मायामृग - 7 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मायामृग - 7

मायामृग

(7)

आखिर शादी का समय आ ही गया, परिवार में एक ही बेटा था और परिवार बड़ा ! सभी लोग इस विवाह में सम्मिलित होने देश-विदेश से आए, खूब रौनक रही| जब वधू ने घर में प्रवेश किया और उसकी कार की डिक्की से एक अटैची निकली तब उदय की सबसे बड़ी बहन से न रहा गया | मुख पर आश्चर्य के भाव लाते हुए वे बोल ही तो पड़ीं ;

“”अरे! ऐसे भी कोई बहू आती है ? ? ” उन पर तो ठेठ उत्तर-प्रदेश का प्रभाव था | ”

“”दीदी ! प्लीज़ ऐसा कुछ न कहिए कि मेरे और गर्वीके बीच में खाई पनपने लगे | आप सब लोग तो अपने-अपने घर चले जाएँगे ---“” शुभ्रा ने अपनी सबसे बड़ी ननद के आगे हाथ जोड़ दिए, वे उसकी माँ की उम्र की थीं | वे भी समझ गई, उसके बाद उन्होंने अपने मुख से एक अक्षर भी नहीं निकाला | खूब नाच-गाने से महफ़िलें सजती रहीं, रौनक लगती रहीं और विवाह की सारी रसमें प्रसन्नतापूर्वक समाप्त हो गईं|

नई बहू से रसोई बनाने की रसम पर परिवार के सारे सदस्य शोर मचाने लगे थे |

“हमारे जाने के बाद करोगी क्या शुभ्रा? जो किसीको पता भी न चले कि तुम्हारी बहू को कुछ आता भी है या नहीं ? ”उदय की बड़ी बहन ने शुभ्रा को चिढ़ाया| वह पहले ही कह चुकी थीं कि अलग जात-बिरादरी की लड़की ले रहे हो, अकेला लड़का है, बुढापा ठीक से बीत जाय तो -----”

“”दीदी, अपने बुढ़ापे के लिए बच्चों के विपरीत तो जाया नहीं जा सकता न ? फिर यह तो व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह रिश्तों को कैसे समझता है, कैसे उन्हें एक सूत्र में पिरोकर रखता है| ” कितना प्रखर विश्वास से भरा था शुभ्रा का मन !

“”हाँ, दीदी यह तो शुभ्रा भाभी ठीक ही कह रही हैं, उनसे तो आज तक किसीके भी रिश्ते नहीं बिगड़े जबकि अकेली सन्तान थीं, रिश्तों के नाम पर उन्होंने अपनी माँ के घर कुछ जाना ही नहीं था, फिर इनके रिश्ते बहू से कैसे बिगड़ सकते हैं ? ”” छोटी दीदी ने शुभ्रा का पक्ष ही लिया|

“”ठीक है भई, तुम लोग जीतीं | अब खीर तो बनवाकर खिलवा दो या हमें यह अवसर भी नहीं दोगी? ””

