वर्दी वाली बीवी
अर्पण कुमार
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‘सेवाग्राम’ नाम सुनते ही मैं लिखना छोड़ बाहर देखने लगा। इस जगह से देश का इतिहास और मेरे बचपन की यादें दोनों जुड़ी हुई हैं। जब जब इस जगह से गुजरना होता है, मन अपने राष्ट्रपिता को याद करके भावुक हो जाता है। मैं त्रिलोकी से कहने लगा, “ देखिए, बातों ही बातों में हमलोग लगभग 80 किलोमीटर की यात्रा कर चुके। आपको बताऊँ त्रिलोकी साहब, मेरे दादाजी ने इस सेवाग्राम आश्रम में बापू के साथ कुछ दिन गुजारे थे। साबरमती के बाद महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित यह दूसरा महत्वपूर्ण आश्रम है । मेरे दादाजी इस आश्रम को लेकर अपनी यादों के धरोहर अपने जीवन के अंत अंत तक हम सभी से सोत्साह बाँटते रहे। वे कहा करते थे कि ये आश्रम किस तरह गाँधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमो एवं राजनीतिक आंदोलनों के संचालन का केंद्र हुआ करते थे। 12 मार्च, 1930 से 6 अप्रैल,1930 तक बापू ने 'नमक सत्याग्रह' करते हुए साबरमती से दांडी-मार्च किया था। प्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका ने इसे दुनिया के 10 सबसे बड़े आंदोलनों में शामिल किया। इस पत्रिका ने माना कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को इससे काफ़ी मजबूती मिली। इस नमक सत्याग्रह में लगभग साठ हजार लोगों की गिरफ़्तारी हुई। फिरंगियों ने बापू को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। जेल से वापस लौटने पर बापू ने इस सेवाग्राम आश्रम को स्थापित किया। इस आश्रम के लिये जमुनालाल बजाज ने उन्हें ज़मीन उपलब्ध कराई। मैं अपने बचपन में कई बार दादाजी के साथ यहाँ आ चुका हूँ। बापू ने बुनियादी शिक्षा को लेकर भी कुछ महत्वपूर्ण प्रयोग यहाँ किए। एक बात और बताऊँ, यह आश्रम 1942 के भारत छोडो आंदोलन और उसके बाद के कुछ रचनात्मक कार्यों, खादी, ग्रामोद्योग आदि के साथ-साथ कई दूसरे सामाजिक सुधारपरक कार्यों, अस्पृश्यता–उन्मूलन, अंग्रेज़ी गुलामी से मुक्ति का एक प्रमुख अहिंसात्मक केंद्र बना रहा।”
मेरे इस संक्षिप्त वक्तव्य से त्रिलोकी इतने प्रभावित हुए कि न सिर्फ़ आँखें फाड़-फाड़ कर मुझे सुनते रहे बल्कि कहने लगे, “यार प्रोफेसर, आपको इतिहास की कितनी जानकारी है! एक मैं हूँ कि सारा जीवन धंधे-पानी में ही खपा दिया। चलो, ऐसा करते हैं, ज़ल्दी ही हम दोनों इस आश्रम में चलेंगे। आपकी यादें ताज़ा हो जाएँगी और मैं भी अपनी ठहरी ज़िंदगी से जितना ही सही वापस निकल सकूँगा।”
मैं मुस्कुराता हुआ बोला, “ ठीक है। मुझे तो वहाँ जाना हरदम अच्छा लगता है।”
इस बीच कुछ देर के लिए मेरी आँख लग गई। नींद टूटी तो मैंने देखा, त्रिलोकी मेरी ओर मुस्कुराते हुए बोल रहे थे, "उठिए, एक चौवन हो रहे हैं। आप सोते हुए कुछ बड़बड़ा रहे थे।"
मैं मुस्कुराकर रह गया। कुछ झेंप भी गया। बाहर देखने लगा। अमूनन अपनी ही उदासी में काले दिखनेवाले बबूल भी इस मौसम में हरे दिख रहे हैं। उनपर फूल खिले हुए हैं। कुछ देर में किसी स्टेशन के आने का भान हुआ। यह भाँदक था। तभी मेरे बगल से आवाज़ आई, "दो बजकर एक मिनट पर भाँदक आया।" यह त्रिलोकी थे। उनकी आवाज़ सुनने के लिए अब उनकी ओर देखना ज़रूरी नहीं था।
मेरे एक फोन का डिस्पले खराब हो गया था। मैं उसकी मेमो में लिखने की जगह अपनी डायरी में लिख रहा था। पवन ने पूछा, "सीधे मोबाइल में क्यों नहीं लिखते!"
