पुत्रमोह
(मधुदीप की लघुकथा)
आज दस साल बाद मुझे मेरे लँगोटिया दोस्त का खत मिला है। चौंकिये मत ! समय कभी-कभी बेरहम होकर लँगोटियों के बीच भी दीवार बन जाता है। खैर, इस किस्से को यहीं छोड़कर मैं इस खत को ही आपके सामने रख देता हूँ।
प्रिय भाई राघव !
दस साल के लम्बे अरसे के बाद आपको खत लिख रहा हूँ। समय बहुत बलवान होता है, नहीं तो साठ साल की दोस्ती क्या एक झटके में टूट सकती थी ! आप तो बिलकुल सही थे दोस्त लेकिन मैं ही उस समय पुत्रमोह में अन्धा हो गया था। आपने तो मेरा ही भला चाहा था मगर मैं न जाने कैसे कह गया था कि यदि आपकी भी कोई सन्तान होती तो आप भी वही करते जो मैं कर रहा हूँ। सुनकर आप चुपचाप वहाँ से चले गए थे। उस समय शायद मैं आपकी पीड़ा नहीं समझ सका था लेकिन आज महसूस कर सकता हूँ कि मैंने आपको
कितना बड़ा आघात पहुँचाया था। आप चुपचाप उस पीड़ा को सहते रहे लेकिन एक शहर में रहते हुए भी आपने कभी लौटकर मुझे इसका उत्तर नहीं दिया। काश ! आप लौट आते या उसी समय मुझे भला-बुरा कह लेते तो आज मुझे स्वयं पर इतनी ग्लानि न होती।
आपने उस समय सही कहा था मेरे दोस्त ! हमारा भविष्य हमारे अपने हाथ में होता है। काश ! उस समय मैंने आपका कहा मानकर अपना सब-कुछ अपने इकलौते पुत्र के नाम न किया होता तो मैं इस समय आपको यह पत्र शहर के वृद्धाश्रम से न लिख रहा होता। दोस्त ! मैं चाहता हूँ कि आज आप मुझे माफ कर दो और एक बार यहाँ आकर मेरे गले से लग जाओ। आपको हमारी लँगोटिया दोस्ती का वास्ता है मेरे दोस्त !
आपका पुराना अपना, चेतन ।
नीचे वृद्धाश्रम का पता लिखा है। पाठको ! मैं पत्थर दिल नहीं हूँ। मेरी आँखों से अविरल आँसू बह रहे हैं और मेरी कार उस वृद्धाश्रम की ओर जा रही है।
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निदान
(मधुदीप की लघुकथा)
दो बिल्लियों की लड़ाई में इस बार बन्दर का दाव लग गया तो वह पूरी रोटी हड़पकर सिंहासन पर आरूढ़ हो गया | उसने तुरन्त नगर में घोषणा करवा दी कि उसे राजा के स्थान पर नगर-सेवक कहा जाये क्योंकि वह जनता के बीच का है और उनका सेवक बनकर उनका सुख-दु:ख बाँटना चाहता है | जनता निरी खुश हो गई |
तो भाइयो, किस्सा अब आगे बढ़ता है | हुआ कुछ यूँ कि एक सर्द रात में नगर-सेवक को कुछ प्रजा-वत्सल राजाओं के किस्से याद हो आये और वह अपने एक विश्वसनीय सहायक के साथ प्रजा का सुख-दुःख जानने के लिए सड़क पर निकल पड़ा |
रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था | सर्दी ने सड़क पर वाहनों की रफ्तार बढ़ा दी थी | सब अपने-अपने घोंसलों में पहुँचने की जल्दी में थे | जो बेघर थे वे मेट्रो रेलपथ के नीचे तथा सड़क के दोनों ओर के फुटपाथों पर आश्रय ले चुके थे | सेवक बिना कहीं रुके तीव्र गति से वाहन आगे बढ़ाता जा रहा था | नगर-सेवक को ऊँघ आने लगी थी कि वाहन अचानक ही दुराग्रही होकर रुक गया |
“क्या हमारा नगर-दौरा पूरा हो गया सहायक ?” नगर-सेवक की तन्द्रा टूटी |
“नहीं श्रीमान ! हमारा वाहन खराब हो गया है |” सहायक ने विनम्रता से कहा |
“तो...?”
“हमें कहीं निकट ही आश्रय लेना होगा श्रीमान !”
“क्या पैदल ही चलना होगा ?”
“हाँ श्रीमान !”
“उफ्फ ! क्या मुसीबत है !”
