Adrashya Humsafar - 25 books and stories free download online pdf in Hindi

अदृश्य हमसफ़र - 25

अदृश्य हमसफ़र…

भाग 25

अनुराग ममता से नजरें मिलाने का साहस नही जुटा पा रहे थे लेकिन मजबूरी थी। ममता अपनी चुप्पी खत्म नही कर रही थी। धीरे धीरे गर्दन उठाकर अनुराग ने ममता की तरफ देखा। ममता निर्विकार भाव से अनुराग को ही देख रही थी। ममता के चेहरे पर कोई भाव न देख कर अनुराग को थोड़ा आश्चर्य हुआ।

उनसे रहा नहीं गया और पूछ बैठे-" मुंन्नी, ऐसे क्या चुपचाप मुझे घूरे जा रही हो? कुछ कहोगी नही?"

ममता अपलक अनुराग को देखे जा रही थी। आंखें शान्त थी चेहरा सपाट।

ममता-" ह्म्म्म, कहूंगी। कुछ नही बहुत कुछ कहना है मुझे। "

ममता का स्वर भी सपाट था जिसकी वजह से अनुराग की धड़कनें तेज होती जा रही थी।

ममता-" ऐसा है अनुराग, प्रेम तो एक भाव है कब किससे जुड़ जाए कह नही सकते। तुमने मुझे टूटकर चाहा वह तुम्हारी चाहत थी लेकिन मेरे मन में तुम्हें लेकर ऐसे भाव कभी नही आये। मेरा पहला और आखिरी प्रेम मनोहर जी ही हैं और वही रहेंगे। हाँ, कह सकती हूँ कि तुम मेरी जरूरत थे लेकिन जरूरत ही प्रेम हो ये जरूरी तो नही।

तुममें और मनोहर जी में वही फर्क है जो हमसफ़र और हमसाये में होता है। मनोहर जी मेरे हमसफ़र बने और जीवन भर मेरा हाथ पकड़कर मेरे साथ रहे जबकि तुम हमसाये बनकर सदैव मेरे पीछे रहे और मुझे नजर भी नही आये। तुम उस समानांतर रेखा की तरह हो जो निरन्तर साथ तो चलती है लेकिन कभी मिलती नही है। मेरे मन में आपके प्रति आदर के भाव बाबा की डांट का परिणाम तो थे लेकिन कब आपको दिल से सम्मान देने लगी यह तो मुझे खुद भी नही पता चला। "

ममता अनवरत कहती जा रही थी और अनुराग सुनने में तल्लीन थे। ममता के चेहरे की दृढ़ता और भाव भंगिमा उसके एक एक कथन पर सत्यता की मोहर लगा रही थी। अनुराग को यक़ीन था कि उनका प्रेम एक तरफा है और ममता के भाव अलहदा। आज ममता जिस संजीदगी से अपनी बात खुल कर कह रही थी उसका यह रूप अनुराग के लिए अनजाना था। आज बचपन की नकचढ़ी, शैतान, जिद्दी, अल्हड़ और अक्खड़ मुंन्नी एक परिपक्व, सुलझी हुई और समझदार महिला के रूप में उनके सामने खड़ी थी। जो अपनी मर्यादाओं के निर्वहन के साथ सामने वाले की बात का उत्तर उसका मान सम्मान रखते हुए दिए जा रही थी।

एक तरफ तो अनुराग ममता की बातें सुनते हुए उसके निखरे व्यक्तित्व से अभिभूत होते जा रहे थे और मन में प्रसन्नता का अनुभव भी कर रहे थे। उन्हें यकीन था कि उनके जाने के बाद ममता स्थिति को बेहतरीन तरीके से सम्भाल ही लेगी। ममता के एक एक शब्द में उन्हें अपने विश्वास के स्तम्भ मजबूती से जमे दिखाई दे रहे थे। वहीं दूसरी ओर उन्हें हल्की निराशा भी हुई कि उनके प्रेम को मुंन्नी ने सिरे से नकार दिया है। मन के भावों पर अस्वीकृत प्रेम के भाव हावी नही हो पाए और विजय अल्हड़ मुंन्नी के संस्कारी ममता में परिवर्तित स्वरूप की खुशी के भावों की हुई।

