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शह नशीं पर

शह नशीं पर

वो सफ़ैद सलमा लगी साड़ी में शह-नशीन पर आई और ऐसा मालूम हुआ कि किसी ने नक़रई तारों वाला अनार छोड़ दिया है। साड़ी के थिरकते हूए रेशमी कपड़े पर जब जगह जगह सलमा का काम टिमटिमाने लगता तो मुझे जिस्म पर वो तमाम टिमटिमाहटें गुदगुदी करती महसूस होतीं....... वो ख़ुद एक अर्सा से मेरे लिए गुदगुदी बनी हुई थी।

मैं उस को तक़रीबन दो सौ मर्तबा देख चुका हूँ। और इन तमाम दर्शनों के नुक़ूश अलाहिदा अलाहिदा मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर मुर्तसिम हैं। एक बार मैंने उसे सहन में तीतरी के पीछे दौड़ते देखा था। एक लम्हे के लिए वो मेरी निगाहों के सामने आई और गुज़र गई। और जब कभी मैं इस वाक़िया को याद करता हूँ तो मुझे अपने दिल में एक ऐसे परिंदे की फड़फड़ाहट सुनाई देती है। जो डर कर इका ईकी उड़ जाए। इसी तरह एक रोज़ मैंने उसे शह-नशीन पर धूप में अपने गीले बाल झटकते देखा था। और अब मैं जिस वक़्त उस तस्वीर को अपने ज़ेहन के पर्दे पर खींचता हूँ तो मुझे कभी स्याही नज़र आती है और कभी उजाला।

मैं उस को इतना देख चुका हूँ कि अब मैं इस के सामने आए बग़ैर उसे जब चाहूं देख सकता हूँ। पहले पहल मुझे इस काम में दिक्कत महसूस हुई थी मगर अब कोई मुश्किल पेश नहीं आती। अभी कल शाम को जब मुझे एक दोस्त के यहां बैठे बैठे उसे देखने की ख़्वाहिश पैदा हुई थी। तो मैंने आँखें बंद किए बग़ैर उसे अपने सामने ला खड़ा किया। वो हू-बहू वैसी थी जैसी कि वो है और इस बात का न मेरे दोस्त को पता चला और न उस की बहन को जो मेरे सामने कुर्सी पर बैठी थी। मैंने एक लम्हे के लिए उसे अपने ज़ेहन की डिबिया में से निकाल कर देखा। और फ़ौरन ही वहीं बंद कर दिया। किसी को मालूम तक न हुआ। कि मैंने क्या कर दिया है। उस को देखने के बाद मैंने यूं सिलसिला कलाम शुरू किया। गोया मेरा ज़ेहन एक लम्हे के लिए भी ग़ैर हाज़िर न हुआ था.... जी हाँ सूखी हुई मछलियों से सख़्त बू आती है। न जाने ये लोग उन्हें खाते किस तरह हैं। मेरी तो नाक...... और इस के बाद मुख़्तलिफ़ क़िस्म की नाकों पर गुफ़्तुगू शुरू हो गई थी।

उस की नाक मुझे बहुत पसंद है। मेरे पास हल्के गुलाबी रंग काटी सीट है जो मुझे सिर्फ़ इस लिए अज़ीज़ है कि उस की पयालियों की दस्ती उस की नाक से मिलती जुलती है। आप हंसोगे। मगर..... एक रोज़ सुबह को जब मैंने उसे क़रीब से देखा तो मेरे दिल में अजीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश पैदा हूई कि उस की नाक पकड़ कर उस के होंटों का रस पी लूँ।

उस के होंट मुझे प्यारे लगते थे। शायद इस लिए कि वो हरवक़्त नमआलूद रहते थे। ये नमी उन में संगतरे की लड़यों की मानिंद चमक पैदा कर देती थी। उन के चूमने की ख़्वाहिश अगर मेरे दिल में पैदा होती थी तो इस का बाइस ये न था। कि मैंने किताबों में पढ़ा था। और लोगों से सुना था कि औरतों के होंट चूमे जाते हैं.....अगर मुझे ये इल्म न होता तो भी मेरे दिल में उन को चूमने की ख़्वाहिश पैदा होती उस के होंट ही कुछ इस क़िस्म के थे कि वो एक ना-मुकम्मल बोसा मालूम होते थे।

