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पूत कपूत तो ?

"ऐ बाई ! कहां का टिकिट काटें ? "

-बस कंडक्टर चौथी बार चिल्लाया तो पीछे की सीट पर बैठा मैं अपनी जगह पर खड़ा हो गया .
- ठीक से बात करिये कंडक्टर साहब , बुजुर्ग महिला हैं . - क्या करुं भाई, माताजी न तो टिकट ले कर बैठीं , न हीं कुछ बता रहीं हैं, मुझे भी तो अपनी ड्यूटी पूरी करनी है । रुपये नहीं थे तो क्यों चढ़ी बस में ? - कंडक्टर ने बडबड़ाना शुरु कर दिया था ।
- माँ जी ! कहाँ जाओगी ?- मैंने आगे बढ़कर पूछा। सहानुभूति पाकर वृद्धा की आँखों में आंसू आ गये। वो मुझे देखे जा रहीं थीं, क्या था उस वृद्धा की दृष्टि में कातरता , करुणा , या फिर थोड़ा आश्चर्य और परेशानी । - मोय , बेटे ने चौकीदार के साथ भेजो थो , आगरे के मेडिकल में दिखानो है मोय , फिर चौकीदार पानी पीने को कह कर उतरो , सो लौटो ही नाहीं !
- आपका बेटा कहाँ रहता है ?
- धौलपुर से आगे अफसर है मेरो बेटा – उन्होंनें अटक अटक कर बता पाया ।
- अम्मा ! कौन से महकमें में है तुम्हारा बेटा अफसर ?
- नाय जानूँ ।
माता जी , ये बस आगरे नहीं , ग्वालियर जायेगी , आप गल बस में चढ़ गईं । फोन नंबर , पता मालूम हो तो लिखा दो। हम बात करते हैं ।
- न में सिर हिलाते हुये वृद्धा रो रहीं थीं – हम कछु नाय जानत हैं। पढ़े लिखे तो हैं नहीं , हमारी अपनी टूटी फूटी मढ़ैया तौ बम्हौरी गाँव में है । कौनउ तरह से घरै पहुँचाय दो बेटा !
- अम्मा अस्फुट स्वरों में कहे जा रहीं थीं ।
- सब यात्री अनुमान लगा रहे थे कि इस जर्जर हालत में अम्मा के इकलौते निष्ठुर बेटे ने चौकीदार के बहाने से पीछा छुड़ा लिया है , क्योंकि चौकीदार जानबूझकर तो ऐसा करेगा नहीं , उसे अपनी नौकरी खोनी है क्या ।
विचार विमर्श कर वृद्धा को आगे पड़ने वाली पुलिस चौकी में बिठाकर हमने उनके खो जाने की सूचना दी , और आगे बढ़ गये। सबको अपनी मंजिल पाने की शीघ्रता थी ।
पांचवे दिन जब मैं लौट रहा था , रास्ते में पुलिस चौकी देखकर याद आया कि अम्मा जी का क्या हुआ होगा ?
बेचैनी मन में इतनी बढ़ी कि उतर गया । पता चला ,पूरे दिन बृद्धा बैठीं रहीं ,फिर न जाने कहाँ चलीं गईं । मैं भी अगली बस के इंतजार में बस अड्डे की तरफ चल दिया ।
देखता क्या हूँ कि पीछे से किसी ने छुआ - ऐ भैया ! दो पांच रुपिया दे सको तो , मोय अपने घर जानो है । मैली कुचैली जीर्ण शीर्ण हालत में वही बृद्धा , कहीं से पा गयीं टूटी हुयी टहनी टेकतीं हाँफती हुयीं भीख मांग रहीं हैं।
तब से वह ग्वालियर के वृद्धाश्रम में अपने दिन गुजार रहीं हैं। मैंने ही उन्हें ले जाकर वहां भर्ती कराया था।
उनकी फोटो भी कई अखबारों में छपती रही , सोशल मीडिया पर सर्कुलेट होती रही । परन्तु न किसी ने उन्हें पहचाना, न कोई लेने आया ।
एक दिन आँफिस के कार्य से पुनः जाना हुआ ,ध्यान तो था ही ,मैं एक ऐसा सुझाव लेकर वृद्धा माँ के पास पहुँच गया , जिसे सुनना भी उन्हें गवारा न हुआ .
मैंने उनके सामने प्रस्ताव रखा था कि क्यों न वे अपने निर्दयी बेटे के खिलाफ याचिका दायर कर दें कि आय के साधन और सुविधा होते हुये भी, अपनी माता को भरण ,पोषण, सुरक्षा ,इलाज से वंचित कर रखा है एवं उसे वृद्धाश्रम में अपना जीवन गुजारना पड़ रहा है.
लेकिन वाह रे माता का हृदय ,अभी भी अपने वेटे के प्रेम से ओतप्रोत होकर लवालव था .उन्होंने मेरा सुझाव सुनकर इंकार कर दिया , बोलीं -" लला , तुम कहो तो साँची ,पर वो हुओ है इतनो निष्ठुर ,अपनी माँ कौ भूल गयौ ,पर मैं तो माँ हूँ न ,मैं तो अभी भी वाको उतनौ ही प्रेम करुँ .मैं कैसे ऐसो कदम उठा सकूँ.लाल तौ वौ मेरो ही है .
कुछ दिन और शेष हैं जीवन की साँझ हो आई है कट जायेगी कैसे न कैसे .उन्होंने अपनी धोती की छोर से आँखें पोंछ लीं .और उठ खड़ी हुयीं लाठी के सहारे से.
मैं सोच रहा था ,धन्य हैं ! वे माँऐं जो हमारे देश में जन्मीं हैं .और धिक्कार है उन सभी कुपुत्रों पर जो अपनी जन्मदायिनी के प्यार , ममता , दूध ,और रक्त का मोल तो क्या कोई चुका पायेगा ,आँशिक प्रतिदान भी नहीं दे पाते .
जिनका अस्तित्व उस माँ के होने से है , जिसने अपना तन मन धन उस पर वार कर स्वयं को मिटा दिया, उन्हीं का अनादर करता रहता है.सच ही है पूत कपूत होगा मगर माता कुमाता कैसे हो सकती है.
**इति**
कथाकार - शोभा शर्मा.@सर्वाधिकार सुरक्षित.
आदरणीय पाठक गण , लघुकथा पर आपके विचारों का स्वागत है .इंतजार रहेगा .


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