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मायामृग - 1

मायामृग

(1)

यूँ तो सब ज़िंदगी की असलियत से परिचित हैं, सब जानते हैं मनुष्य के जन्म के साथ ही उसके जाने का समय भी विधाता ने जन्म के साथ ही जाने का समय भी लिखकर भीतर कहीं पोटली में रख दिया गया है | कैसी है न यह पोटली जो अंतिम क्षण तक खुलती ही तो नहीं | कितनी मज़बूत गाँठें लगाई होंगी न रचनाकार ने और कितनी सारी भी जो ताउम्र उसे अपने भीतर समेटे एक नीम-बेहोश हालत में जीते हैं हम ! उसके साथ बहुत वर्षों से यह हो रहा है, एक अजीब सी गफ़लत उसे घेरे चलती रही है | खूब-खूब प्रसन्न व आनंद में है किन्तु जब सड़क पर लोगों को चलते हुए देखती है यकायक शेक्सपियर याद आ जाते हैं | यह जीवन एक नाटक लगता है और लोगों को इधर से उधर आते-जाते, लड़ते-झगड़ते, मर्यादित-अमर्यादित बहकते देखकर अजीब से अहसास, अजीब से संवेगों से घिर जाता है उसका मन –---उसे बहुत शिद्दत से अहसास होता है कि हर दिन भी क्या एक ही दिन में न जाने कितने नाटक करते रहते हैं हम सभी, कितने पात्रों के मुखौटे पहनते हैं| अहसासों के घेरे में घूमते हुए, परत दर परत मुखौटों की गणना से उसे कुछ थकन सी होने लगी है | क्या उम्र का तकाज़ा है या फिर डिप्रेशन में जा रही है ? कुछ पता नहीं चलता| फिर उदय उसके पति तो उससे दस वर्ष उम्र में बड़े हैं, मधुमेह जैसी बीमारी पालकर स्वयं को बहुत अमीर घोषित करना भी नहीं भूलते | वह सहम जाती है, उसने कभी चाहा ही नहीं इस सबके अलावा कि बहुत सरल, सहज जीवन हो, खिलखिलाहटें हो | अंत तो पता ही है, यहाँ राजा के क्या सींग लग गए और रंक के अमर होने की ललक ने उसे कहाँ अमर बना दिया है ? यहाँ तो जो कुछ मिलता है सबको उसके भाग्यानुसार ही मिलता है चाहे राजा हो या रंक, अच्छा हो या बुरा, कमज़ोर हो या शक्तिशाली | मजेदार बात यह है कि सब कुछ जानते-समझते हुए भी अपेक्षाएं हम सभी करते हैं फिर स्वयं को समझदार भी समझते हैं | ज़्यादा मिले न मिले, जो मिले बस उसमें तनाव न हो, मुस्कुराहटें बस ! कौन यहाँ बैठा रह गया ? हर किसीको नाटक पूरा करके मंच छोड़ना ही है लेकिन यह सपने में भी नहीं था कि उदय इतनी जल्दी मंच को छोड़ देंगे, इतनी शीघ्र पटाक्षेप हो जाएगा ? वैसे यह अपने हाथ में होता ही कहाँ है ?

जीवन से हर पल उसने कुछ सीखने का प्रयास ही किया है और उसे लगा है कि जीवन हर कदम पर एक नई जंग है ये जीवन | इस जंग की उलझनों व कशमकश में से निकलने के पैंतरे ये युवा वर्ग खूब जानता, समझता है |

शुभ्रा के हर उम्र के मित्र थे, उसकी उम्र तो अब खैर एक कगार पर आ खड़ी हुई थी लेकिन मित्रता हर किसी से जुड़ जाती थी उसकी | कहाँ देर लगती थी मित्र बनने में ! युवा उम्र के मित्र उसके अनुभवों से लाभान्वित होते और वह उनके नज़रिए को जानने –परखने का प्रयास करती | एक युवा मित्र का नाम जब उसने ‘मायामृग’ सुना, आश्चर्य में भरकर पूछ ही तो बैठी ;

“यह नाम कुछ अजीब नहीं लगता, कोई पिता अपने बच्चे का नाम मायामृग नहीं रखेगा | आख़िर मायामृग ही क्यों ? ”

“ नहीं पिता नहीं रखेंगे, यह सच है, पर हम तो रख सकते हैं ---“ वह युवा खिलखिला उठा | उसकी यह खिलखिलाहट शुभ्रा को बहुत प्यारी सी लगी |

“लेकिन फिर भी, कुछ अजीब नहीं है यह नाम ? ”

