राख़ Ajay Amitabh Suman द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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राख़

(१)

ये कविता मैंने आदमी की फितरत के बारे में लिखा है . आदमी की फितरत ऐसी है कि इसकी वासना मृत्यु पर्यन्त भी बरकरार रहती है. ये मृत्यु के बाद भी ईक्छा करता है कि मारने के बाद उसकी राख़ को यहाँ , वहाँ बहा दिया जाए. इसी पर चोट करती हुई ये कविता है.

राख़

जाके कोई क्या पुछे भी,
आदमियत के रास्ते।
क्या पता किन किन हालातों,
से गुजरता आदमी।


चुने किसको हसरतों ,
जरूरतों के दरमियाँ।
एक को कसता है तो,
दुजे से पिसता आदमी।


जोर नहीं चल रहा है,
आदतों पे आदमी का।
बाँधने की घोर कोशिश
और उलझता आदमी।


गलतियाँ करना है फितरत,
कर रहा है आदतन ।
और सबक ये सीखना कि,
दुहराता है आदमी।


वक्त को मुठ्ठी में कसकर,
चल रहा था वो यकीनन,
पर न जाने रेत थी वो,
और फिसलता आदमी।


मानता है ख्वाब दुनिया,
जानता है ख्वाब दुनिया।
और अधूरी ख्वाहिशों का,
ख्वाब रखता आदमी।


आया हीं क्यों जहान में,
इस बात की खबर नहीं,
इल्ज़ाम तो संगीन है,
और बिखरता आदमी।


"अमिताभ"इसकी हसरतों का,
क्या बताऊं दास्ताँ।
आग में जल खाक बनकर,
राख रखता आदमी।


अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित

(२)

कवि की ईक्छा है कि वो भी भारत को बेहतर कहे , पर भारत की तमाम बुराइयों को देख कर वो हताश है. कवि ने इस कविता को लिखा है ताकि देश में व्याप्त तमाम बुराइयों को जड़ से मिटा सके.

कैसे कहूँ है बेहतर ,हिन्दुस्तां हमारा?

कह रहे हो तुम ये ,
मैं भी करूँ ईशारा,
सारे जहां से अच्छा ,
हिन्दुस्तां हमारा।


ये ठीक भी बहुत है,
एथलिट सारे जागे ,
क्रिकेट में जीतते हैं,
हर गेम में है आगे।


अंतरिक्ष में उपग्रह
प्रति मान फल रहें है,
अरिदल पे नित दिन हीं
वाण चल रहें हैं,


विद्यालयों में बच्चे
मिड मील भी पा रहें है,
साइकिल भी मिलती है
सब गुनगुना रहे हैं।


हाँ ठीक कह रहे हो,
कि फौजें हमारी,
बेशक जीतती हैं,
हैं दुश्मनों पे भारी।


अब नेट मिल रहा है,
बड़ा सस्ता बाजार में,
फ्री है वाई-फाई ,
फ्री-सिम भी व्यवहार में।


पर कहो क्या नेट से
गरीबी मिटती कहीं?
बीमारों से सामने
फ्री सिम टिकती नहीं।


खेत में सूखा है और
तेज बहुत धूप है,
गाँव में मुसीबत अभी,
रोटी है , भूख है।


सरकारी दफ्तरों में,
दौड़ के हीं ऐसे,
आधे तो मर रहें हैं,
इनको बचाए कैसे?


बढ़ रही है कीमत और
बढ़ रहे बीमार हैं,
बीमार करें छुट्टी तो
कट रही पगार हैं।


राशन हुआ है महंगा,
कंट्रोल घट रहा है,
बिजली हुई न सस्ती,
पेट्रोल चढ़ रहा है।


ट्यूशन फी है हाई,
उसको चुकाए कैसे?
इतनी सी नौकरी में,
रहिमन पढ़ाए कैसे?


दहेज़ के अगन में ,
महिलाएं मिट रही है ,
बाज़ार में सजी हैं ,
अबलाएँ बिक रहीं हैं।


क्या यही लिखा है ,
मेरे देश के करम में,
सिसकती रहे बेटी ,
शैतानों के हरम में ?


मैं वो ही तो चाहूँ ,
तेरे दिल ने जो पुकारा,
सारे जहाँ से अच्छा ,
हिन्दुस्तां हमारा।


पर अभी भी बेटी का
बाप है बेचारा ,
कैसे कहूँ है बेहतर ,
है देश ये हमारा?


अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित