मायामृग - 2 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

श्रेणी
शेयर करे

मायामृग - 2

मायामृग

(2)

सुधरना इतना आसान होता तो बात ही क्या है ? ” यह फुसफुसाहट उसके मन की भीतरी दीवारों पर सदा से टकराती रही है और वह सोचती रही है आखिर ये है कौन और क्यों उसे टोकती रहती है? अच्छी-खासी शिक्षित शुभ्रा पूरी उम्र इस फुसफुसाहट का अर्थ समझ पाने में असमर्थ रही जबकि वह उसे सदा चेताती रही थी | जो कुछ भी उसके जीवन में घटित हुआ संभवत: न होता यदि उसने इसके भीतर छिपे गूढ़ अर्थ को समझ लिया होता किन्तु कैसे होता ? जब हम यह जान लेते हैं कि प्रत्येक घटना का होना सुनिश्चित है तब परिस्थितियों से उपजे संत्रास को तथा स्वयं को कोसना बंद कर देने में ही समझदारी लगती है | फिर भी शुभ्रा के भीतर कहीं न कहीं एक छुअन सी लगातार महसूस होती थी और उनके अपने पास होने का अहसास दिलाती रहती थी | जैसे कोई किसी गले हुए अंग पर हाथ रख दे और पीड़ा के कारण मुख से चीस निकलने लगे, उनकी स्मृति की छुअन कुछ ऎसी ही थी कभी मुख पर मुस्कान फ़ैलाने वाली तो कभी पीड़ा देने वाली जबकि वे सदा उसके साथ ही तो थे | भौतिक शरीर छिप जाता है किन्तु आत्मा के साथ शरीर की छाया तो लगातार बनी रहती है |

शुभ्रा के पति उदय का प्रत्येक परिस्थिति में उसके साथ खड़े हो जाना एक अद्भुत बात थी कारण? जिस वातावरण से वे निकलकर आए थे उसमें इतना उदार होना आश्चर्य ही था | किसी पत्नी के लिए यह बहुत बड़ी बात व सहयोग था अन्यथा शुभ्रा इतने संबंधों को न तो बना पाती, न ही उन्हें सहेजकर रख पाती | यह केवल और केवल उदय के बल पर ही था| हाँ, यह बात अवश्य थी कि उसने उदय के लंबे-चौड़े परिवार को बखूबी संभाला था | परिवार के प्रत्येक सदस्य के मुख पर पाँच-पाँच बहुओं के बीच केवल शुभ्रा का ही नाम रहता | किसी बिटिया के लिए वर पसंद करने जाना हो अथवा किसी बेटे के लिए वधू का चयन करना हो तो शुभ्रा, किसी वस्तु को पसंद करना हो तो शुभ्रा, बाज़ार-हाट करना हो तो शुभ्रा| घर पर अतिथियों का जमघट लग रहा हो तो शुभ्रा का घर ! कहीं कुछ विशेष व्यय करना हो तो उदय व शुभ्रा की जेब ! शुभ्रा व उदय के सामने कोई वृक्ष नहीं था पैसों अथवा उदारता अथवा साहस का ! किन्तु दिखाई ऐसा देता मानो न जाने कितना–कितना सब कुछ भरा हुआ है इनके पास ! यह कोई न तो समझ पाया न ही समझने के लिए तत्पर हुआ कि अपने में से काट-छाँटकर ही सब कुछ किया जाता रहा है | आज शुभ्रा प्रत्येक परिस्थिति के लिए स्वयं को दोष देने के लिए बाध्य है यद्यपि इसका अब कोई लाभ नहीं है | वह जानती है कि लकीर पीटने से कोई लाभ नहीं किन्तु वह पीट रही है लकीर ---बार-बार पीट रही है और यह पिटाई उसकी स्वयं की हो रही है | ठीक ही तो है, वह है ही इसी योग्य ! एक अजीब सी संत्रास की घुटन झेलते हुए उसके मन की गुफाएँ अंधेरों में घिरने लगती हैं, क्या कभी इन अंधेरों से निकल सकेगा उसका मन ?

