शान्ति Dr Vatsala J Pande द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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शान्ति

ओफ्फो शान्ति तुम कितनी दुष्ट हो ,मैं कितने वर्षो से सिर्फ ये चाह रहा हूँ की तुम कुछ पल, दिन मेरे साथ गुजारो, पर नहीं तुम तो मुझसे कोसो दूर भागती हो जैसे मैं कोई जिन हु और तुम्हे निगल जाऊँगा। बड़ी आयी तुम अपने आप को बड़ा समझती हो, ये मत बोलो अब की कोई दूसरा भी तुम्हारा मित्र नहीं, कहीं और भी तुम्हारा मन नहीं लगता. देखा है मैंने तुम्हे नलकू के पास , और कभी कभी बिट्टी के साथ , और उस बूढ़ी अम्मा की साथ तो बहुत गपियाती हो. मेरे लिये ही टाइम नहीं तुम्हे, इडियट कही की. रहने दो अब पचास साल से ज्यादा की उम्र में तुम्हारा करना भी क्या है, आदत पढ़ गयी है तुम्हारी बिना रहनी की, .

कम से कम इतना तमीज तो होता तुमको की दो घड़ी आ जाओ उन वादों का हिसाब करने जो तुम पिच्छले ३५ वर्षो से मुझे दे रही हो. याद है हमारी पहली मुलाक़ात। याद है कालेज के उन दिनों दिनों में जब हम पढ़ते थे अपनी सीमित साधनो में , कुछ सपने, लिए और कुछ परिश्रम का संकल्प लिए ,उत्साह सेभरपूर मैं और तिरछी सी खड़ी मुस्कुराती तुम , मैं ने तुम् को बुलाया ,कहा आओ ,गाना सुने और कॉफ़ी पीये ,तुम ने कैसे निर्दयता से मेरा निमंत्रण ठुकराया और बोली मैं नहीं आ सकती तुम्हारी पास पल भर को भी , मुझी साथ रखना है तो जाओ पहली जीवन को सार्थक करो, पढ़ो, ऊंची उठो , किसी पद पर आओ , भौतिकता की सर्वोच्चता को पाओ और तब मुझसे बात करना. मेरे लिये तुम्हारे वाक्य सन्देश हो गयी और में तुम्हे पाने की लिए ,उस वक्त तुम्हे छोड़ कर शांति कूद गया दुनिया के महासागर में, ,

समय ऐसी ही बीतता गया बड़े बड़े शहर, बड़ी बड़ी पढ़ाई , नौकरी सब पा लिया पर तुम फिर दूर दूर तक कहीं ना दिखी. उस कोहलाहल में खो गया में और शांति तुम फिर भी मेरी न हुई

अपनी इस व्यस्तता के दौरान भी कभी कभी मन तुम्हे पुकार उठता ,मैं हिम्मत बटोर कर तुम्हे ढूंढने निकलता अक्सर जब भी तुम्हारी याद आती, ,ढूंढने निकलता तो तुम वही अपनी पसंद की एक दो जगह में कही दिख जाती, या तो समुद्र के किनारे , असीमित लहरजलराशी के किनारे , या बच्चो के पार्क में , और ऐसी ही कभी पेड़ो के झुरमुट की नीचे ,. . मैं दो घड़ी के लिये तुम्हारी पास आना चाहता और तुम उठ कर चल पड़ती

फिर अचानक एक दिन ,अच्छे मूड में था तो सोचा थोड़ी देर जुहू बीच पर घूम ही लो, मुझ को भी समुद्र मे बहुत कशिश लगती है, अचानक इतनी सालो बाद वहां तुम दिखी , मैं जोर से तुम्ही पुकारा ,ओ शांति ,शांति मैंने वह सब पा लिया है जो तुम कहती , मैंने भौतिकवाद की परम सीमा तुम्ही दे सकता हूँ,आओ मेरा वरण करो , हम साथ रहेंगे

तुम आई और तुम ने सिर्फ ये कहा सारी भाव एक कागज़ पर लिख दो , जवाब दूंगी। मैं बहुत ही उत्साहित घर गया और लिख डाला ,सब बातें, तुम्हारी चाह और भी क्या क्या , वो गाना भी लिखा जिस से तुम्हे अपनी करीब पाता हूँ --ओह मेरे दिल कई चैन , चैन आयी मेरे दिल को दुआ कीजिये

तुम्हे खत लिख इंतज़ार करने लगा की तुम्हारा कोई जावब आये, जवाब आ गया , पर राम राम ऐसा जवाब की काटो तो खून नहीं।