उधर ममता अनुराग के दिल की बात सुनकर थोड़ी सी परेशान तो हुई लेकिन उसे लगा कि अपना पक्ष मजबूती से रखना बहुत जरूरी है। अगर अनुराग के जीवन की अंतिम घड़ियां समझ कर उसने अपना पक्ष नही रखा तो बहुत बड़ी गलतफहमी जन्म लेगी जो दिन ब दिन विकराल रूप धारण करती जाएगी। हो सकता है कि अनुराग भी गलतफहमी का शिकार हो जाए और उनके मन में बसी मेरी मूरत भी खंडित हो जाए। उनका विश्वास कि ममता ने निश्छल और बेनाम प्रेम को जीया है उस पर मेरी खामोशी कहीं सतत प्रेम की मोहर न लगा दे। अतः एवं ममता निष्पक्ष होकर अपना पक्ष रखती जा रही थी।

ममता ने कहना जारी रखा-" हाँ यह सच है कि तुम हर पल मुझे याद आये। जब भी किसी काम से बाजार जाना होता या बैंक की लाइन में खड़ी होती तो फटाक से तुम्हारी यादें आ घेरती लेकिन उन यादों का वजूद बस इतने तक ही सीमित था कि आज अनुराग होते तो मुझे यहाँ नही खड़े होना पड़ता। जब बच्चों को गृहकार्य कराती थी तब भी बस इतना कि तुम शायद मुझे उस काम से भी मुक्त रखते। मुझे याद आता था कि किस तरह तुम मेरा गृहकार्य करवाया करते थे। "

"अनुराग सुनो, उस वक़्त बच्ची थी मैं, नही समझती थी लेकिन आज बच्ची नही। समझ सकती हूँ कि यह भी प्रेम का ही एक रूप है लेकिन इस प्रेम में कृष्ण सुदामा की मित्रता देख सकते हैं राधा कृष्ण का प्रेम नही। माफी के साथ कहूंगी कि सच में मैंने तुम्हें एक प्रेमी के रूप में कभी नही देखा। मुझे खुद नही पता कि इस रिश्ते को मैं क्या नाम दूँ, तुममें कभी प्रेमी को नही देख पायी मैं और न ही तुम्हारा प्रेम समझ पाई। फिर भी न जाने किस हक से अपने सारे हक़ तुम पर जताती चली गयी। यह भी नही जानती कि मेरे साथ ऐसा क्यों होता था कि तुम्हारी उपस्थिति भी मुझे स्वीकार्य नही थी और अनुपस्थिति मेरे लिए असहनीय होती थी।

जब सामने होते थे तो गुस्सा फूटता था और जब नजर नही आते थे तो आंखे तुम्हें ही तलाशती थी। जब कभी मुझे अच्छा बुरा या ऊंच नीच समझाते थे तो मुझे तुममें बाबा नजर आते थे, जब किसी बात पर मैं रोती थी और तुम दुलारते थे तो तुममे मुझे माँ नजर आती थी।

जब कभी मुझे कोई भी दुनियादारी सरीखी सीख देते थे तो गुरु सरीखे नजर आते थे तुम। साथ खेलते हुए मुझे तुममें सूरज भैया नजर आते थे तो जब बड़े भैया मुझे डाँटते और मेरी गलती खुद पर लेकर मुझे बचाते तो उस वक़्त मुझे मेरे अनु दा नजर आते। अपनी हर छोटी बड़ी खुशी या दुख सिर्फ तुमसे कहती क्योकिं मेरी सबसे अच्छी सहेली मुझे तुम्ही में नजर आती थी और तुमसे अपना सुख दुख बाँटना मुझे सुख पहुंचाता था।

मेरी तरफ से हमारा रिश्ता तो कृष्ण सुदामा की दोस्ती से भी कहीं ऊपर का है। इसीलिए तुम्हारे प्रेम के नजरिये को मैं न तो देख ही पाई और न ही समझ पाई। शायद यही एक वजह भी है कि मैं तुम्हारे प्रति अपना रिश्ता अपने हिसाब से तुम्हारे साथ जीती चली गयी और इस प्रेम को किसी एक रूप में बांध ही नही पायी।

आरम्भ में मेरे हक़ छीनने वाले और बाबा से मेरा प्यार बांटने वाले को एक शत्रु की नजर से देखा। जिस तरह तुमने मुझे सम्भाला और एक सुरक्षित अहसास से सरोबार रखा वह निश्चिंत ही सराहनीय है। हर किसी के बस की बात नही ऐसे करना। तुम्हारे अचानक गायब हो जाने ने मुझे तोड़ कर रख दिया लगा जैसे अपंग हो गयी हूँ।

बहुत दिनों तक परेशान रही कि कैसे जी पाऊंगी तुम्हारे बिना क्योकिं तुम तो मेरी आदत भी तो बन चुके थे। लेकिन हर कदम तुम्हारी बेरुखी ने मुझे तोड़ा नही अपितु मुझे और मजबूत करती चली गयी।

जिसके परिणामस्वरूप मैं बहुत से काम खुद ही करने लगी। तंग हुई, तुम पर हद से ज्यादा क्रोध आया लेकिन नफरत न कर सकी। मुझे लगा शायद तुम भी यही चाहते थे कि मैं तुम्हारे सहारे की बैसाखियाँ छोड़कर अपने पैरों पर चलना सीखूं और खुद में जीना सीखूं। आंखों का इंतजार कभी खत्म नही हुआ। मन में एक आस रहती थी कि कभी सामने आओगे तो तुम्हारी खैर नही, अच्छे से खबर लूँगी लेकिन अब जब सामने आये हो तो लाचार हूँ, तुम्हे सजा की बात तो जाने दो अच्छे से डाँट भी नही सकती। "

अनुराग ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला तो ममता ने इशारे से चुप करते हुए कहा-" आज मुझे कह लेने दो।

न जाने फिर कभी कुछ कह भी पाऊंगी या नही।

अनुराग, एक परिपक्व औरत हूँ मैं और जीवन के 54 बसन्त देख चुकी हूँ। आंखों की चंचलता सँग चेहरे के भाव और हरकतों के इशारे समझती हूँ। स्वीकार करती हूँ, कल ही समझ गयी थी कि.... तुम्हारा प्रेम हूँ मैं, लेकिन अनजान बनी रही। मुझे लगा कि जीवन की अंतिम संध्या से पहले तुम्हारे अरमान तुम्हारे शब्दों में निकलने बहुत जरूरी हैं। बार बार तुम्हें उकसाया, मौके दिए, कारण कि तुममें मेरा डर था जो तुम्हे कुछ कहने से रोक रहा रहा। जिस इंसान ने कभी नजर भरकर न देखा हो उसके लिए प्रेम का इजहार आसान नही था। "

ममता कहते कहते हांफने लगी थी। एक पल को रुककर गहरी गहरी सांस लेने लगी। अनुराग ने मुस्कुराते हुए अपनी गर्दन फिर से झुका ली।

ममता ने अनुराग की ठुड्डी पर दो उंगली रखते हुये चेहरे को उठाकर बोली-" अनुराग, तुमने प्रेम किया है कोई पाप नही। गर्दन ऊंची रखकर बात करो। इतना पवित्र प्रेम तो किस्मत वालों को मिलता है। धन्य हो गयी मैं तो कि मुझे मिला। ऐसा प्रेम जिसने अपनी इच्छाओं का दमन करके मेरे मान की रक्षा की।

तुम्हें तो दण्डवत प्रणाम करने को जी चाहता है। "

ममता के हाथ स्वतः ही जुड़ गए और आंखें बंद हो गयी। ममता की बन्द आंखों से दो बूंदे छलक आयी।

दोनो में मध्य एक पल को निःशब्दता छा गयी ।

अनुराग ने उसके दोनो जुड़े हाथों को अपने दोनो हाथों से पकड़ते हुए फौरन ही अलग कर दिया।

अपनी जेब से रुमाल निकाला और ममता के आंसू पोंछ दिए।

ममता स्नेह से सरोबार होकर सुबकियां लेने लगी थी।

"बस कर मुंन्नी, "-अनुराग के मुंह से बस यही शब्द निकले।

ममता खुद को सम्भालते हुए फिर से कहने लगी-" मैं आपको झूठी तसल्ली नही दे पाऊंगी अनुराग। यह भी नही कह सकती कि काश आपने वक़्त रहते बाबा को बताया होता तो आज कहानी कुछ और होती। शायद मुझे मुम्बई न जाना पड़ता। नहीं, बाबा भले ही इस रिश्ते को स्वीकार कर लेते लेकिन मुझे उस वक़्त भी स्वीकार्य नही था। मेरे मन में आपकी वह मूरत कभी बनी ही नही। "

