हिटलर की प्रेमकथा - 1 Kusum Bhatt द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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हिटलर की प्रेमकथा - 1

हिटलर की प्रेमकथा

भाग - 1

कुसुम भट्ट

बचपन के दिन थे- चिंता से मुक्त और कौतूहल से भरे पाँवों के नीचे आसमान बिछ जाता। पंख उग आए..., पंखों को फैलाए हम नाना के आसमान में जाने को बेताब..., हम यानि मैं, माँ और छोटी, वैसे हम तीन जोड़ी पंखों को लेकर ही अपने जहाँ से उड़ते लेकिन माँ के पंख छोटे होकर सिकुड़ने लगते। आसमान धरती पर गिरता और पलक झपकते ही बिला जाता, धरती पर पथरीली चट्टानें उग आती। माँ कठपुतली में तब्दील हो जाती। तब्दीली हममें भी आई पर वह मनुष्य से पंछी की तब्दीली हुई... कभी नीले आसमान के छोर पकड़ बादलों में घर बनाने की जिद तो कभी बाँस-बुराँश के घने जंगल में पेड़ों की टहनियों पर फुदक-फुदक किलकारी मारने की जिद... गोया शराबी का नशा-सा हमें चढ़ आया, बचपन की सरल पारदर्शी ज़िंदगी का नशा...। ज़िंदगी के इस नशे से जो भी मुझे दूर करने की कोशिश करता, मैं अपने मन की डायरी मंे उसका पृष्ठ फाड़ने की पुरजोर कोशिश करती और अगले पृष्ठ पर दुनिया की सबसे अच्छी चीजें, जैसे मोर का पंख, फूलों की पंखुड़ियाँ, रंग-बिरंगे कागज़ की किश्तियाँ, धूप की नन्हीं तितलियाँ, वर्षा की पहली फुहार, चैत के महिने में फलांे पर मँडराती तितली और भौंरे, और भोर का बाल सूरज और पूर्णिमा का चाँद, चोरी से आकर दाना टिपती गौरया और पके आमों पर चोंच मारते हरे तोते... ऐसा ही बहुत जिससे भरा रहता पृष्ठ...। पर वह पेज फटता ही नहीं, आधा-अधूरा लगा रहता, अपनी समूची उलझन को लिए... मुझे वह चेहरा आतंकित करता... वीभत्स चेहरा, जो चूस जाना चाहता हो... मासूम बचपन का रस... ननिहाल हमारे गाँव से इतना दूर कि सोती चिड़ियांे की जागबेला में जब वे पत्तों के बिछौनों पर पलक झपकती नन्हीं आँखांे से आकाश का बड़ा सपना लिए, हवा में छलाँग लगाने की कवायद में चूँ-चूँ-चीं-चीं का रस कानों में घोलता माँ का स्वर उनके स्वर में समरस होता, ‘मुन्नी! नाना के गाँव जाना है ना...?’ तो बहुत संुदर रंग आँखों के आगे झिलमिलाते और हवा के मानिंद हमारी यात्रा की शुरूआत होती तो गोधूलि की बेला पर ही समाप्त होती। पहाड़ी रास्ते की दुर्गम पगडंडियाँ, नन्हें पाँवांे में पत्थरांे की खरोंच। रास्ते भर चमड़ी ही छिलती, मन तो किलकारियाँ भरता...!! नाना का घर ऊँचे पहाड़ की ढलान पर था एकदम अकेला भूत बंगले जैसा! रात में बाघ डुकरने की आवाज से थरथरा जाता तन... मन...! भय के लिहाफ के भीतर बमुश्किल ब्रह्मबेला में नींद आती तो धूप चढ़ने पर भी आँख न खुलती फिर... एक और बाघ की गर्जना थरथरा देती प्राण, ‘अब्बी तक सो रही राजकुमारी! ससुराल में पंखा झलेगी सासू!’

माँ के हांेठ कुछ कहने को होते... पर जीभ तालू से चिपक जाती... बाघ के मुंह में हाथ डालें...? हाथ साबुत रहेगा भला? मैं अकबक बिछौना छोड़ कलेवा बनाती माँ के पास आ बैठती। टुकुर-टुकुर ताकती माँ की पानी भरी आँखों को-जिस घोंसले में हर पल बाज से पंख नुचवाने का भय बना रहे, वहाँ कब तक ठहरेंगे, माँ?’

