मायामृग - 8 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मायामृग - 8

मायामृग

(8)

अपनी विषम परिस्थतियों में घिरे गर्वी के पिता बहुत अधिक ‘ड्रिंक’ करते थे| वे अपने क्लिनिक में बैठकर खूब पीते और कई बार गिरते-पड़ते अपने घर आते | शुभ्रा ने उनकी इस स्थिति के बारे में सुना तो बहुतों के मुख से था किन्तु जब गर्वी का संबंध उसके अपने बेटे से होने की बात आई, उसका गर्वी के घर यदा-कदा जाना होने लगा| तब उसे पता चला कि गर्वी के पिता कभी स्कूटर से गिर जाते, कभी कहीं और टक्कर खाकर गिर पड़ते और चोटें खाते रहते | उसने कई बार उनके मुह व शरीर की बहुत बड़ी व गहरी चोटें देखी थीं | कई बार ऐसा भी हुआ था कि जब कभी शुभ्रा गर्वी के घर जाती थी तब उस परिवार के लोग सकते की सी स्थिति में आ जाते थे, घर के सिंह-द्वार की जाली में ताला पड़ा रहता था | शुभ्रा के जाने पर ताला खोला जाता और गर्वी के पिता को पकड़कर ‘बैड-रूम’ में ले जाया जा रहा होता | उन्हें वहाँ बंद करके ए.सी॰ चला दिया जाता और कोई न कोई बहाना बना दिया जाता | जिससे वह कुछ प्रश्न न कर पाए, उनकी चोटों को न देख पाए जिससे व्यर्थ के अन्य प्रश्न समक्ष न आएं | स्वाभाविक भी होता है परिवार के किसी एक बड़े के इस प्रकार के व्यवहार से परिवार के लोग अजीब सी स्थिति में तो आ ही जाते हैं | काफ़ी देर तक बैठने के उपरान्त भी उसके पिता बाहर नहीं आते थे और वह उनसे बिना मिले वापिस आ जाती थी| उदय तो वैसे ही गर्वी के घर न जाने का कोई न कोई बहाना तलाशते रहते थे जो शुभ्रा कभी पसंद नहीं कर पाई थी | आखिर जिस परिवार से उनका संबंध जुड़ने जा रहा था, उसके प्रति इतनी उपेक्षा शुभ्रा के अनुसार ठीक न थी | शुभ्रा के भीतर कहीं कोई भय सा करवटें लेता रहता था, वह उस भय की आवाज़ को अपने भीतर ही दबा लेती थी| उसने बहुत चीज़ों को दबाया, सप्रैस किया, जानती नहीं थी कि चीज़ें दबाने से स्प्रिंग बनकर उछलती हैं जिससे घायल भी हुआ जा सकता है, सब कुछ तोड़-फोड़ जाती हैं बल्कि चूराचूर कर जाती हैं जिनके जुड़ने के लिए कोई गौंद, कोई फैविकोल नहीं मिलता | किरचें चुभती ही रहती हैं, रक्त निकलता रहता है ताउम्र और शेष उम्र भय में बिसुरते हुए व्यतीत होती है | खैर अब तो विवाह हो ही चुका था, जीवन की पुस्तक के एक प्रमुख अध्याय का पटाक्षेप हो ही चुका था |

गर्वी के पिता को जानने वाले लोग उनके स्वभाव व व्यवहार से पूरी तरह परिचित थे, दिल के वे बुरे नहीं थे किन्तु कुछ बातें सामाजिक मर्यादा के लिए आवश्यक होती हैं, जिनका पालन वे नहीं कर पाए थे अथवा परिस्थितियों में घिरकर उन्होंने सामाजिक मान्यताओं को अधिक जोर नहीं दिया या फिर उनके लिए वे बातें अधिक आवश्यक नहीं थीं या फिर और जो कुछ भी था ये तो वे ही जाने| उन्होंने दूसरी स्त्री से सामाजिक रूप से विवाह किया था अथवा उसके साथ आपसी शर्तों से रह रहे थे यह बात शुभ्रा ने कभी किसीसे नहीं पूछी थी किन्तु समाज में जो हवा फैली थी वह असंख्य कानों में गुनगुन करती हुई असंख्य मुखों से झरती हुई बेलगाम हो इतराकर अपने डैने पसार रही थी| कुछ‘वैल विशर्ज़’ होते हैं न जो आप न चाहें तब भी आपकी रक्षा करने से बाज़ नहीं आते, वे आपके चारों ओर ऎसी बातों का तंबू ताने रहते हैं जिसमें से वे ताज़ी हवा का झोंका ही नहीं आने देते | ऐसे लोग प्रत्येक समाज में होते हैं और उनकी पैठ आपके दायरे में कितनी है, यह बहुत महत्वपूर्ण होता है | कुछ लोग विवाह के पश्चात इस घर में भी अपना स्थान बनाने का प्रयास करने में लगे थे किन्तु यह तो उदय का परिवार था जिसमें किसी के भी कच्चे कान नहीं थे अत:यहाँ दाल गलनी इतनी आसान न थी, इस घर में नकारात्मकता फ़ैलाने का प्रयास टेढ़ी खीर थी | अत: छोटे-मोटे प्रयास के बाद लोगों के मुख पर ताला लग गया जिसकी चाबी शुभ्रा ने अपनी अंटी में खोंस ली थी |