इस प्रकार अगले दिन बहू की रसोई का दिन निश्चित हुआ, पूरी रसोई तो मेंहदी भरे हाथों से कौन बनवाता है ? खीर बनाने की बात थी, कुछ तो मीठा बने बहू के पहले दिन की रसोई में ! शुभ्रा ने गर्वी से पूछा कि वह खीर बनाना जानती है क्या ? लेकिन गुजरात में बासुंदी का रिवाज़ है अत: बेचारी गर्वी खीर बनाना कैसे जानती? अत:एक चाल चली गई जब परिवार के सब सदस्य आगे बगीचे में बैठकर चाय का आनंद लेने लगे, शुभ्रा ने गर्वी को बुलाकर उसके सामने खीर चढ़ाई, उसने बहू से कह दिया कि वह अपनी दिल्ली से आई हुई ननद के साथ पीछे के गेट से बाहर टहलती रहे, वह खीर देख लेगी किन्तु बाहर कहीं दूर न जाय जिससे जब वह इशारा करे तब तुरंत ही रसोईघर में आ सके और खीर के बर्तन में चमचा चला सके | हुआ भी कुछ ऐसा ही जैसा शुभ्रा को अंदेशा था | कोई न कोई रसोईघर में आकर झाँकता रहा और गर्वी को कढ़ाई में चमचा चलाते देखकर संतुष्ट होकर फिर से बाहर कहकहों में सम्मिलित होने पर वापिस जाता रहा | शुभ्रा के पास तो बहाना था कि नई लड़की को कैसे उसकी रसोई के बारे में कुछ अता–पता होगा | इस प्रकार खीर बनाई शुभ्रा ने और नाम हुआ बहूरानी का | एक बड़े कटोरे में सारे सूखे मेवे काटकर रख लिए गए थे जिससे जब गर्वी बाहर खीर ले जाए तबप्रत्येक कटोरी में रखी खीर को मेवे से सजा सके | गर्वी को पहली रसोई में खूब वाह-वाह मिली तथा तोहफों और रुपयों के रूप में बड़ों का शुभाशीष! कितनी प्रसन्न हुई थी शुभ्रा! उसकी आँखों की चमक ने उसकी प्रसन्नता की चुगली खाई थी जैसे उसकी ही रसोई को शाबासी मिली हो | आखिर वह और गर्वी अलग थे भी कहाँ? उसके बाद तो गर्वी को ही सब कुछ संभालना था सो जैसा वह करे ठीक ही तो है | शुभ्रा नहीं समझ पाई कि किसी बाहर से आने वाली लड़की को अपने परिवार के संस्कार देने होते हैं, उसे कुछ बातें सिखाई जाती हैं तो कुछ बातों में टोकना भी पड़ता है जो वास्तव में अहं की संतुष्टि के लिए नहीं, भविष्य के लिए आवश्यक होता है | खोई रही वह किसी स्वप्न-लोक में, उसके हिसाब से दुनिया की सबसे सुखी स्त्री थी वह !

प्रसन्नता के दिन हवा में सुगंध बिखेरते हुए न जाने कहाँ उड़नछू हो जाते हैं | जीवन की दौड़ बहुत अजीब है, जब कभी तकलीफें आती हैं यह दौड़ कछुए सी हो जाती है और जब प्रसन्नता के दिन होते हैं तब यह खरगोश की भांति सरपट भागती नज़र आती है | मालूम नहीं या तो ऐसा होता ही है अथवा मनुष्य को ऐसा महसूस होता है इसीलिए दार्शनिकों ने सुख व दुःख में समान रहने की सलाह दी है किन्तु ऐसा होता कहाँ है ? परिस्थितियाँ ह्रदय में गंभीर घाव कर जाती हैं, यह घाव भरते नहीं भरता जैसे इसमें कोई चोट पर चोट लगाकर इसे सदा हरा रखना चाहता है | इस पीड़ा को तरोताज़ा रखना एक मजबूरी होती है अथवा आवश्यकता, यह पता नहीं चलता |

गर्वी की शिक्षा शेष थी, विवाह के वर्ष वह किसी विषय में रह गई थी, बहुत दुखी हुई| शुभ्रा ने उसकी पनीली आँखें अपने आंचल में सुखा लीं ;

“”इतने परेशान नहीं होते बेटा, अब दे देना एक्ज़ाम, इसमें क्या है ---“” शायद उस समय गर्वी को भी शुभ्रा में अपनी माँ ही नज़र आई होगी |

