उदास क्यों हो निन्नी...? - 2 प्रियंका गुप्ता द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

उदास क्यों हो निन्नी...? - 2

उदास क्यों हो निन्नी...?

प्रियंका गुप्ता

भाग - २

आज सोचती हूँ, उस दिन अनुज दा मुझे समझाते तो शायद एक अनजान रास्ते पर यूँ बढ़ते मेरे कदम रुक गए होते, पर अनुज दा की ज़बान पर ताला तो खुद मैं ही डाल आई थी न...। घर छोड़ के जाते वक़्त दादी के बन्द दरवाज़े से बैरंग मुड़ जब मैं अनुज दा और सुधा दी से विदा लेने उनके कमरे में गई तो उन्होंने भरी आँखों से बस इतना भर कहा था...बहुत ग़लत किया है तुमने...और फिर पीठ फेर ली थी...। लगा था...कहीं गहरे ढेर सारी किरचें चुभी हुई असहनीय पीड़ा दे रही, पर उस दिन तो मेरे पास उस दर्द के लिए कोई मरहम भी नहीं था।

दादी ने उस दिन मुझे सिर्फ़ अपने घर से ही नहीं निकाला था, बल्कि अपनी ज़िन्दगी से भी हमेशा के लिए बेदख़ल कर दिया था। मेरे दोनो बच्चों के जनम की ख़बर पाकर भी उन्होंने अपने दिल के दरवाज़े मेरे लिए नहीं खोले थे। अनुज दा ने शायद अनचाहे ही मेरी तरफ़ से अपनी नज़रें फेर ली थी। कौन जाने, मेरे दिए ज़ख़्मों से दादी इतना टूट गई हों कि अगर ऐसे में उनकी तरफ़ से हटा कर अनुज दा अपना कन्धा मुझे देते, तो वे भरहरा कर बिखर ही जाती...। अनुज दा को मैं दोष देती भी तो कैसे...और क्या...?

अतीत की अन्धियारी गलियों में भटकते हुए ध्यान ही नहीं रहा, मेरे आसपास भी कितना गहरा काला सन्नाटा फैल चुका था। होश तब आया जब सुधा दी ने आकर कमरे की बत्ती जलाई...। दादी को गए दो दिन बीत चुके थे और मैं अब भी गाहे-बगाहे उन्हें अपने पास ढूँढने की कोशिश करने लगती थी। सुधा दी बिन बोले मेरे पास बैठ गई...। बारह सालों से वे ही तो इस घर को...दादी को...अनुज दा को...सबको सम्हालती आ रही थी। आज मुझे भी सम्हालने की कोशिश कर रही थी।

रात के खाने के समय अनुज दा ने पहले की तरह मेरे मन पर मरहम रखने की अपनी वही कोशिश की...। सहसा मैं भी हल्का महसूस करने लगी थी। बच्चों के बारे में तो अनुज दा खूब पूछताछ कर रहे थे, पर मार्क के बारे में बस इतना ही पूछा था...उसके साथ तुम खुश तो हो न...? जाने क्या हिचकिचाहट थी अनुज दा के मन में...और मैं भी न कह पाई...मार्क के साथ मैं उतनी खुश कभी नहीं रही अनुज दा, जितनी आपके साथ रहती थी...।

