हिटलर की प्रेमकथा
भाग - 2
भौं -- भौं -- भौं -- अभी एक सीढ़ी चढ़नी बाकी रही। मेरी फ्राॅक का कोना झपटने को आतुर झबरे बालांे वाला वह चीनी कुत्ता जिसकी आँखें कह रही थीं ‘‘नीचे उतर लड़की वरना चबा डालूँगा हड्डियाँ!’’ अब मैं जोर से चिल्लाई! माँ कुठार के अंदर घुसी थी बमुश्किल मृत्यु से खींच लाई हमें, ‘‘अभी पहचाना नहीं न उसने, दोस्ती करोगी तो वह भी खेलेगा तम्हारे साथ।’’ वह अभी भी थोड़ी दूरी पर गुर्रा रहा था। हमने उसके एक छत्र राज्य पर संेध लगाई थी, उसे कैसे सहन होता। मैंने पहली बार ऐसा भयानक कुत्ता देखा था, छोटा-सा पर आँखों की पुतलियाँ चीते-सी हिंसक। चेहरे का पता ही नहीं, बालों से ढका। मैंने सोचा, ना बाबा मृत्यु से दोस्ती नहीं होगी। नाना नीचे से पुचकार कर न कहते उसे ‘‘चीनी बेटा! जाने दे... दीदी है... दूर से आई है... रास्ता छोड़ दे बेटा...’’ तो हो गया होता हमारा राम नाम सत्। माँ पर बहुत गुस्सा आया, ‘‘हम कुत्ते की दीदी कुत्ते से भी कमतर... क्यों आई है यहाँ...? ये हमारे नाना... नहीं हो सकते माँ... यह काला पठान! ओ मेरी प्यारी माँ, क्यांे लाई मुझे यहाँ...?’’ मैं बहुत जोर से चीख रही थी लेकिन हैरान थी कि मेरे शब्द न कोई सुन रहा था, न मेरे होंठ सी सुन पा रहे थे। वहाँ चीखती चुप्पी चड़ी थी। मैंने पाया कि ज्वालामुखी के लावे से बहते शब्द कीड़े जैसे मेरे भीतर गोल-गोल रंगने लगे थे...।
इन कीड़ों से निजात पाने के लिए मैं दुगने वेग से चीखती रही, लेकिन मेरे भीतर का स्वच्छ पानी सड़ता रहा... उसमें असंख्य कीड़े कुलबुलाते रहे... मैं खुद के लिए अजनबी होती रही। मैं अधिक देर इस स्थिति में न रह पाई और छटपटाते हुए माँ को पकड़ने भागी... लेकिन माँ मुझसे कोसांे दूर थी, अपने काम में मशगूल। दो घूंट पानी से गला तर करके ओखली में लय के साथ धान कूटती लड़कियाँ जाएँ भाड़ में... किसने कहा था आओ मेरी ही कोख में... माँ का अनकहा जोर से गिरता रहा मेरे ऊपर... वह मुट्ठी खुली तो बालू के कण चमक रहे थे।
‘‘मुन्नी, माँ के वास्ते चा बना दे’’ नाना ने आदेश दिया। वे घोड़े की पीठ पर बैठे थे, लगाम उनके हाथ में थी... वे जिधर का भ रूख करेंगे, घोड़ा उन्हें बादशाह बना देगा...! रौंद डालेगा-धरती का जीवन... हवा, पानी धूप... खिलती कोंपलें... बादशाह के भारी-भरकम बूटों तले कुचले... सिसकते दृश्य को पकड़ने की मेरी कवायद भी छूटी... क्षण भर का सुख तकदीर में नहीं... तकदीर कोई और लिखता है... जो घोड़े की पीठ पर बैठ सकता है... जिसके हाथ में लगाम होती है। मेरा मन एक दीवार है उसके आरपार नाना की चीख गूंज रही है, ‘‘मुन्नी, सुना नी तूने माँ का चा बनाकर दे-’’ नौ साल की लड़की जिसे चूल्हा जलाना न आता हो, वह चाय बनाए तो कैसे? ऊपर से भूख के मारे पेट में चूहों की दौड़।