ज़िंदगी जब एक ढर्रे पर चल पड़ती है तो चलती ही जाती है| जब ज़िन्दगी मुस्कुराकर चलती है तब वह बहुत अच्छी लगती है, सरपट भागती ही जाती है | तब पता ही नहीं चलता मार्ग में कहाँ गंदगी है, गड्ढे हैं और कहाँ साफ़-सुथरी सड़क है ? मनुष्य आँखें मूंदे बस उन मार्गों पर चलता चला जाता है | वह लक्ष्य की परवाह भी कहाँ करता है ? बस चलते हुए आनंदित होता रहता है, झूमता रहता है | उसे पता ही नहीं होता कि कभी इस मार्ग में इतना बड़ा गड्ढा भी आ सकता है कि वह उसमें समा सकता है | बस ऐसे ही आनन्दपूर्ण पलों से लबरेज़ थी शुभ्रा की ज़िंदगी, वह मस्ती से गर्वी के साथ दिन व्यतीत कर रही थी | दीति को तो शुभ्रा ने ऐसे भुला दिया था मानो वह उसके शरीर का अंग थी ही नहीं | किसी भी बात का निर्णय लेने के समय जब शुभ्रा उदित से कुछ पूछती, वह भी कहता “गर्वी से पूछ लीजिए” | किसी काम के लिए अथवा किसी निर्णय के लिए जब कोई बात शुभ्रा के सामने आती, पति अथवा बेटी कुछ पूछते वह स्वयं भी यही कहती कि “गर्वी से पूछ कर बताऊंगी, गर्वी ने कह दिया तो करूंगी| ” उसने अपने व्यक्तित्व को जाने कैसे एक आवरण में छिपा लिया था, या फिर यही उसका व्यक्तित्व था | कई बार तो गर्वी का घर में वर्चस्व देखकर उदय खीज भी जाते, उन्हें ऐसा व्यवहार कहाँ मंजूर था? शुभ्रा अपना अस्तित्व स्वयं ही खोती जा रही थी, वह भी अपनी प्रसन्नता से! उन्होंने कई बार बेटी से इस विषय में चर्चा करने का प्रयत्न किया, बेटी भी असमंजस में थी आख़िर माँ की आँखों पर यह पट्टी क्यों बंधी हुई है ? ही अपना व्यक्तित्व व स्वाभिमान ताक पर रखकर वे क्यों कल की आई लड़की के हाथों की कठपुतली बनी हुई हैं ? कष्ट होता था उसे जब पापा से इस विषय पर चर्चा होती | उदय ने पत्नी को समझाने का बहुत प्रयास किया आखिर ऎसी कौनसी कमज़ोरी है जिसने शुभ्रा को गर्वी के समक्ष निर्बल बना रखा था ?

कैसे समझाती शुभ्रा किसीको कि उसकी कोई मज़बूरी नहीं थी, एक अहसास था, स्नेह था, प्यार था जो उसने सदा ही सबमें बाँटा था फिर यह तो घर की बच्ची थी, उस पर कैसे न प्यार लुटाती? भीतर का टूटा-फूटा तंबूरा खड़कने लगा, बार-बार खड़का पर उसे टूटे हुए तंबूरे की आवाज़ सुनाई नहीं दी, सुनाई दी भी तो उसने उसे दिल के एक कोने में मुह घुमाकर खड़ा कर दिया | उदित और गर्वी में तो ब्याह के बाद ही चीं चीं शुरू हो गई थी, उसे अपना भी याद है, उसकी भी तो उदय से शादी की शुरुआत में खटपट बनी ही रहती थी अत:अगर उन दोनों की भी हो रही थी तो कहाँ इतनी बड़ी बात थी | उसे सदा ही यह लगा है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती | उदित कौनसा कम था, दोनों ही एक से बढ़कर एक | बच्चे जैसे बड़े होते जाते हैं, बाहरी प्रभाव में रचने-बसने लगते हैं | बेशक उदित शुभ्रा के बहुत समीप था किन्तु लड़का था, बाहरी वातावरण का प्रभाव उस पर भी पड़ रहा था | पिता से मित्रता हो नहीं पाई थी, अब उस पर व गर्वी पर एक-दूसरे का प्रभाव तो पड़ना ही था |

