पल जो यूँ गुज़रे - 3 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पल जो यूँ गुज़रे - 3

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(3)

रविवार

आम दिनों जैसा दिन। खुला आसमान, सुबह से ही चमकती ध्ूप। फर्क सिर्फ इतना कि आज कोचग क्लास में जाने का कोई झंझट नहीं था, फिर भी जल्दी तैयार होना था। प्रिय साथी के साथ सारा दिन बिताने का प्रथम स्वप्निल अवसर। अपने प्रतिदिन के रूटीन के अनुसार निर्मल उठा और स्नानादि से निवृत होकर तैयार हो ही रहा था कि उसके बरसाती वाले कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई। शर्ट के बटन बन्द करते—करते उसने दरवाज़ा खोला। सामने जाह्नवी थी। अनौपचारिक पहरावा — जींस और टॉप। कंधे से लटकता खादी का थैेला। ‘हैलो' कहने के बाद उसने ‘हैंड—शेक' के लिये अपना दायाँ हाथ भी आगे बढ़ा दिया। यह पहली बार था कि जाह्नवी ने ‘हैंड—शेक' के लिये पहल की थी। इससे पहले जब कभी भी वे मिलते थे तो ‘हैलो—हॉय' का आदान— प्रदान ही उनके बीच हुआ करता था। निर्मल को थोड़ा अज़ीब तो लगा, किन्तु बढ़े हुए हाथ को न पकड़ना भी शिष्टाचार के विरुद्ध समझते हुए उसने भी अपना दायाँ हाथ आगे बढ़ाकर उसके हाथ को कसकर पकड़ लिया और उसे अन्दर की ओर लाते हुए पूछा — ‘इस बैग में क्या डाल रखा है?'

‘अरे, मेरा हाथ तो छोड़ो!'

‘हाथ छोड़ने के लिये थोड़े—ना पकड़ा है,' कहने के साथ ही निर्मल को लगा कि यह मैं क्या कह गया?

किन्तु जाह्नवी ने अपने चेहरे को थोड़ा घुमाकर निर्मल की आँखों में झाँकते हुए पूछा — ‘मतलब समझते हो जो कहा है उसका?'

‘अरे यार, छोड़ो भी, वैसे ही मुँह से निकल गया।'

कुर्सी खींचकर बैठते हुए जाह्नवी ने कहा — ‘वैसे ही मुँह से नहीं निकला। सच्ची बताओ, क्या यह तुम्हारे दिल से नहीं निकला?'

निर्मल जो अभी तक खड़ा था, पैर नीचे लटकाये चारपाई पर बैठ गया और कुछ क्षण सोचने के बाद जब कोई ठीक जवाब नहीं सूझा तो टालने के अन्दाज़ में बोला — ‘छोड़ो इस बात को, चलो चलें वरना दैनिक पास नहीं मिलेगा।'

चाहे उनके सामान्य व्यवहार में अनौपाचिरकता रहती थी, किन्तु निर्मल के मन में कभी भी जाह्नवी के प्रति इस तरह के विचार नहीं आये थे। दूसरी ओर कुछ दिनों से जाह्नवी के मन में कोमल भावनाएँ घर करने लगी थीं। मन—ही—मन वह निर्मल को चाहने लगी थी। अपने इन्हीं मनोभावों के चलते उसने कहा — ‘निर्मल, बात को टालो मत। मैं अपने सवाल का जवाब चाहती हूँ।'

‘अच्छा बाबा, जवाब भी दूँगा। एक बार यहाँ से तो चलें। घूमते—फिरते कहीं बैठेंगे तो इत्मीनान से इस विषय पर बात करेंगे।'

जब वे सड़क पर आये तो जाह्नवी ने पूछा — ‘निर्मल, तुमने तो चाय—वाय भी नहीं पी। जब मैं तुम्हारे कमरे पर आई थी तो तुम अभी कपड़े ही पहन रहे थे।'

‘मैं मानग टी ले चुका हूँ। अब घूमते—फिरते खाना—पीना तो चलता ही रहेगा। सबसे पहले हम लाल किला देखने चलते हैं। वहाँ से निकलकर शीशगंज गुरुद्वारा में मत्था टेकेंगे यदि तुम्हें कोई एतराज़ न हो तो।'

‘मुझे एतराज़ भला क्यों होगा? भगवान्‌ का घर है। चाहे गुरुद्वारा हो या मन्दिर, सब में एक ही भगवान्‌ का तो वास है।'