गर्वी के नाना का परिवार समाज में प्रतिष्ठित था, गर्वी की माँ के एक विवाहित पुरुष से विवाह करने पर उस परिवार के अधिकांश सभी सदस्य गर्वी की माँ से रुष्ट थे जो समय व्यतीत होने के साथ शनै:शनै:ठीक भी होने लगे थे | गर्वी के पिता के उनकी पहली पत्नी से तीन संतान थीं जिनसे पिता का साया छिन गया था इसीलिए गर्वी के पिता की पहली पत्नी तथा तीनों बच्चों की आहें दूसरी स्त्री पर पड़ना स्वाभाविक ही था | वे अपने सारे बच्चों के बीच में घिसटते हुए संतप्त हो जाते थे, शायद उनका दम घुटने लगता होगा | ऐसी स्थिति में वे बहुत अधिक मदिरापान करने लगते थे और बहुत सी बार अजीब सी अस्त-व्यस्त परिस्थितियों में घर लौटते थे| कई बार परिस्थियोंवश मनुष्य के हाथ में कुछ नहीं रहता| वह जो कुछ कर बैठता है, उसके परिणाम की उसने कल्पना भी नहीं की होती किन्तु जब परिणाम सामने आता है तब उसे ज़ोर से झटका लगता है | तब तक देरी हो चुकी होती है और उसके हाथों के तोते उड़ चुके होते हैं और तोतों की मधुर चटर-पटर उसके कानों में सीसा पिघलाकर उडनछू हो जाती है | रह जाती हैं शेष वे स्मृतियाँ जो उसे पीड़ित करने का ठेका लेकर उसकी आँखों के सामने बारंबार घूमने लगती हैं, उसके हाथ में कुछ नहीं रहता | यही स्थिति आई थी गर्वी के पिता के सम्मुख ! यह भी जीवन के रंगमंच का एक खेल ही तो था अन्यथा इस दुनिया में कौन ऐसा मनुष्य है जो चैन की साँस नहीं लेना चाहता?

