पल जो यूँ गुज़रे - 11 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

पल जो यूँ गुज़रे - 11

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(11)

पन्द्रह—बीस दिन बाद की बात है।

निर्मल जब डिपार्टमेंट से हॉस्टल पहुँचा तो उसे कमला का पत्र मिला। कमला ने पत्र में लिखा था कि शिमला से सेबों की एक पेटी पार्सल से आई थी। माँ और पापा के पूछने पर मुझे बताना पड़ा कि आप तथा आपकी मित्र जो शिमला में रहती है तथा जिनका अपना सेबों का बाग है, ने दिल्ली में इकट्ठे कोचग ली थी। माँ और पापा को यह जानकर बहुत खुशी हुई कि तुम्हारी मित्र ने भी आईएएस के पेपर दिये हैं। उन्होंने उसकी कामयाबी के लिये शुभकामनाएँ दी हैं। उनकी बातों से मुझे लगा जैसे उनके मन में हल्की—सी आशा जगी है कि आपकी सफलता के बाद आपकी मित्र मेरी भाभी भी बन सकती है। यह मैं मज़ाक में नहीं लिख रही, ऐसा मैंने वास्तव में महसूस किया है। सेब बहुत ही बढ़िया थे, मैंने अपने जीवन में अब तक इतने रसीले सेब पहली बार खाये हैं। आखिर में लिखा था, ‘भाभी' को मेरी भी शुभकामनाएँ और नमस्ते पहुँचा देना।

निर्मल पिछले दो—चार दिनों से जाह्नवी को पत्र लिखने की सोच रहा था, किन्तु निश्चय नहीं कर पा रहा था कि क्या लिखूँ? कमला के पत्र ने उसके मन की दुविधा का समाधान कर दिया। उसने कापी—पेन उठाया और लिखने बैठ गया।

प्रिय जाह्नवी,

मधुर स्मरण!

अब तक तुमने स्वयं को काफी सँभाल लिया होगा! माता—पिता की क्षतिपूर्ति कभी नहीं हो सकती और न ही उन्हें कभी भुलाया जा सकता है। हम कितने भी बड़े क्यों न हो जायें, जब तक माता—पिता का साया हमारे सिर पर रहता है, हम बच्चे ही रहते हैं। उनकी गोद में सिर रखकर हम दुनिया—भर के दुःखों—कष्टों को धता बता सकते हैं और उनके न रहने पर एकाएक जिम्मेदारियों का बोझ कई गुणा बढ़ जाता है। ऐसे में मखमली बिस्तरों और रेशमी तकियों पर सिर रखने पर भी नींद नहीं आती। वैसे भी पिता और बेटी का सम्बन्ध बहुत गहरा होता है। तुम्हारी मम्मी के देहान्त के बाद से तो बाबू जी से ही तुम्हें मम्मी और पापा दोनों का प्यार मिला, आशीर्वाद मिला। पिता तो सूर्य के समान होता है जिसके बिना जीवन में अँधेरा छा जाता है। अब वे भी नहीं हैं तो तुम्हारा दुःख और बड़ा हो गया है। लेकिन कहते हैं न कि समय सदैव गतिमान रहता है, वह किसी के लिये भी नहीं रुकता पलभर, निमिष—मात्र। व्यक्ति को उसके साथ आगे बढ़ना पड़ता है वरना व्यक्ति जीवन की दौड़ में पिछड़ जाता है। समय के साथ विगत का धुँधला पड़ जाना स्वाभाविक एवं प्राकृतिक प्रक्रिया है। हम वर्तमान में रहते हुए ही जी सकते हैं। भूतकाल से चिपके रहने अथवा निरन्तर उसी का चतन—मनन करते रहने से हमारी दैहिक ऊर्जा का तो अपव्यय होता ही है, साथ ही मानसिक संतुलन बिगड़ने के भी चांस रहते हैं। अतः व्यस्त रहने की कोशिश करती रहो, काम में लगे व्यक्ति का मन भूतकाल की वीथिओं में नहीं भटकता।