मेन रोड पर आकर उन्होंने डीटीसी की बस पकड़ी। दो दैनिक पास लिये। सर्वप्रथम क्नॉट प्लेस, आईटीओ होते हुए लाल किला पहुँच गये। जैसे ही लाल किला परिसर में पहुँचे, मौसम ने करवट बदलनी शुरू कर दी। अब तक सूर्य की तेज किरणों से गर्मी के कारण बार—बार पसीना पौंछना पड़ रहा था, एकाएक आसमान में बादल घिरने लगे और ठंडी हवा चलने लगी। ऊपर की ओर देखते हुए जाह्नवी बोली — ‘मौसम भी मेहरबान होने लगा है, नहीं तो गर्मी में घूमते—घामते पता नहीं क्या हाल होता?'

निर्मल — ‘ऊपर वाले को भी शिमला की हसीन वादियों में पली—बढ़ी शहज़ादी के बाहर घूमने निकलने पर उसकी सेहत का एकाएक ख्याल आ गया लगता है वरना कुछ मिनट पहले तक ऐसे कोई आसार नहीं थे।'

‘बात को कहाँ से कहाँ ले जाते हो निर्मल?'

‘मैंने ऐसा कुछ गलत तो नहीं कहा! सिर्फ तथ्य और सत्य ही कहा है। कोई अतिशयोक्ति नहीं की।'

‘चलो, टिकट—खिड़की पर काफी लम्बी लाईन है। टिकट लेने में भी टाइम लगेगा।'

‘देखो, लेडिज़ वाली लाईन में नम्बर जल्दी आ जायेगा, तुम्हीं दो टिकटें ले आओ।'

रविवार और ग्रीष्मकालीन अवकाश होने के कारण लाल किला देखने वालों में स्कूल व कॉलेज के विद्यार्थियों की अच्छी—खासी भीड़ थी। बड़े—बड़े ग्रुपों में, आँखों में कुतूहल लिये बच्चे और हँसी—मस्ती करते युवक—युवतियाँ। उनकी स्वर—लहरियों से प्रतिध्वनित परिवेश एक अद्‌भुत अनुभूति का अहसास दिला रहा था। जाह्नवी को लगा कि वह निर्मल के साथ अकेली भी है और इस भीड़ का हिस्सा भी। लाल किले में प्रवेश करते ही गाईड़ों ने उन्हें घेर लिया। निर्मल ने सबको मना किया और जाह्नवी के साथ आगे बढ़ लिया। मीना बाज़ार में पर्यटकों को लुभाने वाली वस्तुओं की दुकानों पर जब स्त्री—स्वभाववश जाह्नवी जगह—जगह रुकने लगी तो निर्मल ने उसे बाजू से पकड़ कर आगे की ओर ले जाते हुए

कहा — ‘जाह्नवी, इस तरह इन दुकानों पर समय लगाती रही तो शाम तक लाल किला ही देख पायेंगे।'

जाह्नवी ने कोई उत्तर नहीं दिया और दोनों साथ—साथ आगे बढ़ गये। युद्ध स्मारक संग्रहालय, पुरातत्व संग्रहालय जिसमें मुगलकालीन बादशाहों व शहज़ादियों के परिधान विशेष आकर्षण का केन्द्र हैं, दीवाने—आम, शाही हमाम, मोती मस्ज़िद, रंग महल, ज़फर महल, शाह बुर्ज़ आदि को देखते हुए दीवाने—खास में पहुँचे। दीवाने—खास में बादशाह के सहासन के पीछे कोई दीवार न देखकर जाह्नवी ने पूछा — ‘यह कैसा किला है, पीछे की ओर से तो बिल्कुल ही असुरक्षित है।' तब निर्मल ने उसे बताया कि जब यह किला बना था तो यमुना नदी इसकी पिछली दीवार से लगकर बहती थी। नदी ही इसकी सुरक्षा—रेखा का काम करती थी जैसे बाहरी दीवारों के साथ बनी पानी की खाई सुरक्षा के लिये होती थी। दूसरे, नदी के जल से टकरा कर आती हुई हवा दीवाने—खास को ठंडा रखने में सहायक होती थी। समय के साथ यमुना की धारा दूर हटती चली गयी।

