पल जो यूँ गुज़रे - 18 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पल जो यूँ गुज़रे - 18

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(18)

जाह्नवी को दिल्ली से लौटे दो—तीन दिन हो गये थे। वह गुमसुम रहती थी। सारा—सारा दिन कमरे में बाहर की ओर खुलने वाले दरवाज़े के समीप कुर्सी पर बैठी वृक्षों के बीच से दिखते आकाश के बदलते रंगों को निहारती रहती। 130 डिग्री के कोण से झरती सूर्य—रश्मियों के प्रकाश में तैरते अणुकणों पर टकटकी लगाये रहती। कभी मीरा की पदावली तो कभी महादेवी वर्मा की कविताएँ उठा लेती और उनमें खो जाती। कोई बात करता तो ‘हाँ—ना' से अधिक न बोलती। यहाँ तक कि जब कभी मीनू उससे कोई बात करना चाहती या अपने स्कूल या अपनी पढ़ाई सम्बन्धी कुछ बतलाना या पूछना चाहती तो भी उसे टालने की कोशिश करती। एक दिन मीनू को स्कूल भेजने तथा अनुराग के ऑफिस जाने के बाद नाश्ते पर जाह्नवी को बुलाने की बजाय श्रद्धा नाश्ता लगवाकर जाह्नवी के कमरे में ले गयी।

श्रद्धा ने बिना लाग—लपेट के पूछा — ‘लाडो रानी, किन ख्यालों में खोई हुई है, निर्मल की बहुत याद आ रही है?'

जाह्नवी ने शरमाते हुए कहा — ‘भाभी जी......'

‘चल, पहले नाश्ता कर लें, फिर बातें करते हैं।'

श्रद्धा ने मेज़ बेड के समीप खींचकर नाश्ते की ट्रे उसपर रखवा ली थी। जाह्नवी ने अन्यमनस्क भाव से कुर्सी मेज़ के नज़दीक की और श्रद्धा द्वारा तैयार प्लेट पकड़कर नाश्ता करने लगी। जब दोनों ने नाश्ता कर लिया तो श्रद्धा ने कहा — ‘मैं मानती हूँ कि अपने प्रिय के साथ लगभग एक महीने तक रहने के बाद उससे जुदाई तकलीफदेह होती है, लेकिन जाह्नवी, सोचो, तुम इतनी बड़ी अफसर बनने वाली हो। क्या इस तरह भावनाओं में बहना अच्छा है! मुझे यकीन है कि तुम दोनों शालीनता की सीमा में रहे होंगे, क्योंकि तुम दोनों बहुत समझदार हो तथा निर्मल भी आम लड़कों जैसा नहीं है।'

श्रद्धा के संकेत को समझते हुए जाह्नवी ने उसे बताया — ‘भाभी जी, मेरा निर्मल के साथ सम्बन्ध मित्रता का है, अन्तरंग मित्रता का, और यह सम्बन्ध हमारे दिलों की गहराई तक पैठ चुका है। आप और भइया भी जानते हैं इसे। मैंने आपसे कभी कुछ छिपाया नहीं। लेकिन जैसे पानी का कोई रंग या आकार नहीं होता और पानी के बिना जीवन की कल्पना असम्भव है, उसी प्रकार मैं निर्मल के बिना अपने अस्तित्व की सोच भी नहीं सकती। इस सम्बन्ध को जब तक सामाजिक और औपचारिक मान्यता नहीं मिल जाती, इसमें किसी तरह के रंग मिलाने की हिमाकत न अब तक की है, न करूँगी, इतना आपके समक्ष वादा है।'

इसके उपरान्त जाह्नवी ने श्रद्धा को दिल्ली प्रवास तथा वृन्दावन—आगरा ट्रिप के दौरान निर्मल और उसके बीच जो कुछ हुआ, पहली रात के डरावने स्वप्न से लेकर अन्त तक, बिना किसी काँट—छाँट के बता दिया। श्रद्धा ने उसे अपने सीने से लगा लिया और कहा — ‘मैं तुम्हारे भइया से कहूँगी कि निर्मल से बात करके एकबार उसके पापा से मिल आयें।'

‘ओह्‌्‌ह भाभी जी, आप कितनी अच्छी हैं! मुझे ऐसा महसूस हो रहा है जैसे आप मेरी भाभी नहीं, मेरी मम्मी हैं, और मैं मम्मी की गोद में छिपी बैठी छोटी—सी बच्ची हूँ,' कहकर फिर उसने अपनी मुखाकृति श्रद्धा की छाती में छुपा ली। ननद—भाभी का ऐसा अद्‌भुत सामंजस्यपूर्ण मधुर मिलन दुर्लभ ही देखने को मिलता है और जहाँ होता है, वह घर—परिवार स्वर्ग—सदृश होता है।

