तब राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था - 4 Arpan Kumar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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तब राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था - 4

तब राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था

अर्पण कुमार

(4)

उसके पिता उस समय गाँव में नहीं थे। अपने बैंक की ओर से ऑडिट करने वे बक्सर तरफ़ के गाँवों में थे। रात भर में ही लाली देवी की हालत ऐसी हो गई जैसे उसका दस किलो वज़न घट गया हो। लोग उसको समझाते रहे, बाक़ी बच्चों को उनके पास लाते रहे, मगर वह कभी तेज़ तो कभी धीमे स्वर में लगातार रोए जा रही थी। वह किसी भी तरह अनुरंजन का चेहरा देखना चाह रही थी। पूरा गाँव बारी-बारी से उन्हें समझाता रहा, मगर पुत्र-वियोग में वे अपना सुध-बुध खो चुकी थीं। रात में भी कुछ लोग आस-पास के गाँवों की ओर अनुरंजन को खोजने के उद्देश्य से रुख किए। गाँव के जो लोग, उन दिनों मसौढ़ी में रह रहे थे, उन्हें मसौढ़ी शहर में पता लगाने का जिम्मा दिया गया। गाँव के दो लोग अमरेंद्र के गाँव भी गए। उनमें से एक यदुनंदन बाबू ने उससे सख्ती से पूछा, "देखो, अमरेंद्र, साफ-साफ बता दो। हम जानते हैं कि गाँव से मसौढ़ी की ओर जाते वक़्त तुम उसके साथ ही थे। क्या उसे कोई चोरी से उसकी शादी करने के लिए ले गया है और तुम उनसे मिले हुए हो?" इस समय यदुनंदन बाबू अपने पूरे पुलिसिया अंदाज़ में उनसे पूछताछ कर रहे थे। काफ़ी सख्त होकर, क्योंकि गाँव का एक होनहार लड़का गायब हो गया था और उनका गुस्सा स्वाभाविक था। वह गुस्सा सातवें आसमान पर था, क्योंकि उनके पीछे पूरा गाँव था। वह रतनपुरा गाँव का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

अमरेंद्र भी सब कुछ समझ रहा था उसे बुरा भी लग रहा था। उसके परिवार वाले कभी उस पर गुस्सा करते तो कभी रतनपुरा वालों के ज़ोर से बोलने पर आपत्ति करते। ख़ैर, अमरेंद्र को कुछ नहीं बोलना था, सो उसने कुछ नहीं बताया। अमरेंद्र के ताऊ ने निष्कर्ष के रूप में अपनी बात रखी, " यदुनंदन बाबू, यह ज़रूरी थोड़े ही है कि अनुरंजन अमरेंद्र को सब कुछ बता ही दे। उसने इसे कुछ दूर अपने साथ चलने के लिए कहा। सो, यह साथ हो लिया। इस पर इतना मत भड़किए। कहीं और जाकर खोजिए। समय बचेगा और आपकी खोज को कोई सही दिशा भी मिलेगी। मेरी बात पर शांतिपूर्वक विचार कीजिए। आख़िरकार रिश्तेदारी में कलह करने से क्या फ़ायदा है! फिर भी अगर हमें कुछ पता चला, तो हम स्वयं आपके पास आकर आपको इसकी सूचना देंगे।"

कुछ शांति से सोचने के लिए कहा और रतनपुरा वालों को अमरेंद्र के घरवालों ने आख़िर समझा-बुझाकर वापस भेज दिया।

कुछ सख्त लहज़े में अमरेंद्र से उसके घरवालों ने भी सवाल-जवाब किए, मगर वह टस से मस नहीं हुआ। वह पहले की ही तरह सारे प्रकरण से अनजान बना रहा। उसके ताऊ उन दिनों राँची से पचास किलोमीटर दूर एक पठारी क्षेत्र के स्कूल में प्राचार्य थे और वे वहीं पर रह रहे थे। अगली सुबह गाँव से एक व्यक्ति उनको बुलाने के लिए राँची की ओर रवाना हुए। अनुरंजन के पिता का कोई निश्चित पता न था। सो, उनके लिए प्रतीक्षा ही की जा सकती थी। एक ठिकाना किसी का किसी से संपर्क नहीं था। हड़कंप मचा हुआ था। गाँव के दो घरों में लाइसेंस वाली बंदूकें थीं। उन्हें भी बाहर निकाल कर चमकाया गया। जिन मठों/मंदिरों पर लड़कों को चुराकर शादी करवा दी जाती है, गाँव की दो टुकड़ी उन-उन जगहों पर भी गई। मगर ये सभी प्रयत्न असफल सिद्ध हो रहे थे। रतनपुरा का ‘रत्न’, रतनपुरा वालों के हाथ नहीं लग रहा था। कुछ लोग निराश और हताश हो गए थे। कुछ दबी जुबान में किसी अनहोनी की बात भी करने लगे थे। मगर पूरा गाँव लाली देवी के पास भूलकर भी कोई ग़लत बात नहीं कर रहा था। उन्हें देखकर यही लग रहा था कि अगर अनुरंजन वापस नहीं आया तो शायद इनकी जान ही न चली जाए।

.….......

