हिटलर की प्रेमकथा - 3 Kusum Bhatt द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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हिटलर की प्रेमकथा - 3

हिटलर की प्रेमकथा

भाग - 3

गौरी, राधा, सीना परी और माँ का गला रूँध गया था... असूज (अश्विन) का महीना काल बनकर उतरा... खा गई अपनी नानी... हाँ... तू खा गई’’, मेरी माँ ने मुझे कोसा था।

मैं सिसकते हुए बोली, ‘‘नाना, मेरी नानी मर क्यांे गई?’’ नाना चुप्प! काठ मार गया हो जैसे।

मेरे कंठ से अनायास शब्द उमगने लगे ‘‘नाना, मेरी नानी वापस ला दो।’’

‘‘वही तो करने जा रहा हूँ, कमबख्त यहाँ आने को राजी नहीं होती’’ नाना तपाक से बोले। फिर घोड़े की ओर लपके, सीढ़ी के पीछे खड़े घोड़े की पीठ पर उछलकर बैठे, उन्हें गेट पर पानी लाती माँ दिखी, ‘‘सरसुती, हम थोड़े दिन बाद लौटेंगे, चीनू का ख्याल रखना। डंगरों को घास-पानी समय पर देती रहना।’’ उनके हाथ ने लगाम थामी, घोड़े ने राणा प्रताप के चेतक की तरह हवा में छलांग लगाई टक-टक-टक वक पहाड़ी चढ़ने लगा घोड़ा, जिधर का भी रूख करेगा, नाना पृथ्वी के उस टुकड़े के बादशाह होंगे...! मेरे दृष्टि पटल से यह दृश्य अडोल नहीं। हमारे भीतर अनेक दृश्य छायाओं की तरह काँप रहे हैं। सहसा मैं फूट-फूट कर रोने लगी थी। आखिरी सीढ़ी पर बैठी जिसके नीचे धरती धँसी हुई और ऊपर निचाट शून्य। माँ हड़बड़ा कर आई थी, ‘‘अरे, क्यों रोने लगी अचानक?’’

मैं आक्रामक मुद्रा में खड़ी हुई और नीचे की ओर दौड़ी...।

गाँधी नानी का घर ढलान पर होता एकदम नीचे... वह तुर्शी से ऊपर दौड़ाती मन का घोड़ा, ‘‘मुन्नी, अब तेरे नाना पौड़ी बाज़ार पहुँच गए होंगे। वहाँ बूचड़खाने से मोटा मुर्गा लेकर हलवाई की दुकान पर पंतबेड़े की मिठाई और उसके बाद चूड़ी बिंदी-सुरमा...।’’

गाँधी नानी एक मकड़जाल के भीतर धकेलती मुझे...।

यहाँ से वह घर दिखता जहाँ सन जैसे सफेद बालों वाली बुढ़िया लाठी टेकती अपनी जवान बेटी लेकर पौड़ी बाजार में साड़ियों की दुकान पर ठहरी होती। बेटी के वास्ते धोती और मखमल का जम्फर (कुर्ती) खरीदती, मोल-भाव करते उसका हाथ थैले के भीतर घुसता, कुछ सरसराहट होती और उसके चेहरे का रंग उड़ने लगता... ततैया आकर उँगली में डंक मारता...!! वह थैले को फर्श पर उलटाती-यहीं तो रखी थी...।

छुकानदार उसे हैरानी से देखता, ‘‘क्या रखी थी, माता जी?’’

‘‘पता नहीं बेटा, पुरानी धोती के टुकड़े में नोटों की गड्डी... कहाँ गिर गई...?’’

लाला धोती, जम्फर खींच कर बाकी कपड़ों में डाल लेता और बुरा-सा मुँह बनाकर कहता ‘‘आगे रास्ता नापो, माई...।’’

...ठीक उसी वक्त राजा सड़क पर रूकता, जवान औरत कोने पर बैठी आँसू पोंछ रही होती, बूढ़ी लाला से उलझी होती, हमारी दुनिया के खलनायक अचानक दूसरी दुनिया के महानायक में तब्दील होते, ‘‘ए लाला! क्यों बेचारी बूढ़ी औरत को परेशान करता है?’’ लाला की घिग्गी बंध जाती... बादशाह को कोई कैसे भूल सकता है, उसके बूटों की धमक, लाठी की चमक और उसके घोड़े की हिनक जिस राह से गुजरती, भूकंप आने को मचलता, पहाड़ों पर खिलते फूल मुर्झा जाते, झरने बर्फ में तब्दील हो जाते और इठलाती नदियों की गतिरूक जाती...!!

