसरी देखकर उसके मित्र भी उदास हो उठते ;

“जीवन में सबके साथ यही होना है, कोई पहले तो कोई बाद में, सबको जाना है ---” काफ़ी दिनों तक तो वह मन ही मन घुटती रही फिर ऐसे क्षण भी आए जब वह स्वयं को रोक न सकी |

चुभते रहे शुभ्रा को गर्वी के शब्द;”“तमाचे लगाए होते बेटे के गालों पर तब लाड़ले की तस्वीर कुछ और ही होती, न जाने कहाँ से लाट साहबों वाला स्वभाव लेकर आए हैं ---”आखिर ”जब बिलकुल टूटने की स्थिति आ गई तब उसने मित्रों से सांझा कर ही दिया |

“क्यों तुम्हारे मुह में ज़बान नहीं थी जो कह सकतीं कि तुम्हें लगाए हैं क्या तमाचे जो तुम इतनी उड़ रही हो ? और साफ़ तौर पर कह देना चाहिए था, मुझसे इस तरह की बातें करने की ज़रुरत नहीं है| ”मनु ने खूब बिफरकर कहा |

“और बना बनाकर खिलाओ परांठे ---मेरी गर्वी थकी हुई आएगी ----सच में हद होती है बेवकूफ़ी की, ठीक ही तो कह रही है वह, किसीको ऎसी बेवकूफ़ सास मिलेगी क्या जो मरती-मरती सब काम भी करती रहे और गालियाँ भी खाती रहे ---”शुभ्रा की पूरी मित्र-मंडली तैश में आ गई थी |

“सुन कैसे लेती हो? तुम्हारे मुह में ज़बान नहीं है क्या ? ”” किन्तु वह फिर भी अपने मुख से कभी कुछ कह ही तो नहीं पाई, कह सकती तो बेटे की त्रुटियों के साथ गर्वी के भी बहुत से कार्य-कलापों पर ऊंगली उठा सकती थी किन्तु सीखा ही कहाँ था उसने कुछ बोलना | हर बच्चा अपने माँ-बाप के घर में लाटसाहब ही होता है, उसे स्वयं भी किस प्रकार पाला गया था, जैसे किसी नाज़ुक मोती को संभालकर रखा जाता है | उसके बेटे ने भी लाटसाहबों वाला स्वभाव घर से ही तो पाया था| केवल यह कमी रह गई कि उदित पिता की अंतरंगता नहीं पा सका था, पिता उसके मित्र नहीं बन सके ! किन्तु वह इतना बुरा भी नहीं था जितना उसे प्रस्तुत किया जाता रहा था| शुभ्रा को इतना तो विश्वास था कि उदित देर या सबेर कभी तो वापिस लौटकर आएगा | खैर--- विश्वास और भरोसा तो उसे गर्वी के प्रति अपने प्यार व स्नेह पर भी था |

“”मनुष्य अच्छाईयों व बुराईयों का पुतला है मणिदी, गर्वी में भी उसके परिवेश से ये सब आया है, उदित ने भी तो कम गलतियाँ नहीं की हैं | इसके लिए उसको ही दोषी क्यों मानूँ? ”” शुभ्रा निढ़ाल होकर अपने परम मित्रों के समक्ष टूट सी जाती |

“”तो मानती रह अपने बेटे को, अपने को और अपने परिवार को दोषी ---फिर रोना कैसा ? ”“वे नाराज़ हो जातीं और शुभ्रा की समझ में कभी नहीं आता कि उसे करना क्या चाहिए ? इधर कूआँ, उधर खाई ! आखिर जाए तो जाए किधर ? यही सोचते हुए तो पूरी उम्र तालियाँ बजा बजाकर निकलती रही| एकतारा चेताता रहा ---टुन टुन—और वह बस कलाबाजियाँ खाते हुए उम्र को निचोड़ती रही | कैसी ठूँठ बन जाती है न निचुड़ी हुई उम्र ! !

