वर्दी वाली बीवी
अर्पण कुमार
(1)
तेलंगाना एक्सप्रेस लेट हो गई है। पौने दस बजे की जगह अब पौने बारह में चलेगी। मैं वेटिंग रूम में बैठा हुआ था। सहसा, एक चिर-परिचित चेहरे पर मेरी नज़र गई। क्षणांश में मैं जान पाया कि ये त्रिलोकी साहू थे। उनके पास पहुँचते हुए मैंने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखा। वे पीछे पलटे और अचानक मुझे अपने सामने पा कुछ भाव-विह्वल हो आए। उनके चेहरे पर कई तरह के भाव आए और हर भाव अपने साथ किसी न किसी विशिष्ट रंग को समेटे हुए था। अगर किसी के चेहरे के आकाश पर आपको कभी कोई इंद्रधनुष खिलाना है, तो उससे सहसा मिलिए, आपको ऐसा ही अनुभव होगा। इस समय त्रिलोकी के चेहरे पर मुझे उसी इंद्रधनुष के दर्शन हुए। उसमें ख़ुशी, आश्चर्य, करुणा आदि के कई रंग थे। वे कुछ बोलते, इससे पहले मैंने ही उनसे पूछ लिया, "अरे त्रिलोकी साहब, इधर कहाँ?"
मुझे देखकर उन्हें वे अंदर से भर उठे। भर्राए गले से बोले, "क्या बात है प्रोफेसर। इतने वर्षों बाद आपसे इस तरह यहाँ नागपुर के वेटिंग रूम में मुलाकात होनी थी। आप कहाँ जा रहे हैं?"
अच्छा लगा कि हम दोनों हैदराबाद तक जा रहे थे। कुछ देर तक औपचारिक बातें होती रहीं। माहौल को हल्का करने के उद्देश्य से मैंने उनसे मसखरी की, “संतरा नगरी से साइबर सिटी की इस यात्रा में आपका स्वागत है, मिस्टर त्रिलोकी साहू।”
अपनी थकी-खाली आँखों से हँसते हुए उन्होंने मेरे दाएँ कंधे पर अपनी बायीं हथेली रखते और अपने सूखे होंठों से हँसते हुए बोले, “ तुम ज़रा भी नहीं बदले प्रोफेसर।”
तभी मेरे घर से मेरी पत्नी का फोन आया और मैं उससे बातचीत में व्यस्त हो गया। घर-गृहस्थी की बात...होते-होते कुछ लंबी हो गई। बीच-बीच में स्वभावतः अन्य यात्रियों के संग-संग या कहिए त्रिलोकी साहू पर मेरी दृष्टि विशेष रूप से पड़ती रही। मैंने पाया कि त्रिलोकी पहले की तुलना में काफी अशक्त हो गए हैं। उनकी बूढ़ी आँखें रह-रहकर वेटिंग रूम के इलेक्ट्रॉनिक सूचना पटल पर टिक जाती थीं। सूचना इतनी तेजी से बाईं ओर चली जाती कि कई बार उसी सूचना को पुष्ट करने के लिए उन्हें दो या तीन बार उसे देखना पड़ता। वैसे भी उनका स्वभाव इस उम्र में एक बार देखे या सुने को कहाँ सच मानता है! जब ट्रेन के आने में आधे घंटे का समय शेष रह गया था, त्रिलोकी वेटिंग रूम से बाहर निकल प्लेटफार्म नंबर चार पर आ गए। गाड़ी इस बार उद्घोषणा के अनुरूप आ गई थी। त्रिलोकी बी-3 के सामने ही खड़े थे। कुछ लोग उतरे और फ़िर अपना ब्रीफकेस लिए त्रिलोकी भी सीट नंबर 14 पर आ जमे। संयोग से मेरी सीट उनके सामने थी। सत्रह नंबर। मध्य भारत से दक्षिण भारत की इस यात्रा के दौरान मुझे अपने पूर्व पड़ोसी के साथ कुछ समय गुजारने का मौक़ा मिलेगा, यह सोचकर मैं कुछ रोमांचित हो गया। मैंने उनकी ओर कुछ अधिक ध्यान से देखा| अपनी आँखों पर से चश्मा हटा त्रिलोकी ट्रेन के बाहर देखने लगे। मुझे बोध हुआ, अभी भी उन्हें दूर की चीजें एकदम साफ दिखती थीं। मगर उनके चेहरे पर दिखती अनथक उदासी से मेरा उत्साह कुछ टूटता दिखा। ख़ैर... अपनी अनिश्चिंताओं को एक झटका देता हुआ मैं भी बाहर देखने लगा।