वो मेरे हमसाए डाक्टर की इकलौती लड़की थी। सारा दिन वो नीचे अपने बाप की डिसपेंसरी में बैठी रहती। कभी कभी जब में उसे बाज़ार से गुज़रते हुए शीशों में से दवाईयों की अलमारी के पास खड़ी देखता। तो मुझे वो एक लंबी गर्दन वाली बोतल दिखाई देती जिस में कोई ख़ुशरंग स्याल माद्दा उबल रहा हो। एक रोज़ में डिसपेंसरी में डाक्टर साहब से दवा लेने के लिए गया। मुझे ज़ुकाम की शिकायत थी। डाक्टर साहब ने उस से कहा। “बेटा! इन के रूमाल पर यू-किलिप्टस ऑयल के चंद क़तरे टपका दो।”

उस ने मेरा रूमाल लिया। और अलमारी में से एक छोटी सी बोतल निकाल कर दवा के क़तरे टपकाने लगी। उस वक़्त मेरे जी में आई कि उठ कर उस का हाथ थाम लूं और कहूं। “इस शीशी को बंद कर दीजिए अगर आप अपनी आँखों का एक आँसू मुझे इनायत फ़र्मा दें। तो मेरी बहुत सी बीमारियां दूर हो जाएं।” लेकिन मैं ख़ामोश बैठा दवा के उन के सफ़ैद क़तरों की तरफ़ देखता रहा। जो मेरे रूमाल में जज़्ब हो रहे थे।

जब से मैंने उसे देखना शुरू किया है। मेरी दिली ख़्वाहिश रही है कि वो रोय और मैं उस की आँखों में आँसू तैरते हुए देखूं। मैंने तसव्वुर में कई मर्तबा उस की आँखों को नमनाक देखा है और ग़ालिबन यही वजह है कि मैं उसे सचमुच रोता देखना चाहता हूँ। उस की घनी पलकों में फंसे हुए आँसू बहुत अच्छे मालूम होंगे। चक़ पर से जब बारिश के क़तरे रुक रुक कर नीचे फिसल रहे हूँ तो कितने दिलफ़रेब दिखाई दिया करते हैं।

मुम्किन है औरत की आँखों में आप आँसू ज़रूरी ख़याल न करें। पर मैं आँसूओं को हटा कर औरत की आँखों का तसव्वुर ही नहीं कर सकता। आँसू आँखों का पसीना है और मज़दूर की पेशानी सिर्फ़ उसी सूरत में मज़दूर की पेशानी हो सकती है। जब उस पर पसीने के क़तरे चमक रहे हों। और औरत की आँखें सिर्फ़ उसी सूरत में औरत की आँखें हो सकती हैं। जब आँसूओं से डबडबाई रहती हूँ।

वो सफ़ैद सलमा लगी साड़ी में शह-नशीन पर आई और ऐसा मालूम हुआ कि किसी ने नक़रई तारों वाला अनार छोड़ दिया है। साड़ी के थिरकते हूए रेशमी कपड़े पर जगह जगह सलमे का काम टिमटिमा रहा था। और मुझे अपने जिस्म पर गुदगुदी हो रही थी। उस ने इका ईकी पलट कर मेरी तरफ़ देखा। गोया उस को फ़ौरन ही इस बात का एहसास हुआ कि उस के इलावा रात की ख़ामोशी में कोठे पर कोई और मुतनफ़्फ़िस भी है.....उस की आँखें...... उस की आँखें दो मोती रोल रही थीं....... वो रो रही थी..... वो ....... वो रो रही थी..... मेरे देखते देखते और क़बल इस के कि मैं कुछ कर सकूं। उस की आँखों से उस के शबाब के पहले पसीने के क़तरे छिलके और...... संगीन फ़र्श पर फिसल गए। वो मेरी ख़लल-अंदाज़ निगाहों की ताब न ला सके। वो दरअसल चुपचाप दूसरों को ख़बर किए बग़ैर नौज़ाईदा बच्चों के मानिंद थोड़ी देर इन दो नरम-ओ-नाज़ुक पनगोड़ों में लेटे रहना चाहते थे। मगर मेरी निगाहों के शोर से मचल गए। वो रो रही थी। पर मैं ख़ुश था। उस की नम-आलूद आँखें कुहरे में लिपटी हुई झीलें मालूम होती थीं। बड़ी पुर-इसरार बड़ी फ़िक्र ख़ेज़, पानी की पतली सी तह के नीचे उस की आँखों की सफेदी और स्याही। उन नन्ही नन्ही मछलियों की मानिंद झिलमिला रही थीं। जो पानी के ऊपर आने से डरती हों।