“क्यों? क्या अजीब है ? आपने तो इतनी उम्र देख ली है आपको कभी नहीं लगा यह दुनिया भ्रमजाल है, मायामृग ! सब कुछ उलझा–उलझा सा, अनेक गोल गोल घेरों में घिरा स्वर्ण का वह हिरण जो सबको ही तो ललचाता है —ऊपरी आवरण ओढ़े हम जीवन की किस दिशा में भटकते हैं, हम स्वयं ही नहीं जानते| ” वह अपलक देखती रही अपने उस प्रबुद्ध युवा मित्र को ! जो वह सोचती, समझती, महसूस करती थी उसे कभी शब्द नहीं दे पाई थी और इस युवक ने जिंदगी के दर्शन को नपे-तुले एक शब्द में उसके सामने परोस दिया था |

हाँ, उसे भी यही तो लगता रहा है फिर उसका मन क्यों भटकाव में बिखर-बिखर जाता है, सत्य को स्वीकारने का साहस क्यों नहीं है ? वह कायल हो गई युवक की | यह कोई आज की बात नहीं है, वर्षों से उसके मन में यह चरखा चल रहा है जिसकी सुतली सदा उलझ जाती है, कभी भी आंटी पूरी तरह से बन ही नहीं पाई| शायद जब कभी बी.ए में पढ़ती थी तबकी बात है | बी.ए में उसके एक प्रोफ़ेसर थे प्रो.मिश्र जब वह स्वामी विवेकानन्द की चर्चा उनके साथ बैठकर करती प्रोफ़ेसर के मुख पर अपनी छात्रा के लिए गर्व पसर जाता, सबसे परिचित करवाते और वह बहुत चंचल, बेबाक सी लड़की उनकी प्रशंसा के पुल के तले स्वयं को दबा हुआ पाती |

“यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो दूसरों के लिए जीते है, वे वास्तव में जीते हैं।“

स्वामी विवेकानन्द का प्रभाव उस पर सदा से कुंडली मारकर बैठा रहा, जीवन की गति को हम जितना समझने की चेष्टा करते हैं, वह उतनी ही हमें अपने में उलझाती है | उसके मन का प्रश्न यह था कि क्या वह सचमुच दूसरों के लिए कुछ कर पा रही है ? तभी भीतर का तंबूरा टुनटुनाता ‘पहले अपने लिए तो कर ले, तब दूसरे के लिए सोचना’| बड़े विकट प्रश्न होते हैं जो जीवन में कभी भी झरबेरी के झाड़ की तरह उगने लगते हैं, काँटों के साथ| ऐसे ही गुज़रती रही ज़िंदगी अजीब से उहापोहों के बीच ! क्या सबकी ज़िन्दगी ऎसी ही कटती है, अनेक उहापोहों के बीच ? जीवन के इस मोड़ पर समझ तो आता है, सबकी ही तो ऐसे कटती है, कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी बहती हुई धारा के प्रवाह में तो कभी गंदले पानी के बीच स्थिर होती हुई | वह ठसकती रही है, कसमसाती रही है | आज जिंदगी के जिस मोड़ पर आ खड़ी हुई है वह भी तो भ्रमजाल है, जिन मार्गों के उलझाव से निकली है, उन मार्गों पर भी तो भ्रमजाल के रंग-बिरंगे मखमली कालीन पड़े हैं| कैसे फिसल जाते हैं मन के पाँव ! इस मंच से कितने पात्रों को जाते हुए देखती रही है, जैसे ही पात्र का किरदार पूरा हुआ, वह मंच से गायब हो जाता है ! यही तो है ज़िंदगी, लिखी हुई उस एक के अनुसार जो न जाने कौन है किन्तु जो भी है वही है, हवा, धूप, पानी, जमीन, आग या फिर न जाने क्या ?

ज़िन्दगी के अनेकों दशक पूर्ण होने के पश्चात जीवन के अंतिम पड़ाव पर आकर ज़िन्दगी मांगती है एक सुकून ! एक ठहराव ! थोड़ा सा ‘कम्फर्ट’ ! और कुछ नहीं | खाना-पीना तो यूँ ही कम हो जाता है | पहनने-ओढ़ने का शौक वैसे ही नहीं रहता या कहें कि शरीर को लेपन-पोतन का बोझ ही असह्य लगने लगता है, थकान की एक चादर सी लिपटने लगती है शरीर के चारों ओर ! ऐसे में न जाने कहाँ से एकतारा बजने लगता है ‘टुनटुन’, वह चौंककर दिल के भीतर झाँकती है, कोई दिखाई नहीं देता ---बस आवाज़ आती रहती है –जैसे कोई एकतारे की तार को कसकर मुट्ठी में लपेटे उसका गला दबाने का प्रयास कर रहा हो, बेतार का एकतारा एक ओर पड़ा उसका मुह चिढ़ाता है ---टुन ---टुन--दबे हुए गले से निकलती आवाज़ से वह लहू-लुहान होने लगती है | फिर न जाने किस दिशा से एक आवाज़ उसे तोड़ती है ;