उदय शुभ्रा के अन्तस से इतनी भली-भांति परिचित थे कि न चाहते हुए भी न जाने कब और कैसे शुभ्रा के फैसले में सम्मिलित हो जाते थे | किसी बाहरी व्यक्ति के लिए ही नहीं, उनके अपने परिवार के लिए भी जब शुभ्रा अपनी शक्ति से अधिक कुछ भी करती तब वे उसे कितना समझाते भी थे किन्तु जब स्वयं उसके साथ उस कार्य में संलग्न हो जाते जो शुभ्रा ने शुरू किया था शुभ्रा फूल सी खिल उठती | फिर वे भी पत्नी के फैसलों में अपनी शक्ति से अधिक करने लगते तब शुभ्रा नाराज़ होने लगती | बस इसी प्रकार चलता रहा उनका जीवन ! सभी का इसी प्रकार ही चलता है, उन्होंने कौनसा तीर मार दिया था ? शुभ्रा को पति में एक मित्र की तलाश रहती जो उसे या तो खोजने पर भी मिल नहीं पाया था अथवा वह समझ नहीं पाई थी! प्रत्येक मनुष्य में दो व्यक्तित्व होते ही हैं एक बाहरी, एक आन्तरिक ! ज़रूरी नहीं होता कि कोई कितना भी करीबी क्यों न हो, उसके अंतर को, मन को महसूस किया ही जा सके | कितनी बार ऐसा भी होता है कि एक छत के नीचे रहते हुए भी हम किसीकी वास्तविकता से पूरी तरह परिचित नहीं हो पाते, किसी की क्या–मनुष्य स्वयं से भी कहाँ पूर्णत:परिचित होता है, न जाने कैसे-कैसे भ्रमों में भटकता रहता है | शुभ्रा को यह भी लगता था कि वह स्वयं को भी कहाँ समझ पाई है ? शायद यह सभी के साथ होता है, किसीको समझ पाना तो दूभर है ही, स्वयं को समझ पाना और भी दूभर | उसे लगता उदय बहनों-भाईयों के साथ मित्रवत रह पाते हैं किन्तु न जाने क्यों जब शुभ्रा उनसे मित्रवत कुछ साँझा करने की चेष्टा करती तो वे सुनने के लिए तैयार ही नहीं होते | मालूम नहीं उदय में अपने परिवार के लिए मित्रवत व्यवहार व संवेदना का लोप क्यों था ? उसकी बहुत इच्छा होती कि उसके पति उसके मित्र बन सकें, वह अपने मन की सारी बातें एक मित्र की भांति उनसे साँझा कर सके किन्तु सब प्रयास व्यर्थ गए थे, अंत में उसने ‘सरेंडर’ कर दिया था, यह अपेक्षा ही छोड़ दी थी उसने | हाँ, पति व एक स्नेही पिता के रूप में उदय ने अपने परिवार के लिए कर्तव्यों से कभी मुख नहीं मोड़ा था | परिवार भी तो कितना लंबा था उदय का ! कुछ न कुछ चलता रहता, कभी किसी सुख का तो कभी दुःख का वातावरण बना ही रहता ! जिसमें सब भाईयों से अधिक सदा उदय की ही शिरकत रहती जिसका कारण भी शुभ्रा ही रही थी, वह सबसे आगे जा खड़ी होती | वास्तव में सारी मुसीबत तो शुभ्रा की ही खड़ी की हुई थी, भौंदू थी वह ! आसानी से कोई बात उसकी बुद्धि में आती ही नहीं थी, वह प्रयास भी नहीं करती थी जानने का ! परिवार के लोग उसे मज़ाक में ही सही ‘ट्यूब लाईट’ ख देते थे किन्तु उसने कभी इन बातों की परवाह नहीं की थी | एक खिलखिलाते वातावरण में सबके बीच में प्रेम फैलाते हुए जीवन के अंतिम लक्ष्य तक पहुँच जाना ही वह जीवन का ध्येय समझती, दूरदर्शिता से तो उसकी कोसों तक कोई मैत्री नहीं थी | हाँ, उदय बहुत दूरदर्शी थे, काफ़ी व्यवहारिक ! न जाने कैसे भविष्य की बात सूँघ लेते, उसे चेताने का प्रयास भी करते किन्तु उसे चेतना आता ही कहाँ था ? अपनी मस्ती में जीवन के क्षण गुज़ार देना ---बस--- यह बात अलग है कि अब न चाहते हुए भी उसके समक्ष भ्रम के जाले टूट-टूटकर गिर रहे हैं जिनमें से बेचारगी की मकड़ियाँ टपक टपककर उसे चिढ़ा रही थीं लेकिन अब स्वयं को कोसने से कोई लाभ नहीं था, अब यह उसकी मोटी बुद्धि में घुस रहा था लेकिन ----अब—जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत ---गाड़ी उसके सामने से उसे चिढ़ाती हुई निकल गई थी ! ! वैसे भी किसी का मूल स्वभाव बदल पाना कहाँ संभव होता है, कभी न कभी तो वह खुलकर समक्ष प्रस्तुत हो ही जाता है |