आज कमला का पत्र आया तो पता चला कि तुमने हमारे घर सेब भेजे हैं। कमला ने जब घर में माँ और पापा को तुम्हारे बारे में बताया — क्षमा करना कि मैंने तुम्हारे बारे में घर में कभी किसी को कुछ नहीं बताया था, कमला को भी तुम्हारे दीवाली—कार्ड जो दादी जी के दाह—संस्कार वाले दिन पहुँचा था, से ही तुम्हारे बारे में पता चला था — और कहा कि ये सेब तुम्हारे अपने बाग के हैं तो वे तुम्हारे बारे में सुनकर बहुत खुश हुए। कमला को उन्होंने तुम्हारी कामयाबी के लिये शुभकामनाएँ भेजने को भी कहा। जाह्नवी, बाबू जी की डेथ को अभी दिन ही कितने हुए हैं, ऐसे शोक के माहौल में तुम्हें यह सब नहीं करना चाहिये था।

भाई साहब और भाभी जी को सादर नमस्ते व मीनू को ढेर सारा प्यार!

स्नेह सहित,

तुम्हारा,

निर्मल

पाँचवें दिन जाह्नवी का पत्र आया। लिखा थाः

प्रिय निर्मल,

मधुर स्मरण!

लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात्‌ कल तुम्हारा स्नेहसिक्त पत्र मिला। निर्मल, पत्र लिखने में इतनी देर क्यों कर देते हो? पढ़कर मन पर छाये उदासी के बादल काफी हद तक छँट गये हैं। रस्म—पगड़ी वाले दिन भइया के बॉस भी आये थे। उन्होंने मुझे ऑफिस में मिलने के लिये कहा। दूसरे ही दिन भइया मुझे अपने साथ सचिवालय ले गये। उनके बॉस को तीन वर्ष ही हुए हैं आईएएस में आये हुए। उन्होंने मुझे लगभग एक घंटा कम्पीटिशन तथा इन्टरव्यू के बारे में विस्तार से समझाया। इन्टरव्यू में जहाँ इस बार बांग्लादेश की स्वाधीनता को लेकर प्रष्न पूछे जाने की सम्भावना है, वहीं बांग्लादेश के स्वाधीनता आन्दोलन में भारत के योगदान पर भी प्रष्न पूछे जा सकते हैं। एक और बात जो उन्होंने बताई, वह यह कि रिटन एग्ज़ाम देने के बाद जो सब्जेक्ट हमने ऑप्ट किये थे, उनकी बुक्स को बन्द बस्ते में नहीं रखना बल्कि उनका निरन्तर अध्ययन जारी रखना चाहिये, क्योंकि इन्टरव्यू में बहुत—से सब्जेक्ट—रिलेटिड प्रष्न भी पूछे जाते हैं। दूसरे, खुदा—ना खास्ता, यह चाँस मिस हो जाये तो नेक्सट चाँस के लिये तैयारी में ब्रेक नहीं आता। वे मुझे बहुत—ही सुलझे हुए विचारों के व्यक्ति लगे। उनसे वार्तालाप के बाद एक बात तो बड़ी स्पष्ट हुई कि किसी भी विषय में आपके स्टैंड (मत) में ढुलमुलपन नहीं अपितु फर्मनेस तथा क्लैरिटी होनी चाहिये। उन्होंने एक गोल्डन रूल भी बताया — क्व ूतवदह इनज इम ेजतवदहण्

जहाँ तक सेब भेजने का सवाल है, तो यह आइडिया मेरा नहीं बल्कि भइया का था। हुआ यूँ कि रस्म—पगड़ी के अगले दिन सुबह—सुबह भइया ने मुझे बुलाया और पूछने लगे कि मेरे पास तुम्हारे घर का पता है। मेरे ‘हाँ' कहने पर उन्होंने ड्राईवर को ‘ऑर्चड' भेजकर सेबों की पेटी मँगवा ली और जब हम सचिवालय पहुँचे तो पार्सल करवा दिया।

भइया के बॉस से मिलने के बाद से मैं पढ़ने में व्यस्त रहने लगी हूँ और तुम्हारे कथनानुसार मन भी बहुत हद तक शान्त रहता है।

जब भी कमला दीदी को पत्र लिखो तो अंकल—आंटी तथा दीदी को मेरी कामयाबी के लिये शुभकामनाएँ भेजने के लिये मेरी ओर से धन्यवाद तथा मेरी सादर नमस्ते जरूर लिख देना।