जब भी कुछ घटित होता उसे बरबस उदय की याद आने लगती | कैसी लड़ती थी वह उदय से;

“”ऐसा करो, हम सबको घर से बाहर निकालकर पूरे घर में हमारी जगह अपने पेड़-पौधे ही पाल लो| ”

जब उदय हल्के मूड में होते तब उसकी बात को मुस्कुराकर टाल देते किन्तु इधर जबसे बेटे-बहू के चक्कर में पिसने लगे थे तब से मन हल्का करने के उनके साधन तो वही थे –बेटी का घर या नर्सरी, परन्तु अब उसकी बात पर चिढ़ जाते थे और गर्वी की बात बीच में लाकर कहते;”

“ “कैसी कचर-कचर ज़बान चलती है, किसी बात को सुना नहीं जा सकता क्या, धैर्य रखना तो आता ही नहीं ! ””उदय पीड़ित होकर शुभ्रा के समक्ष अपनी भीतरी पीड़ा खोलते |

“मैंने क्या कहा, किसे—“शुभ्रा का मुख लटक जाता |

“तुम्हारी बात कर रहा हूँ क्या मैं ? तुम्हारी लाड़ली जिसे सिर पर बिठा रखा है तुमने ----“क्या उत्तर देती वह ? जानती थी उसे क्या उत्तर मिल सकता था ? साँसों से जुड़ी हुई, निचुड़ी हुई खाल से कैसे परिवार के शरीर की ठिठुरती, काँपती हुई त्वचा को सहारा देती, कैसे उदय की आँखों में हर पल उगते हुए प्रश्नों पर आवरण ढकती, ? कैसे उन्हें कहती कि यह आज का समाज है, आज की संतानें हैं ये ! यूँ भी उम्र के जवान दौर में कुछ भी कहना व सहना दोनों ही सरल होते हैं किन्तु एक उम्र पश्चात यही सब आततायी बनकर हमें घूरने लगते हैं | मन में बच्चों के साथ रहने अथवा न रहने के बीच का झूला जो ऊपर-नीचे झूलता रहता, उससे उदय बहुत सशंकित रहते, उम्र की इस ढलान पर हिलती हुई उम्र की सीढ़ी चढ़ना दूभर होता है, हर पल पैर फिसलने का भय मनुष्य को अशक्त बनाने लगता है| उदय भी कुछ इसी दौर में से होकर गुज़र रहे थे, अधिक अशक्त, अधिक संवेदनशील, अधिक पीड़ित ! इतनी मन्नतों के बाद जन्मे पुत्र का भविष्य उदय को अन्धकार में दिखाई देता तो वे बहुत-बहुत गमगीन हो उठते | कौन माता-पिता होगा जो जीवन के इस नाज़ुक दौर को पकड़कर वैतरणी पार कर ले !

कितनी भी पीड़ा रही हो उदय प्रकाश के मन में किन्तु वे हार मानने वालों में से नहीं हो सकते थे | वो जीना चाहते थे, टूटकर भी जीना चाहते थे और पूरी शिद्दत से जीना चाहते थे | बीमारी के बाद भी जब कुछ ठीक होने लगे थे, नए-नए पौधे ले आते, शुभ्रा के खीजने के डर से चुपचाप छिपाकर रख देते फिर माली के आने पर एक-एक करके खाली पड़े हुए गमलों में लगवाते समय जब कभी शुभ्रा घर में उपस्थित होती तब पकड़े जाते, खिसियाकर कहते ;

“”ये गमले खाली पड़े थे न ! ”” क्या बोलती शुभ्रा माली के समक्ष, चुपचाप घर के भीतर चली जाती| दोनों एक-दूसरे की पीड़ा समझते और दोनों ही केवल आँखों में बात कर लेते, शब्द बहुत पीडादायक थे|

उदय की मुस्कुराहट बड़ी मंहगी थी, अच्छे दिनों में खुलकर, ठठाकर हँसने की जगह वे बहुत शालीनता से, हल्के से मुस्कुराते रहते | वैसे मुस्कुराने के मामले में बेहद कंजूस होने के उपरान्त भी पत्नी की शिकायत सुनकर चेहरे पर लंबी सी मुस्कान खींच लेते और चुपचाप मिट्टी लगे हुए हाथ धोने बेसिन की ओर बढ़ जाते | शुभ्रा बहुत चिढ़ाती थी उदय को, गर्वी के सामने भी कहती ;

“”बड़ी मंहगी है डैडी की मुस्कान ----! बड़ी मुश्किल से थिरकती है होंठों पर ! ”” और ठठा जाती, गर्वी भी उसके साथ दिल खोलकर हँस पड़ती | शुभ्रा के ‘डैडी’ कहकर पुकारने पर तो सबकी खिलखिलाहट फूट पड़ती|