“क्यों ? कैसी हो? ”भीतर से एक व्यंग्य भरी खिलखिलाहट सामने आकर नाचने लगती है जैसे कोई दर्पण का कैमरा सामने रख अंतर की तस्वीर खींचकर उसके सम्मुख रख रहा हो |

न जाने कैसे ? क्यों? कभी भी ये आवाजें उसके मन में उतरने लगती हैं, दिखाई नहीं देती| एक शोर बरपा जाती हैं ---अहसास दे जाती हैं, लगता है मुस्कुरा रही हैं उस पर, कुछ हँसी उड़ाने के अंदाज़ में! नहीं पता चल पाता कौन हैं? कहाँ से आती हैं, उसे क्षीण कर जाती हैं --- दम घुटा हुआ एकतारा मानो भीतर बिलखता रहता है---टुन ---टुन ---होता है, एक क्षीण सा आभास ! मन का आँगन तन्हाइयों से भरने लगता है, बेचैन उथल-पुथल होती रहती है तमाम समय और वह एक अनजाने मुसाफ़िर सी किसी चौराहे पर अपने आपको भ्रमित, खोया हुआ सा पाती है | कोई दिशा नहीं, दिशा विहीन, आगे का मार्ग अवरुद्ध -----! !

उसे खूब-खूब महसूस होता है हमारे पास दो तंबूरे हैं, एक तन का, एक मन का | कबीर ने तन को तंबूरा कहा है ‘माफ़ करना कबीर जी ! मैं आपके दर्शन का ‘द’तक नहीं छू सकती फिर भी न जाने क्यों अपनी परिभाषा से भी विलग नहीं रह पाती’ वह अपने कानों को छूती है, क्षमा मांगने की मुद्रा में पर न जाने क्यों उसे लगता है और बड़ी शिद्दत से लगता है कि उसके पास तंबूरे दो हैं जो टकराते रहते हैं, कभी बाहर तो कभी भीतर | कभी नीले आकाश तले तो कभी मन की गहन गुफाओं में, अक्सर आपस में भी | एक तन की टुनटुनी बजाता है तो दूसरा मन में घुसकर उन अपेक्षाओं, उपक्षाओं से रूबरू होता रहता है जिनकी इस जीवन में कभी आवश्यकता ही नहीं होती | हाँ ! हम न जाने किन अपरिचित, अजनबी क्षणों में उन्हें ओढ़ने-बिछाने लगते हैं, यहाँ तक कि उन्हें जीवन का अभिन्न भाग बना लेते हैं | भीतर की आवाज़ उसे चीरकर रख देती है | आवाज़ पूछती ही तो रहती है एक के बाद एक प्रश्न, जो उसके मस्तिष्क में काँटों की बंदनवार सजा देते हैं| उत्तर तो कुछ सूझता ही नहीं ----बस एक खालीपन और भीतर उलझे हुए प्रश्नों के जालों के गुबार !

वह हतप्रभ हो स्वयं को टटोलने लगती है, कैसी है वह ? कैसा होना चाहिए उसे इन परिस्थितियों में ? उत्तर नहीं होता लेकिन चौंककर चारों ओर देखती ज़रूर है | कुछ दिखे तो सही--! न ---कुछ दिखता नहीं, केवल फुसफुसाहट, टुनटुनाहट और वह चौकन्नी हो ताकने-झाँकने में व्यस्त होने की चेष्टा करती है---हवा में जैसे कोई ठेंगा दिखा रहा हो, कुछ ऐसे आभास से विचलित हो वह शून्य में ताकने लगती है जहाँ ढेरों प्रश्न लटके होते हैं, इधर-उधर झूलते से | उत्तरित-अनुत्तरित प्रश्न, इसी दुनिया से जुड़े अथवा किसी दूसरी दुनिया से किसी झोंक में आए हुए प्रश्न ! एक पंक्ति है प्रश्नों की जो संभवत:-----नहीं अवश्य ही मस्तिष्क का प्रयोग करने वाले इस दुनिया के प्रत्येक जीव को झंझोड़ती है | प्रश्न बहुत बेमानी होते हैं, मालूम ही होता है ---इन प्रश्नों के उत्तर कभी नहीं मिलते, मिलते हैं तो प्रश्नों के उत्तर में और ढेरों प्रश्न.........और दुनिया में सुकून से जीने का स्वप्न अधर में लटककर कलाबाज़ियाँ खाने लगता है| वो तंबूरा सा एकतारा उसके गले में अटककर अपनी बेसुरी दमघोंटू आवाज़ में बिसुरता रहता है ------मन सोचता है बेहूदा सा कुछ ---क्या पशु मनुष्य से बेहतर है जिसे कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं----–किन्तु मस्तिष्क की हांडी सदा चूल्हे पर चढ़ी ही तो रहती है | खदबदाती रहती है, खौलती रहती है ---वह खुद पर झुंझलाने लगती है | शून्य की झुंझलाहट उसके सिर पर चढ़कर बोलती है|