माँ गूंगी सिर झुकाकर रोटी पाथती रहती- गोया पाथ रही हो उपला!

... पर कुछ था ननिहाल में - अपने गाँव से एकदम अलग, इतना अलग... कि प्रकृति की नीयत पर शंका होने लगती - ऐसे खूबसूरत पहाड़ों पर पूस माघ में जब बर्फ पड़ती तो लगता, धरती ने गले में चाँदी का चमकता हार पहन लिया, फिर उस पर धूप की अंकवार! और पहाड़ी की ओट मंे डूबते सूरज को रंग बदलते सुर्ख बादलांे का लाल सलाम! कैसा दिव्य दृश्य!

यहाँ हर पल कुछ नया होने को होता। इसमंे भय विस्मय, जिज्ञासा और अलसुबह कीचड़ में खिलते कमल पत्ते पर तिरती बूंद-सी खुशी... गर्भ नाल-सी जुड़ी रहती...।

हमारा गाँव पहाड़ की तलहटी पर था। जहाँ से सीधी खड़ी चढ़ाई चढ़कर कई पहाड़ों को फलांगते हम घुड़दौड़ी के सीधे रास्ते पर डाँडापनी की सड़क के लिए तनिक थकान उतार कर चलते, डाँडा पानी की पौड़ी जाने वाली सड़क पर तारकोल बिछा रहे मजदूर हमें देख विस्मय से भर जाते! गरम-गरम तारकोल बिछ रही रड़क के किनारे मैं और छोटी दौड़ने की प्रतियोगिता रखते, खिलखिल हँसती छोटी की कछुआ दौड़... खिल-खिल हँसती मेरी खरगोश दौड़... हमें दौड़ते देख तारकोल पुते धूल से सने चुंधी आँखों वाले नेपाली मजदूरांे के हाथ रूक जाते... हमारी नई रंग-बिरंगी फूलदार फ्राकें उस पहाड़ी के नीचे धूप उड़ाती सड़क पर इंद्रधनुष बिछला रही होती। रंग अपने पूरे शबाब में झमक रहे होते, मजदूरों की बाँहें रंगों को पकड़ते त्वरित गति से क्रियाशील होने को होती तो पीछे हाँप-हाँप कर दौड़ती माँ आवाज देती, ‘ठहरो मुन्नी! छोटी ठहर जाओ... मत दौड़ो इतनी तेज... ठोकर लग जाएगी -- अरे - देखो - जीप आ रही है... सुनो घर्रर- घर्रर- की आवाज... मैं पीछे मुड़कर देखती, एक हाथ में प्लास्टिक की कंडी (टोकरी) पकड़े दूसरे हाथ को हवा में लहराती हवा की मांनिद दौड़ी चली आई माँ और छोटी का हाथ पकड़ लिया। ‘खरगोश-सी छोटी खरगोश को छू सके तो मानू...’ मैं और तेज दौड़ती... अभी रूक गई तो शायद रूक जाएगी ज़िंदगी...।

खिलखिलाती ज़िदगी कभी रूक सकी है भला? माँ गिरने का डर दिखाती... डर को मैँ और डराती... जब तक मेरी फूल-सी देह पत्थर की ठोकर से सचमुच औंधी न पड़ जाती? गिर-गिर कर भी मैं खूब हँसती और दुगने उल्लास से उठकर भागती... छोटी हँसती, माँ भी हँसती, हमारी हँसी के टुकड़े पहाड़ी पर बिछलते... मजदूर हँसते, उसकी धूल भरी आँखों में आग की लपट जलती... वे उस लपट में कैद करना चाहते दो नन्हीं और एक युवा देह... माँ के पाँवों में पायल की झनकार शायद उनके अवचेतन पर रस की फुहार बरसाने लगती। तभी तो ठेकेदार ने आकर माँ का रास्ता रोक कर जाने क्या पूछना चाहा था, मैंने मुड़कर देखा, माँ का हाथ हवा में लहराया और मैं मुड़ी... माँ ने हाथ का इशारा किया ‘‘और तेज...’’ अब हम तीनों दौड़ रहे थे अपने-अपने भय के पहाड़ का बोझ सिर पर लिए... आषाढ़ की धुर दोपहर में... टोकरी के ऊपर चाय की उस छोटी दुकान पर जाकर हम तीनों ने बमुश्किल उखड़ती साँसों पर काबू पाया। फिर चाय और जलेबियों का मजा लेेते माँ हमारे चेहरों की धूल झाड़ती, हम डाँडा पानी की दुकान से नीचे पहाड़ी उतरते, चलते-चलते माँ बरजती ‘‘लड़कियों को इस कदर न हँसना चाहिए कि राहगीरों को चुभने लगे हँसी... और वे अंधेरे में गायब कर दें लड़कियाँ...।’’ माँ डराती राहगीरांे से... माँ डराती नाना से। तुम्हारे नाना ने तुम्हारी हँसी देख ली तो जानती हो क्या होगा...? लेकिन उस क्या होगा का उस समय पता नहीं चला। सामने पहाड़ी, मस्त गिरता झरना, उसकी खिलखिलाहट! माँ के रोपे डर के पौधे को हम निर्ममता से उखाड़ कर झरने के पास दौड़ते। प्यास बुझाकर हम बौछारों से खेलने लगे। नीचे देखकर मन और किलक उठा। एक छोटी नदी अपनी चपलता में झिलमिलाती लहरों के साथ चुपचाप बहे जा रही थी। हम चप्पल हाथ में लिए नदी के किनारे नन्हीं मछलियों को पानी की गोद में खेलते देख आगे बढ़ते।

