Tab Rahul saankrutyayan ko nahi padha tha - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

तब राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था - 1

तब राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था

अर्पण कुमार

(1)

यह कहानी अनुरंजन की कैशोर्य कल्पनाशीलता की है। उसकी अनगढ़ता और दुःसाहस की है। एक ग्रामीण किशोर की अदम्य जिजीविषा भी है यहाँ। जाने क्या है इस कहानी में और जाने क्या नहीं है! कुछ भी हो, उसकी इस कहानी में व्यावहारिकता और डर नहीं है। क्या किसी एकांतप्रिय किशोर के उठाए कदम में यह सब ढूँढ़ना कुछ ज़्यादा उम्मीद करना नहीं है! चाहे जो भी समझिए, मगर, इस कहानी के नायक को अपनी उम्र-जनित सीमा का बोध नहीं है। परिवार और समाज की मान्यताओं और अपेक्षाओं से चिपके रहने का उसका कोई पूर्वाग्रह नहीं है। और शायद इन्हीं कारणों से, उसकी यह कहानी कही भी जा रही है। उसकी ज़िंदगी के ये सही-ग़लत निर्णय, उसे कहीं पहुँचाते हों या नहीं, इस कहानी का आधार तो बनते ही हैं। आप सोच रहे होंगे कि अनुरंजन की कौन सी अनोखी कहानी यहाँ आपको सुनाई जाने वाली है! तो ज़रा ठहरिए जनाब, यह कहानी कोई अनोखी कहानी नहीं है। और हाँ, दुनिया की अनोखी से अनोखी कहानी भी अनोखी मात्र कहाँ हो पाती है! तो फिर......फिर क्या....कुछ भी नहीं। कोई कहानी घटती कैसे है, कहानी का नायक सोचता कैसे है और उस कहानी में उसके साथ होता क्या है....इसी में तो आख़िरकार, पूरी नवीनता और रोचकता छिपी होती है। कुछ समझे! इसी नवीनता और अनोखेपन से कुछ अनोखा सा कह दिया या रच दिया जाता है!

कोरा वर्णन ज़्यादा न हो जाए, अतः सीधे उसकी कहानी पर आना उचित होगा।

अनुरंजन तब 14 साल का था, जब वह अपने घर से निकला था। उसका घर से निकलना, उसके गाँव से भी निकलना था। उसका घर, उसके गाँव में जो था। उसका उसके घर से निकलना तब हुआ था, जब वह अपने गाँव से पाँच कोस दूर अपने निकटवर्ती स्टेशन ‘तारेगना’ तक भी अकेला नहीं गया था। तारेगना मतलब तारों की गणना। कहते हैं कि यह टीला आसपास के इलाकों में सबसे ऊँचा था और आर्यभट्ट यहीं से अपने गणितीय कौशल और गणना के आधार पर तारों की गणना करते थे। मगर, ‘तारेगना’, स्टेशन के आसपास के क्षेत्र तक ही सिमटा हुआ था। पूरे शहर को लोग मसौढ़ी के नाम से जानते हैं। अनुरंजन के गाँव में भी सभी लोग, उसे ‘मसौढ़ी’ ही कहा करते थे। मसौढ़ी उन दिनों भी एक अनुमंडल था और आज भी एक अनुमंडल ही है। मसौढ़ी और उससे लगा जहानाबाद उन दिनों नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में काफ़ी आगे चल रहा था। आए दिन, गाँव में भी इससे संबंधित चर्चाएँ हुआ करती थीं। मगर, इन सबसे अप्रभावित अनुरंजन अपनी धुन में जीए जा रहा था। अपनी पढ़ाई, कल्पना और खेल की सम्मिश्रित दुनिया में वह जी रहा था। यह नब्बे के दशक की बात है। किसी भी गाँव की तरह, उसका गाँव भी एक स्वतंत्र इकाई था और अपनी ज़रूरत की अधिकांश चीज़ें गाँव स्वयं उत्पन्न कर लेता था। खाने में शहर की तरह विविधता नहीं थी, मगर प्रचुरता अवश्य थी। अनुरंजन के पिता बिहार सरकार के एक को-ऑपरेटिव बैंक में ऑडीटर थे और प्रांत के अलग अलग जगहों पर उनका ट्रांसफर हुआ करता था। सो, परिवार को गाँव में ही रखते थे। उन दिनों शहरों की ओर घर का मुखिया तो जाता था, मगर पूरा परिवार गाँव में ही रहता था। घर का मुखिया भी जब-तब गाँव में आता रहता था। कई परिवार साझे में रह रहे थे और जो एकल भी थे, उनमें भी एकलता का एहसास नहीं था। दालान-संस्कृति बची हुई थी और खेत भी ख़ूब उपज दे रहे थे। साथ में बाहर से पैसे भी आ रहे थे। अनुरंजन ऐसे ही एक छोटे और अपेक्षाकृत एक संपन्न गाँव में रह रहा था।