ग्यारह बजे से लेकर दोपहर साढ़े बारह बजे तक पुलिस का छापा पड़ता रहा। गिरोह के कई बदमाश, उनका वृद्ध सरगना और कई आपत्तिजनक ड्रग्स पुलिस के हाथ लगे। अपराह्न एक बजे तक सभी बच्चों को पुलिस थाने में लाया गया और वहीं पर लॉक-अप में वह वृद्ध अपने गुर्गों सहित बंद था। अनुरंजन ने उसे देखते ही पहचान लिया। वह मन ही मन कुछ सोचकर बड़ा हल्का महसूस किया। एक तो यह कि उसका अंदेशा सही था। दूसरे यह कि उसके अलावा शॆष ग्यारह बच्चे भी आज सही-सलामत थे। कार्रवाई देर तक चली। सभी बच्चों को उनके घरों के बारे में पता लगाकर उन्हें उनके अभिभावकों को सुपुर्द करने की कार्रवाई चल रही थी। आर.पी.एफ. का वह रोबीला वर्दीधारी भी वहीं था। वह आदतन चुप था, मगर सभी उसकी तत्परता की प्रशंसा कर रहे थे। पूरे मामले पर चर्चा जारी थी। अनुरंजन को पूरा माज़रा समझ में आ गया था। उन सबका मुक्तिदाता वह वर्दीधारी ही था। अपनी ड्यूटी से जब वह अपने क्वार्टर की ओर जा रहा था, तो उसी की नज़र उन ढेर सारी पर्चियों पर पड़ी। वह उनमें से कुछेक को उठा कर पढ़ने लगा। सब में एक जैसी बात लिखी थी। उसने तत्काल दौड़ लगाई और पास के कोतवाली थाने को इसकी सूचना दी। पुलिस भी मुस्तैदी से टीम बनाकर उस जगह पर आई। साथ में ‘स्नीफर डॉग’ भी लाई। बच्चों की क़िस्मत अच्छी थी, बदमाशों के अलर्ट होने से पहले ही पुलिस ने उन्हें दबोच लिया। इस पूरे अभियान में उस मुच्छड़ वर्दीधारी की अहम भूमिका रही।

थाने में सभी बच्चों ने मिलकर अनुरंजन को ऊपर उठा लिया। इन बच्चों/किशोरों के बचाव-अभियान का नायक अनुरंजन है, बच्चों की इस हरकत से सुतीक्ष्ण पुलिस वालों को यह समझते देर नहीं लगी। उस मुच्छड़ वर्दीधारी की आँखों में अनुरंजन के लिए स्नेह की हिलोरें तैरती दिखीं। पुलिस इंस्पेक्टर अनुरंजन को भी अकेले छोड़ने को तैयार नहीं थे, मगर उसी ने अनुरंजन की ओर से अंडरटेकिंग दी। हलफ़नामे के कागज़ पर हस्ताक्षर करते वक़्त अनुरंजन को उसके नाम का पता चला। शेख अख़्तर हुसैन। वह मन ही मन ऐसी शख़्सियत से बड़ा प्रभावित हुआ। अख़्तर हुसैन ने थाने में उसका हाथ पकड़ उससे एक वादा लिया, "देखो मियाँ, मुझसे एक वादा करो। तुम सीधे अपने गाँव जाओगे। मैट्रिक की परीक्षा दो, फिर तो तुम्हें शहर में भी रहना है। अकेले आना-जाना भी करना है। फिर चाहे जितना बड़ा आदमी बनना हो, बन जाना।"

हुसैन की आँखों में देखते हुए अनुरंजन ने धीरे से कहा, "ठीक है।"

मगर इन दोनों के बीच कल रात से इस समय तक ऐसी बॉंडिंग हो गई थी कि उनके बीच भरोसे के लिए किन्हीं भारी-भरकम शब्दों की ज़रूरत नहीं रह गई थी।