मैंने उस को देखना छोड़कर उस की आँखों को देखना शुरू कर दिया। जिस तरह दिसंबर की सर्द और गीली रात में खुली फ़िज़ा के अंदर दो दिए जल रहे हों। उस की आँखें दूर से बहुत दूर से मुझे देखती रहीं। मैंने उन की तरफ़ बढ़ना शुरू किया..... दो आँसू बने, घनी पलकों में थोड़ी देर फंसे रहे। फिर आहिस्ता आहिस्ता उस के ज़र्द गालों पर ढलक गए। दाहिनी आँख में एक और आँसू बना, बाहर निकला..... गाल की हड्डी पर थोड़ी देर के लिए उस मुसाफ़िर की तरह जिस की मंज़िल क़रीब हो, एक लहज़े के लिए सुस्ताया और फिसल कर तेज़ी से उस के लबों के एक गोशे के क़रीब से हो कर आगे दौड़ने वाला ही था कि होंटों की नमी ने उसे अपनी तरफ़ खींच लिया। और वो एक पतली सी धार बन कर फिसल गया।

धुली हूई आँखों से उस ने मेरी तरफ़ ग़ौर से देखा। और पूछा। “तुम कौन हो?”

वो जानती थी कि मैं कौन हूं। और ये पूछते हूए कि मैं कौन हूं। वो मेरे बारे में कुछ दरयाफ़्त न कर रही थी। बल्कि वो ये पूछ रही थी कि वो ख़ुद कौन है।

मैंने जवाब दिया। “तुम शीला हो।”

उस के भिंचे हूए होंट एक ख़फ़ीफ़ इर्तिआश के साथ खुले और वो सिसकियों में कहने लगी। “शीला.... शीला..... शि।” वो शह-नशीन पर बैठ गई। वो थकी हूई मालूम होती थी। लेकिन इका ईकी उसे कुछ ख़याल आया और जो ख़्वाब वो देख रही थी। उसे अपने दिमाग़ से झटक कर उठ खड़ी हुई और घबराए लहजे में कहने लगी.... मैं ..... मैं..... क्या कह रही थी?...... मुझे कुछ नहीं हुआ मैं अच्छी हूँ......... और मैं यहां कैसे चली आई?

मैंने उसे बड़े तसल्ली आमेज़ लहजे में कहा। “घबराओ नहीं शीला..... तुम ने मुझ से कुछ नहीं कहा...... ऐसी बातें न कही जाती हैं और न सुनी जाती हैं।”

शीला ने इस अंदाज़ से मेरी जानब देखा। गोया मैंने उस की कोई चोरी पकड़ ली है कैसी बातें?..... कैसी बातें?..... कोई बात भी तो हो!