मसौढ़ी जब भी जाना होता, अनुरंजन अपने पिता के साथ ही जाता। वे सभी कार्यक्रम और उद्देश्य स्वयं उसके पिता द्वारा तय होते थे। तब उसने दसवीं कक्षा भी कहाँ पास की थी! चूँकि टांसलाइटिस की शिकायत उसे बचपन से ही थी, सो उसके पिता उसका होमियोपैथ ईलाज करवाने डॉ. भोलाबाबू के पास हर दो महीनों में एक बार उसे तारेगना ले जाया करते थे। डॉक्टर के यहाँ से कुछ सिहराती सी दवाई खाने के बाद उसके पिता, उसे मिठाई की दुकान पर ले जाते। ‘चंद्रा स्वीट हाउस’ की पहली मंज़िल पर सँकरी सीढ़ियों से होकर पिता-पुत्र दोनों वहाँ पहुँचते और फिर दोनों दो-दो रसगुल्ले और दो-दो समोसे का सेवन करते। अनुरंजन, इस जलपान का पूरे दो महीने तक इंतज़ार किया करता था। यह संख्या न कम होती थी और न ज़्यादा। शायद पिता-पुत्र के बीच वर्षों से कोई मूक संधि हो रखी हो।

हर तरह से संतुष्ट और ख़ुश अनुरंजन के मन में अपने गृह-त्याग का विचार कहाँ से आया, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ करना ज़रा मुश्किल है। वैसे भी, उदासी, निराशा और अपमान ही हरदम गृह-त्याग के कारण नहीं होते। अगर ऐसा होता तो फिर राजकुमार सिद्धार्थ अपना राजमहल क्यों त्यागते! संभवतः अनुरंजन का मौलिक और कल्पनाशील मन ही इसका कारक हो। वह गाँव की आबो-हवा में घूमते-फिरते कुछ अधिक दूर तक सोचने लगा था। उसे उन दिनों यह लगने लगा था कि वह गाँव से बाहर जाकर संघर्ष करे और ढेर सारा पैसा और कीर्ति कमाकर वापस अपने गाँव को लौटे। गाँव के एक सीमित और सुरक्षित से माहौल में रहनेवाले अनुरंजन को इतना असुरक्षित और खतरनाक ख़याल कहाँ से आया, साफ़-साफ़ कुछ कहना ज़रा मुश्किल है, मगर निश्चय ही तब उसने राहुल सांकृत्यायन और उनके ‘घुमक्कड़-शास्त्र’ को नहीं पढ़ा था। अनुरंजन के किशोर-मन को यह विचार हरदम उसे बेचैन किए रहता था मगर उसकी समस्या यह थी कि वह यह बात अपने परिवार और गाँव में किसी और को बतला भी नहीं सकता था। कहते हैं कि आदमी चाहे अपने सभी राज़ किसी एक को नहीं बताए, मगर अपने अलग अलग राज़ अलग अलग व्यक्तियों को अवश्य ही बतलाना चाहता है। अनुरंजन के साथ भी कुछ ऐसा ही था। यह गृह-त्याग, उसके जीवन का राज़ और उसके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य दोनों ही था। उसके हसनपुरा गाँव में उसका कोई निकट का ऐसा दोस्त नहीं था, जिससे वह अपने मन की इस बात को साझा कर सके। दूसरे, गाँव में किसी को बताने में एक ख़तरा भी था। वह कहीं उसके घर में या गाँव के किसी व्यक्ति को बता न दे! मगर एक किशोर के लिए चुपचाप इसे अकेले निष्पादित कर लेना भी आसान कहाँ था।