शुभ्रा भीतर से गर्वी का स्वभाव पहचान गई थी परन्तु वह सबको क्या बताती कि उसका मूल स्वभाव ही छिटक देने का है, अभिमानी है | उसने कभी किसीकी बुराई की ही नहीं थी तो उस बच्ची की कैसे करती जिसे उसका बेटा प्रेम करता था या यूँ कहें कि अपनी पत्नी बनाकर घर में लाया था| इसमें किसीका कुछ नहीं जाता, परिवार पर ही दाग़ लगता, सौ ऊंगलियाँ उठतीं जिसकी शुभ्रा को अधिक चिंता नहीं थी किन्तु पति के स्वभाव से परिचित वह कुछ भी ऐसा होने से रोकना चाहती थी जिसका मलाल उदय को हो ! गर्वी के स्वभाव में वह विनम्रता, गरिमा नहीं थी जो एक व्यक्तित्व को सजाती–संवारती है | यदि वह पति से गर्वी के स्वभाव के बारे में बात करती तब भी खाट तो उसकी ही खड़ी होनी थी, उसे ही उदय की खरी-खोटी सुननी पड़ती | विवाह से पूर्व जिन बातों का उदय को भय था, वही शुभ्रा के समक्ष घटित हो रही थीं | अत: शुभ्रा ही चुप बनी रहती, वह प्रयास करती कि किसीको भी यह पता न चले कि क्या चल रहा है ? उदित कुछ अलग ही प्रकार का युवक था, कुछ बातें तो उसे समझ में ही नहीं आती थीं या वह समझना ही नहीं चाहता था | उसे कितना इशारा भी कर दो तब भी वही ढाक के तीन पात ! ऊपर से वह गर्वी के कथन से इतना प्रभावित हो जाता था कि वह स्वयं किसी बात को समझने की चेष्टा करने का कष्ट भी न करता| जब आसानी से काम हो जाता है तब कष्ट उठाने की ज़हमत व्यर्थ ही थी न ? अपने उत्तरदायित्व को उसने कभी समझा ही नहीं और शुभ्रा ने पति, बेटे अथवा बेटी के साथ कुछ साँझा ही नहीं किया, तब उदय क्या करते? वे स्वयं कभी बच्चों को सामने बोलने की छूट नहीं दे पाए थे खासकर उदित को, दीति तो फिर भी पापा के कंधे पर सवार हो ही जाती, उदित से कुछ दूरी सी ही बनी रही उदय की | अत: जब शुभ्रा ने उनसे कभी कोई शिकवा-शिकायत की ही नहीं तब वे क्यों व्यर्थ ही बीच में बोलते | अधिकाँश रूप से परिवारों में सास-बहू की खिटपिट चलती रहती है | उदय पुत्र-वधू के व्यवहार से, उसके बोलने से पत्नी का अपमान होते हुए देखते थे, महसूस करते थे किन्तु कई-कई बार पूछने पर भी जब शुभ्रा ने कभी गर्वी के विपरीत एक शब्द तक भी मुख से नहीं निकाला, वे क्या कर सकते थे ? वैसे वे मन से अशक्त नहीं थे, बाहरी निर्णय व स्वयं के लिए निर्णय लेने में वे न किसीसे पूछते, न ही किसीको बताते किन्तु बच्चों के मामले में वे गफलत में आ जाते थे | समझ गए कि शुभ्रा घर में शान्ति का वातावरण बना रहे इसीलिए हर बात पर चुप्पी का आवरण ढक लेती है अत: वे भी चुप ही बने रहे, बहुत कुछ देखकर व सुनकर भी वे चुप हो जाते या उनकी अपनी पत्नी उन्हें चुप करा देती | कई बार इशारा तो देती थी शुभ्रा बेटे के परिवार को अलग कर देने का किन्तु कहाँ -----कोई बात समझने के लिए तैयार थे उदय !

***