एक अलग ही था उदय का मुस्कुराने का, स्नेह जताने का अंदाज़, सबके लिए खड़े होना उनकी आदत थी और सबके लिए अपने आप बिन कहे सब कुछ कर देना उनका स्वभाव ! कहाँ, किसीको उनके रहते ज़रुरत पड़ती थी किसी काम को करने की | जबकि बार-बार यह कहा जाता कि भई अब बच्चे बड़े हो गए हैं, अब उन्हें कोई तो ज़िम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए | उनकी समझ में ही नहीं आता था, कोई किसीका भी काम ! लगता, जैसे कोई अमरपट्टा लिखवाकर आए हों | अब उनके न होने से तकलीफों की कितनी सीमा बढ़ गई है, उन्हें कहाँ पता है | वे तो आज भी होते तो बिस्तर से भी उठकर खड़े हो जाते|

वे स्वयं को अपने खूबसूरत पेड़-पौधों में व्यस्त रखते, चुपचाप जाकर नए कपड़े, जूते खरीद लाते| जब पहनते तब शुभ्रा मुह बाए देखती रहती ;

“अरे ! ये कब ले आए? ” वह आश्चर्य से पूछती |

“अरे! ये तो पुराना है, कबका लाया था ----” मुख छिपाकर बोलते लेकिन जैसे ही वे घर से बाहर निकलते और शुभ्रा अंदर जाती, खाने की मेज़ पर कपड़ों की कीमत के ‘टैग’ पड़े देखकर उसके मुख पर झुंझलाहट भरी मुस्कान पसर जाती | कभी ‘डस्टबिन’ में तो कुछ डालना जाना ही नहीं था सो कहीं न कहीं से चुगली खा ही जाते उनके नए कपड़ों से निकाले गए टैग !

‘कभी सुधरेंगे नहीं ‘मुस्कुराती हुई वह सोचती और फिर उनकी छिपी हुई कई और कमीजें, टी-शर्ट्स कहीं न कहीं से खोजकर ही दम लेती वह |

कितनी प्यारी चल रही थी ज़िंदगी, इस बात से बेखबर कि कोई ऐसा भी तूफ़ान का झोंका आ सकता है जिसमें वे स्वयं तो बहकर निकल जाएंगे और शुभ्रा को उस तूफ़ान के तूफ़ानी काँटों में उलझाकर छोड़ देंगे | वैसे कोई किसीको कहाँ छोड़ता है ? यह तो छूट जाता है, स्वयं छूट जाता है | ज़िंदगी की फिसलन लुढ़का देती है जिसमें मनुष्य नीचे पहुँचकर ही साँस ले पाता है| यही है ज़िंदगी का ढर्रा और सबका अपना-अपना भाग्य जो चितेरे ने पोतकर रखा है |

कैसी माया है और कैसा है ये भ्रमजाल जो हमारे भीतर बुना जाता है ! ये प्रत्येक मनुष्य के भीतर बुनना शुरू होता है तो लंबा ही होता जाता है, घुचुड़-मुचुड़ होते हुए भीतर और भीतर एक अँधेरा बोता रहता है और एक ऐसा समय आता है जो अपनी जड़ें जमा लेता है | उसकी समझ में अब आ रहा था कि कोई भी पौधा लगाने से पूर्व उसकी ज़मीन ज़रुर देख लेनी चाहिए, उसमें कितनी मिट्टी, कितनी खाद डालनी होगी, इसका हिसाब –किताब रखना भी बहुत आवश्यक है ! उदय सदा अपने पौधों में हर चीज़ के अनुपात का ध्यान रखते थे इसीलिए उनके पौधे खिले रहते थे और उनके साथ वे स्वयं भी | शुभ्रा पति की उनके पेड़-पौधों के प्रति निष्ठा देखकर भी नहीं समझ पाई कि अधिक पानी डालने से जैसे पौधे गल जाते हैं, उसी प्रकार आवश्यकता से अधिक प्यार से रिश्तों के पौधे भी तो गल जाते हैं | वह भटकती रही भ्रमजाल के भीतर और गलती रहीं रिश्तों की जड़ें ! जो इतनी गल गईं कि अब उनके पनपने का कोई मार्ग नहीं दिखाई देता था |