लाल किला देखने के बाद बाहर आकर उन्होंने सड़क पार की और चाँदनी चौक में प्रवेश करते ही बार्इं ओर स्थित श्री दिगम्बर जैन मन्दिर देखा और जाह्नवी के याद दिलाने पर आलू—पूरी का नाश्ता किया। तत्पश्चात्‌ शीशगंज गुरुद्वारा जाकर मत्था टेका। गुरुद्वारा से बाहर आकर जाह्नवी ने कहा — ‘निर्मल, मन्दिरों और गुरुद्वारों में कितना अन्तर है? जिन मन्दिरों में लोगों की भीड़ होती है, वहाँ सफाई नाम की कोई चीज़ नहीं होती, ऊपर से धक्कमपेल रहता है। गुरुद्वारों में चाहे कितनी भी भीड़ क्यों न हो, वहाँ साफ—सफाई तथा हमेशा शान्ति का माहौल रहता है। इसी कारण गुरुद्वारा में जाकर दिव्यता का अहसास अधिक होता है, मन को शान्ति मिलती है।'

‘ठीक कह रही हो तुम। इसीलिये मन्दिरों में जाने पर कई बार तो मन शान्त होने की बजाय उचाट होने लगता है।'

‘गुरुद्वारा के अन्दर इसके इतिहास के बारे में बता रहे थे। मैं पूरी तरह से समझ नहीं पाई। इतना ही समझ आया कि इस जगह औरंगज़ेब के हुक्म से सिक्खों के नौंवे गुरु तेग बहादुर जी का सिर कलम किया गया था।'

‘इतना तो तुमने सुना और पढ़ा भी होगा कि हिन्दुओं पर औरंगज़ेब ने बहुत जुल्मों—सितम ढाये थे। लाखों हिन्दुओं को यातनाएँ देकर धर्म—परिवर्तन के लिये बाध्य किया था। उसके अत्याचारों से दुःखी कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर जी की शरण में आये और उनसे फरियाद की। गुरु जी ने उन्हें कहा कि समय एक बड़ा बलिदान माँगता है। गुरु गोबिन्द सह जी जो उस समय केवल नौ वर्ष के बालक थे, उनके पास बैठे थे। उन्होंने कहा — पिता जी आपसे बड़ा बलिदान कौन दे सकता है? बालक गोबिन्द की बात सुनकर गुरु जी ने शरणागत पंडितोंं को कहा, जाओ, जाकर बादशाह से कहो कि अगर वह हमारे गुरु को मुसलमान बना लेगा तो हम भी मुसलमान बन जायेंगे। उन्होंने औरंगज़ेब के पास जाकर गुरु जी का सन्देश दिया। औरंगज़ेब सुनकर आग—बगूला हो गया और उसने तुरन्त गुरु जी को बन्दी बनाकर दिल्ली लाने का हुक्म जारी कर दिया। दरबार में पहुँचने पर औरंगज़ेब ने उन्हें सिर झुकाने के लिये कहा। उन्होंने उत्तर दिया कि यह सिर तो एक सच्चे पातशाह के आगे ही झुकता है, सांसारिक बादशाह के आगे नहीं। औरंगज़ेब ने कहा कि अगर तुम्हारे पातशाह में इतनी शक्ति है तो देखते हैं कि वह तुम्हें कैसे बचाता है? गुरु जी ने कागज के एक टुकड़े पर कुछ लिखा और तलवार का वार सहने के लिये तैयार हो गये। जालिम की तलवार से गुरु जी का सिर धड़ से अलग हो गया। जब उनकी मुठ्‌ठी में दबा कागज का टुकड़ा खोलकर पढ़ा गया तो उसपर लिखा था — सिर दिया, सर ना दिया।' तो यह है इस गुरुद्वारा का इतिहास।'

‘मेरा हिस्ट्री का ज्ञान बहुत कम है। कॉलेज में मैंने हिस्ट्री नहीं पढ़ी। जनरल नॉलेज में इतिहास सम्बन्धी जो आता है, उतना ही पढ़ा है।'

‘फिर तो आज का घूमने निकलना तुम्हारे लिये हिस्ट्री का प्रैक्टीकल पीरियड हो जायेगा।'

‘बिल्कुल, कोई शक नहीं। और आज के लिये तुम मेरे गुरु होगे।'

‘गुरु बना रही हो तो गुरु—दक्षिणा भी देनी पड़ेगी।'