मैंने उस से कहा। “परसों जब तुम नीचे डिसपेंसरी में लाल लाल जीब निकाल कर तोते से खेल रही थीं। और तुम्हारी बिलौरीं उंगलियां बोतलों से टकरा कर एक अजीब क़िस्म की झनकार पैदा कर रही थीं। उस वक़्त तुम एक ना-मुकम्मल औरत थीं। पर आज जबकि तुम्हारी आँखें रो रही हैं। तुम मुकम्मल औरत बन गई हो। क्या तुम्हें ये फ़र्क़ महसूस नहीं होता? होता है, ज़रूर होता है। वो चीज़ जो कल थी आज तुम में नहीं है और जो आज है कल न रहेगी। पर वो दाग़ जो मुसर्रत का गर्म लोहा तुम्हारे दिल पर लगा गया है। हमेशा वैसे का वैसा रहेगा..... ये कितनी अच्छी बात है..... तुम्हारी ज़िंदगी में एक ऐसी चीज़ तो होगी। जो सारी की सारी तुम्हारी होगी...... एक ऐसी चीज़ जिस की मिल्कियत पर किसी को रश्क नहीं हो सकता....... काश मेरा दिल तुम्हारा दिल होता..... किसी औरत का दिल होता...... जो एक ही दाग़ को काफ़ी समझता है..... औरत के दिल की आबादी में कई वीराने समा सकते हैं..... वीरानों का ये हुजूम बजाय ख़ुद एक आबादी है......... तुम ख़ुश-क़िस्मत हो....... वो दिन जिस के लिए तुम्हें इंतिज़ार करना पड़ता। तुम ने बहुत जल्द देख लिया..... तुम ख़ुश-क़िस्मत हो।”

वो मेरी तरफ़ उस मुर्ग़ी की तरह हैरत से देखने लगी जिस ने पहली बार अंडा दिया हो।

वो अपने को टटोलने लगी। “ख़ुश-क़िस्मत!....... मैं ख़ुश-क़िस्मत....... वो कैसे?...... आप को कैसे मालूम हवा”

मैं ने जवाब दिया। “जब पतंग कट जाये और कोठों पर चढ़े हूए लौंडे डोर लूटने के लिए शोर मचाना शुरू कर दें। तो किसी के बताने की हाजत नहीं रहती। कि पतंग कट गया है.... जो पतंग तुम ने हवा की बुलंदियों में उड़ाया था कहाँ है?...... कल तक उस की डोर तुम्हारे हाथ में थी, पर आज नज़र नहीं आती!”

उस की आँखों से टप टप आँसू गिरने लगे।

“....... मैं ख़ुश-क़िस्मत हूँ...... ” आँसूओं में भीगे हूए लफ़्ज़ उस के मुंह से निकले। “मैं ख़ुश-किस्मत हूँ..... आप इन लौंडों से जो डोर लूटने के लिए कोठों पर चढ़े रहते हैं, कम शोर नहीं मचा रहे....... ”

आँसू इतनी तेज़ी से बहने लगे। उस ने मेरी तरफ़ इस बारिश में से देखा और कहा। “मेरी आँखों से आँसू निकाल कर आप किस का हलक़ तर करना चाहते हैं..... मैं सब जानती हूँ। ये सोईयां आप मुझे क्यों चुभो रहे हैं।”

उस ने नफ़रत से मुँह फेर लिया। उस की अक़ल उस वक़्त उस चाक़ू के फल की मानिंद थी। जिसे ज़रूरत से ज़्यादा सान पर लगाया गया हो।

मैंने उस से बड़े इत्मिनान से कहा। “जो कुछ हो चुका है। उस का मुझे इल्म है। और अगर इस वक़्त में तुम से ये सब भूल जाने के लिए कहता। तुम से मस्नूई अल्फ़ाज़ में हमदर्दी करता। मदारियों के मानिंद एक हाथ में तुम्हारा दर्द, तुम्हारा सारा ग़म लेकर छू मंत्र के ज़रिये से ग़ायब कर देता। तो तुम यक़ीनन मुझे अपना दोस्त मानतीं, पर मैं ऐसा नहीं कर सकता...... दिल तुम्हारा है और जो भी उस पर गुज़रा है वो तुम्हारा है। मैं क्यों तुम्हारे दिल को इस नेअमत से महरूम करूं, क्यों तुम्हें इस दर्द को भूल जाने के लिए कहूं जो तुम्हारा सुरमाय-ए-हयात है। इसी दर्द पर इसी दुख देने वाले वाक़िया पर जो बीत चुका है तुम्हें अपनी ज़िंदगी के आने वाले दिनों की बुनियादें उस्तुवार करना होंगी..... मैं झूट नहीं बोलता शीला, पर अगर तुम चाहती हो तो तुम्हारी तसकीन के लिए मैं ये भी कर सकता हूँ। बोलो मैं क्या कहूं?”