विवाह तो हो ही चुका था अब संबंधों को समेटने के लिए उन संवेदनाओं की ज़रुरत थी जो हर दिल को जोड़कर रख सकें | शुभ्रा चाहती थी कि गर्वी अपने पैरों पर खड़ी रहकर एक स्वाभिमानी जीवन व्यतीत करे | आज की स्त्रियाँ घर और बाहर दोनों का संतुलन करने में समर्थ हैं तो उनकी पुत्रवधू ही क्यों पीछे रहे? फिर वह स्वयं भी तो उसका हाथ पकड़े खड़ी थी| हाँ, वह आर्थिक रूप से बहुत अधिक सहायता नहीं कर पाई थी, वैसे अर्थ की कोई सीमा तो होती नहीं है | यह तो मनुष्य की अपनी स्थिति व परिस्थितियों पर निर्भर करता है किन्तु मानसिक व शारीरिक रूप से जितना भी वह नैतिक रूप से गर्वी की सहायता कर सकती थी, उसने ऐसे की थी मानो गर्वी स्वयं उसके शरीर का ही भाग है| गर्वी के आने के बाद वह कहाँ उसको स्वयं से अलग समझ पाई थी? कहीं बाहर जाती तो सहेलियों की भांति चुहल चलती रहती| शुभ्रा की बेटी व पुत्रवधू गर्वी ने ‘भरतनाट्यम’ नृत्य की शिक्षा ली थी जबकि शुभ्रा ने बनारस घराने के ‘कत्थक’ नृत्य की | दोनों दरवाज़े बंद करके नृत्य करतीं, दोनों को नृत्य का बेहद शौक ! शुभ्रा गर्वी को कत्थक के तोड़े दिखाती और गर्वी उसे भरत नाट्यम ! फूली नहीं समाती थी शुभ्रा, कितना एक-दूसरे से स्वभाव मिलता है ! कैसी मूर्ख स्त्री थी शुभ्रा जो गर्वी के इतने करीब होने के उपरान्त भी एक लड़की के स्वभाव को पहचानने में असफल रही अथवा आँखें मूँदकर समय के प्रवाह के साथ निर्झरनी बन बहती रही ! वह उसके सलीकों पर आवरण ही तो डालती रही | यदि गर्वी कुछ ऐसा कर जाती जो उदय को पसंद न होता, शुभ्रा उस बात को छिपा जाती| वह नहीं जानती, समझती थी कि उसके बातें छिपाने से अर्थ का अनर्थ हो सकता है | उसे तो लगता चुप्पी लगाकर जीवन निकाल देगी, उदय को कोई कष्ट नहीं होने देगी| ऎसी बातें जिनसे उदय पहले ही डरते थे और इसीलिए इस विवाह के पक्ष में नहीं थे | शुभ्रा समझ ही नहीं पाई कि हास-परिहास के अतिरिक्त जीवन का कोई बेढंगा रूप भी हो सकता है? इस प्रकार शुभ्रा गर्वी के साथ हास-परिहास में दिन व्यतीत करने का प्रयत्न करती रही | यदि यह कहा जाए कि गर्वी के आने के बाद शुभ्रा बिलकुल शांत रहकर एक बहू की भांति घर में रहने लगी थी और गर्वी को उसने पूरी छूट दे दी थी तो कोई अतिशयोक्ति न होगी जो वास्तव में बहुत बड़ी त्रुटि थी | प्रत्येक रिश्ते व संबंध की एक मर्यादा होती है, वह मर्यादा में ही रहकर शोभा पाता है, शुभ्रा इस मर्यादा का पालन करना गर्वी को न सिखा पाई, उसे कभी समझ ही नहीं आया कि जिस प्रकार वह एकमात्र सन्तान होकर इतने वृहद परिवार में बिना किसीके बोले, सिखाए-पढ़ाए स्वयं सबमें घुल-मिल गई थी, ऐसे ही गर्वी क्यों नहीं घुल-मिल सकेगी ? अब उसे लगता है कि स्वयं भी तो कहाँ वह मर्यादित व्यवहार कर सकी ? चाहे बड़े हों अथवा छोटे, मर्यादा सबके लिए आवश्यक है, सबकी सीमा होती है जिसमें रहने से व्यक्ति का रूप निखरता है | प्रत्येक रिश्ते की सौंधी महक से ही परिवार का वातावरण सुगन्धित होता है अन्यथा संबंधों में तनाव की माचिस से आग पकड़ना कोई बड़ी बात नहीं होती | शुभ्रा इस तनाव की चिंगारी से भयभीत बनी रहती थी जिसका परिणाम यह हुआ कि गर्वी उस पर और उस पर भी क्या पूरे वातावरण पर हावी होती चली गई| मूल स्वभाव को आवरण में तब तक ही रखा जा सकता है जब तक कोई बात विरूद्ध न हो |