‘जरूर। गुरु—दक्षिणा में आज का सारा खर्च मेरी ओर से।'

‘वाह, गुरु—दक्षिणा भी खुद ही तय कर ली। गुरु—दक्षिणा तो गुरु की इच्छानुसार होती है।'

‘वो पुराने समय में होता होगा, आज तो शिष्य जो दे दे, गुरु को वही स्वीकार कर लेना चाहिये।'

‘ठीक है भई। हम तो इतने में ही खुश हो लेंगे कि किसी ने गुरु तो माना।'

‘अब इस प्रसंग को बन्द करो और राजघाट चलने के लिये बस देखें।'

राजघाट, शान्तिवन और विजयघाट देखने के उपरान्त मथुरा रोड होते हुए थोड़ा समय पुराने किले को देखने में लगाने के बाद उन्होंने बुद्ध—जयन्ती गार्डन की ओर प्रस्थान किया। मौसम जो एक बार बादलों वाला बना तो दिन—भर बादल छाये रहे। बीच—बीच में कभी—कभार कुछ बूदें भी पड़ जाती थीं। इस प्रकार सारा दिन मौसम सुहावना बना रहा। जब तक वे बुद्ध—जयन्ती गार्डन पहुँचे, दोपहर ढल चुकी थी। सूर्य की धूप को तो बादलों ने ढँक ही रखा था, अब सँध्या—वेला के साये भी मँडराने लगे थे। ऐसे खुशनुमा वातावरण में वहाँ की नरम—नरम घास पर आहिस्ता—आहिस्ता चलते हुए उन्हें बहुत आनन्द की अनुभूति होे रही थी। चलते—चलते जाह्नवी बोली — ‘निर्मल, मेरे सुबह वाले सवाल का अब तो जवाब दे सकते हो?'

‘कुछ सवालों के जवाब शब्दों में देना मुश्किल होता है। मैं तो इतना ही कहूँगा कि जो तुम्हारा दिल मानने को तैयार हो, वही समझ लो।'

भावना को अन्तस तक उतरने के लिये जरूरत होती है नीरवता की, मौन की। इसके बाद न जाह्नवी ने कुछ कहा या पूछा, न निर्मल ने। दोनों मौनावस्था में कुछ देर तक घूमते रहने के बाद एक जगह वृक्षों की ओट में बैठ गये। होंठ फिर भी बन्द रहे। जाह्नवी मन—ही—मन प्रस थी कि निर्मल ने बिना कुछ कहे भी सब कुछ कह दिया, उसकी भावना को एक आधार मिल गया। और वह भविष्य को लेकर सुनहरे सपनों में खो गयी। निर्मल उधेड़बुन में था कि इस समय इस तरह के विचारों का मन में उभरना और जाह्नवी द्वारा उन्हें गम्भीरता से लेना कहीं उसे अपने लक्ष्य से न भटका दे, कहीं वह भावनाओं के दलदल में फँस कर न रह जाये। जब गार्डन की लाइटें जल उठीं तो निर्मल ने जाह्नवी को कहा — ‘आओ, अब चलते हैं। हमें पहुँचने में भी आध—पौना घंटा लग जायेगा।'

जैसे किसी ने नींद से जगा दिया हो, जाह्नवी अलसाई—सी उठी और बिना कुछ कहे निर्मल के साथ चल पड़ी। दो बसें बदलकर वे पटेल नगर पहुँचे। जब जाह्नवी के पीजी हाउस पर पहुँचे तो निर्मल उसे बॉय करके जाने लगा तो जाह्नवी बोली — ‘आओ, अन्दर आ जाओ। तुम्हारे खाने के लिये भी मैंने सुबह ही बोल दिया था।'

निर्मल बिना कुछ कहे उसके साथ कमरे में दाखिल हुआ। जाह्नवी खाना परोसने के लिये बहादुर को कहने के लिये चली गयी।

खाना खाने के बाद निर्मल को बाहर तक छोड़ने आते हुए जाह्नवी ने कहा — ‘निर्मल, आज का दिन अविस्मरणीय बनाने के लिये धन्यवाद।'

‘तुम्हारा भी धन्यवाद, घर का खाना खिलाने के लिये।' और बॉय करते हुए निर्मल अपने निवासस्थान की ओर प्रस्थान कर गया।