उस दिन उदय जब पहली बार बुखार से घिरे थे तब उससे न जाने क्यों बहुत गमगीन बातें करने लगे थे, उन्हें न जाने क्यों यह आभास हो गया था कि गर्वी उदित से बदला लेने की दहलीज़ पर उतर आई है | तब तक गर्वी बच्चियों को लेकर माँ के यहाँ चली गई थी | इससे पूर्व जब उदित और उसकी पत्नी गर्वी के बीच तनाव चल रहा था, कई बार कुछ ऐसा हुआ कि उदय रोने की सीमा तक माथे पर हाथ रखकर बैठ गए थे | घर की बहू कहाँ? कब? जा-आ रही है पूछने की तो कभी कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं की गई थी इस घर में | सच इसमें शुभ्रा का भी कोई कम दोष नहीं था, वह एक माँ थी, उसका पूर्ण अधिकार था कि वह बच्चों से पूछे कि वे घर से कहाँ और कितने समय के लिए जा रहे हैं ? क्या वह अपनी बिटिया दीति के साथ ऐसा नहीं करती थी? फिर पुत्र-वधू से पूछने में उसे यह संकोच क्यों था? जब-जब उदय पूछते वह कह देती ;

“”हाँ, वह माँ के घर गई है, इधर गई है, उधर गई है, अपनी किसी सखी के यहाँ गई है ---”“उदय खून के घूँट पीकर रह जाते, आखिर अपनी पत्नी के इस स्वभाव का क्या अचार डालें जो समझते हुए बहुत सी बातों को न समझने का स्वांग रचती रहती है | फिर एक आह भरकर चुप हो जाते | जब इन दोनों की अधिक खटर-पटर चल रही थी तभी उदित की आँख का एक छोटा सा ऑपरेशन हुआ था, सब ठीक-ठाक हो गया था किन्तु आँख की नन्ही सी त्वचा को ‘टैस्ट’करने के लिए भेजा गया था| उदित चिंता करने लगा था कि कहीं कोई और बला सिर पर न आ पड़े, वैसे भी वह भीतर से बहुत बहादुर नहीं था, ऊपर से स्वयं को बहादुर दिखाने वाला उदित अपने पिता उदय की भांति ही सहज था, उसे तो बस बाहर की कंपनी ने उद्दंड बना दिया था फिर जब से गर्वी घर में आई वह उसके आगे-पीछे ही तो घूमता रहा था | किस दिन माँ-बाप के पास आकर बैठा था? कितना भी हाथ टाईट रहा हो, घर-खर्च के लिए बेशक पैसा न दिया गया हो, हर छुट्टियों में बच्चों के साथ बाहर तो जाते ही थे दोनों | कोई बात खुलने पर अथवा पूछे जाने पर दोष तो सारा उदित का ही होता था, कहीं न कहीं वह गर्वी के स्वभाव से भीतर से सहमा हुआ तो रहता था, यह उसका बात को टालने वाला अंदाज़ बन गया था | सब बात ‘गर्वी से पूछ लो, वह देख लेगी, जैसा वह कहेगी ? ’पता नहीं गर्वी घर के लिए जैसे सर्वस्व बन चुकी थी, वो तो थोड़ा सा उदय प्रकाश के कारण बातें कुछ संभली रहतीं अन्यथा --- | उदय स्वयं को ‘सर्वस्व’ समझता, उसे लगता वह जो चाहे, कर सकता है, नहीं समझ सका वह कि ज़िंदगी की डोर अपने हाथ में कहाँ होती है किन्तु कहते हैं न अहं किसीको नहीं बख्शता | पीने का कोई न कोई कारण मिल ही जाता था उसे ! ऑपरेशन के समय गर्वी उसके साथ गई थी किन्तु बार-बार यही कहती रही कि उसके क्लीनिक का समय हो रहा है और वह जल्दी ही वहाँ पहुंचना चाहती है, एक अजनबी रिश्ते की दरार दोनों के बीच गहराती जा रही थी | इसमें कोई संदेह नहीं था कि गर्वी अपने कार्य में बहुत गंभीर थी और संभलकर चलने वालों में से थी, गंभीर उदित भी था लेकिन उसने कभी भी संभलकर चलना सीखा ही नहीं था | कैसे न कैसे उसके सब काम हो ही जाते थे और वह अपने स्तर के अनुसार अपने काम करा ही लेता था | इसका एक बहुत मुख्य कारण माता-पिता के द्वारा जिम्मेदारियों को न बांटना भी था | शुभ्रा ने देखा है अधिकतर वे बच्चे जिनके माता-पिता सारा बोझ अपने कंधों पर ले लेते हैं, इसी प्रकार लापरवाह बन जाते हैं, उत्तरदायित्व संभालने में कोताही करते ही हैं | जब तक उन पर कोई बोझ न पड़े वे निश्चिन्त रहते हैं|

विवाह से पूर्व गर्वी उदित के सारे लक्षणों से परिचित थी इतनी कि जितनी शुभ्रा को माँ होने के बावजूद भी मालूम न था, वह तो कल्पना भी नहीं कर सकती थी अपने बेटे के वास्तविक स्वभाव की! संबंध की वास्तविकता का कटु समय पड़ने पर ही आकलन होता है, इससे पूर्व तो जब तक लल्लो-चप्पो करते रहो, कहाँ कोई कष्ट होता है, दूसरों का कष्ट भी दिखाई नहीं देता| शुभ्रा की सभी मित्र मणि, मानवी, माधुरी, मनस्वी सबको शुभ्रा के लिए अपनी बहू के प्रति व्यवहार से बहुत कष्ट होता, हर समय काम में उलझी शुभ्रा पति के लिए जो कुछ करती, वह ठीक था किन्तु जब वे सब उसका समर्पण अपनी पोतियों और पुत्र-वधू के लिए देखतीं, कुढ़कर रह जातीं ;

“”भई ! पहले शुभ्रा से पूछ लो, वह ही सबसे अधिक व्यस्त रहती है ---”” कहीं जाने का कार्यक्रम हो अथवा कोई और कार्यक्रम बने मणि यही कहती |

“”हाँ, उससे पूछकर ही बनाना कोई कार्यक्रम –““और सखियाँ भी उसकी हाँ में हाँ मिलातीं |

“”चली क्यों नहीं जाती हो जब सब लोग तुम्हारे लिए अटके रहते हैं ---क्यों हर समय सबके लिए जान कुर्बान करने को तैयार रहती हो ? ”उदय भी झुंझलाकर कहते | वे जानते थे कि शुभ्रा की सभी सखियाँ उसे लिए बिना कहीं नहीं जाती थीं और शुभ्रा थी कि हर समय घर के पचड़ों में पड़े रहना चाहती थी |

शुभ्रा के कारण प्रोग्राम टलते रहते और उसको घर के सदस्यों की ज़रूरतें पूरी करने से ही फुर्सत नहीं मिलती |

“”यार ! कितना भाव खाती हो ! ”” मनस्वी जिसे सब लाड़ से मनु कहते थे, चिढ जाती |

“ “अरे ! भाव खाऊँगी ! किस बात का भाव ? मुझे लगता है बेचारी गर्वी आकर खाना बनाएगी सो या तो बनाकर आऊँ या फिर जब वो आ जाए तब आऊँ, उदय भी तो डायबिटिक हैं न ! उन्हें भी समय पर खाना चाहिए ! ”” शुभ्रा सारा भार उदय के कंधे पर रख देती |

“ “न जाने किस गिरफ़्त में कैद रहती है ये, कुछ अपने बारे में भी सोच लिया कर ---“”माधवी भी भुन-भुन करती | एक आदत सी पड़ जाती है न ! शुभ्रा को भी आदत पड़ गई थी और गर्वी को उसने आदत दाल दी थी -----बाईस/तेईस वर्ष कम नहीं होते किसीको सिर पर चढ़ाने के लिए! जीवन में प्रत्येक वस्तु कि एक सीमा होती है, बेलगाम तो घोड़े भी दुल्लत्ती मारते हैं |

“”वो जहाँ मर्ज़ी घूमे-फिरे, तुम्हारे कंधों पर ही तो है सारे संसार का बोझ ? ””मानवी किट किट करती |