उन्हीं दिनों अनुरंजन के स्कूल का उसका सहपाठी और अभिन्न दोस्त अमरेंद्र किशोर उसके गाँव में आया। अमरेंद्र की बड़ी बहन का ब्याह अनुरंजन के गाँव में ही हुआ था। स्कूल में छुट्टी चल रही थी। दूर के ‘गोतिया’ में उसके भइया लगनेवाले सुरेंद्र, अमरेंद्र के बहनोई थे। अनुरंजन उन्हें आदरपूर्वक सुरेंद्र भइया कहा करता था। उनका घर उसके दालान से लगा हुआ ही था। एक दिन सुबह के नाश्ते में अनुरंजन माँ के हाथों का बना ‘भुंजा’, मक्खन, नमक और मिर्च के साथ खा रहा था। सुबह की धूप उसके पूरे शरीर को सहला रही थी। उसे शुरू से ही अपनी माँ के हाथों तैयार किया गया मक्खन बड़ा पसंद है। अनुरंजन जाड़े की गुनगुनी धूप का आनंद लेता हुआ 'फरही' और मक्खन का आनंद ले रहा था। पहले एक फाँक सफ़ेद ‘फरही’ का लेता और धीरे से मक्खन का एक लोंदा काटता। दाँत के द्वारा मक्खन काटे जाने पर मानो उसके पूरे मुँह में रस की एक अजस्र धारा प्रवाहित हो जाती। साथ में उसके आस-पड़ोस के कुछ छोटे बच्चे नंग-धड़ंग इधर-उधर शोर मचा रहे थे। अनुरंजन उन्हें देख रहा था और अपने ख़यालों में खोया हुआ था। सहसा उसे बोध हुआ कि कोई उसे सुरेंद्र भइया के ‘खाँड़’ की दीवार की ‘भुरकी’ से लगातार देखे जा रहा था। उसने भी उस ओर ध्यान दिया। फिर दीवार की उस भुरकी के दोनों तरफ़ दो जोड़ी आँखों का एक-दूसरे से समामेलन हुआ। इधर की आँखों ने उधर की आँखों से इशारा किया और इस तरफ़ आने को कहा। दोनों दोस्तों में एक-दूसरे से मिलने की तत्परता चरम पर थी। तुरंत ही अमरेंद्र उसके दालान में आने को कह उस ‘भुरकी’ पर से हट गया। इस बीच उसने माँ को आवाज़ दी, “माँ, एक थाली में फरही और मक्खन का नाश्ता और लगाओ। मेरा दोस्त अमरेंद्र भी अभी आ रहा है। वह भी नाश्ता मेरे साथ ही करेगा।”

उसकी माँ को उन दोनों की दोस्ती के बारे में हर चीज पहले से पता थी। कई बार अनुरंजन को आश्चर्य होता...उन दिनों या आज भी उसकी माँ से बातचीत कितनी कम हुआ करती थी मगर फिर भी वह उसके मन का सबकुछ वह कैसे जान जाया करती थी। गाँवों में जितना खुलापन रहता है, उस हिसाब से व्यक्ति का व्यक्तित्व भी कसता है और उसकी निजता भी सुरक्षित रहती है। और इन सबके साथ, कहीं-न-कहीं उसकी पसंद-नापसंद का ख़याल भी समान रूप से रखा जाता है। अनुरंजन की परवरिश भी उसके हसनपुरा गाँव में कुछ उसी अंदाज़ में हुई थी। आज जब उसके दोनों बच्चे उसके साथ अलग-अलग शहरों में रहते हैं, उनके साथ निजता और वैयक्तिकता का यह संगम उसे कम ही देखने को मिलता है।

