अदृश्य हमसफ़र - 14 Vinay Panwar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अदृश्य हमसफ़र - 14

अदृश्य हमसफ़र…

भाग 14

ममता ने जैसे ही बाबा के कमरे में कदम रखा सभी चुप हो गए। बड़ी माँ, आरामकुर्सी पर बैठी थी और माँ, बाबा, काका और काकी सामने खड़े हुए थे।

ममता से चुप नही रहा गया और कह उठी-" क्या बात है? मेरे आते ही आप सभी चुप क्यों हो गए? ऐसी क्या बात है जो मुझसे छिपाना चाहते हैं।

बाबा चेहरे पर जबरदस्ती की मुस्कुराहट लाते हुए बोले-" अरे कुछ नही मुन्नी जरा हिसाब किताब की बातें हो रही थी, आ बैठ मेरा बच्चा। उठ गई तुम।

ममता-" हाँ, उठ ही गयी, आप लोगो ने तो जगाने की जहमत भी नही की।

इस बार बड़ी माँ ने मोर्चा संभाला-" सोई कितने बजे थी छोरी, मैंने कुछ कहा नही तो क्या मुझे पता भी नही।

लल्ला कितनी जोर से रोया तब भी आंख नही खुली तुम्हारी। उसे सूरज ने खाना खिलाया और अब बाहर घुमाने लेकर गया है। चल जरा नहा ले और नाश्ता वगैरा कर ले जब तक मामा भांजे वापस आये।

ममता खुद को बेजान महसूस कर रही थी। फुर्ती के साथ तेजी से उठने वाले कदम लगभग निढाल हुए पड़े थे। चलने की जगह जैसे घिसट रहे थे। किसी काम मे मन नही था उसका। बस नहाना, खाना और सोना। एक सप्ताह बिताना उसे बहुत भारी पड़ रहा था। उसे लग रहा था जैसे स्वछंद आकाश में उड़ने वाली चहचहाती चिड़िया को पिंजरें में डाल दिया गया था। पहली बार खुद को मायके में पराया महसूस कर रही थी। उसे लग ही नही रहा था अपितु यकीन था जैसे एक नही बहुत सारी बातें उससे छिपाई जा रही हैं। ब्याह से पहले ममता घर के हर बाशिंदे की जान थी और अब जैसे सभी उसके जाने के दिन गिन रहे थे। क्या लड़कियां शादी होते ही इतनी बेगानी कर दी जाती हैं। जब आई थी तो सोचकर आयी थी कि अनु दा से इस बार महज दिखावे के लिए लड़ूंगी। तीन साल की बातों का भंडार इकट्ठा करके लायी थी। अनु दा ने भी कैसा व्यवहार किया, ऐसा तो कोई अजनबियों के साथ भी नही करता। एक बार औपचारिकतावश भी नही पूछा कि मनोहर जी कैसे हैं? तुम्हारा ध्यान तो रखते हैं न? पूछना तो दूर की बात है सामने आने से भी गुरेज हो गयी। क्या अनु दा की मेरे प्रति परवाह करना महज दिखावा था या बाबा के दिल में जगह बनाने का जरिया। जब उसे कांटा लगता था तो आह अनु दा की निकलती थी। उसके पांव से एक बून्द खून की निकलती तो अनु दा की आंखे लाल हो जाती थी।

जितना इस विषय पर सोचती यह पहेली उतनी ही जटिल होती जा रही थी। कोई भी उसके सामने अनु दा के विषय में ज़बान खोलने को राजी नही था। स्वभाव से जिद्दी और अकड़ भी खूब थी तो बार बार पूछना या एक ही बात के लिए गिड़गिड़ाना उसके लिए असम्भव था। विचारों के उतार चढ़ाव किसी पर्वत के पथरीले रास्ते से भी उबड़ खाबड़ होते जा रहे जिसमें मंजिल भी नजर नही आ रही थी।

बड़ी माँ के कमरे में पलंग पर लेटे लेटे सोच में गुम रहने लगी। लल्ला की परवाह भी उसने छोड़ दी थी। लल्ला सूरज के साथ मस्त रहता था ऐसे घुला मिला उनसे जैसे बरसों की पहचान हो। इस बार ममता ने अजीब सी खामोशी को महसूस किया था उसे खुद को पराए होने की अनुभूति ने भी व्यथित किया। परायेपन के अहसास से रूबरू तो हुई लेकिन उसे पचाने में बेहद तकलीफ महसूस कर रही थी। मन मे ठान बैठी थी कि जब तक अनु दा सामने से नही बात करेंगे वह उनका नाम भी जुबान पर नही लाएगी।

किसी तरह एक सप्ताह पूरा हुआ। बाबा ही नही ममता ने भी सुख की लंबी सांस ली। अपने घर में सौ काम होंगे और लल्ला भी तो उसे ही सम्भालना है, ऐसे व्यस्त हो जाऊंगी कि न मायके की याद आएगी और न ही अनु दा की। आखिर बिदाई का दिन भी आ पहुंचा। मनोहर जी सुबह सवेरे ही लिवाने आ पहुंचे। दोपहर तक ससुराल पहुंच कर शाम की फ्लाइट से मुम्बई रवाना होना था।

मनोहर जी की नजर ममता पर पड़ी तो चौंक गए। तुरन्त सवाल दाग दिया-" अरे, ममता ये क्या हाल बना रखा है तुमने। आई थी तो कितना रूप चढ़ा हुआ था और आज लग रहा है जैसे सालों से बीमार हो। देखो तो चेहरे की चमक ही जैसे गायब हो गयी। "