अंधेरा घिरने पर टक बक टक बक घोड़ा आया। उस पर शान से बैठे नाना, उनके हाथ में मुर्गावी थी, जिसके पंखों से खून चू रहा था- नाना ने बंदूक दीवार से टाँगी, ‘‘चा बना दी थी न मुन्नी ने तेरे वास्ते?’’ खून से सना पक्षी परात में रखकर नाना माँ को घूरते रहे... माँ चुप्प। वह चूल्हे पर बैठी आग जलाने की कोशिश कर रही थी। सीली लकड़ी आग पकड़ने मंे असमर्थ, तो माँ के चेहरे पर झंझलाहट आई, ‘‘मुन्नी को आग जलानी नहीं आती तो चा कैसे बनाती, बाबा जी?’’ सीली मरियल लकड़ी ने अचानक आग पकड़ ली।
नाना चुपचाप सीढ़ियाँ उतरे, कुल्हाड़ी उठाई और जोर से लकड़ियाँ फाड़ने लगे। जैसे ही उनका गुस्सा लकड़ियों पर पड़ता, वे छिटक कर उछलतीं, देहरी पर आ लगतीं, जब लकड़ियांे का ढेर जमा हो गया तो नाना की आवाज़ से हमारी जमीन काँपने लगी...।
‘‘सरसुती! अपनी बेटी से लकड़ियाँ उठाने को बोल’’ नाना ने बाल्टी मंे पानी भरा, सामने भैंस के नीचे बैठ गए।
मेरी आँखें विवशता से भर गई। इतनी सारी लकड़ियाँ अंधेरे में कैसे सीढ़ियों से ला पाऊँगी? नाना दीवार पर रखी टार्च की रोशनी में दूध दुह रहे थे। दो आँखें पीठ पर भी लगी थीं। माँ का कहा। ‘‘तू और छोटी कुछ खा ले, लकड़ियाँ मैं ले आऊँगी।’’ माँ चाय औटाकर टोकरी से डाँडापानी की दुकान से नाना के वास्ते लाई जलेबियों व पेड़ों को निकाल कर मेरी हथेली में थमाने लगी। ठन्न नाना ने छप-छप आकर दूध की बाल्टी माँ के पास रखी, ‘‘लकड़ी तो मुन्नी ही लाएगी, सरसुती...।’’ आवाज़ दबाकर मेरी हथेली से जलेबी छिटक कर गिर पड़ी- भूख को ठंेंगा दिखाती। नाना तुर्शी से उसी नन्हीं हथेली को पकड़े खींचने लगे, ‘‘कामचोर की औलाद, लकड़ी उठाएगी तो तू ही...।’’ इस दहाड़ से मिट्टी-पत्थर की दीवारें हिलने लगीं, मेरे नन्हें पाँव थरथराते हुए सीढ़ियाँ उतरने लगे। छोटी-सी बाँह में जितनी लकड़ी आ सकती है, उसके हाथ चार-पाँच बार ऊपर-नीचे होते हुए चूल्हे की ओट मंे ढेर बना दिया मैंने।
नाना खिल उठे, ‘शाबाश’। उन्होंने चूल्हे से दूध पतीला उतारा, पीतल का सेर भर का गिलास भरा, मेरे सामने रखा, ‘‘ले बच्ची, फटाफट पी ले।’ फीके मलाई वाले दूध का घूंट भर मुझे उबकाई आने को हुई। नाना ने चूल्हे की जलती लकड़ी उठा ली!! माँ डर गई। बीच-बचाव की स्थिति मंे बोली, ‘‘बाबा जी, सेर भर दूध कहाँ पी पाएगी बेचारी...’’