दोनों दोस्त दालान की चौकी पर बैठ गए और इधर-उधर की बातें शुरू हो गईं। कुछ देर में अनुरंजन हिमालय एटलस की किताब ले आया और भारत के रेल-मार्ग पर अमरेंद्र से सघनतापूर्वक चर्चा करने लगा। उसे याद है, उसके गाँव से दो किलोमीटर दूर स्थित उसके हाई-स्कूल के भूगोल के उनके शिक्षक एकनाथ बाबू के कहने पर उसने यह एटलस अपने पिता को कहकर मसौढ़ी से मँगवाई थी। गाँव में रहते हुए, इस एटलस को ही देखकर अनुरंजन पूरे देश-दुनिया की यात्रा कर लिया करता था। सड़क, रेल, जल और वायु मार्ग को जानना और उनपर अपनी उँगलियाँ फेरकर कहीं दूर चले जाने की अनुभूति करना, अनुरंजन को बड़ा पसंद था। गाँव के उसके घर में एक पुराना ग्लोब भी था। ग्लोब और एटलस- इन दोनों के माध्यम से वह एक यायावर हो गया था। शायद, उसके भीतर ही भीतर एक यायावर विकसित हो रहा था, जिसका ठीक-ठीक अंदाज़ा अनुरंजन को भी नहीं था।

अनुरंजन अपने दोस्त से अपने मन की बात करने लगा। शुरू में रुक-रुककर और बाद में खुलकर, “यार अमरेंद्र, मैं अपने गाँव से बहुत दूर चला जाना चाहता हूँ। कहीं बाहर जाकर संघर्ष करना चाहता हूँ और फिर ख़ूब बड़ा आदमी बनकर वापस अपने गाँव आना चाहता हूँ। पता नहीं यार, मुझे यह ख़याल कई महीनों से मेरी जान खाए हुए है।”

कुछ देर के लिए अमरेंद्र सकते में आ गया। 'फरही' और मक्खन का नाश्ता जितना मज़ेदार था, उससे अधिक झटकेदार अमरेंद्र का उससे ऐसा कहना था। ख़ुद को संयमित करता हुआ और पीतल के लोटे से कुएँ का शीतल जल अपने हलक से नीचे उतारता हुआ अमरेंद्र ने धीरे से कहा, “लेकिन अनुरंजन, अभी कुछेक महीने बाद ही मैट्रिक की परीक्षा शुरू होनेवाली है। उसका क्या होगा!”

अनुरंजन पर तो मानो घर छोड़ने का भूत सवार था। उसने अपने कंधे उचकाते हुए और अपनी उम्र से कुछ अधिक गंभीर कहा, “यार इन औपचारिक डिग्रियों से क्या होगा! इतिहास गवाह है, आज तक जो भी बड़े आदमी हुए हैं, उन्होंने बँधी-बँधाई लीक से अलग अपनी राह बनाई है। मुझे भी ऐसी ही किसी नई राह पर चलनी है।”

अपनी बड़ी और हरदम उनींदी-खोयी सी दिखती आँखों में ढेर सारे सपनों को सँजोता हुआ अनुरंजन ये सारी बातें अपने दोस्त से किए जा रहा था। पास ही खड़े नीम और बेल के पेड़ अपना सिर धुन रहे थे, मगर इस समय अनुरंजन पर कोई अलग ही धुन सवार थी।

“लेकिन अनुरंजन, क्या तुमने कुछ सोचा है! बाहर कहाँ जाओगे और क्या करोगे!” अमरेंद्र ने अपने मन की शंका को बाहर उगला।

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