तुम्हारी,

जाह्नवी

निर्मल को अनुराग के बॉस द्वारा दिये गये सुझाव बड़े अच्छे तथा व्यावहारिक लगे। उसने कम्पीटिशन की किताबें उठाकर एक तरफ रखी हुई थीं। उसने अपना स्टडी टाइम—टेबल दुबारा बनाया। केवल लॉ की पढ़ाई पर ही नहीं, कम्पीटिशन के सब्जेक्ट्‌स पर भी समय लगाने लगा। इस तरह उसका अधिकांश समय पढाई में गुज़रने लगा।

एक दिन मनोज ने उससे क्लास में प्रोफेसर के आने से पहले पूछा — ‘अरे निर्मल, आजकल स्टूडेंट सेंटर में दिखाई नहीं देते। कहाँ रहते हो सारा दिन? कहीं सारा दिन कमरे में पड़े—पड़े अपनी उस शिमला वाली के सपने तो नहीं देखते रहते?'

मनोज की इतनी हल्की बात सुनकर निर्मल को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन वे क्लास में थे, यही सोचकर धीमे—से कहा — ‘शटॲप। किसी लड़की के बारे में इस तरह की बातें करने से पहले तुम्हें शर्म आनी चाहिये।'

इतना तीखा जवाब सुनने के बाद कोई भी समझदार अपनी बात आगे नहीं बढ़ाता, किन्तु मनोज तो अलग ही किस्म की मिट्टी का बना हुआ था। उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा — ‘यार, अगर तेरी वो....' बात वह पूरी कर पाता, इससे पहले ही ऑबराय सर ने क्लास—रूम में प्रवेष किया। प्रोफेसर ऑबराय अपने विषय के माहिर तथा अनुशासन के प्रति अत्यन्त सख्त किस्म के व्यक्ति थे, इसलिये उनके क्लास—रूम में प्रवेष करते ही पिन—ड्रॉप साइलेंस हो जाती थी। निर्मल ने मन—ही—मन सुकून महसूस किया। मन में सोचने लगा कि मनोज जैसे लड़कों से लड़कियों के प्रति सभ्य व्यवहार की कैसे आशा की जा सकती है? इनके लिये लड़की मात्रा देह है जो एक वस्तु की भाँति भोग्या है। लड़की के व्यक्तित्व का जैसे इनके लिये कोई अस्तित्व ही नहीं होता। ऐसी घृणित सोच रखने वाले पढ़ कर भी समाज का क्या भला करेंगे? वह अभी इन विचारों में खोया हुआ था कि ‘सर' ने हाजिरी रजिस्टर बन्द किया और अपने टॉपिक पर बोलना प्रारम्भ कर दिया।

जाह्नवी के उपरोक्त उल्लिखित पत्र के बाद निर्मल ने सोचा कि पत्रोत्तर के सिलसिले को कुछ समय के लिये विराम दिया जाये। यही सोचकर उसने इसके बाद कोई पत्र नहीं लिखा। सुबह से शाम हो जाती, वह डिपार्टमेंट और अपने कमरे या मेस के अलावा कहीं बाहर न जाता। कभी—कभार कोई रेफरेंस देखने के लिये लाइब्रेरी जरूर जाना पड़ता। इसी तरह की दिनचर्या चल रही थी कि बीस दिसम्बर को जाह्नवी का पत्र आयाः

प्रिय निर्मल,

मधुर स्मरण!

क्या खता हो गयी मुझसे जो मेरे पिछले पत्र का न कोई जवाब न कोई समाचार? निर्मल, तुम अच्छी तरह जानते हो कि जिस मानसिक अवस्था में से मैं गुज़र रही हूँ, उसमें मुझे निरन्तर सांत्वना की आवश्यकता है। अभी हम इकट्ठे तो नहीं रह सकते, कम—से—कम पत्र लिखते रहकर तो मुझे सहारा दे ही सकते हो। इसे उलाहना मत समझना, अगर उलाहना भी समझोगे तो भी कोई बात नहीं। आखिर उलाहना भी तो अपनों को ही दिया जाता है। और तुम मेरे अपने हो, यह मेरे अन्तर्मन की पुकार है।