“”मुझे कोई कुछ करने के लिए कहता थोड़े ही है, मुझे ही ऐसा लगता है कि वह भी तो बिज़ी रहती है, बच्चों को छोड़कर जाती है, कम से कम बना–बनाया खाना तो मिल जाए –”” वह गर्वी पर अपना सारा प्यार उंडेलने को तत्पर रहती | उसे न जाने क्यों यही लगता रहा कि गर्वी का अपने पति उदित से चाहे कितना भी उलझा हुआ संबंध क्यों न हो, उसके साथ कभी कोई उलझाव हो ही नहीं सकता| जहाँ जाए वहाँ गर्वी, किसीकी बहू की प्रशंसा हो रही हो, वहाँ गर्वी की बड़ाई न करे, यह तो हो ही नहीं सकता था | इतना कि सामने वाला कुढ़कर रह जाए, अरे! किसी और की बात में गर्वी की बात करने की भला कहाँ ज़रुरत थी ? गर्वी पर ऐसा इतना दृढ़ विश्वास जैसे कोई ईश्वर पर विश्वास रखता हो, ईश्वर हमारा कुछ बुरा कर ही नहीं सकता, आखिर हम उसके ही तो बच्चे हैं –बस ऐसे ही गर्वी थी शुभ्रा के लिए ! मनुष्य कितने भ्रमों में साँस लेता है ! सारी सखियाँ उसके सामने चुप होकर बैठ जातीं और करतीं भीं क्या ?

एक बार शुभ्रा सहेलियों के साथ बाहर गई थी, जाते ही रहते थे कोई नई बात नहीं थी | गर्वी को भी इस बात से और स्वतन्त्रता मिलती, जब सास इस उम्र में अपने दोस्तों के साथ बाहर जा सकती है तब वह तो युवा थी, उसके खेलने-खाने के दिन थे | अक्सर शुभ्रा खाना आदि बनाकर निकलती, उदय डायबिटिक थे | शुभ्रा ने कभी नहीं चाहा कि गर्वी उदय के कारण खाना जल्दी बनाकर जाए, अपने कॉलेज के दिनों में भी वह अक्सर यही कोशिश करती कि गर्वी पर अधिक ज़ोर न पड़े जबकि गर्वी उसे काम न करने के लिए भी कहती किन्तु वह तो शुभ्रा थी| अब उसे अपनी बेटी की बात सही लगती है कि ‘महान बनने का शौक क्यों है आपको ? ’पता नहीं उसे कभी ये महसूस क्यों नहीं हुआ? वह तो सीधे स्वभाव हर काम करके बाहर जाने की चेष्टा करती किन्तु इस चेष्टा में उसके मुख पर बारह बज जाते | फिर वह अपनेको कितना भी सजाती, सँवारती पर चेहरे-मोहरे के साथ शरीर की थकन भी चुगली खा जाती| इस बार सब सखियों ने उससे खूब लड़ाई की| सब शुभ्रा के साथ गर्वी के भी बहुत करीब थीं, खूब हँसी-मज़ाक करना, जहाँ कोई उत्सव हो, उसे भी निमंत्रित करना यानि उन्हें लगता था कि उनका अधिकार गर्वी पर शुभ्रा से कुछ कम नहीं है, वे गर्वी से किसी भी विषय पर चर्चा कर सकती हैं |

इस बार शुभ्रा का शिथिल चेहरा व शिथिल शरीर देखकर शुभ्रा की तीन मुख्य सखियों ने गर्वी को फ़ोन कर दिया | हुआ कुछ ऐसा कि तीन दिनों तक लगातार बारी-बारी से गर्वी के पास फ़ोन आते रहे | गर्वी का माथा ठनका ;

“आपने अपनी फ्रैंड्स से कुछ बात की थी क्या? ”

“मतलब –किस बारे में ? ” शुभ्र को पता थोड़े ही था कि उसकी शुभचिंतक सखियाँ गर्वी को फ़ोन कर देंगी | कुछ बात भी नहीं हुई थी जो वह कुछ सोच पाती | बस उसके स्वास्थ्य को लेकर सब चिंतित हो रही थीं और उसने उन्हें आश्वासन भी दिलाया था कि अबकी बार वह उनसे बिलकुल ‘फ़्रेश’होकर मिलेगी | उसे क्या पता था कि वे गर्वी को फ़ोन कर बैठेंगी |

