शलजम
“खाना भिजवा दो मेरा। बहुत भूक लग रही है”
“तीन बज चुके हैं इस वक़्त आप को खाना कहाँ मिलेगा?”
“तीन बज चुके हैं तो क्या हुआ। खाना तो बहरहाल मिलना ही चाहिए। आख़िर मेरा हिस्सा भी तो इस घर में किसी क़दर है।”
“किस क़दर है।”
“तो अब तुम हिसाबदान बन गईं जमा तफ़रीक़ के सवाल करने लगीं मुझ से”
“जमा तफ़रीक़ के सवाल न करूं तो ये घर कब का उजड़ गया होता।”
“क्या बात है आप की लेकिन सवाल ये है कि मुझे खाना मिले गाया नहीं”
“आप हर रोज़ तीन बजे आएं तो खाना ख़ाक मिलेगा। मैं तो ये समझती हूँ कि अगर आप इस वक़्त किसी होटल में जाएं तो वहां से भी आप को दाल रोटी नहीं मिल सकेगी मुझे आप का ये वतीरा हरगिज़ पसंद नहीं”
“कौन सा वतीरा ”
“यही कि आप तीन बजे तशरीफ़ लाए हैं खाना पड़ा झक मारता रहता है मैं अलग इंतिज़ार करती रहती हूँ मगर आँजनाब ख़ुदा मालूम कहाँ ग़ायब रहते हैं”
“भई दुनिया में इंसान को कई काम होते हैं मैं सिर्फ़ दो दिन ही तो ज़रा देर से आया।”
“ज़रा देर से? हर ख़ाविंद को चाहीए कि वो घर में बारह बजे मौजूद हो ताकि उसे 1 बजे तक खाना मिल जाये इस के इलावा उसे अपनी बीवी का ताबे फ़रमान होना चाहिए इस लिए यही बेहतर है कि वो किसी होटल में जा रहे जहां के तमाम नौकर और बहरे इस के ताबे फ़रमान हूँ।”
“आप का इरादा तो यही है जब ही तो आप कई दिन से पर तोल रहे हैं मैं आप से कहती हूँ अभी चले जाईए।
खाना खाए बग़ैर ”
“जाईए होटल में आप को मिल जाएगा।”
“लेकिन तुम ने तो अभी कहा था कि इस वक़्त किसी होटल में भी दाल रोटी नहीं मिलेगी बात कर के भूल जाती हो।”
“मेरा दिमाग़ ख़राब हो चुका है बल्कि कर दिया गया है”
“ये तो सही है कि तुम्हारा दिमाग़ ख़राब है लेकिन ये ख़राबी किस ने पैदा की”
“ख़ुदा न करे तुम मर्द लेकिन मुझे ये तो बताओ मेरे बग़ैर तुम्हारा गुज़ारा कैसे होगा।”
“मैं अपनी मोटर बीच लूँगी।”
“इस से तुम्हें कितना रुपया मिल जाएगा।”
“छः सात हज़ार तो मिल ही जाऐंगे”
“इन छः सात हज़ार रूपों में तुम कितने अर्सा तक अपना और अपने बाल बच्चों का पेट पाल सकोगी।”
“मैं आप की तरह लख लुट और फ़ुज़ूल खर्च नहीं आप देखिएगा मैं इन रूपों में सारी उम्र गुज़ार दूँगी मेरे बाल बच्चे इसी तरह पलेंगे जिस तरह अब पल रहे हैं। ये”
“ये तरकीब मुझे भी बता दो मुझे यक़ीन है कि तुम्हें कोई ऐसा मंत्र हाथ आगया है जिस से तुम नोट दुगने बना सकती हो हर रोज़ बटवे से नोट निकाले उन पर मंत्र फूंका और वो दुगने होगए।”
“आप मेरा मज़ाक़ उड़ाते हैं। श्रम आनी चाहिए आप को।”
“चलो हटाओ इस क़िस्से को। खाना दो मुझे।”
“खाना आप को नहीं मिलेगा।”
“भई आख़िर क्यों मेरा क़ुसूर किया है”
“आप के क़ुसूर और आप की ख़ताएं अगर मैं गिनवाना शुरू करूं तो मेरी सारी उम्र बीत जाये।”
“आप ने और किस ने मेरी जान का रोग बने हुए हैं मुझे न रात का चैन नसीब है ना दिन का।”
“दिन का तुम छोड़ो रात का चैन आप को नसीब क्यों नहीं। बड़े इतमिनान से सोई रहती हैं जैसे मुहावरे .... के मुताबिक़ कोई घोड़े बेच कर सौ रहा हो।”
“अपने घोड़े बेच कर आदमी कैसे सौ सकता है कितना वाहियात मुहावरा है”
“वाहियात ही सही लेकिन अभी चंद रोज़ हुए तुम ने घोड़ा और उस के साथ ताँगा भी बेच डाला था और उस दिन तुम रात भर खर्राटे लेती रही थीं।”
“मुझे ताँगा रखने की क्या ज़रूरत थी, जब कि आप ने मुझे मोटर ले दी थी और खर्राटे भरने का इल्ज़ाम भी ग़लत है।”
“मुहतरमा जब आप ख़्वाब-ए-ख़रगोश में थीं तो आप को कैसे पता चलता कि आप खर्राटे लेती हैं बख़ुदा उस रात में बिलकुल न सौ सका।”
“इस का अव़्वल झूट और इस का आख़िर झूट”
“चलिए तुम्हारी ख़ातिर अब मान लिया अब खाना दो।”
“खाना नहीं मिलेगा आज आप किसी होटल में जाईए और मैं ये चाहती हूँ कि आप वहीं बसेरा कर लीजीए।”