पापा थे तो उनका काफी समय मुझे मिल जाता था, क्योंकि उन्हें ऑफिस में नौ से पाँच ड्‌यूटी नहीं देनी पड़ती थी। उनके रहते मैं मम्मी को लगभग भूल गयी थी। भइया ऑफिस से थके—माँदे आते हैं। कभी—कभार ही हम भाई—बहिन इकट्ठे बैठ पाते हैं और जब बैठते भी हैं तो भी वह पहले जैसा हास—परिहास वाला माहौल नहीं बन पाता। भाभी जी, तुम्हें पता ही है, बहुत अच्छी हैं, मेरी हर ज़रूरत का ख्याल रखने की कोशिश करती हैं, लेकिन उनका अधिकांश समय मीनू को होम—वर्क करवाने तथा उसकी हॉबी क्लास की गतिविधियों पर नज़र रखने में ही निकल जाता है। पापा के होते हुए भाभी जी को केवल महाराज जी का ही ख्याल रखना पड़ता था, माली, बहादुर आदि पर पापा नज़र रखते थे। अब ये काम भी भाभी जी को देखने पड़ते हैं। इसलिये अगर वे मेरे लिये समय नहीं निकाल पातीं तो उन बेचारी को भी कोई दोष नहीं दिया जा सकता।

इधर देश और दुनिया में कितना कुछ घट गया। लगभग पन्द्रह दिन तो युद्ध की वजह से ‘ब्लैकआऊट' ही रहा। सोलह दिसम्बर का दिन इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। पाक आर्मी का सरेंडर और भारत की विजय के साथ एक नये राष्ट्र — बांग्लादेश — का अभ्युदय। युद्ध के दिनों में ‘ब्लैकआऊट' की वजह से सँध्या से नींद आने तक हर तरफ अँधेरों का सामना करते—करते मानसिक अस्थिरता भी बढ़ गयी थी। लेकिन अब कुछ ठीक हूँ।

तुम मेरे मित्र हो। तुलसीदास जी ने ‘रामचरित मानस' में मित्र के कर्त्तव्य पर बड़ा सुन्दर लिखा हैः

जे न मित्र दुख होह दुखारी,

तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।

निज दुख गिरि सम रज करि जाना,

मित्रक दुख रज मेरु समाना।।

मुझे तुम्हारी मित्रता पर नाज़ है, इसलिये कहती हूँ कि तेईस तारीख को यहाँ आ जाओ, कम—से—कम दो—तीन दिन के लिये,....मेरे लिये। मैं जानती हूँ, तुम्हें घर भी जाना है, तो क्रिसमस के अगले दिन घर के लिये यहीं से निकल लेना। अब कोई बहाना नहीं चलेगा। मैं प्रतीक्षा करूँगी।

शेष मिलने पर,

प्रतीक्षारत,

तुम्हारी,

जाह्नवी

पत्र पढ़कर निर्मल को अच्छा भी लगा और परेशानी भी हुई। दादी के ‘भोग' के बाद से वह घर नहीं गया था। अब अगर छुट्टियों में से तीन—चार दिन घर के लिये कम करेगा तो घरवालों को भी बुरा लगेगा। और यदि उन्हें बताया कि तीन—चार दिन शिमला चला गया था तो शायद वे कोई और मतलब ही न निकाल बैठें! मन ने कहा, नहीं, ऐसा नहीं होगा। कमला ने अपने पत्र में लिखा था कि जब उसने माँ—पापा को जाह्नवी और उसके परिवार के बारे में बताया था तो न केवल वे खुश हुए थे बल्कि उन्होंने जाह्नवी के उज्ज्वल भविष्य के लिये शुभकामनाएँ भी दी थीं। ‘घरवालों को बुरा लगने वाला ख्याल' तो इस प्रकार मन ने निष्कासित कर दिया। जाह्नवी द्वारा पत्र में लिखी तुलसीदास जी की चार पंक्तियों को पढ़कर तो उसने शिमला जाने का पक्का निश्चय कर लिया। अब मन ने कहा कि ऐसा करो कि जाह्नवी को अपने आने की पूर्व—सूचना देने के लिये सार्वजनिक टेलिफोन सेवा का उपयोग करोे ताकि उसका मन स्थिर हो जाये। उसने मन की बात तुरन्त मान ली।

***