बाहर पेड़-पौधों के झुरमुट मुह लटकाए, बिसुरते हुए खड़े हैं, यहाँ से कहीं जा नहीं सकते सो वहीं खड़े होना उनकी बाध्यता है | अब यह बगीचा एक ‘मित्र-माली’रहित हो गया है, बगीचे के ऐसे मित्र अब नहीं रहे जो उसकी साँस के साथ साँसें लेते थे, उसके दुःख-सुख में शरीक होते थे, उसे मुरझाया हुआ देखकर स्वयं मुरझा जाते थे | जो माली इस बगीचे में पानी डालने आता है वह एक मशीन की भांति पाईप से सारे पौधों में पानी डालकर, पाईप लपेटकर यथास्थान रख हाथ झाड़ते हुए लौट जाना अपना कर्तव्य पूर्ण हुआ समझता है| कई बार तो उन्हें माली को पौधों की गुड़ाई के लिए, काटने के लिए भी कहना पड़ता था | बोगन-बेल की ढेर सारी डंडियाँ किसी जंगल की भांति छितरी रहतीं, जब केवल पत्तियाँ होतीं तब माली उन्हें एक झंखाड़ के रूप में बढ़ने देता लेकिन जब फूलों से पेड़ लद जाते तब उसे याद आता और फूलों से लदी हुई सारी डालियाँ काटकर घर की बाहरी दीवार से सटाकर ढेर लगा देता | कई बार तो काँटे इतने सख्त हो जाते कि यदि गलती से गाड़ी उन पर होकर गुज़रती तो टायर पंक्चर हो जाता | उन्हें फूलों से लदी डालियों की दुर्दशा देखकर बहुत पीड़ा होती थी | एक बार उन्होंने माली से किसी फूलों वाली बेल की सूखी डंडियाँ काटने के लिए कहा, माली ने जड़ सहित पूरी बेल काट डाली | उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया, आखिर वे इस बगीचे के आत्मीय थे ‘सोल फ्रैंड’ असली माली ! जो उसकी सार-संभाल एक नन्हे शिशु की माँ की भांति करते थे| उसे लगता है इस पूरे ‘माली-माँ रहित’ बगीचे को अपनी बाहों में समेटकर कहीं दूर प्रकृति की गोद में समा जाए! किन्तु जो हम चाहते हैं वह संभव हो सकता तो बात ही क्या है ! मनुष्य तो न जाने क्या-क्या चाहता है, किस-किस कल्पना-लोक में जीता है, उसमें सोते-जागते साँसें भरकर आनंदित भी होता रहता है किन्तु कठोर सत्य समक्ष आने पर वह स्वप्न से धम्म से नीचे आ गिरता है और अपने स्वप्न के हाथ-पैर तोड़ लेता है | पता है, उसे कभी लगता है कि स्वप्नों में जान होती है, वे हमारी ही भांति साँस लेते हैं, हमारे भीतर एक उष्णा जगाते हैं, तरंगित करते हैं, हँसाते हैं, रुलाते हैं ---वैसे उसे तो स्वप्न बहुत कम ही आते हैं | एक दिन रजनीश जी को सुन रही थी, उनके विचारों में स्वप्न मनुष्य के लिए आवश्यक होते हैं किन्तु वह तो दिवा-स्वप्नों में ही उलझी रहती है इसीलिए उसके स्वप्न उसके साथ हर पल चलते हैं और उसे एक अलग ही भाव-भंगिमा में स्थित रखते हैं| वास्तविकता का अहसास उसे कठोर पृथ्वी पर ला पटकता है, उसका आनंद का घड़ा चकनाचूर हो जाता है | दिशाविहीन सा मन अपने चारों ओर के शून्य को अनजाने ही अपने भीतर भर लेता है, उसकी गाड़ी यूँ ही ताउम्र चलती रही है ...छुकर...छुकर ! !