बरसाती में पहुँच कर उसने समाचार—पत्र उठाया, क्योंकि सुबह तो उसे खोलने का भी समय नहीं मिला था। मुख्य समाचारों और सम्पादकीय पृश्ठ पर नज़र दौड़ाई। पढ़ने को कुछ विशेष न था। कपड़े बदले और लेट गया। जाह्नवी को लेकर मन भि—भि विचारों का मंथन करने लगा। क्या मेरे इतना कहने—मात्रा से ही कि ‘हाथ छोड़ने के लिये थोड़े—ना पकड़ा है' जाह्नवी के मन में मेरे प्रति प्रेम जाग्रत हो गया या कि पहले से ही उसके मन में मेरे प्रति कोमल भावनाएँ जन्म ले चुकी थीं। कहीं मैं भी तो उसे चाहने नहीं लगा हूँ? जब से कोचग ज्वॉइन की है, मिलते—जुलते समय हँसी—ठिठोली तो हम अक्सर करते रहे हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं लगा कि मेरे प्रति उसके दिल में दोस्ती से बढ़कर कोई भाव हैं। हाँ, आज जरूर उसका ‘हैंड—शेक' के लिये हाथ बढ़ाना उसके आन्तरिक भावों का प्रतीक ही था। इसका मतलब तो यह हुआ कि ये भाव उसके मन में पहले से विद्यमान थे जो आज उसने जाने—अनजाने प्रकट कर दिये। इसके साथ ही उसके मन ने कहा, निर्मल! तुम जिस उद्देश्य से यहाँ आये हो, मछली की आँख की तरह वही तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये। घर वालों ने आर्थिक तंगी के बावजूद खर्च के लिये तुम्हें मुँह—माँगा दिया है तो तुम्हें भी उनकी कठिनाइयों का ख्याल रखते हुए उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिये और प्रेम—व्रेम के चक्र से बचकर अपनी पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित रखना चाहिये। अन्ततः उसने मन में निर्णय लिया कि अब कभी भी मैं अपनी ओर से कोई ऐसी हल्की बात नहीं करूँगा जिसे कि जाह्नवी मेरी ओर से प्रेम का संकेत समझे और अगर कभी भी जाह्नवी ने ऐसा कुछ कहा या किया जिससे प्यार—व्यार की भनक भी आई तो उसे स्पष्ट शब्दों में कह दूँगा कि मैं इसके लिये अभी तैयार नहीं हूँ। साथ ही उसके मन ने कहा, निर्मल! तुम्हें जाह्नवी से मिलना—जुलना भी कम करना होगा। आरम्भ में निकटता होने पर ही तो प्रेम के अंकुर प्रस्पुफटित होते हैं। बहुत देर तक वह इसी तरह के विचार—विमर्श में डूबा रहा।

सोमवार को क्लास समाप्ति पर जब जाह्नवी ने शाम को कनॉट प्लेस में इंडियन कॉफी हाउस में कॉफी पीने की बात कही तो निर्मल ने उसे दो—टूक शब्दों में पूर्व—रात्रि को लिये गये अपने निर्णय के अनुसार साफ मना कर दिया। इसके बाद और कुछ कहे बिना दोनों अपने—अपने गन्तव्य की ओर चल दिये।

अगले दो—तीन दिन वे क्लास में मिलते रहे, किन्तु औपचारिक ‘हैलो' के अतिरिक्त उनमें कोई बातचीत नहीं हुई। वीरवार को दोपहर ढल चुकी थी। चाहे सूर्य अभी भी आसमान में विद्यमान था, किन्तु आसमान में कहीं—कहीं बादल छाये हुए होने के कारण तपिश काफी कम थी। निर्मल बरसाती का दरवाज़ा खुला छोड़कर मेज़—कुर्सी पर बैठा पढ़ने में मग्न था। जाह्नवी कब बरसाती तक आई, उसे कुछ खबर ही न लगी। जाह्नवी ने खुले दरवाज़े के पल्ले पर हल्की—सी दस्तक दी। निर्मल ने घूम कर देखा। जाह्नवी मौन खड़ी थी। निर्मल ने कुर्सी से उठते हुए परन्तु बिना कदम बढ़ाये कहा — ‘अरे, मुझे तुम्हारे आने का पता ही नहीं चला? वहाँ क्यों खड़ी हो, अन्दर आओ।'

जाह्नवी चुपचाप अन्दर आई और चारपाई पर बैठ गयी, क्योंकि कुर्सी पर तो निर्मल का हाथ था। कुछ मिनटों तक दोनों के बीच मौन छाया रहा। आखिर निर्मल ने ही चुप्पी भंग की और पूछा — ‘जाह्नवी, क्या बात है, बड़ी गुमसुम, बड़ी उदास—सी लग रही हो?'