“तुम क्या करोगी ”
“मैं मैं मर तो नहीं जाऊंगी आप के बग़ैर ”
“देखो बेगम अब पानी सर से गुज़र चुका है। अगर तुम ने खाना न दिया तो मैं इस घर को आग लगा दूँगा ग़ज़ब ख़ुदा का मेरे पेट का भूक के मारे बुरा हाल हो गया है और तुम वाही तबाही बक रही हो मुझे कल और आज एक ज़रूरी काम था इस लिए मुझे देर होगई और तुम ने मुझ पर इल्ज़ाम धर दिया कि मैं हर रोज़ देर से आता हूँ खाना दो मुझे वर्ना ”
“आप मुझे ऐसी धौंस न दें, खाना नहीं मिलेगा आप को”
“ये मेरा घर है मैं जब चाहूं आऊं जब चाहूं जाऊं तुम कौन हो कि मुझ पर ऐसी सख़्तियां करो मैं तुम से कहे देता हूँ कि तुम्हारा ये मिज़ाज तुम्हारे हक़ में अच्छा साबित नहीं होगा।”
“आप का मिज़ाज मेरे हक़ में तो बड़ा अच्छा साबित हुआ है। दिन रात कुड़ कुड़ के मेरा ये हाल होगया है।”
“दस पाऊंड वज़न और बढ़ गया है बस यही हाल हुआ है तुम्हारा। और मैं तुम्हारी ज़ूदरंज और चिड़ चिड़ी तबीयत के बाइस बीमार हो गया हूँ।”
“क्या बीमारी है आप को ”
“तुम ने कभी पूछा है कि मैं इस क़दर थका थका क्यों रहता हूँ। कभी तुम ने ग़ौर किया कि सीढ़ियां चढ़ते वक़्त मेरा सांस क्यों फूल जाता है। कभी तुम को इतनी तौफ़ीक़ हुई कि मेरा सर ही दबाएँ जो अक्सर दर्द के बाइस फटने के क़रीब होता है तुम अजीब किस्म की रफीक़ा-ए-हयात हो”
“अगर मुझे मालूम होता कि आप ऐसा ख़ाविंद मेरे पल्ले बांध दिया जाएगा तो मैंने वहीं अपने घर पर ही ज़हर फांक लिया होता।”
“ज़हर तुम अब भी फांक सकती हो। कहो तो मैं अभी ला दूँ”
“ले आईए।”
“लेकिन मुझे पहले खाना खिला दो”
“मैं कह चुकी हूँ वो नहीं मिलेगा आप को आज”
“कल से तो ख़ैर मिल ही जाएगा। इस लिए मैं कोशिश करता हूँ”
“आप क्या कोशिश कीजीएगा।”
“ख़ानसामां को बुलाता हूँ”
“आप उसे नहीं बुला सकते।”
“क्यों ?”
“बस मैंने कह जो दिया कि आप को इन मुआमलों में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं”
“हद होगई। अपने घर में अपने ख़ानसामां को भी नहीं बला सकता ”
“नौकर कहाँ है।”
“जहन्नम में ”
“इस वक़्त मैं भी उसी जगह हूँ लेकिन मैं उस को देख नहीं पाता इधर हटो ज़रा मैं उसे तलाश करूं शायद मिल जाये।”
“उस से क्या कहना है आप को ?”
“कुछ नहीं सिर्फ़ इतना कहूंगा कि तुम अलाहिदा हो जाओ तुम्हारे बदले मैं इस घर की नौकरी ख़ुद क्या करूंगा।”
“आप कर चुके ”
“सलाम हुज़ूर बेगम साहब सालन तैय्यार है साहब लगा दूँ टेबल पर ”
“तुम दूर दफ़आन हो जाओ यहां से”
“लेकिन बेगम साहब आप ने सुब्ह जब ख़ुद बावर्ची-ख़ाने में शलजम पकाए तो वो सब के सब जल गए कि आंच तेज़ थी उस के बाद आप ने आर्डर दिया कि साहब देर से आयेंगे इस लिए तुम जल्दी जल्दी कोई और सालन तैय्यार कर लो सो मैंने आप के हुक्म के मुताबिक़ दो घंटों के अंदर अंदर दो सालन तैय्यार करलिए हैं अब फ़रमाएं टेबल लगा दूं दोनों अनगीटीहों पर धरे हैं ऐसा ना हो आप के शलजमों की तरह जल कर कोयला हो जाएं। मैं जाता हूँ आप जब भी आर्डर देंगी ख़ादिम टेबल लगा देगा।”
“तो ये बात थी।”
“क्या बात थी मैं इतनी देर तक बावर्ची-ख़ाने की गर्मी में झुलसती रही इस का आप को कुछ ख़याल ही नहीं आप को शलजम पसंद हैं तो मैंने सोचा ख़ुद अपने हाथ से पकाऊं किताब हाथ में थी जिस में सारी तरकीब लिखी हुई थी। किताब पढ़ते पढ़ते में सो गई और वो कमबख़्त शलजम जल भुन कर कोयला बन गए। अब इस में मेरा क्या क़ुसूर है।”
“कोई क़ुसूर नहीं ”
“चलिए मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं”
“यहां तो बड़े बड़े मगरमच्छ दौड़ रहे हैं”
“हर बात में मज़ाक़ ”
“मज़ाक़ बरतरफ़ ज़रा इधर आओ मैं तुम्हारे शलजम देखना चाहता हूँ कहीं वो भी कोयला नहीं बन गए ”
“खाना खाने के बाद देखा जाएगा”