नाना के घूरकर माँ को देखा, लकड़ी चूल्हे की राख में घोंप दी, ‘‘पहाड़ की बेटी है, इसे पहाड़ जैसा मजबूत बना सरसुती, वरना रोती रहेगी जिं़दगी भर...।’’
अनायास मेरी पलकें बंद होने लगी। माँ के रोटी पाथने की थप-थप आवाज़ कानों में पड़ी, ‘‘माँ मैं सो जाऊँ।’’ माँ ने कहा, ‘‘छोटी के साथ सो जा अभी, बाद में दूसरी खाट पर सुला दूँगी।’’ उठने लगी तो कोहनी से दूध गिर गया। एक बार फिर दीवारें थरथरा उठीं। उसके बाद क्या हुआ... मुझे कुछ पता नहीं। अचानक एक बाघ आकर मुझे डराने लगा और मैं चीख पड़ी।
‘‘मुन्नी! क्या हुआ मुन्नी।’’ माँ ने झकझोरा तो पता चला सपना था। मरने के भय से मैं जार-जार रो रही थीं। माँ बुदबुदा रही थी अस्फुट, ‘‘सपने मंे बाघ दिखना नरासिंह का दोष होता है, नहा कर देवता का उचाणा (सौगात) रखती हूँ।’’
तभी नाना चाय का गिलास लिए आए, ‘‘कोई दोष-ओष नहीं, सरसुती डरखू (डरपोक) लड़की है तेरी...।’’
नाना मेरे लिए भी प्याली मंे चाय ले आए। थोड़ी देर बाद नाना बोले, ‘‘मसक में पानी भर लाएगी, मुन्नी?’’ मैंने हामी भरी, बंदूक जैसे मुँह वाले थैले पर पानी भरना मुझे अच्छा लगता था।
माँ के साथ झरने पर गई। वहाँ गाँधी नानी दिखीं, पानी भर रही थीं। देखते ही छाती से कस लिया, बलैया लेती आँखों से वात्सल्य रस छलकने लगा, ‘‘दोपहर में आना हमारे घर, तेरी नानी की तस्वीर दिखाऊँगा।’’
‘‘आऊँगी... थोड़ी देर में ही आऊँगी’’ मैं मसक में पानी भरने लगी। माँ और नानी जाने कहाँ-कहाँ की बातें करने लगीं। वे बातें मुझे रहस्यपूर्ण लगीं जो कोशिश करने पर भी मैं समझ न पाई। ‘‘पानी की गागर बड़े पत्थर पर रख पहाड़ी पर चढ़कर माँ घास काटने लगी। मैं मसक लिए घर लौटी। नाना व्यस्त दिखे, कहीं जाने की तैयारी में थे शायद। मेरे हाथ से मसक लेकर दीवार पर लगी कील पर टाँगा, वहाँ से थोड़ा पत्थर और उखड़ गया। उस सुराख से कुछ उस पार... की दुनिया का सुराग मिलने को हुआ... आइने के सामने खड़े नाना, खिचड़ी बालों में चमेली का तेल चुपड़ते, साँवली रात पर ताजातरीन सुबह की उजास जैसा चेहरा...।
आईना उस दुनिया को जोड़ता, पाँवों के नीचे सरसराती नदी... नाना को उस पार ले जाती है जीवन की किश्ती... वहाँ जहाँ हमारा होना वर्जित होता... खादी का झोला सामान से ठसा-ठस भरा... उड़नतश्तरी आए और पहुँचा दे तोहफे लेकर नायाब... नाना ने पहन लिया अब खादी का कुर्ता पजामा... सुगंध से महक रहा मिट्टी का घर... रात को काँप रहा था जो थर-थर... पाँवों में तोते की चोंच वाली नई जूतियाँ भी... केचुंली बदल चुका था साँप। एकदम नया! गोया पा लिया नया जन्म!! नाना ने कहाँ सिलवाया होगा नया कुरता पजामा... खुशबू उड़ रही है इससे गाँधी नानी से पूछूँगी...। नाना के सख्त चेहरे पर खुशी झरती देख मन होता है, पूछूँ...? पूछूँ यह भी कि जहाँ तुम जा रहे हो बादशाह, उस दुनिया में मैं भी लगाना चाहती हूँ छलाँग... अपने लोहे के हाथ से मेरी फूल-सी उंगली पकड़ो तो जरा... उस दुनिया में इन बालू के कणांे को बहा लूँगी... बारिश की बूँद बटोरूँगी, उसमें तैराऊँगी अपनी कागज़ की नाँव... जोरांे से भरूँगी किलकारी, ‘‘नाना, तुमसे आगे निकल चुकी हूँ मैं... जहाँ मुट्ठी में बालू के कण नहीं बारिश की बूँदें हों... कुछ आवाजें हों, बच्चों जैसी कुछ खिखिलाहटें हों, फूलों जैसी... नाना, उस दुनिया के भीतर प्रवेश करेंगे... मैं माँ के साथ बालू के कण चुनूँगी? नहीं...।’’
भगवान! मेरी नानी को वापस दे दो... मेरे भीतर एकाएक उदासी का बादल फैल गया। अकुला रहा मन... रूलाई फूटने को तैयार। मेरी नानी भी गाँधी नानी जैसी रही होंगी, उतना ही प्यार उड़ेलती मुझ पर... माँ कहती है, ‘‘गाँधी नानी से बहुत-बहुत सुंदर थी नानी, गुल गुथनी-सी गोरी मुलायम... उसकी आँखों से हर वक्त स्नेह झरता। तू होने को थी तो नानी ने तेरे कितने नाम सोच लिए थे। ...
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