कभी मैं बिलासपुर के एक कॉलेज़ में पढ़ाता था और कोई चारेक साल मैं उनके पड़ोस में रहा था। तब हमलोग सुबह शाम की सैर इकट्ठा किया करते थे। रही-सही कसर रविवार को पूरी करते। उस दिन हमलोग देर तक और बेहिसाब गप्पें किया करते थे। वे चार साल ऐसे उड़न छू हो गए जैसे सुबह शर्ट पर लगाए गए किसी साधारण परफ्यूम का शाम तक कोई नामो-निशान ही नहीं रहता है। उनके जीवन के दो दुःखद अध्याय मेरे सामने ही घटित हुए थे। बाद में मैं नागपुर आ गया था।
……….
ट्रेन नागपुर को छोड़ते हुए आगे भागी जा रही । इसके आउटस्कर्ट पर अपार्टमेंट और उसके खत्म होने के बाद हरियाली ही हरियाली। पटरी से लगे, उसके थोड़ा नीचे कभी जोहड़ रही जगह में भी हरीतिमा का कब्ज़ा है। कुछ देर में उभरे स्थल आते हैं तो कभी समतल मैदान। कुछ देर में बुटी बोरी स्टेशन आया। ट्रेन धड़धड़ाती हुई आगे बढ़ गई। इसके आगे एक नदी आई। त्रिलोकी की उत्सुक आँखों को उसका नाम नहीं दिख पाया। उन्हें याद हो आया वे कैसे राजेश्वरी को अपने जीवन की तरलता कहा करते थे। किसी ने नहीं देखा मगर लोहे के पुल को थरथराती या कहें उसके एकांत को तोड़ती ट्रेन जब आगे दौड़ती जा रही थी, दो बूंदें त्रिलोकी की आँखों से निकल उनकी गोद में आ गिरे। अपनी पत्नी को इतनी शिद्दत से प्यार करने वाले त्रिलोकी आज तक कहीं और कभी भी उसके बगैर बाहर नहीं निकले थे। यह पहला मौका था जब वे अकेले अपने छोटे बेटे के पास जा रहे थे। मगर वे अकेले कहाँ थे! शायद त्रिलोकी को भी एहसास न था कि वे बराबर अपनी दिवंगता अर्धांगिनी को याद किए जा रहे थे या यह कि परलोक जाने के बाद भी पुलिसिया पत्नी की निगाहें अब भी उन पर इस बुढ़ापे में बराबर टिकी हुई थीं। ट्रेन के इस सफ़र में एक वृद्ध का ऐसा पत्नी-प्रेम देख मैं स्वयं कहीं भीतर से भारी होता चला जा रहा था। चकवा-चकवी का जोड़ा कब का बिछड़ चुका था! किसी के गुजर जाने के बाद भी उसे इतनी शिद्दत से चाहना...मुझे त्रिलोकी साहू का यह चरित्र जहाँ प्रेरणादायक लग रहा था, वहीं उनके भीतर के अकेलेपन को महसूस उनसे समानुभूति भी हो रही थी। ट्रेन दौड़ती चली जा रही थी। मंथर-मंथर हमारी बातचीत भी जारी थी। त्रिलोकी कभी खिड़की से बाहर देखते, कभी मेरी ओर तो कभी शून्य में ताकने लगते। मुझे साफ-साफ दिख रहा था कि वे किसी अभौतिक उपस्थिति के साथ भी जिए जा रहे हैं। उनकी हर दुनियावी दिनचर्या में वह पूर्ववत् शामिल थी। कुछ ऐसे कि वह कहीं गई ही नहीं हो।