“नहीं, आपने कुछ तो कहा होगा जो आपकी सारी फ्रैंड्स के फ़ोन लगातार आए हैं ? ” शुभ्रा को कुछ मालूम हो तो बताती न ! उसने गर्वी को तो बता दिया कि उसकी किसीसे कुछ बात नहीं हुई थी पर उसने देखा गर्वी के चेहरे पर अविश्वास की रेखा पसर गई थी, शुभ्रा यह देखकर आहत हो गई थी, उसने अपनी सब मित्रों से पूछा तब उसे पता चला कि वे सब उसके स्वास्थ्य के बारे में चिंतित थे इसीलिए उन्होंने गर्वी को फ़ोन किया था | मज़ेदार बात यह थी कि किसीको किसी के बारे में नहीं पता था कि उनका फ़ोन इस प्रकार लगातार गर्वी के पास पहुँच जाएगा | शुभ्रा ने स्पष्ट शब्दों में अपनी सखियों से कहा था कि वे उसके घर के मामले में हस्तक्षेप न करें, जिससे वे सब चुप हो गईं थीं | वे सब तो चुप हो गईं थीं किन्तु शुभा ने स्पष्ट महसूस किया था कि गर्वी के अहं पर चोट लगी थी और उसने शुभ्रा की सखियों में कमियाँ निकालनी शुरू कर दी थीं | शुभ्रा चुचाप सुनती रह गई थी| सब पुराने मित्र थे, इतने कि सब एक-दूसरे से अपनी समस्याएँ सांझा कर लेते और हल्के हो जाते| बुरा तो बहुत लगा था शुभ्रा के मित्रों को लेकिन उन्होंने उसके बाद इस विषय पर शुभ्रा से कोई चर्चा ही नहीं की थी | कोई किसी का भाग्य-विधाता तो बन नहीं सकता |

उदित को दोपहर में उठकर चाय पीने की आदत थी, ऐसे ही जैसे सब शाम की चाय पीते हैं, अपने अवकाश के पश्चात वे अपने अनुसार सोते-उठते थे | जब कभी शुभ्रा को बाहर जाना होता तब यदि वे जागे हुए होते तब वह स्वयं उन्हें चाय पिलाकर जाती थी अन्यथा वे यह कहकर ही सोते;

“मेरी चाय की चिंता मत करना, तुम चली जाना ----” वह सोते हुओं को उठाती नहीं थी | गर्वी भी कहकर अपने कमरे में जाती कि डैडी उसे बुला लेंगे जब चाय पीनी होगी | लेकिन उदय ने शायद ही कभी गर्वी को चाय बनाने के लिए बुलाया हो जबकि मधुमेह होने के कारण उठते ही उनका शरीर चाय मांगता था, इसके उपरान्त भी वे स्वयं चाय बनाकर पी लेते | शुभ्रा जब वापिस आकर पूछती तब पता चलता कि उदय ने स्वयं ही चाय बना ली थी | इसमें कोई हर्ज़ भी नहीं था बल्कि शुभ्रा को निश्चिन्तता ही थी कि घर पर किसी के न होने पर भी उदय इतना काम तो ख़ुशी-ख़ुशी कर लेते हैं, हाँ ! उसके सामने नहीं |

तात्पर्य कि पूरी कोशिश की जाती गर्वी को किसी भी प्रकार कोई परेशानी न हो | वही गर्वी अब अपनी सास से इस प्रकार का व्यवहार कर रही थी कि शुभ्रा को समझ में ही नहीं आ रहा था कि कहाँ गलती हुई है ? यदि उदय के कहने से ही गर्वी की ज़बान को सीमा में रखा जाता तब शायद बात बन जाती, मन का तंबूरा तो खूब ज़ोर से बजकर बोलता था कि संभालो पर कुछ समझ में ही नहीं आया तो यही समझना होगा कि सब व्यवस्थित ही होता है |

गर्वी शुभ्रा को सदा मूर्ख ही समझती रही और शुभ्रा अपने सरल स्वभाव के कारण मूर्ख बनने में बड़प्पन समझती रही | जीवन का गणित कितना अद्भुत है, श्वांसों को अनुभव से जोड़े ही रखता है| शुभ्रा को लगता कोई भी खराब अथवा अच्छा नहीं होता अथवा अच्छे या बुरे की कोई परिभाषा निश्चित नहीं की जा सकती | इससे पूर्व भी साक्षी शुभ्रा को मूर्ख की उपाधि से विभूषित कर चुकी थी, उस दिन उसे लगा था कि वह अपना विष वमन करके हल्की हो जाएगी किन्तु जब उसने आज पुन: वही सब बातें दोहराईं तब उसे चक्कर आने लगे | उसे पता लगा कि उसका अपमान करने के लिए ही वह यह सब बोल रही है | उसे याद आया किस प्रकार वह उसके गर्भवती होने पर दूध के गिलास उसे पकड़ाती थी, बाहर स्कूटर तक दूध का ग्लास लेकर भागती हुई चली जाती थी |