तुलसी के चौरे में तुलसी के दो पौधे अलग-अलग हर समय अपनी पूरी लचक के साथ गर्व से नाचते रहते थे, उनका ताजगी भरा हरापन पूरे वातावरण को आच्छादित करता | बरसात के मौसम में बहुधा उन पौधों में से अपने आप ही बीज झरकर नन्हे-नन्हे पौधे उगा देते और वो उन्हें देखकर एक लंबी मुस्कान से सराबोर हो जाते | बहुधा वे पत्नी से अपनी चाय में तुलसी के पत्ते डालने की फ़रमाइश करते| चाय के बेहद शौकीन ! दिन में न जाने कितनी बार उन्हें चाय की तलब उठती| सुबह तो कम से कम तीन-चार या इससे भी अधिक चाय हो ही जातीं, फिर कहते;

“”बिलकुल ज़रा सी देखना “, इत्ती सी----“ ”अपने अँगूठे व ऊँगली के बीच वे थोड़ी सी जगह बनाकर दिखाते |

“”हाँ, हाँ ---रोज़ देखती हूँ ‘इत्ती सी’, उस इत्ती सी के लिए उठकर तो जाना पड़ता है न? ””शुभ्रा खीजती |

“”लो, हटाओ ! मै ख़ुद बना लूँगा---“” उठने का उपक्रम भी करते लेकिन न कभी उठे थे और न ही शुभ्रा ने उन्हें उठने दिया था | यहाँ भी नाटक ! शुभ्रा बड़बड़ाती हुई चाय बनाने चल देती | क्यों इतनी असहज हो उठती है वह ? जब सब कुछ ही नाटक है, दुनिया रंगमंच, उस पर खेले जाने वाले भिन्न भिन्न नाटक और उनके पात्र दुनिया के अनगिनत बाशिंदे ! यह सब तो वह अरसे से जानती है किन्तु आज बार-बार यह शिद्दत से महसूस होने लगा है कि वह भी सब की भांति नाटक का एक पात्र ही तो है, वह क्या कुछ अलग है इस दुनिया से? उसने इस धरती पर औरों की तरह से जन्म नहीं लिया क्या? फिर वह क्यों नहीं एक पात्र है इस रंगमंच का ? यह सब सही है किन्तु इससे पूर्व ऐसा इतनी शिद्दत से महसूस नहीं होता था, मालूम था बस! ऐसा नहीं लगता था कि ह्रदय पर कोई बड़ी सी सिल रखी है और बट्टे से किसी कठोर चीज़ को पीसा जा रहा है, जो बारीक होने का नाम ही नहीं ले रही है, बस बट्टा चलता ही जा रहा है और हृदय से रक्त निकलकर उसे रक्तविहीन करता जा रहा है | वर्तमान में रहना उसे क्यों कष्टकर लगता है ? पता नहीं लेकिन यह सच लगने लगा है कि जब अपेक्षाओं की डोरी को पकड़कर रख लिया जाता है तब हाथों में रेत के अतिरिक्त कुछ नहीं आता वो भी शनै:शनै: बुर ही तो जाती है | रेत भला किस मुट्ठी में ठहरी है ?

लगी रही वह रिश्तों के नाम पर तालियाँ बजाने में, शरीर व मन को तोड़ने-फोड़ने में | हाँ, यही शुभ्रा थी जो अब जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुँच गई थी | उसकी सखियाँ जब उसे इस उम्र में अपने साहस से अधिक जूझते हुए देखतीं, भुनभुनाने लगतीं | आखिर इतना टूटने की ज़रुरत क्या है ? वे उसे चेतातीं कि अभी वह जूझती रहती है पर जब उसे ज़रुरत पड़ेगी तो कोई उसका हाथ पकड़ने वाला नहीं होगा | वह भीतर वाला तंबूरा भी उसे चेताता रहता था जो धीरे-धीरे टूटने-फूटने लगा था और वे जो अब छाया बनकर हर पल उसके साथ ही तो बने रहते हैं वे नाराज़गी का पल्लू पकड़कर घूरते रहते थे उसे, जब उसके पल्ले कुछ पड़ता न देखते तो गुमसुम से होकर चले जाते या तो नर्सरी में फूलों से बात करने या फिर बिटिया के घर | लेकिन आदत जो पड़ जाती है, उसका क्या किया जाय? सच ! कई बार तो मनुष्य अपने आप ही स्वयं को तोड़ता रहता है, अपनी आदतों से बाज़ नहीं आता फिर दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर चलाता है | शुभ्रा की पीढ़ी ऐसे लोगों से भरी थी जो काम करते भी अपने साहस से अधिक थे और जब शरीर जवाब देने लगता था तो खीजते भी कुछ अधिक ही थे| यह एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया है जो कभी न कभी सबके भीतर फन फ़ैलाने लगती है ! शनै:शनै: जब शरीर अशक्त होने लगता है, उसकी कार्य-शक्ति क्षीण हो जाती है तब खीज भीतर फुफकार मारने लगती है, अशक्त होता हुआ शरीर चिढ़ाने लगता है| यह अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि यह कहा जाय कि शुभ्रा की पीढ़ी की औरतें ढोलक के समान थीं जिनकी दोनों ओर से पिटाई होती थी, यही नहीं उन्हें ऊपर से चम्मच से भी मार खानी पड़ती थी उन्हें जिससे गीत के सुर–ताल में और खूबसूरती सिमट आए |