जैसे काफी समय से दमन किये हुए भावों को प्रकट करने का अवसर मिला गया हो, इस अन्दाज़ में जाह्नवी बोली — ‘निर्मल, मैंने ऐसा क्या गुनाह कर दिया था कि तुमने मुझे एकदम से दुत्कार दिया। सोमवार को जब से तुमने कॉफी हाउस जाने से मना किया है, तब से मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है, जैसे मेरी सारी समझ ही मारी गयी है। क्लास में जो पढ़ाया गया है इन तीन दिनों में, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा है। पड़ता भी कैसे, मेरे मन में न जाने कैसी उथल—पुथल मची हुई है। कमरे पर भी किताब खोलकर बैठी रहती हूँ, अक्षर जैसे आँखों के आगे नाचने लगते हैं। पढ़ाई में मन लग ही नहीं पाता। मैं तीन दिन से ढंग से सो भी नहीं पाई हूँ। मन को बहुत जब्त किया कि तुम्हें डिस्टर्ब न करूँ, किन्तु जब बर्दाश्त से बिल्कुल बाहर हो गया और रहा नहीं गया तो मज़बूरन तुम्हारे पास आना पड़ा। कम—से—कम मेरा कसूर क्या है, इतना तो बता दो।'

‘जाह्नवी, तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। मुझे माफ कर दो यदि मेरी वजह से तुम्हारे दिल को ठेस लगी है। तुम्हें ठेस पहुँचाने की मेरी कतई मंशा नहीं थी। लेकिन समझने की कोशिश करो कि हम यहाँ अपना कॅरिअर बनाने के लिये आये हैं, मौज़—मस्ती के लिये नहीं। और अगर हम अपनी भावनाओं को नियन्त्रित नहीं करेंगे तो जिस उद्देश्य को लेकर घर वालों से दूर रह रहे हैं, उनकी खून—पसीने की कमाई से कुछ बनने के लिये प्रयासरत हैं, उसकी सफलता संदिग्ध हो जायेगी। तुम्हारा परिवार तो साधन—सम्प है, अभावों से तुम्हारा कभी वास्ता नहीं पड़ा, किन्तु मैं तो निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ। तुम्हें तो पता ही है कि देश के विभाजन के समय हमारा परिवार विस्थापित हुआ। विपरीत परिस्थितियों में नये सिरे से जीवन आरम्भ किया और अब जाकर कहीं जीवन की गाड़ी थोड़ी—बहुत पटरी पर आने लगी है। फिर भी परिवार आर्थिक रूप से पूर्णतया सक्षम हो गया है, नहीं कहा जा सकता। हम बहिन—भाइयों को पढ़ाने के लिये मेरे माता—पिता को तरह—तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। हमारी गली में एक खाली पड़े बड़े—से अहाते में बीस—एक झुग्गियाँ हैं। उनमें रहने वाले लोग तथा गली—मोहल्ले की कुछ अन्य औरतें अपने कपड़े माँ से सिलवाती हैं। इस प्रकार माँ घर—गृहस्थी की छोटी—मोटी जरूरतों को पूरा करती हैं। सुबह पाँच बजे से लेकर रात के दस बजे तक उन्हें आधे घंटे के लिये भी कमर सीधी करने का वक्त नहीं मिलता। वैसे तो मेरी दादी जी बहुत अच्छी हैं, किन्तु मेरी माँ को गाहे—बगाहे ताना मारने से नहीं चूकतीं। इतना कुछ सहने के बावजूद मैंने कभी अपनी माँ के चेहरे पर शिकन का एक चिह्न तक नहीं देखा। मैं स्वयं एक—दो घंटे रोज का पार्ट—टाइम काम करता रहा हूँ। शुरू में माँ के साथ दूर से पानी लाने की मज़बूरी रहती थी, क्योंकि घर के नल का पानी खारा था और वाटर—वर्क्स की पाईप घरों तक बिछी नहीं थी। स्कूल—कॉलेज के बाद का अधिकांश समय पिताजी की सहायता के लिये दुकान पर व्यतीत होता था, क्योंकि चाचा जी ने अपना कारोबार अलग कर लिया था। खाली समय में मैं कोर्स की किताबें दुकान पर बैठकर ही पढ़ा करता था। इस प्रकार मुझे कभी समय ही नहीं मिल पाया कि मैं खेल के मैदान में भी कुछ समय व्यतीत कर पाता। कमला ने बी.ए. फाइनल की परीक्षा दी है। उसके विवाह की भी चता है, क्योंकि घर वाले उसकी आगे की पढ़ाई का खर्च उठाने की स्थिति में नहीं हैं। देखते हैं कि बन्टु प्रैप—मेडिकल में कितने नम्बर ले पाता है, अगर उसको मेडिकल कॉलेज में एडमिशन मिल गया तो उसकी पढ़ाई के खर्चे का भी प्रबन्ध करना होगा.....' कहते—कहते निर्मल रुका तो जाह्नवी बोली — ‘निर्मल, तुमने सोमवार को कॉफी हाउस जाने से दो—टूक मना कर दिया और आगे से भी इस तरह के मिलने—जुलने के लिये मनाही कर दी थी। वजह कोई बताई नहीं थी। इसीलिये मैं इतनी विचलित हुई। मैं सोचती रही कि मेरे से ऐसी क्या गलती हो गयी जो तुम एकाएक इतनी निश्ठुरता पर उतर आये। मैं कोई अल्हड़ किशोरी तो हूँ नहीं, यदि तुमने बात खुलकर की होती तो क्या मैं तुम्हारी स्थिति को समझती नहीं। प्यार कभी भी अपने साथी की राह में रोड़े नहीं अटकाता या काँटे बिखेरता, बल्कि अगर किसी तरह की बाधा आती भी है तो उसे दूर करके राह को सुगम व सरल बनाकर मंजिल तक पहुँचाने में सहायक होता है। आज के बाद तुम मुझे बाधा के रूप में नहीं, एक सच्चे साथी, एक सहायक के रूप में पाओगे। मैं दिल की गहराइयों से परमपिता परमात्मा के आगे प्रार्थना करती हूँ कि जीवन से तुम्हारी जो भी अपेक्षाएँ हैं, ख्वाहिशें हैं, सब पूरी हों.....'थोड़ा रुककर थोड़े शरारती अन्दाज़ में आगे कहा — ‘तुम्हारी मुझे पाने की ख्वाहिश भी।.....तुम पूछ सकते हो, क्यों मैं तुम्हारे बिन नहीं रह सकती? तुम्हें पाने के लिये मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ, तुम्हारा प्यार पाने के लिये मुझे बार—बार जन्म लेना पड़े तो मैं लूँगी।'