मैं ट्रेन की खिड़की से बाहर देख रहा था। पटरियों से लगे नदी जैसे दिखते पोखर दूर तक चले जा रहे थे। पोखर के आगे दृष्टि-सीमा तक खेत का फैलाव था। खेत में खड़ी फसल को देख कहीं मेरे भीतर आश्वस्ति का एक भाव भी जग रहा था। दो मजबूत बैल हल सहित खेत की मेड़ को पार कर रहे थे। वे दो जवान और मोटे-तगड़े बैल, संभाले नहीं संभल रहे थे उस बुज़ुर्ग किसान से। वहीं पर बगल में एक गाय घास चर रही थी और उसके गले में पीतल की घंटी बंधी हुई थी। उस समय, ट्रेन ‘सिंदी’ से गुजर रही थी। दोपहर के साढ़े बारह बज रहे थे। किसी ने त्रिलोकी के कानों के बिल्कुल पास आकर कहा, "आओ चाय पीते हैं।"
त्रिलोकी चौंके। अरे यह तो राजेश्वरी की आवाज़ है। फिर इधर-उधर देखते हुए उन्होंने स्वयं को समेटने की कोशिश की। ख़यालों की अपनी दुनिया से वे किसी तरह बाहर आए। चायवाला चाय चाय की आवाज़ लगाता आगे बढ़ चुका था। त्रिलोकी ने उसे आवाज़ दी और एक कप चाय माँगा। मुझसे पूछे। मैंने मना कर दिया। अपनी जेब से बीस का नोट चायवाले को दिया। दस का नोट वह वापस करने लगा कि त्रिलोकी ने इशारे से ही उसे अपने पास रखने को कहा। त्रिलोकी अपनी पत्नी की याद में मगन थे और चाय की 'सीप' लेने लगे। एक कप चाय लेकर उन्होंने दो कप चाय के पैसे दिए। वे दो कप ही लेना चाहते थे, मगर दो ले नहीं सकते थे। सो, कम से कम दो कप चाय के पैसे देकर वे अपने मन को कुछ तो तसल्ली दे सकते थे। मुझे उनका यह पत्नी-प्रेम बड़ा अच्छा लग रहा था। उन्हें यूँ अशक्त देख तो कभी स्मृतियों में जाकर ऊर्जावान होकर लौटता देख मैं स्वयं एक मनुष्य की जीवटता से प्रभावित हो रहा था। मुझे लगा, जब तक हमारे पास ऐसा एक भी त्रिलोकी हो, हमारी आस्था 'विवाह' संस्था में बनी हुई होनी चाहिए।
हरे रंग से पटे खेत मे बैल ओर उन्हें हाँकते किसान दोनों सफ़ेदी में एक दूसरे से प्रतियोगिता कर रहे हैं। ‘तुलजापुर तुळ’ पार हो रहा था। त्रिलोकी ने अपनी कलाई घड़ी की ओर देखी। घड़ी 12 बजकर सैंतीस मिनट बजा रही थी। वे कुछ देर के लिए कहीं खो गए। वे शुरू से ही समय के पाबंद रहे हैं। शादी में मिली घड़ी पुरानी हो गई थी और राजेश्वरी जानती थी कि समय बताते हुए वे एक एक मिनट और कई बार आधे मिनट तक का भी ज़िक्र करते हैं। सो त्रिलोकी के पचपनवे जन्मदिन पर राजेश्वरी ने यह डिजिटल घड़ी उन्हें भेंट करती हुई उनके कानों में धीरे से कहा था, "लो, अब एक एक सेकंड का हिसाब कर लिया करो। हम दोनों के मिलन का भी।" और चुस्त पुलिसिया अंदाज़ में अपने यौवन में लौटती उसने उनकी कनपटी को चूम लिया। फिर काफ़ी देर तक मियाँ-बीवी दुनिया भुलाए एक-दूसरे से सुख-दुःख साझा करते रहे। इस ट्रेन में अपनी पत्नी की कमी उन्हें कसमसाती रही। घड़ी को देर तक देखते रहे और उनकी आँखें नम हो आईं। मैंने उन्हें कुरेदा, "क्या बात है त्रिलोकी साहब? किसी की याद आ रही है क्या?"