तुमने लिखा आना तो तुम चाहती हो , पर एक शर्त है की साथ सिर्फ हम तुम नहीं रहेंगे , तुम्हारी नन्ही सी गुड़िया भी हमारे साथ रहेगी मेरी प्यारी गुड़िया भी अब ४० साल बाद तो तुम आने को राज़ी हुई थी मेरे में हिम्मत ही नहीं थी पूछनी की की कौन गुड़िया कैसी गुड़िया , मैनी कहा बस तुम आ जाओ , जिस जिस को साथ लाना चाहती हो , मैं जो तुम्हे 40 साल से चाह रहा था तुम्हे इस पड़ाव पर तुम्हारी इस बात के लिए भी राज़ी हो गया. आ गयी तुम और तुम्हारी एक एक प्यारी सी भोली सी गुड़िया जिसे तुम रौनक कह कर पुकारती थी , रौनक कब मुझ से हिल मिल गयी पता ही नहीं चला, कुछ दिन क्या स्वर्ग से बीते , काम , रौनक और शांति सब था,, वह इतनी रौनकी है, की मैं कभी कभी उस की साथ सब को भूल जाता की मुझे वास्तव में तुम चाहेये थी की रौनकी , उस के मासूम सवालों, उन्मुक्त हंसी , लाखो फरमाइश, ज़िद, उसका भोला स्नेह, प्यारी प्यारी मुस्कान देख कर शांति कभी मैं तुम्ही भूल जाता और कभी उसी में तुम दिखने लगी.

जल्दी ही ये सिलसिला कुछ गड़बड़ हो गया , तुम अनमनी सी दिखने लगी , ना कोई उत्साह ना आवाज़ बस गुमसुम सी रहती , मैं भी भूल जाता दिन भर की दिनचर्या में की शांति तुम बहुत अहमी हो, तुम पूरा ध्यान व आकर्षण मांगती हो, तुम्हे बर्दाश्त नहीं की तुम्हारी उपस्तिथी में ध्यान कहीं और जाए , मुझे एहसास होने लगा की तुम बहुत असहज महसूस कर रही हो, तुम्ही अच्छा नहीं लग रहा, तुम अनमनी सी चले जाने की बात करती, जाने को तत्पर रहने लगी हो , एक दिन मुझी गुस्सा आ गया , मैं भड़क गया और मैंने अनाप शनाप बोलना शुरू किया " बड़ी आयी , क्या सोचती हो तुम, तुम्हारी बिना गुज़ारा नहीं, ढंग से रह नहीं सकती , अपना अहम् इतना आड़े क्यों लाती हो, कोई पूछता भी है तुमको , क्या समझती हो ना तुम अपनी आप को शांति , इतनी सालो में तुम भी तो अकेली रही , किसी ने बुलाया तुम्हे, मिला कोई स्थाई ठिकाना ज़िंदगी में. नहीं न ? मुझे गुस्से पर काबू नहीं रहा और मै ने कमरा बंद किया और शांति से कहा ,आज तुम्ही बताना ही होगा की तुम्हे आखिर जीवन में चाहिए क्या , सारा कुछ जो तुम ने कहा मैंने किया, फिर भी चैन नहीं। अब मुझी जीने दो, अपनी आप भी और रौनक की साथ भी।

शांति बेचारी थोड़ी देर सुनती रही और फिर बोली,मूर्ख पुरुष , तुम कितने मूर्ख हो इसका अंदाज़ मुझी आज आ गया , इतना भी नहीं समझ पाए इतने वर्षो में की तुम को भरपूर जीने देना चाहती हूँ ,चाहती हु तुम जीवन में ऊँचे से ऊंचा उठो , जीवन कौतुहल बना रहे , इसलिए तुम्हे रौनक भी दी इसलिये ही तुम्हारे पास नहीं आती, प्रिये समझो आज की मैं शान्ति हूँ, मृत्यु की साथी , जीवन में आ जाऊं तो वह जीवन मृत सामान है, समझे, .

अब क्या कहते हो आऊं या यूँ ही आँख मिचोली खेलते हुए जीवन में आगे चलना है, मैंने भरी आँखों से कुछ घबरा कर प्रणाम किया और कहा चली जाओ शांति , मुझी अभी जीवन का कोहलाहल मोहिला लगता है, आनंद आता है ऐसी अशांति में संघर्ष करते शांति तुम्हे पुकारने में , सिर्फ पुकारना है , ये कहा और शोर करती हुई रौनक को बाहो में समेट लिया.