न जाने क्यों इस बार तुलसी में अपने आप निकलने वाले वे नन्हे पौधे नहीं निकले, वे उदास हो उठे, क्यों नहीं बीज उगे इस बार? सोचते हुए अपनी बीमारी से पूर्व वे बहुत-बहुत मुरझा गए थे जैसे कोई माँ अपने शिशु की अस्वस्थता देखकर स्वयं अस्वस्थ होने लगती है |

“”इस बार नई पौध लाऊँगा नर्सरी से -----“”बुदबुदाते हुए वे तुलसी के पास से उठ खड़े हुए थे लेकिन उन्हें समय ही नहीं मिला नई पौध लाने का ! वैसे भी उनके बाद कौन था जो इतनी शिद्दत से बगीचे की देख-रेख करता? पौधों की एक-एक डंडी के मुह लटकाते ही उनका खिला हुआ मुख उदास हो उठता| तुलसी के दो बड़े पौधों में से भी एक पौधा दो बार लटक गया था, गर्वी ने बताया था| सहायिका से कहकर दो बार पौधे को सीधा भी करवाया किन्तु जब वे नहीं रहे वह पौधा पूरी तरह सूखकर गिर पड़ा, मानो उसे भी पता चल गया हो कि उसका मित्र नहीं रहा | आखिर प्रकृति ही तो ईश्वर है जो मनुष्य को बनाती है, उसमें श्वाँस जिलाए रखती है | उसे ऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ था कि प्रकृति मनुष्य से इस प्रकार सीधी जुड़ी रहती है, आज उसे यह भी अनुभव हो गया था | उसने भीगी आँखों से उस पौधे को निकालकर फेंक दिया | तुलसी के पास ही कैक्टस के न जाने कितने गमले रखे थे जिनमें मौसम के अनुसार लाल, गुलाबी, श्वेत रंग के छोटे-छोटे फूल मुस्कुराते रहते थे | आज भी वे उसी तरह खड़े थे, तुलसी के सूखे पौधे को निकालते हुए उसे कैक्टस पर झुँझलाहट हो आई| क्या ज़रूरत थी कैक्टस रखने की घर में ? लेकिन उन्होंने कहाँ किसी का कहा सुना था ! कहते थे;

“”देखो न ! कितने सुन्दर फूल उगते हैं इनमें ! तुम्हें तो कद्र ही नहीं है फूलों की ! इनसे बातें करके तो देखो, ये कितने खिल जाते हैं | आखिर अकेलापन किसको पसंद है, अपनी फुलवारी सभीको प्यारी लगती है ! ””और कैक्टस के फूलों पर बड़े लाड़ से हाथ ऐसे फिराते मानो अपने किसी नन्हे बच्चे को दुलार कर रहे हों फिर धीमे से मुस्कुरा देते | परिवार, विशेषकर बच्चों से वे बहुत जुड़े हुए थे उन्हें अपने तीसरी पीढ़ी के बच्चों की चहचहाहट प्रकृति का गुणगान करते हुए पक्षियों के कलरव सी लगती | कैसे चहचहाहट पसरी रहती थी घर भर में ! कभी आते-जाते किसी बच्चे को छेड़ रहे हैं तो कभी शुभ्रा को ही कुछ कहकर निकल जाते जिससे उत्तर में वह भुनभुन करती रहती| परिवार में मुस्कराहट खिलखिलाती रहती | एक प्रसन्न, आनंदित परिवार का सुख था यह ! आस-पड़ौस के लोग कभी प्रशंसा से तो कभी ईर्ष्या से इस घर में ताकते-झाँकते रहते थे | कोई ही होगा जो इस घर के आगे से गुज़रते हुए गर्दन मोड़कर देखता हुआ न जाता हो | आँख मिलने पर दोनों ओर से मुस्कुराहट पसर जाती चेहरों पर | सड़क पर चलने वाले राहगीरों के घर की ओर झाँकने के दो कारण थे, एक तो छोटे से बगीचे को पूरी तरह बेलों, पौधों, पेड़ों से भरचक होना और दूसरा घर में से पसरती खिलखिलाहट का सामने वाली सड़क तक पसर जाना, कोई बिरला ही होता होगा जो घर के आगे से देखे बिना सीधा चला जाता हो| जैसे घर पुकारकर कहता था, ’भई, मुझसे मिल तो जाओ—’ उनके ही कारण इस परिवार की समाज में एक सम्मानीय स्थिति थी, प्रतिष्ठा थी, एक सुरक्षित छायादार वृक्ष का आच्छादन था जो आज लुट गया था, उनके न रहने से | आज सूनेपन की एक शीत लहर सी पसरी रहती है जो उसे सहज नहीं रहने देती | क्या एक आदमी के न रहने से इतना बदल जाता है भीतरी व बाहरी जगत ? भीतर से आवाज़ आती ;