अनुराग-" तुम्हारे एक एक शब्द पर यकीन है मुझे। तुम्हारी आंखें बोलती हैं मुंन्नी। आज भी जो तुमने कहा तुम्हारी आँखों ने गवाही दी है कि सच ही कहा। बस एक बात मान लो कि अपने मोतियों को यूँ न बिखेरो। अब मुझमें इनको समेटने का सामर्थ्य नही बचा है। "

अनुराग की बात पर दोनो ही हल्के से हंस दिए। ममता उठी और हाथ में पानी का गिलास लेकर कमरे से बाहर चली गयी। बाहर अंधेरा पैर पसारने लगा था। मन ही मन स्तब्ध सी हुई कि अनुराग के साथ बातों में दिन कैसे बीत गया पता ही नही चला। अभी नीचे से खाने का बुलावा भी आने ही वाला होगा। जल्दी से मुंह धोकर वापस कमरे में आई। चारों तरफ नजर दौड़ाई लेकिन तौलिया नजर नही आया तो साड़ी के पल्लू से ही मुंह पौंछ लिया। घड़ी पर नजर डाली तो आठ बजने वाले थे। मने पूरे 4 घण्टे से बातों का सिलसिला अनवरत जारी थी। जिसमें कुछ लम्हे हल्के फुल्के तो कुछ बेहद वजनी भी थे।

ममता कुर्सी छोड़कर अनुराग के पास पलंग पर बैठ गयी। अपने दोनो हाथों में अनुराग का हाथ लेकर कहने लगी-" अनुराग "

अनुराग-" ह्म्म्म"

ममता-" ह्म्म्म नही, ध्यान से सुनो मेरी बात। "

अनुराग-" बोलो, सुन रहा हूँ। "

ममता-" अपने दिल की सभी बातें कहकर तुम बहुत हल्का महसूस कर रहे होंगे। "

अनुराग-" सो तो है। "

ममता-" उम्मीद है सभी सवालों के जवाब भी मिल चुके तुम्हें। "

अनुराग-" निसन्देह, जैसी उम्मीद थी जवाब भी वैसे ही मिले। "

ममता-" एक वादा करो मुझसे"

अनुराग-" पक्का वादा। (ममता की आंखों में देखते हुए)"

ममता-" बात बिना सुने जुबान दे रहे हो, याद रखना। "

अनुराग-" यकीन है कुछ गलत नही कहोगी। "

ममता की मुस्कुराहट खिल उठी और बोली-" इतना विश्वास?"

अनुराग -" खुद से भी ज्यादा। "

ममता की गर्दन एक अपराधी की तरह झुक गयी। आंखे नम हो उठी और लब थर्राने लगे।

कांपती सी आवाज में कहने लगी-" न जाने तुम्हारे जीवन के कितने दिन शेष हैं, 2 दिन या 20 दिन या 2 बरस।

बस यही चाहती हूँ कि जितने भी दिन शेष हैं देविका को अपना पूर्ण समर्पण दे दो। चाहे उसका हक समझकर या फिर उसकी पूजा का प्रतिफल मानकर। मुझे कुछ तो इस अनजाने अपराध से मुक्ति मिले। "

अनुराग-" ममता, इस जीवन में तो सम्भव नही लगता। "

ममता-" असम्भव तो कुछ भी नही होता। अब तो सब कुछ कहकर मन भी हल्का कर चुके हो। "

अनुराग-" कोशिश करूंगा। "

ममता-" मेरे लिए तुम्हारा इतना कहना काफी है। अब मैं नीचे जा रही हूँ इससे पहले कि कोई बुलाने आये। "

तभी कमरे में दरवाजे से देविका की आवाज आई, "इस काम के लिए तो मुझे भेजा गया है जिज्जी। "
अनुराग और ममता दोनो ने ही एक साथ मुड़कर देविका की तरफ देखा। इस बार अचानक आवाज आने से दोनो चौंकें नही अपितु मुस्कुरा उठे।

ममता उठी और चुस्त कदमों से देविका की तरफ बड़ी। जैसे ही उसके पास पहुंची, गले से लगा लिया।

ममता ने महसूस किया कि देविका ने भी उसे कसकर गले से लगा लिया था।

ममता देविका के कानों में फुसफुसाई-" देविका, तुमसे कुछ कहना है। खाने के बाद बात करेंगे। "

क्रमशः

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