डेढ—दो घंटे बाद जब श्रद्धा उठकर गयी तो जाह्नवी की सारी उदासीनता रफूचक्र हो चुकी थी। उसे महसूस हुआ जैसे मन से मनों—बोझ उतर गया हो, मन में एक नई कली प्रस्फुटित होती हुई महसूस हुई।

रात को श्रद्धा ने अनुराग को जाह्नवी से हुई बातचीत का ब्यौरा अपने ढंग से दिया तथा उसे निर्मल के घरवालों से बात करने के लिये सहमत कर लिया। दूसरे दिन ऑफिस के लिये निकलते समय अनुराग ने जाह्नवी को बुलाकर कहा — ‘यदि निर्मल का फोन आता है या तुम उसे पत्र लिखो तो उससे कहना कि फोन पर मेरे साथ बात करे।'

‘ठीक है भइया।'

जाह्नवी अपने कमरे में आई। क्षण—भर में मस्तिष्क में घटनाओं का तुमलनाद—सा गूँज उठा। सोचने लगी कि निर्मल का कोई फोन नहीं आया। माना कि फोन करने के लिये उसे काफी दूर जाना पड़ता है और कई बार कॉल मिलने में भी बहुत देर लग जाती है, फिर भी मेरे लिये इतना तो उसे करना ही चाहिये था। दूसरे, अब तो कम्पीटिशन का भूत भी उतर गया है और लॉ की पढ़ाई का तो इतना कोई प्रैशर भी नहीं होता कि आप थोड़ा—सा समय अपने प्रिय के लिये न निकाल सकें। साथ ही एक विचार मन में आया कि प्यार में अधिकार नहीं जताना चाहिये। इसे स्वाभाविक स्पन्दन की तरह ही स्वीकार करना चाहिये और मन ने इस ऊहापोह से बचने के लिये एक विकल्प भी प्रस्तुत कर दिया — निर्मल को पत्र लिखो। इस विकल्प ने उसे उत्साहित कर दिया। उसने लेटर—पैड और पेन उठाया और पत्र लिखना आरम्भ किया। अपने शिमला पहुँचने से आरम्भ कर अपनी वर्तमान मनःस्थिति तक, निर्मल द्वारा फोन न करने के लिये उलाहने से लेकर भाभी को सारा वृतान्त बताने तक, भाभी द्वारा सांत्वना देने तथा भाई साहब को ‘पापा' से मिलने के लिये सहमत करवाने तक की पूरी गाथा लिख डाली। पत्र लिखकर उसके मन में सन्तुष्टि का भाव जाग्रत हुआ। बहादुर को बुलाकर पत्र लेटर—बॉक्स में डालने के लिये भेज दिया और अलमारी से मीरा की पदावली निकाल कर तथा ब्लैंक्ट लेकर विश्राम की मुद्रा में पलंग पर बैठकर पढ़ने लगी। श्रद्धा ने जब देखा कि बहादुर पत्र डालने जा रहा है तो उसके मन को भी तसल्ली हुई कि अब जाह्नवी सामान्य हो जायेगी वरना उसे भी जाह्नवी का गुमसुम रहना परेशान किये हुए था।

पत्र मिलने से पूर्व निर्मल जाह्नवी से फोन पर बात कर चुका था। उसने उसे बता दिया था कि वह परीक्षा—तैयारी के अवकाश के कारण पन्द्रह दिन के लिये सिरसा जा रहा है और अनुराग भाई साहब इस दौरान एक दिन पूर्व फोन करके कभी भी आ सकते हैं। साथ ही लम्बे सफर का हवाला देते हुए कहा था कि अनुराग रात को रुकने का प्रोग्राम बनाकर आयें।

जाह्नवी का यह पत्र अब तक के सभी पत्रों से लम्बा था। केवल लम्बा ही नहीं था, इसमें औपचारिकता लेशमात्र भी न थी; दिल की बातें दिल खोलकर लिखी थीं जाह्नवी ने। सर्वप्रथम जाह्नवी ने निर्मल को दिल्ली की आखिरी रात की ‘अग्निपरीक्षा' में सफल रहने पर बधाई देते हुए आभार प्रकट किया था। प्रथम परिचय से लेकर अब तक की घटनाओं का विश्लेषण करते हुए उसने अपने हृदयोदगार तथा मनोभाव एक—एक करके निर्मल के समक्ष उजागर किये थे। कुछ ऐसे भाव—विचार भी थे जिनसे दोनों अपने—अपने अंतस्‌ में अवगत तो थे, किन्तु उन्होंने कभी भी आपसी बातचीत में इनपर चर्चा नहीं की थी।

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