उदय के अचानक चले जाने से शुभ्रा बहुत अकेली पड़ गई | जब उदय थे तब तो सुबह उठते ही किसी न किसी बात पर झिकझिक शुरू हो जाती थी| और कुछ भी नहीं हुआ तो बाथरूम में रखे कपड़े ही उदय को दिखाई नहीं देते थे फिर वह खीजकर जाती और उनकी अलमारी से कपड़े निकालकर हाथ में पकड़ाकर आती और कम से कम मिनट भर तो बड़बड़ करती ही रहती | उदय मस्ती से किसी पुराने गीत की कड़ी को बेसुरे से अलापते हुए बाथरूम में नहाने घुस जाते | अब उसके अंतस से चीत्कार निकलकर चारों ओर पसरने लगी है जैसे चीत्कार का गगनभेदी स्वर अंतर पीड़ा का ऐसा गुबार है जो सीने से निकलकर पूरे वातावरण को धुंधला गया है और जिसके थमने का कोई चिन्ह उसे नज़र नहीं आता | बस गुबार ही गुबार दृष्टि में भरा रहता है जिसमें से उठता हुआ धूआँ ही शेष भर है | एक जलता हुआ बल्ब अचानक ऊपर से गिरकर चकनाचूर हो गया था जिसकी महीन जलती हुई किरचें समेट लेने के उपरान्त भी यहाँ-वहाँ किसी न किसी कोने में से दिल की सतह पर चुभ ही जाती थीं |

‘क्या रिश्ते इतने बेमानी हो सकते हैं? धूल की भांति उड़ते हुए रिश्ते समय की करवट में उलझकर उलटे मुह गिर जाते हैं !! ज़िंदगी और मृत्यु के मध्य बंधी हुई डोरी इन रिश्तों को कैसे इतना अशक्त बना सकती है ? रिश्ते आखिर रिश्ते होते हैं जो जिलाते हैं लेकिन ....अचानक भ्रम टूटा था और इस बात का पूरी शिद्दत से अहसास हुआ था कि रिश्ते केवल जिलाते ही नहीं, मार डालते हैं ...सदा के लिए तोड़ देते हैं, चकनाचूर कर देते हैं और फिर कभी भी किसी विश्वास की डोरी से जुड़ नहीं पाते | रिश्तों के प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं | ’कोई मानो भीतर से निकलकर उसे अपने जाल में लपेटे दे रहा था | मज़ाक बना रहा था उसका, चिढ़ा रहा था उसे, अँगूठा दिखा रहा था;