पवन ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया था। मैंने अपने बैग से अपना मोबाइल निकाला और उससे कहने लगा, " ये देखो। इसका डिस्पले और टच दोनों खराब है। सर्विस सेंटर वाले इसे 'कॉंबो' बोलते हैं। छह हजार देकर बदलवाया । मगर अगले दिन फिर ख़राब।"
पवन बताने लगा। मुझे कुछ तसल्ली देते हुए, "मल्टी मीडिया सेट नहीं बनवाना चाहिए। खुल जाने पर वे ठीक नहीं चलते। कोई न कोई परेशानी देते ही रहते हैं।"
वह गंभीर बना रहा। आगे बोला, "क्या करेंग़े सर, अब मोबाइल और नेट के बगैर रहा भी नहीं जाता न!"
मैं चुपचाप उसे सुनता रहा। वह मेरे ही कष्ट और उलझन को वाणी दे रहा था। इस बार मैंने पहल की, "यह ‘विवेकानंद नगर’ स्टॆशन आया है। दो बजकर 20 मिनट। अभी हम महाराष्ट्र में ही हैं।"
मैंने चुटकी ली, " ये लीजिए त्रिलोकी साहब, मुझे भी आपकी आदत लग गई।"
त्रिलोकी चुप हो गए। ऐसे बोले मानो खुद को ही कह रहे हों, "ईश्वर करे, ऐसी आदत किसी को न लगे। न किसी के समक्ष ऐसी भीषण स्थिति आए।"
वे वातानुकूलित खिड़की के बाहर किसी शून्य में तकने लगे। मैंने जान-बूझकर उन्हें उनके एकांत के साथ रहने दिया। उनके जीवन की ट्रेजेडी से मैं अनभिज्ञ नहीं था। त्रिलोकी बिलासपुर में तिफरा में रहते हैं। दो बेटे थे, जिसमें एक ने अपने कमजोर क्षणों में आत्महत्या कर ली थी। तब वह बी.टेक की तैयारी करने कोटा गया था। दो साल लगातार असफल रहना शायद अखर गया उसे। पत्नी राजेश्वरी पुलिस महकमे में थी और एक जानी मानी खुर्राट पुलिस अफसर के रूप में जानी जाती थी। मगर वर्दी के पीछे की सख्ती अपनी जगह थी और माँ का दिल अपनी जगह। बड़े बेटे के इस कदम से वह ऐसी आहत हुई कि उसके बाद बमुश्किल उसने छह साल बिताए होंगे। पुलिस इंस्पेक्टर से आगे का प्रमोशन भी वह बार बार टलती रही। उसके अंदर डर कुछ ऐसा समाया अपने दूसरे बेटे को वह बिलासपुर से बाहर कहीं भेज ही नहीं पाई। अनिमेष ने वहीं रहकर तैयारी किया और 'कोनी' के इंजीनियरिंग कॉलेज से कंप्यूटर में बी.टेक. कर कुछ समय तक इधर-उधर अन्य परीक्षाओं की तैयारी करता रहा। ख़ाली समय में बिल्डिंग मैटेरियल की दुकान पर अपने पिता का हाथ भी बँटा लेता। मगर इसमें उसकी कोई रुचि नहीं थी। बिलासपुर में उसकी डिग्री का कोई उपयोग नहीं हो रहा था। ममतामई राजेश्वरी अपने बेटे को समझाती हुई बोली, "अनिमेष तुम यहीं रहो। पापा की दुकान संभालो। मैं नौकरी करती हूँ। तुम्हें कुछ और करने की जरूरत नहीं है। यह पुश्तैनी काम संभाल लो, यही काफी है।"
राजेश्वरी के भीतर अपने पहले बेटे के खोने का डर बड़ा गहरा था। अनिमेष स्वयं अपने बड़े भाई को बड़ा मिस किया करता था। मगर माँ के भीतर वह डर अब एक आतंक का रूप ले चुका था। अनिमेष को यह आतंक अब खटकने लगा था। वह ज़ोरदार ढंग से इधर उधर सॉफ्टवेयर कंपनियों में आवेदन करने लगा। राजेश्वरी के भीतर की विह्वल माँ अपनी ज़िद और अव्यवहारिकता को शायद समझ नहीं पा रही थी। अनिमेष अब बड़ा हो गया था और एक दिन यह भी आया कि उसने हैदराबाद जाने का अपना अटल निर्णय सुनाया। राजेश्वरी की बातों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। वह काफी फ्रस्टेट हो चुका था। त्रिलोकी को आगे आना पड़ा। उन्होंने अपनी पत्नी को समझाया, "राज, हम एक बेटा खो चुके हैं। दूसरा नहीं खो सकते। बिलासपुर का फैलाव अनिमेष के लिए अब कम पड़ रहा है । उसे हैदराबाद जाने दो।"