ममता ने कोई जवाब नही दिया और मायके वालों को जैसे सांप सूंघ गया हो।

"अरे कुछ तो कहो"- मनोहर जी भी कहाँ चुप रहने वाले थे दोबारा से सवाल दोहरा दिया।
ममता ने नजर उठाकर देखा तो उसकी आंखें छलक आयी लेकिन तुरन्त ही सयंमित होकर कहने लगी-" वो क्या है न जी तीन साल बाद मायके आयी तो बातों में न दिन का पता चला न ही रात का। ढंग से नींद भी पूरी नही कर पाती थी। इन लोगो ने तो जैसे सोच रखा था कि मुझे सोने भी नही देंगे। बस तरह तरह के व्यंजन खाते रहो और बतियाते रहो। सच में मनोहर जी, मायके का ज्यादा लाड़ दुलार भी एक बड़ी समस्या बन जाता है कभी कभी। कहते कहते नकली हंसी का ठहाका लगा दिया उसने। पलट कर बाबा की तरफ देखा तो उसकी नजरों में आये व्यंग्य को बाबा सह न सके और गर्दन झुका ली।

मनोहर जी के साथ अपने घर जाने के लिए गाड़ी मैं बैठी तो इस बार उसने मुड़कर नही देखा। गाड़ी जब थोड़ी दूर पहुंची तो मनोहर जी ने फिर से पूछ लिया, क्या बात है ममता? कुछ अजीब सा लग रहा है। इस बार तुम किसी से गले मिलकर नही आई । नही तो तुम्हें बाबा से तो अलग करना मुश्किल हो जाता है।

ममता अब तक सम्भल चुकी थी। हल्के से मुस्कुराते हुए कहा-" सुनिए, तीन साल बाद आई थी। अब न जाने कितने दिनों बाद आना हो। गले मिलने लगती तो आपको अलग करना मुश्किल होता और पता चलता कि विदाई की रस्म में ही फ्लाइट भी निकल गयी। " कहते कहते दोनो हंस दिए।
"औऱ मनोहर जी, अब मैँ 21 साल की मुन्नी नही हूँ जो रोकर अपना और सभी का हाल बेहाल कर दूँ। 24 साल की ममता हूँ, एक साल के बच्चे की माँ। आपको नही लगता वक़्त और हालात के साथ सभी की प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। उस वक़्त आप और आपका घर मेरे लिए अनजान अजनबी थे लेकिन आज यही सब तो मेरा अपना है। बाबा ने ही तो सिखाया था कि मायके में मेहमान बनकर आना। अब आप ही कहिये कोई अपने घर जाते वक्त रोता है क्या? आप सभी ने मुझे इतना प्यार और सम्मान दिया है कि लगता है अब तो मायके आते समय मेरी रुलाई छूटेगी। " कहते कहते ममता हँसने लगी थी। मनोहर जी ने बड़े प्यार से ममता को निहारा, उनकी आंखों में प्यार के साथ गर्व की अनुभूति भी थी।

उधर ममता के जाते ही बाबा अपराधी से खड़े रह गए। ममता के सामने चुप रहे लेकिन उसके जाते ही दहाड़ मारकर रो पड़े-" हे माता रानी, ये मेरे किस पाप कर्म की सजा मुझे दे रही हो। अपने धर्मपुत्र को देखूं या अपने शरीर के अंश को। किसके साथ न्याय करूँ और किसके साथ अन्याय। दोनो ही अपनी जगह सही हैं। मुझे शक्ति देना माँ। "

अपने गुणी पुत्र की व्यथा देख कर बड़ी माँ की भी आंखे भर आयी, बाबा को सांत्वना देते हुए कहा-" बड़के, समय सबसे बड़ा इलाज है। बड़े से बड़े घाव का भी। मुन्नी का घर बस गया है अब अनुराग की सोच। सब ठीक हो जाएगा और मुन्नी भी पहले के जैसे चहकेगी। जिस बच्चे की उंगली पकड़ कर लाया उसके साथ भूलकर भी अन्याय न होने देना। समझदार को इशारा काफी होता है। "

इतना सुनते ही बाबा के चेहरे के भाव बदलने लगे और दयनीयता की जगह दृढ़ता दिखने लगी। इधर तारों को निहारते निहारते अनुराग ने महसूस किया कि ममता बहुत देर से खामोश खड़ी है। ममता की तरफ नजर घुमाई तो पाया कि वह तो सच में कहीं ख्यालों में गुम है।

"मुन्नी....मुन्नी"

"मुन्नी.....अरे ओ बावली...."

मुन्नी तो अतीत के पाताल की गहराई में जाकर कुछ मोती बीनने में लगी हुई थी।
अनु दा ने उसका हाथ पकड़ कर हिलाया तो वापस लौटी और हाथों में समेटे हुए सभी मोती बिखर गए।

"क्या अनु दा" - शिकायती लहजे में फिर से ममता मुन्नी बन गयी।

"पता भी है कितना पुकारा तुम्हें, मुझे तो लगा हमारी मुन्नी प्रतिमा बन गयी है पाषाण की। "- अनुराग हल्की हंसी के साथ बोले।

अचानक मुन्नी के मुंह से बरसों से दबे सवाल ने सिर उठा ही लिया-" अनु दा। एक बात बताइये। ब्याह के बाद यकायक आपने मुझसे किनारा क्यों कर लिया?

साथ ही यह भी बताइये कि इतनी बार आयी मैं मायके, दोनो भाइयों की शादी में, और फिर भाभियों की जचगी में, आप मुझे नजर क्यों नही आये?"

अनु दा मुस्कुराए और बोले-" सुन पगली। "

क्रमशः

***