जिस बेटे ने अपनी गलतियाँ मानकर उन्हें सुधारने का प्रण लिया था उसे निरीह सा देखकर शुभ्रा का मन कांपने लगता | बच्चा कैसा भी हो, यहाँ तक कि चाहे कितना खराब हो, माँ के रक्त-मज्जा से बनता है, उसकी जान उसमें ही अटकी रहती है | इतनी बड़ी उम्र में आकर उसकी ऎसी दशा शुभ्रा से देखी नहीं जा रही थी | शुभ्रा की तीसरी पीढ़ी में दो बच्चे हुए थे यानि एक भाई, एक बहन-- परिवार पूरा हुआ था | जब उदित का जन्म हुआ तब शुभ्रा की माँ बहुत प्रसन्न किन्तु चिंतित हो उठीं थीं | प्रसन्न तो इसलिए कि वे एक धेवते की नानी बन गई थीं, उनके पीछे की दो पीढ़ियों में कोई बेटा न था | चिंतित इसलिए कि वे अपनी बेटी शुभ्रा का खिलंदड़ापन जानती थीं | उनकी शुभ्रा बेटी घर के बाहर से निकलते हुए बैंड-बाजे के शोर से भी नहीं जागती थी | कोई उसे उठाता भी तो वह करवट बदलते हुए यह कहकर सोती रहती ;

“सोने दीजिए न ----”और आराम से करवट बदलते हुए चादर में लिपट जाती |

किशोरावस्था में सभी की नींद ऎसी ही होती है, कहाँ होश रहता है चाहे कोई नगाड़े ही क्यों न पीट ले, स्वप्नों की दुनिया में लरजते, धड़कते मन न जाने कौन-कौनसे चित्र बनाते-मिटाते रहते हैं | उदित के जन्म के बाद माँ ने उससे कहा ;

“ध्यान रखना बच्चे का, पता चला करवट के नीचे ही दबा दिया उसे –”माँ की बात सुनकर शुभ्रा खीज गई | माँ अभी तक उसे चुहलबाज़ी करने वाली किशोरी कन्या ही समझती हैं ----अब वह भी तो माँ बन चुकी थी, वह भी बच्चे के करवट लेने पर एकदम ही उठ बैठती थी | उसे भी बच्चे का गीला करना पल भर में पता चल जाता था | माँ उसे अभी भी वैसी ही खिलंदड़ी बच्ची समझती थीं जैसी वह विवाह के पूर्व थी | माँ का ऐसा समझना शायद इसलिए ठीक भी था क्योंकि विवाह के वर्ष भर में ही तो उसने उदित को जन्म दिया था | एक वर्ष कोई इतना लंबा समय भी नहीं होता कि आदतों में एकदम बदलाव आ ही जाए किन्तु युवती से माँ बनने पर स्वाभाविक रूप से प्रकृति ही एक लड़की में बदलाव कर देती है, यह प्रकृति माँ द्वारा प्रदत्त गुण ही तो है| शुभ्रा को माँ की बातें यदा-कदा याद आती रहती हैं |

माँ ने उदित को बड़ा होते हुए देखा था और प्रसन्न रहती थीं | कौन जानता था इसी उदित के साथ बड़ा होने पर यह सब कुछ घटित होने वाला है, उदित के साथ पूरा घर भी तो जुड़ा हुआ था| वैसे शुभ्रा कभी स्वभाव से नकारात्मक नहीं थी, मूल रूप से नहीं .....किन्तु अब विषैले बाणों ने उसका ह्रदय क्यों छिद्रित कर दिया और उनमें से निकलने वाली पीप ने उसे जिस दुर्गन्ध से भर दिया, वह अकल्पनीय, असंभव सी बेशर्म बनी उसके सामने बेहूदी अंगडाईयां लेती रहती है | क्या सचमुच रिश्ते ऐसे भी पिघलते हैं ? पिघलते ही होंगे जब उसका पिघल रहा है तब और भी ऐसे ही पिघलते होंगे| शायद इसीका नाम संसार है ! मायाजाल ! उसका दम घुट रहा था उदय के न होने से उसके मन व तन का तंबूरा टूटकर बिखरने की स्थिति में था |

***