अपने पति की बातों का आशय समझते हुए राजेश्वरी चुप ही रही। और एक शाम मियाँ बीवी दोनों अपने लाडले को बिलासपुर स्टेशन पर छोड़ आए। वह पहले नागपुर और फिर हैदराबाद चला गया। उस रात राजेश्वरी त्रिलोकी के कंधे से लगकर देर रात तक रोती रही। मगर यह क्या हुआ! महीने भर के भीतर दुश्चिंताओं का यह सकैसा बवंडर राजेश्वरी के मन-मस्तिष्क पर छाया कि एक दिन ऑफिस के लिए तैयार होते वक्त उसे दिल का दौरा पड़ा। आनन-फानन में त्रिलोकी उसे अस्पताल ले गए मगर डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया।
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‘चंद्रपुर’ स्टेशन आ गया है। दो बजकर छब्बीस मिनट। जूट के थैले में चूड़ी के स्टैंड और चकला/तवा बेचने वाली ऐसी कंपार्टमेंट में आ गई है। ख़ूब उपयोग में आने से छिजे हल्के हरे रंग की साड़ी में। दुबली सांवली काया। सागवान की लकड़ी का बना चूड़ी स्टैंड 280 रुपए में। मैंने उसकी कलाई की ओर देखा। अच्छा लगा, दोनों ही हाथों में सस्ती ही सही, उसने ढेर सारी चूड़ियाँ पहन रखी थी। नाक में चौड़े डिजाइन का लॉग भी। आसपास की महिलाओं ने रुचि दिखाई। मगर मेरी रुचि खरीददारी में बदल नहीं पाई।
मैंने देखा, त्रिलोकी कंबल ओढ़ लेट गए, मगर उसके नीचे से वे उन्हीं फैले सामानों की ओर देख रहे थे। वे अपने चेहरे के भावों को आसपास के सहयात्रियों से छुपाना चाह रहे थे। मैंने उन्हें बैठाया और पानी पिलाया। बोला, " दिल की बात कह लिया कीजिए त्रिलोकी बाबू। मन हल्का हो जाएगा।"
त्रिलोकी ने अपने भर्राए गले से कहा, " राज खुद पैसे कमाती थी। मगर शृंगार आदि के सामान लड़कर मुझसे लिया करती थी। आज होती, तो यहीं पर इन सस्ते सामानों के लिए भी सातों आसमान उठा लेती। कहती थी...मैं चाहे जितना कमा लूँ मगर मेरे ये शौक के सामान मेरी ज़िंदगी भर आप ही लेते रहेंगे।"
मैं उनकी आँखों में देखता रहा। बाहर की सारी नमी मानो उनकी आँखों में समा आई थी। वे मुझसे कहने लगे, “प्रोफेसर, वह बहुत ज़ल्द चटपट हो गई। काश कि मुझे उसके अरमानों को पूरा करने का कुछ और समय मिल जाता|”
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‘बाबूपेठ’ 2.34 पर। ‘बल्हारशाह’, दो बजकर चवालीस मिनट पर। ट्रेन के दाहिने काफ़ी दूर तक खेत हैं। उसके आगे पहाड़ दिख रहे हैं, जो अभी तो हमारे संग संग ही चल रहे हैं।
17 नंबर बर्थ पर सपरिवार चल रहे एक सज्जन ने ऑन लाइन खाना मँगाया है। साढ़े चार सौ रुपए का। अंडा कढ़ी समेत कई व्यंजन सफ़ेद पॉलीथिन में डिलीवरी ब्य़ॉय़ रखकर चला गया है। चौदह नंबर सीट पर नींद से उठकर त्रिलोकी पूछते हैं, "चाय लाओगे?"
