तब राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था
अर्पण कुमार
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भाषा के भिन्न-भिन्न लहजों और लोगों की भागम-भाग के बीच एक नए माहौल में स्वयं को तैयार करता अनुरंजन अपने अगले कदम की तैयारी कर ही रहा था कि सहसा उसे अपने कंधे पर किसी की हथेली का स्पर्श हुआ। उसने गर्दन घुमाकर पीछे देखा। प्लेटफॉर्म पर मिला यह वही वृद्ध था। इस समय, उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान थी जो एक विजेता की हँसी में बदल रही थी। और, वह अकेला नहीं था। उसके दाएँ-बाएँ दो-दो मुस्टंडे खड़े थे। उसने बड़ी ही फुर्ती से एक रुमाल को अनुरंजन के मुँह पर रखा और देखते-ही-देखते वह नीम-बेहोशी में चला गया। जब उसे होश आया, एक बड़े से अँधेरे और सीलन भरे कमरे में वह अपने जैसे कई दूसरे बच्चों-किशोरों के साथ लेटा हुआ था। यही कोई एक दर्जन बच्चे वहाँ थे। कुछ होश में आ गए थे और कुछ अभी भी अचेत थे। अनुरंजन को समझते देर नहीं लगी कि वह वास्तव में किसी ठग-गिरोह का शिकार हो गया है। वह घबरा गया। कुछ देर में किसी तरह स्वयं को संयत कर वह यहाँ से निकलने का कुछ उपाय सोचने लगा। कम रोशनी में भी आँखें कुछ अभ्यस्त होने लगती हैं। अनुरंजन ने धीरे-धीरे देखा, कई कमजोर और कम पढ़े-लिखे बच्चे, उसकी ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे थे। कुछ बच्चे उसकी उम्र से छोटे थे तो कुछ उसके समवयस्क भी। सभी बच्चे अपने घर से निकले और भागे हुए थे और उन्हें बेहोश कर ही यहाँ लाया गया था। रात भर भूखा रहने से अनुरंजन बड़ा अशक्त महसूस कर रहा था मगर फिर भी कमरे में घुमकर उसने उसका मुआयना किया। उसे कहीं कोई रोशनदान भी नज़र नहीं आया। कमरे का मुख्य दरवाज़ा बाहर से बंद था और बाहर से किसी के साँस के आरोह-अवरोह जन्य, रह-रह कर होते स्पंदन की धीमी आहट से ऐसा लग रहा था कि जैसे गेट पर कोई पहरेदारी कर रहा है। अनुरंजन का आत्मविश्वास कुछ देर के लिए ऐसे हिला जैसे डोर से कटी पतंग की स्थिति हो जाती है। एक कमरे में बंद और ख़तरे के मुहाने पर आ चुके अनुरंजन को कुछ चक्कर सा आ गया। मगर, किसी तरह ख़ुद को संभालता हुआ वह आगे बढ़ा। कमरे से लगा एक छोटा सा बाथरूम सह लैट्रीन का कमरा था, जिससे तेज दुर्गंध आ रही थी। नाक पर हाथ रखकर वह उस कमरे की ओर बढ़ा। छत से थोड़ा नीचे, बाहर वाली दीवार पर गोल पाइप की परिधि के बराबर का एक छोटा सा सुराख था, जिसमें कपड़ा ठूँस दिया गया था। कुछ प्रयत्न करके उस कपड़े को हटाया जा सकता था। अचानक से अनुरंजन के दिमाग में कुछ कौंधा और वह आशा की नन्हीं सी झिलमिलाती लौ से रोमांचित हुआ। रोशनी के इस संभावनाशील विकल्प से अनुरंजन के उदास और भारी मन पर किसी ने जैसे आशा की रंगोली रच दी हो। उसने अपने शरीर को टटोलना शुरू किया। मुगलसराय के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर खरीदा गया उपन्यास, उसके हाथ से कब गिरा, उसे इसका कोई पता नहीं था। शायद, जब उसे बेहोश कर ठगों की जमात यहाँ लाई होगी, तब रास्ते में ही कहीं गिर गया होगा। अनायास, उसके हाथ उसके पैंट की जेब पर गए। दायीं जेब में घर से लाई उसकी जेबी डिक्शनरी अब