वे मुझसे छिपाने का प्रयास करते रहे। प्रकटतः बोले, " किसी चीज़ को देर तक देखो ना, तो आँसू आ ही जाते हैं। मेरे एक दोस्त ने ऐसा करने को कहा है। इससे आँखों का अच्छा व्यायाम होता है।"
मैं क्या बोलता। सहमति में अपना सिर हिला दिया।
कुछ देर बाद त्रिलोकी स्वयं बोले, "प्रोफेसर साहब, यह देखिए ‘सेलू रोड’ स्टॆशन पार हो रहा है। ठीक 12 बजकर बयालीस मिनट पर।"
"जी", मैं इस बार संक्षिप्त ही रहा।
मैं अपने एक दूसरे सहयात्री पवन कुमार से बात कर रहा था। वह टिपिकल अंदाज़ में हरियाणवी बोल रहा था और महेंद्रगढ़ का रहनेवाला था। वह बता रहा था, "हमारी तरफ़ कपास के पौधे काफ़ी बड़े हो गए। इधर देर से लगाया मालूम होता है।"
मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि में पवन की ओर देखा। वह समझ गया। मेरे बिना आगे पूछे बताने लगा, "राजस्थान से लगे हरियाणा में कपास उपजाते हैं।"
पवन पच्चीस का है। नेवी में। 18 पार करते ही नौकरी में आ गया है। शादी अभी की है। झुंझनू में। उससे बातें भी हो रही थीं और मैं बाहर के दृश्यों में स्वयं को रमाए हुए भी था। ट्रेन की यात्रा के यही तो फ़ायदे हैं। शस्य-श्यामला को देखते हुए मन भी रमा रहता है और दूसरी तरफ़ अलग अलग जगहों और पृष्ठभूमि के लोगों से मिलने और उन्हें जानने का मौक़ा भी मिलता है।
अपनी डायरी में आदतन मैं नोट करता जा रहा था...कपास से भरे खेत। भूरे रंग के ख़ूब चौड़े नथने वाले दो बैल सुस्ताते नज़र आए। मुझे स्कूल के समय पढ़ी प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ याद हो आई। मुझे उनके बीच का प्रेम और भाईचारा याद हो आया। कथा-सम्राट ने उनके बीच के प्यार को कितनी ख़ूबसूरती से व्यक्त किया था। दोनों एक दूसरे को चाटते-सूँघते हैं। कभी-कभी एक दूसरे से सींग भी मिला लिया करते हैं। गाड़ी में जोते जाने पर ज़्यादा से ज़्यादा बोझ अपनी गरदन पर रखना चाहते हैं। नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों का साथ उठना, साथ नाँद में मुँह डालना और साथ ही बैठना, इन्हें यूँ बैठा देख मुझ उस कहानी का एक-एक दृश्य याद हो आया। एक छोटी नदी हमने और पार की। साफ सुथरा और सांवला पानी। किसी नदी को प्रदूषण से मुक्त देखना सचमुच आज कितना अच्छा दिखता है!
मैं कुछ कुछ लिखे जा रहा था। मुझे व्यस्त देख त्रिलोकी ने मानों ख़ुद से ही कहा, "सेवाग्राम 12 पचास पर। ट्रेन यहाँ भी नहीं रुकी।"
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