डिलीवरी वाला उन्हें समझाता है, "यह ऑन लाइन ऑर्डर है।"
मैंने भाँप लिया कि उन्हें कुछ समझ मे नहीं आया है। कंबल ओढ़कर वे वापस लेट गए।
मेरे ही बर्थ पर बैठा पवन ऑनलाइन अपनी पत्नी से व्हाट्स अप पर वीडियो टॉक कर रहा है। ख़ुद बोलने की जगह हँस रहा है और हाथ हिला रहा है देर तक।
"बिना शक्कर की चाय का एक दौर लगवाओ", त्रिलोकी पुनः बोलते हैं। मानो अपने आप से। या फिर अर्धनिद्रा में अपनी पत्नी को कह रहे हों।
मगर यह ट्रेन का एक हॉकर है। चिकन बिरयानी का रट लगाए आगे बढ़ता चला जा रहा है। शायद वह परिणाम से परिचित है। रूखा जवाब देता है, "बोलता हूँ।"
केले वाले आए। मैंने उससे केले का भाव पूछा। बीस रुपए में चार केले। मैंने चार केले खरीदे। दो ख़ुद खाए और दो त्रिलोकी को पकड़ाए।
इस बीच एक और नदी को हमने पीछे छोड़ दिया है। नीले टीशर्ट और लोअर में एक दूसरा यात्री चिप्स खा रहा है। चिप्स के पैकेट के खोलने की आवाज़ तो आ रही है, मगर चबाने की नहीं आ रही। हल्की मूँछ और बड़ी आँखों वाले ये उसके स्वाद को इंज्वाय करने में तल्लीन है। ऑनलाइन से आया खाना साइड स्टूल पर रखा हुआ है। पवन हेडफोन लगाए हरियाणवी गीत सुन देख रहा है।
‘विहीर गाँव’ तीन चौदह पर। ‘विरुर’, तीन बीस पर। त्रिलोकी पुनः बुदबुदाए। मानो अपनी अदृश्य पत्नी को महसूस रहे हों और उसे मिनट मिनट अपडॆट रखना चाहते हों। मैंने बीस रुपए में बिस्कुट का एक पैकेट खरीदा। दो बच्चे खेलते हुए मेरे बर्थ के पास आए। दोनों के माता पिता बुलन्दशहर के हैं। तेरह महीने वाले बच्चे का अभी मुंडन हुआ है। उसके पिता ने कहा, "इसके बाल गंगा मैया ले गईं।" दूसरा लड़का सवा दो सालों का है। बड़ा वाला उसके बाल रहित सिर पर अपनी ऊँगलियाँ गड़ा रहा है। छोटे के पिता डर रहे हैं कहीं सिर से ख़ून न आ जाए। वे मुझे उसका पाँव दिखते हैं। उस पर इस बच्चे के नाखून की खरोच है। बड़े की माँ बोलती है, "यह चंपी करता है।"
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