‘ले, ज़िंदगी भर जिन रिश्तों के लिए खटराग फैलाए, स्वयं को भट्टी में झोंक दिया, अब उनकी असलियत देख | देख! उनका यह स्वरूप भी जिनके भ्रमजाल में अब तक लिपटे हुए घूमती रही है | ये वे ही रिश्ते हैं जिनसे तूने मुहब्बत की थी और उसी मुहब्बत की अपेक्षा भी की थी | ’वैसे मानती तो है कि किसी से भी अपेक्षा रखने का कोई औचित्य नहीं फिर क्यों? कुछ बातें कहने-सुनने में और होती हैं किन्तु जब उन पर अमल करने का समय आता है तब मनुष्य को पता चलता है, वह खड़ा कहाँ है? कहाँ लटक रहा है, एक त्रिशंकू की भांति ---अधर में !

उदय अच्छे-खासे मस्तमौला व्यक्ति ! शास्त्रीय संगीत उनके सिर पर से होकर चला जाता था| शुभ्रा को एक बार की घटना की स्मृति बार-बार हो आती है और उसके चेहरे पर मुस्कान घिरने लगती है | एक मित्र के भाई के शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में शुभ्रा के साथ उदय को भी बहुत मनुहारपूर्वक आमंत्रित किया गया | शुभ्रा तो शास्त्रीय संगीत की भयंकर दीवानी और उदय के सिर पर से गुज़र जाते सारे अलाप, ताने ! गए तो अवश्य ही उदय शुभ्रा के साथ किन्तु इधर-उधर देखते हुए न जाने किस ओर दृष्टि जा पड़ी कि अपने जैसे ही किसी बंदे से मुस्कुराहट का टकराव हो गया| लगता था वह भी बेचारा पत्नी के अनुग्रह का मारा होगा तभी यहाँ दिखाई डे रहा था|

“” ये मालकौंस ही है न ? ”” उदय के पड़ौसी श्रोता ने पूछा |

“ “हाँ, मालकौंस के आजू-बाजू ही घूम रहा है | ””उदय ने फटाक से ऐसे उत्तर दिया मानो शास्त्रीय संगीत उनके पोर-पोर में से होकर उनके ह्रदय की धड़कनों में रुधिर पहुँचाता हो, शुभ्रा की हँसी मानो उसके गले से फटकर बाहर आने की तैयारी करने लगी |

हाँ, गज़लें सुनकर झूमने के शौकीन उदय अपने छोटे से बगीचे में टहलते हुए टेप-रेकॉडर अथवा सी.डी प्लेयर को जेब में रखकर कानों पर हैडफ़ोन चिपकाकर इधर से उधर मस्ती से घूमते रहते | रास्ते पर आते-जाते सोसाइटी के लोगों को बुला-बुलाकर बैठाना, उनको चाय के लिए आमंत्रित करना और शुभ्रा को चाय का ऑर्डर देते रहना उनका प्रतिदिन का कार्य था | कभी-कभी तो शुभ्रा खीजने भी लगती किन्तु अपने अवकाश प्राप्त पति के अकेलेपन को वह समझती थी, वह स्वयं भी तो अचानक अकेला सा महसूस करने लगी थी अवकाश प्राप्ति के बाद | उदय को तो कई वर्ष हो गए थे पर स्वास्थ्य ठीक होने के कारण वे शहर से बाहर घूमते रहते | स्त्रियाँ अपनी अवकाश-प्राप्ति के पश्चात भी व्यस्त रह सकती हैं, वास्तव में तो उनके पास घर के कामों की इतनी बड़ी सूची वर्षों से पड़ी होती है जो उनकी अवकाश-प्राप्ति की प्रतीक्षा कर रही होती है | घर के न जाने कितने कामों में वे उलझ जाती हैं किन्तु पुरुष ? वह बहुत अकेलापन महसूस करता है | अब शुभ्रा की अवकाश-प्राप्ति के पश्चात उदय बहुत रिलेक्स रहने लगे थे | हर शाम बँगले के गेट पर जाकर खड़े हो जाते और सड़क पर से निकलने वालों में से किसी न किसीको पुकार ही लेते | जैसे जबरदस्ती खींचकर ले आते थे उदय लोगों को | लंबे वर्षों से सोसाइटी में रहने के कारण उनसे लगभग सब लोग ही परिचित थे सो कोई न कोई पकड़ में आ ही जाता, बड़ी सोसाइटी थी जिसके उदय कमेटी के प्रमुख सदस्य भी थे | निमंत्रित किए हुए सोसाइटी के मित्रों के लिए चाय बनाकर शुभ्रा भी उन सबमें सम्मिलित हो जाती और न जाने किधर-किधर की बातें होती रहतीं| कोई उनसे पूछता भी ;