ये सुन कर उस ने तेज़ी से कहा। “मुझे किसी की हमदर्दी की ज़रूरत नहीं!”

“मैं जानता हूँ...... ऐसे हालात में किसी की हमदर्दी की ज़रूरत नहीं हुआ करती...... आग के अंदर कूदने वाले खेल में हिदायत देने वाले की क्या ज़रूरत?.... प्रेम की अर्थी को दूसरे के काँधों से क्या सरोकार, ये लाश तो ज़िंदगी भर हमें अपने ही काँधों पर उठाए फिरना होगी...... ”

वो बीच में बोल उठी। “उठाऊंगी..... आप को इस से क्या...... ऐसी ऐसी भयानक बातें सुना कर आप मुझे किस लिए डराना चाहते हैं!....... मैंने उस से मोहब्बत की..... और क्या मैं अब भी उस से मोहब्बत नहीं करती!...... उस ने मुझे धोका दिया है। मेरे साथ फ़रेब किया है, पर ये फ़रेब और धोका भी तो उसी ने दिया है जिस से मैं मोहब्बत करती हूँ...... मैं जानती हूँ कि उस ने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी है। मुझे कहीं का नहीं रख्खा। लेकिन फिर क्या हुआ...... मैंने एक बाज़ी खेली और हार गई..... आप मुझे डराना चाहते हैं, मुझे ताने देना चाहते हैं...... मुझे....... मुझे, जिसे अब मौत तक की पर्वा नहीं रही...... मैंने मौत का नाम लिया है और...... देखिए आप के बदन पर कपकपी दौड़ गई है, आप मौत से डरते हैं। मगर मेरी तरफ़ देखिए मैं मौत से नहीं डरती!”

मैंने उस की तरफ़ देखा, उस के लबों पर एक ज़बरदस्ती की मुस्कुराहट नाच रही थी। उस की आँखों में आँसूओं की पतली तह के नीचे एक अजीब क़िस्म की रोशनी जल रही थी। और वो ख़ुद काँप रही थी हौलेहौले।

मैंने दुबारा उस को ग़ौर से देखा। और कहा। “मौत से डरता हूँ। इस लिए कि मैं ज़िंदा रहना चाहता हूँ। तुम मौत से नहीं डरती, इस लिए कि तुम्हें ज़िंदा रहना नहीं आता। जो शख़्स ज़िंदा रहने का सलीक़ा नहीं जानते। उन के लिए ज़िंदा रहना भी मौत के बराबर है..... अगर तुम मरना चाहती हो तो बड़े शौक़ से मर जाओ।”