घर में बहू के आने के बाद भी शुभ्रा पूरे परिवार के सदस्यों के काम इस प्रकार भाग-दौड़कर करती मानो ये सब काम उसके ही उत्तरदायित्व हों, चाहे उसमें रसोई करना हो अथवा किसी भी प्रकार से किसीकी देख-रेख व सार-संभाल करना | शुभ्रा की कई सखियों व उसका सीधा स्वभाव समझने वालों ने उसे समझाने का प्रयास भी किया था किन्तु शुभ्रा पर तो किसी बात का कोई प्रभाव ही पड़ता हुआ दिखाई नहीं देता था सो बेचारे भला चाहने वाले भी चुप होकर बैठ गए थे| उसको इसमें कोई परेशानी नहीं होती थी और होती भी थी तो वह किसीको कुछ पता ही नहीं लगने देना चाहती थी, यहाँ तक कि उदय को भी | अब लगता है प्रत्येक चीज़ का एक सलीका होता है, यह शुभ्रा का उत्तरदायित्व था कि अपने परिवार में आने वाली नई लड़की को परिवार के तौर-तरीकों से, सलीकों से प्रारंभ में ही परिचित कराती, उसे स्पष्ट रूप से बताती कि इस परिवार की ये सीमाएं हैं और इनमें रहना आवश्यक है | शुभ्रा गर्वी को वह सलीका सिखला ही नहीं पाई, उसे लगता गर्वी ने इस घर में आकर सभी शुभ्रा पूरे परिवार के सदस्यों के काम इस प्रकार भाग-दौड़कर करती मानो ये सब काम उसके ही उत्तरदायित्व हों, चाहे उसमें रसोई करना हो अथवा किसी भी प्रकार से किसीकी देख-रेख व सार-संभाल करना | शुभ्रा की कई सखियों व उसका सीधा स्वभाव समझने वालों ने उसे समझाने का प्रयास भी किया था किन्तु शुभ्रा पर तो किसी बात का कोई प्रभाव ही पड़ता हुआ दिखाई नहीं देता था सो बेचारे भला चाहने वाले भी चुप होकर बैठ गए थे| उसको इसमें कोई परेशानी नहीं होती थी और होती भी थी तो वह किसीको कुछ पता ही नहीं लगने देना चाहती थी, यहाँ तक कि उदय को भी | अब लगता है प्रत्येक चीज़ का एक सलीका होता है, यह शुभ्रा का उत्तरदायित्व था कि अपने परिवार में आने वाली नई लड़की को परिवार के तौर-तरीकों से, सलीकों बातें अपने आप ही सीख ली हैं | इस घर की परंपरा के अनुसार शुभ्रा प्रतिदिन सवेरे उठकर ससुराल में शुरू से ही सब बड़ों के पैर छूती थी | गर्वी आज की लड़की थी, उस पर गुजरात के स्वतंत्र वातावरण का प्रभाव था| यहाँ त्यौहार-बार अथवा विवाह के समय लड़के-लड़कियाँ अपने माता-पिता अथवा बड़ों के पैर छूते हैं| इसके उपरान्त भी गर्वी ने बड़ी स्वाभाविकता से यह परंपरा स्वीकार ली थी | जिससे शुभ्रा ही नहीं उदय के मुख पर भी एक ताजगी सी बिखर आई थी| अपने स्वभावानुसार शुभ्रा बड़ी सहजता से गर्वी के साथ दूध में शक्कर की भांति घुल-मिल गई थी, सबके साथ घुलमिल जाना उसके मूल स्वभाव का एक अंग था, उसे महसूस होता कि गर्वी | वह इस तथ्य से परिचित थी कि गर्वी तेज़-तर्रार लड़कियों में है, वह उसके परिवार की पूर्व गाथा से तथा उसकी माँ के स्वभाव से भी पूर्व परिचित थी किन्तु उसकी आँखों पर तो मुहब्बत की ऎसी पट्टी बंधी थी कि उसे गर्वी के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता था, उसकी अपनी जाई बेटी भी नहीं| कॉलेज में शुभ्रा का चुलबुलापन मशहूर था | सत्य बात पर वह विनम्रता से ही सही अडिग हो जाती थी किन्तु अपने ही परिवार में कैसे और कब उसने स्वयं को निर्जीव व बेचारा सा बना लिया था, उसे स्वयं भी पता नहीं चला| यकीनन इस बात के लिए किसीको भी दोष देना उचित न था | बिना बात किसीके बीच में कूदने का न उसका स्वभाव था और न ही कोई आवश्यकता ! अच्छे-बुरे, अँधेरे-उजाले के अंतर को बखूबी समझने वाली शुभ्रा सब कुछ समझते हुए भी अपने ही घर में गलत और सही का निर्णय ले पाने में असमर्थ रही| आखिर क्यों? कुछ तो उसकी अपनी भी कमजोरी रही होगी न ? वह अपने भीतर से निकलने वाली उस अंतरा को बार-बार ज़बरदस्ती भीतर ठेलती रही, इतना कि उसने बाहर झांकना ही बंद कर दिया | किन्तु मन और तन के तंबूरों में टकराव तो सदा होता ही रहा जिसे शुभ्रा सदा अनसुना, अनदेखा ही तो करती रही| आज की अपनी व परिवार की स्थिति के लिए कौन और कैसे ज़िम्मेदार हैं, सोचते हुए वह बार-बार अपने भूत में पहुँच जाती है | उसे लगता कि इन परिस्थियों के लिए वह काफ़ी हद तक स्वयं भी ज़िम्मेदार है, अगर वह चेती होती तो उदय को कुछ तो समझा ही सकती थी लेकिन वह स्वयं भी तो एक खोल में बंद होकर बैठ गई थी | यदि वह अधिक कुछ न कर पाती तो बच्चों को उनकी जगह तो दिखा ही सकती थी लेकिन उसने कुछ नहीं किया या उससे कुछ हुआ नहीं |

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