“”शर्मा जी ! अब तो भई बूढ़े हो गए हैं हम लोग, अब क्या -----““

“”अब क्या का क्या मतलब, जब तक जीना है तब तक प्रसन्नता से जीना है भाई | बुढ़ापा मन की स्थिति है गोयल साहब, आप सोचेंगे कि बुढ़ापा है तो होगा, नहीं सोचेंगे तो सदा युवा ही बने रहेंगे| ” और खिलखिला देते |

“”भई ! आप कैसे इतने मस्तमौला रह लेते हैं, हमें तो खटका ही लगा रहता है, कहीं यह न हो जाए, कहीं वह न हो जाए ---“” चौहान साहब भी अपने मन की भड़ास निकलते रहते थे जिन्हें घर पर पत्नी के साथ घर के काम में काफी सहयोग करना पड़ता था | उम्र थी, थकान होनी स्वाभाविक थी|

“”मुश्किलें किसके जीवन में नहीं आतीं साहब ! सबकी परीक्षा लेता है जीवन ! बस अपने मन को बिखरने नहीं देना है | अच्छी सोच, अच्छी भावना, अच्छे विचार शांति प्रदान करते हैं इसके विपरीत अपवित्र, गलत विचार मनुष्य को सही ढंग से जीने नहीं देते | मनुष्य का अंतर अपने भीतर ही कुलबुलाता रहता है ””उदय बहुधा संत की भांति व्याख्यान देने लगते जो सबको बहुत अच्छा लगता था | इस प्रकार उदय लगभग प्रतिदिन ही महफ़िल जमाए रखते| कई लोग तो उनसे कहने भी लगे थे;

“ “आप तो भाई साहब ! प्रवचन देना शुरू कर दीजिए ---देखिए, कितने लोग जमा हो जाएँगे, बड़ी कमाई भी होगी| ””फिर एक सम्मिलित ठहाका हवा में बिखर जाता |

“अरे ! जब ये इंग्लैण्ड गईं थीं, इन्हें तो ऑफर मिली थी उपदेशिका बनने की, मैंने तो इन्हें कहा था कि मुझे भी बुला लेतीं पर ये तो खुद ही चली आईं | ये कुछ रास्ता निकालतीं तो हो सकता था हम भी बड़े उपदेशक बन जाते ---“फिर हवा में ठहाका उछाल देते थे और चाय के चुस्की लेते मुखों पर अलग अलग तरह की चित्रकारी खिंच जाती थी |

उदय क्या गए जैसे परिवार का जीवन ही चला गया | इतने ज़िंदादिल आदमी का ऐसे चला जाना शायद कायनात को भी रुला देता है | बाग-बगीचे सूखने लगे, पेड़-पौधों के चेहरों पर से रंगत चली गई और जैसे ठूंठ बन गया जीवन | क्या किसीकी नज़र लग गई? वैसे उसने जीवन में कब नज़र-वज़र को माना था ? अपने बेकार के विचार पर वह कभी-कभी स्वयं ही व्यंग्य से मुस्कुराने लगती है | कैसा होता है न मनुष्य का मन ? अपने ऊपर आते ही उन बातों को मानने लगता है जिन पर कभी पल भर भी भरोसा न किया हो |