अनुरंजन को आज भी उसका रोबीला चेहरा और उस पर ख़ूब घनी और बड़ी मूँछें भली-भाँति याद है। उसने अनुरंजन के साथ-साथ कुल ग्यारह बच्चों को उस पशु-पाश से बाहर निकालने में मदद की थी। अनुरंजन को ससम्मान घर भेजने में उसकी बड़ी भूमिका थी।

अनुरंजन के पास रास्ते के लिए सारे पैसे ख़त्म हो गए थे। आर.पी.एफ. के उसी मुच्छड़ से जवान ने चुपके से उसकी जेब में सौ के दो नोट रख दिए थे, जो उन दिनों के हिसाब से रास्ते के गाड़ी-भाड़े के लिए पर्याप्त राशि थी। गाँव से काफी दूर एक रात मुगलसराय में और एक रात ट्रेन में बिताकर और ज़िंदगी भर के लिए खट्टा-मीठा अनुभव बटोरकर अनुरंजन अपने घर आ गया था। गाँव में लोग उससे तरह-तरह के सवाल किए और वह हरेक को हँसकर जवाब देता गया। कोई नहीं जानता था, मगर अनुरंजन शेख अख़्तर हुसैन के इलाहाबाद स्थित घर के पते वाला कागज़ वर्षों तक अपने तईं बड़े जतन से सँभाल कर रखे रहा। अपने उसी हिमालय एटलस के पन्नों में, जिसके रेल-मार्ग वाले पृष्ठ ने उसे घर छोड़ने को प्रेरित किया था और इस बहाने वह उस शेख से मिल सका था।

मैट्रिक के बोर्ड की परीक्षा में सभी व्यस्त हो गए थे। अनुरंजन ने भी अच्छी तैयारी कर परीक्षा दी। परीक्षा समाप्त होने के बाद अमरेंद्र वापस अपनी बहन के पास आया। उसी दिन बहन से झट-पट मिलकर अमरेंद्र अपने दोस्त के दालान में आ गया। उस शाम चुपके से अनुरंजन ने हिमालय एटलस में रखे अख़बार का वह पुर्जा अमरेंद्र को दिखलाया। अमरेंद्र ने पूछा, "यार अनुरंजन, यह क्या है!" अनुरंजन भावुक हो गया, "यह मेरी सलामती का सबब है, दोस्त!"

अमरेंद्र ने उसे गले से लगा लिया, "तुम एक दिन सचमुच बड़े आदमी बनोगे, अनुरंजन। तुम्हारा दिल बड़ा सच्चा है।"

अनुरंजन के मुख पर हँसी की कुछ रेखाएँ फैलीं मगर उसकी आँखें गीली हो गईं। वह भावावेशित हो कहने लगा, "दोस्त! तुमने मेरे कारण बड़ी तकलीफ उठाई। मेरे गाँव के लोग भी तुम्हारे यहाँ गए। वे तुम्हें डराए-धमकाए । तुम्हारा अपमान भी किया। मगर तुम टस से मस नहीं हुए। मैं उनकी ओर से तुमसे माफ़ी माँगता हूँ।"

दोनों मित्र देर तक गले मिलते रहे।

मैट्रिक के रिजल्ट आने के बाद दोनों दोस्त पटना आ गए। चाह कर भी एक कॉलेज और मुहल्ले में न रह सके। मगर, दोनों सप्ताह में एकाध बार मिल लिया करते थे। यही कोई एकाध वर्ष बाद 1992 के फरवरी माह में अनुरंजन ने गाँधी मैदान में लगे पटना पुस्तक मेले से एक पतली सी किताब खरीदी- 'घुमक्कड़शास्त्र'। इसे राहुल सांस्कृत्यायन ने लिखा है। इसे पढ़ते हुए उसे अपने गृह-त्याग की वह घटना याद आई। प्रोफेशनल तरीके से और पूरी तैयारी से घर कैसे छोड़ा जाता है, इसका पूरा वृतांत पढ़ अनुरंजन को बड़ा अच्छा लगा। रविवार की शाम अनुरंजन उस किताब के आख़िरी अध्याय को पढ़ रहा था। तभी अमरेंद्र आया। उस पुस्तक को उलटता-पुलटता और फिर हँसता हुआ वह अनुरंजन से कहने लगा, "क्या फिर से घर छोड़ने का मन कर रहा है, अनुरंजन?"

अनुरंजन अपने मित्र के इस तंज पर मुस्कुराकर रह गया। कहने लगा, " दोस्त, तुम्हें तो पता ही है, मैं तो तब ही घर छोड़ चुका था, जब मैंने राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था।"

पटना में पोस्टल-पार्क की वह छत देर तक दो दोस्तों की इस सफेद हँसी से गुँजायमान रही।

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