बारह साल बीत चुके थे, वक़्त बदला था, अनुज दा नहीं...। खाने-पीने से लेकर मेरी हर पसन्द-नापसन्द अनुज दा को उतनी ही शिद्दत से याद थी, जितनी कि मुझे उनकी...। जाने क्यों लगा, बरसों से प्यासी धरती पर कुछ बूँदे बरस कर उसे अमृत-दान दे गई हों...। पहले की ही तरह उनकी मुस्कान अब भी उनकी आँखों में पहुँचती दिख जा रही थी मुझे...। ऐसे में लगता, मेरे सामने वही पतली-सी मूँछों की रेख वाले अनुज दा आ खड़े हुए हैं...। लेकिन वे अब लड़के कहाँ रह गए थे...। उम्र बहुत तो नहीं बढ़ी लगती थी, पर बाल हल्के-हल्के सफ़ेद हो रहे थे कहीं-कहीं...लेकिन उतने भी नहीं कि एक नज़र में झलक जाएँ...। दादी के बारे में मुझे ज़्यादातर सुधा दी ही बता रही थी। आँटी नहीं रही थी, और मैं चाह कर भी इस ख़बर से मुझे अनभिज्ञ रखने की शिकायत अनुज दा से नहीं कर पा रही थी...।

बेग़ानों को लेकर माँ का भय सच साबित हुआ था, पर आधा-अधूरा...। दादी ने अपनी जमा-पूँजी मेरे ही नाम पर छोड़ी थी, पर हवेली अनुज दा को दे गई थी। अनुज दा ने हमेशा अपना कन्धा हम दादी-पोती को दिया था, उस पर वे इस हवेली का भार नहीं रखना चाहते थे...। पर एक बार फिर मैने उनकी ज़बान पर ताला जड़ दिया था...दादी को बहुत दुःख दे चुकी मैं...अब उनकी इस अन्तिम इच्छा की अवमानना करके आप तो उनको कोई दुःख न दीजिए...। बस, अगर हो सके तो कभी-कभार यहाँ आकर अपने कमरे में कुछ दिन आप सब के साथ बिता सकूँ...इतनी इजाज़त भर चाहिए मुझे...।

मेरे जाने का दिन आ गया था। सुबह पता नहीं क्यों, मैं बचपन की तरह बिना पूछे...बिना बताए अनुज दा के कमरे में जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाई...। उनकी किताबों की विशालकाय अलमारी में यूँ ही हाथ फिराते...नज़रें घुमाते मुझे ऊपर...बिल्कुल ऊपर उनकी वही पुरानी डायरी दिख गई, जिनमें वे सबसे छिप कर कविताएँ लिखा करते थे...। कुछ इस तरह बाकी किताबों के बीच उस डायरी को रखा गया था कि एक सरसरी निगाह से देख कर उसके डायरी होने का संदेह किसी को भी नहीं हो सकता था...। मेरे होंठो पर अनायास ही एक मुस्कान आ गई...। किसी और को नहीं पता तो क्या, मुझे तो यह राज़ पता है न...।

मंत्रमुग्ध-सी मैं कब एक कुर्सी खिसका साधिकार उस पर चढ़ वह डायरी उतार बैठी, मुझे याद ही नहीं...। अन्दर के पन्ने झरझरा से रहे थे...शायद बरसों से उन पर कुछ नया लिखा ही न गया था...। पन्ने पलटते-पलटते सहसा एक मुड़े-तुड़े से पन्ने के भीतर एक सूखा सुर्ख़ गुलाब मेरे हाथ आ गया...जैसे सारा शरीर झनझना गया...।

ये तो वही गुलाब था जिसे अनुज दा से छिप कर डायरी पढ़ते समय अचानक उनके आ जाने पर घबरा कर मैने इसी के अन्दर दबा दिया था...। बरसों बाद अब भी यह गुलाब वहीं दबा था...उसी तरह...सुरक्षित...।

सहसा पीछे कोई आहट हुई तो हड़बड़ा कर वह डायरी मेरे हाथ से छूट कर ज़मीन पर गिर पड़ी। बाहर रसोई में कुछ टूटा था शायद...। खुद को संयत कर मैं डायरी उठा कर सीधी हुई तो देखा, गुलाब भुरभुरा कर चूरा हो चुका था, अनजाने मेरे ही हाथों...।

जाने क्या हुआ मुझे...मैं भरभरा कर वहीं गिरी और फूट-फूट कर रो दी...।

(प्रियंका गुप्ता)