जाह्नवी की शरारतपूर्ण अन्तिम बात सुनकर निर्मल भी सहज हो गया और उसने कहा — ‘आज तक तो तुम्हें पाने की ख्वाहिश मन में कभी उठी नहीं थी, किन्तु आज लगता है कि तुमने एक लौ जला दी है। ......लेकिन तुम्हारी यह अंतिम बात तो तुम्हारी पहली बात को ही ‘नीगेट' कर रही है कि ‘मैं कोई अल्हड़ किशोरी तो हूँ नहीं', ....तुम्हारी बातें सुनकर मुझे ज़रूर लगने लगा है कि मैं ही वक्त से पहले बूढ़ा हो गया हूँ।'

‘अब इस तरह की और बात नहीं। तय हुआ कि अभी से हम पढ़ाई के सिवा और कोई बात नहीं करेंगे, लेकिन हफ्ते में एक बार कॉफी हाउस में एक घंटा रिलैक्स करने से तुम मना नहीं करोगे।'

निर्मल ने भी सहज होते हुए कहा — ‘जब इतनी समझदार साथी मिल जाये तो कौन बेबकूफ उसकी बात टालने की हिम्मत करेगा।'

घड़ी पर नज़र डालते हुए जाह्नवी बोली — ‘अब चलती हूँ वरना बेवजह लैंड—लेडी का प्रवचन सुनना पड़ेगा। तुमने भी तो खाना खाने जाना होगा?'

‘हाँ, लेकिन देर होने पर मुझे ढाबे वाले को कोई कारण नहीं बताना पड़ेगा और न ही उसकी हिम्मत होगी मुझसे पूछने की।'

निर्मल की इस बात पर दोनों हँसते हुए सीढ़ियाँ उतर गये।

***