सामने ही कोठियों का इलाका था | ‘यहाँ अवश्य ही आसरा मिल जायेगा’ , यह सोचकर दोनों के कदम उधर बढ़ गए |
एक कोठी के सामने पहुँचकर दोनों ठिठक गए | कोई तीसरा वहाँ था जो उन्हें देखकर अब भागने की फिराक में था |
“ठहरो...!” सहायक के तेज स्वर ने तीसरे को रुकने पर विवश कर दिया |
“तुम ?” उस तीसरे को पहचानकर अब नगर-सेवक अचम्भित था |
“हाँ श्रीमान !”
“इस समय तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? यह तो तुम्हारा क्षेत्र नहीं है |”
“मैं यहाँ चोरी करने के इरादे से आया हूँ श्रीमान |” नगर-सेवक के रौब के कारण उसके मुँह से सत्य उद्घाटित हो गया |
“ हमारा सभासद और चोरी ! मगर क्यों ?” नगर-सेवक चौंक उठा |
“क्या करें श्रीमान, आप जो वेतन देते हैं उससे तो परिवार का भरण-पोषण नहीं हो सकता |”
“तुम्हारे सत्य बोलने से हमें बहुत प्रसन्नता हुई है |” नगर सेवक ने अपने सभासद के वाहन में लौटने का निर्णय किया |
अगले दिन नगर-सेवक ने अपने सभासदों के मध्य घोषणा की –“हमें यह जानकार बहुत कष्ट हुआ है कि उचित साधनों के अभाव में हमारे सभासदों को अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए चोरी जैसे घृणित कार्यों का सहारा लेना पड़ता है | इससे हम बहुत शर्मिन्दा हैं और हम अपने सभी सभासदों के वेतन और भत्तों में चार गुना वृद्धि करने की घोषणा करते हैं ताकि उन्हें अनुचित साधनों का सहारा न लेना पड़े |”
नगर-सेवक की इस घोषणा का सहायकों तथा सभासदों के साथ ही आम जनता ने भी ताली बजाकर स्वागत किया | आम जनता को विश्वास है कि नगर-सेवक शीघ्र ही उन्हें प्रदान किये जा रहे संसाधनों में भी चार गुना की वृद्धि की घोषणा करेंगे जिससे कि उन्हें भी अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अनुचित साधनों का सहारा न लेना पड़े | अपनी समस्याओं के शीघ्र होने वाले इस निदान की आशा से जनता में अपार हर्ष और उत्साह है |
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बिना सिर का धड़
(मधुदीप की लघुकथा)
मैं कल विनय पाठक से मिला था। अरे ! आप विनय पाठक को नहीं जानते ! कमाल है भाई, आप कुछ समय के लिए इस शहर से बाहर क्या गए, आप तो इस शहर को ही भुला बैठे। अरे ! वही विनय पाठक, जो इस शहर के हर जलूस में हाथ में झण्डा थामे सबसे आगे होता है। वह इस शहर का बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति है जिसे यूँ भुला देना ठीक नहीं है। अरे हाँ, जिस व्यक्ति से आपको कोई वास्ता न हो उसे आप क्यों याद रखेंगे ! लेकिन मैं आपको यूँ छोड़नेवाला नहीं हूँ। आपको उसकी पूरी दास्तान सुननी ही होगी।
मैं कल जब उसके झोंपड़ीनुमा घर पर पहुँचा तो वहाँ का दृश्य देखकर दंग रह गया। रुकिए ! आप मुझे बीच में टोककर यह मत पूछिए कि मैं उसके घर क्यों गया था। आप तो मेरा काम जानते ही हैं। शहर के सभी जलूसों के लिए भीड़ जुटाना ही तो मेरा धन्धा है।
बात मुद्दे से भटक रही है, फिर से सही ट्रेक पर लौटते हैं। जब मैं उसके घर पहुँचा तो यह देखकर चकित रह गया कि उसके सामने जमीन पर एक झण्डानुमा कपड़ा बिछा हुआ है और वह उसपर तड़ातड़ जूते बरसाए जा रहा है। उसका चेहरा लाल सुर्ख हो रहा था और उसकी आँखें गुस्से से बाहर निकलने को हो रही थीं।
“क्या हुआ विनयजी ?" कुछ देर आश्चर्य से यह देखते रहने के बाद मुझे पूछना ही पड़ा।
"यहाँ से भाग जाओ, नहीं तो मैं यह जूता तुम पर बरसाना शुरू कर दूँगा।" उसने चीखकर कहा।
मैं चुपचाप वहाँ से लौट आया क्योंकि मैं समझ गया था कि उसके धड़ पर एक सिर उग आया है जो कुछ सोचता भी है और समझता भी है।
आप तो जानते ही हैं कि मुझे सिर्फ सिर रहित धड़ों की आवश्यकता होती है। हाँ, अब मैं फिर से बिना सिर के किसी धड़ की तलाश में हूँ। ऐसा कोई आपकी नजर में हो तो मुझे अवश्य बताना ....और हाँ, कमीशन की चिन्ता कतई न करें।
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मधुदीप
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