‘हूँ---अब पता चलेगा | किसी भी वस्तु अथवा व्यक्ति की कीमत उसके खो जाने अथवा अनुपस्थिति में ही पता चलती है| जब तक वह व्यक्ति सामने अथवा साथ रहता है तब तक उसे ’ग्रांटेड’ ही लिया जाता है, जब वह समक्ष नहीं रहता तब उसकी कमी से पूरे वातावरण में एक बेचैनी सिहरने लगती है | हिम सा शरीर, हिम सा मन, हिम सा ठिठुरता जीवन ! व्यक्ति इतना बेचैन हो उठता है कि उसकी साँस उखड़ने लगती है, उसे लगता है उसका जीवन अब क्यों है? ’भीतरी कोलाहल शुभ्रा के चारों ओर जमा होकर उसे निरुत्साहित करता रहता है | वह जैसे ठंडी पड़ने लगती है, भीतर से सुन्न ! सन्नाटे बिना आवाज़ किए पसरते हैं, दिलों में अँधेरे कर जाते हैं |

क्या उसके भीतर बर्फ़ की कोई सिल्ली जम गई है जो उसके व्यक्तित्व को नीला कर रही है? ’उसके भीतर की सारी नसें जमने लगती हैं और भीतर बर्फ़ का हफ़ारा उठने लगता है जो उसे निर्जीव होने की सीमा तक बर्फ़ कर देता है | यह जो उसका भीतरी मित्र अथवा शत्रु जो कुछ भी है मन का तंबूरा सा यह उसे बहुत सताता है किन्तु इसी प्रकार की ही कुछ बातें करता रहता है जैसी उदय किया करते थे | वह समझ नहीं पाती अपने भीतर चलते हुए द्वंद को | बार-बार घूमकर पीछे मुड़ जाती है जैसे किसी ऐसे स्थान पर फँस गई हो जहाँ गोल-गोल भूल-भुलैया हो, वह घूमकर पुन: उसी स्थान पर पहुँच जाती है जहाँ से चली थी |

उदय की प्रकृति के प्रति लालसा देखकर शुभ्रा किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती ! क्या करें इस बंदे का जो प्रति पल प्रकृति की गोद में विचरण करने का स्वप्न बुनता रहता है | वर्षों पूर्व देहरादून की हरीतिमा भरी पल्लवित घाटी से उठकर आने वाले उदय प्रकाश में हर पल बाग-बगीचे का स्वप्न उगता रहता, एक सौंधी सुगंध से उनका मन सुरभित रहता और वे कल्पना में एक छोटा सा ही सही, ऐसा घर बनाने के सपने में डूबे रहते जिसमें पेड़-पौधे लगा सकें, उनसे बातचीत कर सकें, उनके साथ प्रकृति की गोद का सा सानिध्य प्राप्त कर सकें| वे जानते थे गुजरात का वातावरण गुलाब के फूलों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं था, यहाँ का पानी खारा था और यहाँ कई पौधे उगने से इनकार कर देते थे किन्तु जब भी वे नर्सरी जाते अपनी बिटिया की फ़रमाइश पर गुलाब व अन्य उसकी पसंद के फूलों के पौधे लाना नहीं भूलते थे फिर चाहे केवल उन गुलाबों व अन्य उन फूलों का ही आनंद ले सकें जो नर्सरी से लाते समय पौधों पर कलियों के रूप में मुस्कुराते हुए खिलखिलाने की प्रतीक्षा में टहनियों से चिपके रहते थे | दूसरी बार तो गुलाब के फूल उस पौधे पर आते ही नहीं थे लेकिन उन्हें इस बात की तसल्ली होती कि एक बार ही सही उनकी बिटिया के मुख पर फूलों को देखकर मुस्कान पसर तो जाती है| उसके मुख पर मीठी मुस्कान तथा आँखों में मीठी चमक देखकर वे स्वयं खिल उठते थे| इस प्रकार न जाने कितनी बार वे पौधे लाते और फिर उन्हें मुरझाए हुए देखकर बड़बड़ाते भी | पत्नी शुभ्रा भी दिखावे के लिए ही सही अपनी भवें चढ़ा लेती, बड़बड़ाती ;