बूढ़ी औरत दयनीय लहजे में उधार माँगती, नाना तुर्शी से चमड़े की जैकट की गुप्त जेब में हाथ डालते, ‘‘कितने हुए लाला तेरे कलदार (रूपये)?’

‘बीस कलदार’ सिर्फ लाला का चेहरा हलके-हलके काँपता!

नाना उछालते नोट मानो भीख दे रहे हों। दोनों स्त्रियाँ नाना को राम का अवतार मानतीं और अपने घर आने का न्योता देतीं। नाना दोनों को घोड़े पर बिठाना चाहते, बूढ़ी कहती, ‘‘मैं पैदल आ जाऊँगी यहाँ से दूर भी कितना है, सिर्फ तीन कोस ही तो... नाना जवान स्त्री को आगे बिठाते... चेतक हवा में उड़ता... दिलरूबा के साथ जन्नत की सैर...! गाँधी नानी के काले मोटे होठों पर रहस्यमई मुस्कान बिछलने लगती...।

‘ये जन्नत क्या होती है, नानी’

जन्नत माने सोरग, जहाँ सोने के महलों में देवता रहते हैं, उनके साथ अपसराएँ नाचा करती हैं।

...तो दिलरूबा भी नाना के साथ नाचती होगी जन्नत में... पर नाना को तो नाचना आता ही नहीं। उन्हें तो लाठी भाँजना, बंदूक चलाना और लगाम कसना आता है बस्स... मेरी आँखांे में कल्पना साकार हो उठती... दृश्य बनते-बिगड़ते... चमड़े की जैकेट और पैंट-पाँवों में गमबूट, हाथ में बंदूक... घोड़े से उतरते हरे पन्नों के बीच आसमान को निहार रही चिड़िया की आँख, गोली दागते धाँय-धाँय। चिड़िया छटपटा कर गिरती लहुलुहान! नाना दिलरूबा का हाथ पकड़कर दिखाते चिड़िया की खून सनी नन्हीं देह... दोनों खुशी का इजहार करते नाचते, फिर टिचंरी के गिलास भरते...।

दरअसल गाँधी नानी की छोड़ी मकड़ी एक के बाद एक जाले बुनती और उलझती रहती अनायास मैं उसमें... जाले इतने महीन कि नजर भी न आते और टूट कर मुक्त भी न करते...।

जन्नत और दिलरूबा, दो नाम गाँधी नानी के होंठों पर अस्फुट उभरते...।

यकीनन इन दो बनैले शब्दों के उत्पादक गाँधी नानी नहीं, बल्कि रफीक मियाँ चूड़ीवाले थे। गाँव-गाँव घूमते रफीक मियाँ, ‘‘चूड़ी ले लो, चूड़ी ले लो... हरी, लाल, नीली, पीली, काँच की चूड़ियाँ ले लो...’’ आवाज लगाते नाना के गाँव में प्रवेश करते। गाँधी नानी बुझती लकड़ियों के नीचे गरम राख पर उपला खोपती झट चाय की केतली चूल्हे पर चढ़ाती। एक आग भीतर सुलगती, एक आग पत्थरों की दीवार पर भी चूड़ियाँ का फंचा रखते रफीक मियाँ के पेट में सुलगती ‘‘सलाम बड़ी अम्मा।’’ खैरियत तो है? रफीक, मियाँ, चूड़ियांे के फंचे की गाँठ खोलते, गाँधी नानी के भीतर भी एक सदियों से पुरानी गाँठ खुलने लगती, ‘‘रोजी-रोटी की खातिर अपना देश छोड़ पहाड़ पर आया है बेचारा। कौन-कौन से गाँव जाकर आया रफीक कुछ खाया-पिया भी... कि घूम रहा है भूखा...?’’ गाँधी नानी स्नेह की निर्झरणी जितना बाँटती, बढ़ता ही जाता, ‘‘रफीक तो इंसान का बच्चा है, मेरी छाती में तो चिड़िया, चुरगुन के वास्ते भी भरपूर है।’’

रफीक मियाँ इस दर पर चाय पीते, रोटी खाते गाँधी नानी को दुनिया जहाँ की खबरें सुनाते...! पेट की आग बुझती तो भीगे शब्द गाँधी नानी के हृदयतल पर पहुँचते ‘‘मेरी अम्मा भी आपके जैसी थी... इसी इसरार से खिलाती थी मुझे... विभाजन के दंगांे ने छीन ली मेरी अम्मी... मेरा परिवार...!!’’ रफीक की आँखें गीली हो उठतीं, गाँधी नानी की छाती मंे बगूला उठता, ‘‘आदमी क्यों आदमी के खून का प्यासा होता है। ताकतवर क्यों कमजोर पर जुल्म करता है। क्यों होता है ऐसा जब मनखी ही मनखी को मिटाने की सोचता है......!!’’