वो हैरत से मेरा मुँह तकने लगी। मैंने कहना शुरू किया। तुम मरना चाहती हो। इस लिए कि तुम समझती हो कि दुख के इस पहाड़ का बोझ जो इका ईकी तुम पर टूट पड़ा है। तुम से उठाया न जाएगा..... ये ग़लत है...... जब तुम मोहब्बत करने की ताक़त रखती हो। तो उस की शिकस्त के सदमे बर्दाश्त करने की भी क़ुव्वत रखती हो..... वो लज़्ज़त वो हज़ वो मुसर्रत जो तुम ने इस से मोहब्बत करके हासिल की, तुम्हारी ज़िंदगी का अर्क़ है उसे सँभाल कर रखो। और बाक़ी तमाम उम्र इन चंद घूँटों पर बसर करो........ वो मर्द जिस से तुम ने मोहब्बत की, इतना ज़रूरी, इतना अहम नहीं है, जितनी कि तुम्हारी मोहब्बत है, जो उस से तुम को है..... उस मर्द को भूल जाओ, लेकिन अपनी मोहब्बत को याद रखो, उस की याद पर जियो....... उन लमहात की याद पर जिन को हासिल करने के लिए तुम ने अपनी ज़िंदगी की सब से क़ीमती शैय तोड़ डाली...... क्या तुम उन लमहात को भूल सकती हो, जिस की क़ीमत में तुम ने एक बेशबहा मोती बहा दिया है..... हरगिज़ नहीं....... मर्द ऐसे लमहात को भूल सकता है भूल जाता है। इस लिए कि उसे कोई क़ीमत अदा नहीं करना पड़ती...... पर औरतें नहीं भूल सकतीं। जिन्हें चंद घड़ियों की फ़ुर्सत के लिए अपनी सारी ज़िंदगी चकना चूर कर देना पड़ती है..... तुम मरना चाहती हो!..... क्या तुम इस सराय में इतने महंगे दामों पर कमरा उठा कर भी उस को छोड़ देना चाहती हो...... ज़िंदा रहो...... नहीं नहीं इस ज़िंदगी को इस्तिमाल करो। हमें मरना ज़रूर है। इसी लिए ज़िंदा रहना भी ज़रूरी है...... ”

मेरी बातों ने उस पर थकान सी तारी कर दी। वो निढाल हो कर शह-नशीन पर बैठ गई और कहने लग। “मैं थक गई हूँ....... ”

“जाओ, सौ जाओ..... आराम करो और दूसरी मुसीबतों का मुक़ाबला करने के लिए ख़ुद में हिम्मत पैदा करो..... ” ये कह कर मैं चलने ही को था। कि मुझे दफ़अतन एक ख़याल आया और इस ख़याल के आते ही थोड़ी देर के लिए मेरा दिल बैठ सा गया। मैंने सोचा अगर इस ने अपने आप को मार लिया तो..... और ये सोचते हुए मुझे ये ख़दशा पैदा हुआ कि मुझ में एक चीज़ की कमी हो जाएगी। चुनांचे मैं पलटा और उस के क़रीब जा कर उस से इल्तिजाईया लहजे में कहा। “शीला! मैं तुम से एक दरख़ास्त करना चाहता हूँ.... ”

शीला ने गर्दन उठा कर मेरी तरफ़ देखा।

“देखो शीला, मैं तुम से इल्तिजा करता हूँ कि ख़ुदकुशी के ख़याल से बाज़ आओ..... तुम ज़िंदा रहो, ज़रूर ज़िंदा रहो।”

उस ने मेरी बात सुनी और पूछा “क्यों।”

“क्यों?........ ये तुम मुझ से क्यों पूछती हो शीला? तुम्हारा दिल अच्छी तरह जानता है कि मैं तुम से इल्तिजा कर रहा हूँ...... छोड़ो इन बातों को....... मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है। और न मुझे अपने आप से कोई शिकायत है..... बात ये है। कि मैंने जो बात शुरू की थी। अब उसे इख़्तिताम तक पहुंचाना चाहता हूँ..... मैं ख़ुदग़र्ज़ हूँ..... हर इंसान ख़ुदग़र्ज़ है...... मैं तुम से इल्तिजा कर रहा हूँ कि तुम न मरो, जियो...... ये ख़ुदग़र्ज़ी है...... तुम ज़िंदा होगी तो मेरी मोहब्बत जवान रहेगी...... तुम्हारी ज़िंदगी के हर दौर के साथ मैं अपनी मोहब्बत को वाबस्ता देखना चाहता हूँ....... पर तुम्हारी इजाज़त से....... ”

वो देर तक सोचती रही। वो अब ज़्यादा संजीदा हो गई थी। थोड़ी देर के बाद उस ने बड़े धीमे लहजे में कहा। “मुझे ज़िंदा रहना होगा।!”

उस के इस धीमे लहजे में अज़्म के आसार थे। इस थकी हुई जवानी को ऊँघती हुई चांदनी में छोड़कर मैं नीचे अपने फ़्लैट पर चला आया और सौ गया|

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