दुबली नदी के हरे पानी में धूप की किरणों का जाल बिछलता, हमारे भीतर खुशी का झरना फूटने लगता और कोई शैतान बादल लाकर सूरज आँख-मिचैली खेलने को लपकता... हमारे रास्ते में अंधेरा डगमगाने लगता, हम गिरने को होते, उससे पहले माँ की हिदायत मिलती। रास्ते में नदी के ऊपर एक गाँव के बीच हम जा रहे होते। औरत घास-पानी लेकर आ रही होतीं। पहचान का रंग उनके चेहरों पर घुल कर चमकता। माँ उनके पाँव छूती, वे हमारा मुँह चूमतीं, ‘‘कितनी प्यारी बच्ची है तेरी सरसुती! कब बड़ी हुई! गोद मंे लेकर आई थी इसे तू...।’ वे इशारा करतीं मेरी ओर। मेरे जेहन में धुंधली-सी तस्वीर थी, एक बूढ़ी औरत का पानीदार चेहरा गोरा झुर्रियांे भरा, उस पर दो सजल आँखें जो हर वक्त अपने पास आने को उकसाती...।

माँ ने लकड़ी का गेट खोला। मुझे नीचे से पहले घोड़ा दिखा। नानी दीवार की ओट में थे, वे घोड़े को दाना खिला रहे थे। हमने एक स्वर में कहा ‘‘नानाजी, प्रणाम!’’ नाना ने घूर कर देखा...! उनके हाथ में घोड़े की लगाम आ गई! वे शायद बाहर जाने की तैयारी में थे। उन्हांेने हमारे जुड़े नन्हें-नन्हें हाथों की उपेक्षा की और माँ से मुखतिब हुए, ‘‘सरसुती, यह भी अच्छा हुआ कि तू आ गई! घर में चावल का एक दाना भी नहीं, तू जल्दी कर, कुठार से धान निकाल ला... ओखल मैंने सुबह लीप दी थी।’’

माँ सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। छोटी माँ के पीछे घोड़े के किनारे से निकलने को हुई। घोड़ा हिनहिनाया, नाना की गर्जना सुनकर छोटी थर-थर काँपने लगी। उसके मुँह से आवाज बंद हो गई।

‘‘माँ की पूंछ खड़ी रह यहीं...’’, नाना की आवाज। पत्थर मेरे हृदय तल पर पड़ा, स्नेह छलकती वह प्रतिमा खंडित होकर टुकड़े-टुकड़े हो गई माँ ने देहरी में खड़े होकर इशारा न किया होता तो जमीन पर मेरे पाँव भी जम गए होते। छोटी का हाथ पकड़कर मैं सीढ़ियाँ चढ़ी। नाना घोड़े को पुचकारते रहे, उसकी पीठ पर हाथ फेरते रहे... मंने ऊपर से नाना को देखा, ‘‘साँवले रंग का लम्बा-चैड़ा अधेड़ पठान पत्थर का चेहरा लिए। हमारे प्यासे मन उससे पानी पीने की उम्मीद में थे। रास्ते भर का उल्लास पल भर में ही तिरोहित हो गया।’’

***