गाँधी नानी को किस्सा कोताह सुनने का रोग चरम सीमा तक था। एक के बाद एक किस्से रफीक मियाँ की जुबान पर होते। पौड़ी बाज़ार में थी मियाँ की दुकान। पंद्रह-बीस दिनों के अंतराल पर आ ही जाते। उस दिन शनिवार था। रफीक मियाँ की चूड़ियाँ लगभग बिक चुकी थीं। गाँधी नानी भी फुरसत में थी। रफीक मियाँ को उसने दोपहर का खाना भी दिया था। पीतल की थाली मांजकर रफीक मियाँ ने धूप में सुखाने रख दी थी। गाँधी नानी ने नीम के पेड़ की छाया में मिट्टी-गोबर से लिपी जमीन पर पुरानी चटाई बिछा दी थी। रफीक मियाँ किस्से सुना रहे थे। नानी बंेत की कुर्सी पर बैठी हाथ में सूप लिए सुन रही थी। साथ ही दाल से कंकड़ चुन रही थी। दुर्योग से गाँधी नाना का पौड़ी से लौटना हुआ। धूप में पीतल की थाली-गिलास देख उनका माथा ठनका। थोड़ा आगे जाने पर दोनांे को बतकही में तल्लीन देख उनकी छाती में आग सुलगने लगी। उन्हांेने झोला फेंका बरामदे में और अपने सीने में जलती आग में नानी को झोकने आगे बढ़े... सूप उछलकर गिरा, दाल आसमान छूने को मचली। रफीक मियाँ सलाम-सलाम करते हुए उठे और परिदृश्य से गायब...।

गाँधी नाना ने गाँधी टोपी उतारी, दीवार में रखी चूड़ियों को पत्थर पर दे मारा, ‘‘ले अब पहन राँड चूड़ियाँ... बैठ जा मुसल्ले के घर में... कभी भगा ले गया राँड को... बिठा दिया हरम में... बना दिया चैथी बेगम... रो-रोकर कोसती रहेगी नसीब अपना...।’’ गाँधी नाना लाल-भभूका चेहरा लिए नानी की कलाई पकड़ने आगे बढ़े... पर गाँधी नानी हाथ झटककर अलग हुई, ‘‘गाँधी बाबा के चेले कुछ तो शर्म करो... भूखे को दो दाना अन्न दे दिया तो अकाल पड़ गया तुम्हारे घर में... गाँधी बाबा ने यही सिखाया था तुम्हें...?’’

गाँधी नाना गुर्रा उठे, ‘‘खबरदार! जो अपनी गंदी जुबान से बापू का नाम लिया!!’’ गाँधी नाना ने नानी की मरगिल्ली चुहिया-सी चोटी पकड़ी, तड़ाक-तड़ाक थप्पड़ लगे मारने...!! गाँधी नानी पर सवार हो गई काली। जाने कहाँ से ताकत आई इतनी कि छह फुटे हट्टे-कट्टे आदमी को धक्का देकर फुंकार उठी, ‘‘हाँ, हाँ, मार दो मुझे, मार दो जान से... अपने भाई की तरह... जैसे उस पापी ने डंडे से मारकर अधमरा किया था मेरी सुलोचना दीदी को... बेचारी ज़िंदगी और मौत से लड़ते हुए आखिर दुनिया से चली ही गई!!’’ ‘‘तुम भी... तुम करना ऐसे ही... जैसे तुम्हारे भाई ने किया... तुम भी बिठा देना कोई दिलरूबा मारकर मुझे...!!’’ ‘‘थू... यू है तुम्हारी मर्दानगी पर...’’ नानी ने गाँधी नाना के खद्दर के कुरते पर थूक दिया था।

... और मैं एकाएक बदलते आँखें फाड़े उस दृश्य को देखती रही। लहुलूहान ज़िंदगी की भीख माँग रही थी नानी और नानी की मरियल बीमार देह को बूटों से कुचलते बादशाह......! राजा की पीठ पर बैठे दिलरूबा को जन्नत की सैर करा रहे थे।

मैंने भी गाँधी नानी के अंदाज में शून्य में थूक दिया था और इतने वर्षों बाद भी समझ न पाई कि मैंने किस पर थूका था।

हिटलर के चोले पर...।

समय के मुँह पर...।

या अपनी बेबसी पर...?

- कुसुम भट्ट

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