“”देखो, ये तो जीवन की सच्चाई है जो आता है, उसका जाना भी निश्चित है –““सखी मीनू उसे दिलासा देने के लिए हरदम तैयार रहती |

“इतनी हताश रहोगी तो जीवन कैसे बीतेगा? ”मीनू उसकी करीबी सखियों में थी, उदय के जाने के बाद जहाँ दो-एक दिन हुए नहीं कि वह बेचेनी से भर उठती और काफ़ी दूर रहने के बावज़ूद भी पति के साथ खाद्य-पदार्थों सहित उसके पास आकर बैठ जाती | निश्छल स्नेह से सराबोर करती रहतीं शुभ्रा की सखियाँ उसे सो उदय के जाने के बाद भी उसे ईश्वर की कृपा और मुहब्बतों का पिटारा मिलता ही रहा था, अपने साथ हर पल किसी न किसी के साथ खड़े रहने की एक अनुभूति बनी रही |

कोई बहुत कम उम्र में नहीं गए थे उदय, कुछ जल्दी विवाह हो जाता उनका या दो-चार बरस और रुक जाते तो बच्चों के बच्चों के विवाह देखकर जाते किन्तु उनका आचार-व्यवहार ऐसा था मानो उन्हें कभी भी ऊपर नहीं जाना होगा, वे तो जाने के लिए बने ही नहीं, उन्हें तो मस्ती से जीने के लिए ही ऊपर वाले ने धरती पर भेजा है यद्धपि न जाने कितनी चिंताओं से वे सदा ही घिरे रहे थे, सबसे अधिक चिंता तो उन्हें अपनी पत्नी शुभ्रा की थी जिसे उन्होंने कभी भी अपने लिए कुछ धन जमा करते अथवा अपने लिए जीते हुए नहीं देखा था | कुछ लोग होते ही ऐसे हैं जो खुद तो जीते ही हैं जी भरकर, दूसरों के लिए भी जीने का सबक बनते हैं | शुभ्रा ने अपने पति को कभी किसी के बारे में अपशब्द बोलते या गलत बातें करते नहीं देखा था| हाँ, कभी-कभी किसी सहयोगी के बारे में कुछ छुट-पुट बोलने भी लगते तो शुभ्रा उनके सामने अड़ जाती आखिर क्या ज़रुरत है किसी के बारे में कुछ कहने की ? शुभ्रा का जीवन उदय के साथ ठीक-ठाक ही व्यतीत हो गया था | शुभ्रा की कभी कुछ अधिक की आकांक्षा थी ही नहीं, सरल व सहज जीवन जीने की उसकी इच्छा अपने आप ही पूरी हो रही थी | उत्तर-प्रदेश से विवाह के पश्चात गुजरात में आकर बस जाने वाली शुभ्रा ने यहाँ आकर बहुत भिन्न वातावरण देखा था | लड़कियों की इतनी अधिक स्वतन्त्रता ! शुरू-शुरू में जब वह यहाँ आई तब तो चौंक ही गई थी, यहाँ आई भी तो लगभग पचास वर्ष पूर्व थी | स्कर्ट पहने युवा लड़कियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक सड़क पर खिलखिलाती हुई काफ़ी रात गए घूमती रहतीं | विदेशी प्रभाव का मुल्लमा उस वातावरण पर चढ़ा दिखाई देता उसे ! उसने गुजरात प्रदेश के लोगों को सबसे अधिक विदेश में जाते तथा वहाँ स्थायी रूप से निवास करते पाया था | शायद ही कोई परिवार होगा जिसमें से कोई न कोई अमरीका न गया हो| हाँ! गुजरात में लोगों में अमरीका जाने का विशेष आकर्षण देखा था उसने, वैसे ख़ासा गुजराती तबका अन्य स्थानों पर भी जाता था पर अमेरिका के प्रति लोगों में एक विशेष आकर्षण था |

***