“”बस ...पैसे फूँकने की पड़ी रहती है | जब फूल बचते ही नहीं तो बार-बार लाने से क्या फायदा ? ”” वैसे वे भली प्रकार जानते थे कि शुभ्रा भी अति संवेदनशील है और अपने पिता के घर खिलखिलाते बगीचे में नाचते-कूदते हुए बड़ी हुई है |

किन्तु जब शुभ्रा की बड़बड़ होती उस पल चुप्पी लगाने में ही उदय समझदारी मानते और चुपके से वहाँ से खिसक जाते जहाँ शुभ्रा की ज़ुबान की कैंची उनके बगीचे की कोपलों को न काट पाए| वे भीतर जाकर चुपके से बाहर की ओर झाँकते जहाँ शुभ्रा के मुख पर खिले हुए फूलों की मुस्कान से चुराई गई मुस्कान थिरकती और उनके चेहरे पर एक सुकून पसर जाता | अब साँय-साँय करते बीहड़ मन के भीतर सदियों का सन्नाटा भर जाता है| यह साँय-साँय उसके अतिरिक्त किसीको सुनाई नहीं देती, देती भी कैसे? इस घर के वातावरण की उलझी हुई गुत्थियों में तो वे दोनों ही सदा सहभागी रहे थे न ! वैसे सोचती है किसी से न अपेक्षा, न ही उपेक्षा ! जीवन किसी एक के लिए कठिन नहीं है, यह सबकी परीक्षा लेता है और तभी यह जीवन है | छलता रहता है मायामृग सा और हम इसके लुभावने आवरण में स्वयं को कैद पाते हैं |

इस घर को वे बहुत मंहगे फर्नीचर से तो नहीं सजा पाए हाँ, यहाँ आते ही बागबानी का काम ज़ोर-शोर से शुरू हो गया था | फिर घर में कई बड़े काम हुए, इसी घर में उसके अपने बच्चों के विवाह के पूर्व शुभ्रा के मुहबोले जापानी भाई का विवाह एक पंजाबी कन्या से हुआ| इस सबमें उदय की शिरकत लगातार बनी रही | वैसे उदय को शुभ्रा की भांति किसी के फटे में टाँग अड़ाने की आदत नहीं थी| शुभ्रा के रिश्ते सभी से बन जाते, बड़े ही आत्मीय रिश्ते ! बिना किसी अपेक्षा के रिश्ते ! जिनमें उसे कूदना ही पड़ता | इस बात से वे शुभ्रा पर खीजते भी थे पर यदि वह किसी रिश्ते के सुख-दुःख में कूद ही जाती तब वे उसके साथ तन, मन, धन से यथाशक्ति लग जाते| कई बार तो शक्ति से भी बाहर होकर जूझते से लगे रहते | शुभ्रा के टोकने पर उनका उत्तर होता ;

““या तो किसीके लिए कुछ करो मत और अगर करना ही है तो पूरे मन से करो ...””

अथवा

“”भई ! नेकी करो और कूएँ में डालो ---“” शुभ्रा तथा बच्चों को उनके ये दो संवाद इतनी अच्छी तरह रट गए थे कि जब उनके मुख से उपरोक्त वाक्यों का एक भी शब्द निकलता, उसके अथवा बच्चों के द्वारा वाक्य पूरा कर दिया जाता और वातावरण में खिलखिलाहट पसर जाती | कितना खुशनुमा था घर का वातावरण ! बेशक शुभ्रा मन ही मन पति के बगीचे को देखकर मुस्कुराती किन्तु ऊपर से बड़बड़ करने से कभी न चूकती;

“”पर चादर की लंबाई से बाहर जाने की ज़रूरत ही क्या है ? ””शुभ्रा जब अपने घर का बज़ट डाँवाडोल होता देखती तो खीज उठती|

“”फिर ढाक के तीन पात! जब दूसरों के फटे में टाँग अड़ाती हो तब नहीं सोचतीं? ””और फिर उसी रफ़्तार से लगे रहते उस सब में जो वे चाहते और वह सोचती ‘अब किसीके बीच में नहीं पड़ेगी’ किन्तु कुछ दिन बाद फिर से वही सब ताक धिनाधिन !

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