भी वहाँ पड़ी हुई थी। उसने अपने शर्ट की जेब टटोली। उसमें उसकी कलम भी अब तक सही-सलामत थी। वह इस डिक्शनरी को अपना अंग्रेज़ी-ज्ञान मज़बूत करने के लिए अपने साथ लाया था। मगर ज्ञानार्जन तो वह तब करता, जब उसकी जान सही-सलामत रहती। कुछ उदास मन से वह उस डिक्शनरी के पन्ने फाड़ने लगा और उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में अपने यूँ यहाँ बंद होने और बाहर निकालने की गुहार करता हुआ कुछ कुछ लिखकर रखने लगा। कुछ दूसरे बच्चे भी उसके साथ हो लिए। एकदम फुसफुसाहट में वे सभी बात कर रहे थे, ताकि उनके इस प्रयत्न का अहसास ठगों को न हो जाए। किसी कागज़ पर कुछ तो किसी कागज़ पर कुछ और लिखे जा रहे थे। वाक्य अलग-अलग थे मगर उद्देश्य एक था। बचाने की मदद माँगना। अनुरंजन ने साफ-साफ, मोती से चमकते अक्षरों में लिखा :-
"हम यहाँ बंद हैं। हमें यहाँ से निकालिए।"
एक दूसरे कागज़ पर कुछ यूँ लिखा :-
"ठगों के गिरोह ने हमें यहाँ नज़रबंद कर रखा है। हमें यहाँ से बाहर निकालो।"
एक तीसरे कागज़ पर कविता की यह पंक्ति भी रची गई :-
"हम मासूम से बच्चे
दिल के हैं सच्चे
ठगों के गिरोह ने हमें हैं पकड़ा
आज़ाद करो हमें इनकी चंगुल से।"
इसी तरह अलग-अलग कागज़ पर उस समय जो सूझा, वह डिक्शनरी के उन पन्नों पर लिखा जा रहा था। एक समस्या थी। पूरे कमरे में इतना लंबा कोई बच्चा न था, जिसका हाथ उस सुराख तक पहुँच सके। एक छोटे बच्चे ने सुबकते हुए अनुरंजन से कहा, "भइया, आप मुझे गोद में उठा लो। मैं इन्हें बाहर फेंकता हूँ।"
अनुरंजन ने ऐसा ही किया और वह बच्चा एक-एक कर कागज़ को बाहर फेंकने लगा। पतले कागज़ को फेंकने में मगर कुछ असुविधा हो रही थी। वह उड़कर इधर से उधर जा रहे थे । ऐसे में वे कहाँ से गिरकर आए हैं, संदेश देनेवाला कहाँ क़ैद है, मदद की पलटन कहाँ भेजी जा सकती है, अजनबियों और तत्पर सहयोगियों को यह अंदाज़ लगाने में मुश्किल होती। फिर अनुरंजन को अपने होमियोपैथ डॉक्टर की याद आई और वह उन्हीं की तरह कागज़ की पुड़िया बना-बनाकर उस छोटे बच्चे को देने लगा, ताकि एक ही जगह पर ऐसी पुड़ियाओं का ढेर जमा हो जाए और लोगों का ध्यान उधर जाए और वे उसके गिरने की स्रोत की जगह से अनुमान कर यहाँ तक पहुँच जाएँ। उसके निदेश पर सभी पर्ची बनाने में जुट गए। फिर, उन पर्चियों को सुराख से बाहर नीचे फेंकने का काम जारी रहा। जैसे हवन-कुंड में कई तरह की चीज़ों को डालकर स्वाहा किया जाता है, उसी तरह उस सुराख से पर्चियाँ नीचे फेंकी जा रही थीं। आख़िरकार, यह बचाव-कार्य किसी भी यज्ञ से बड़ा महत्व रखता था। सभी बच्चों में उत्साह भरपूर मात्रा में जगा हुआ था। समय कम था। ठगों का गिरोह कभी भी अंदर आ सकता था।
डिक्शनरी के एक चौथाई से अधिक कागज़ अब तक फेंके जा चुके थे। जो उम्मीद थी, अब उसी छोटे से सूराख से थी। उससे बाहर फेंकते हुए उस नन्हें बच्चे के हाथ थकने लगे थे और इधर देर तक उसे अपने दोनों हाथों से उठाए रखने में अनुरंजन की साँस भी फूलने लगी थी। मगर वे दोनों इसकी परवाह किए अपने कार्य में लगे हुए थे। उन्हें इसका अहसास था कि ठग अगर एक बार इन्हें कहीं और भेजने में कामयाब हो गए तो उनका यह प्रयत्न किसी काम का नहीं रहेगा और वे ज़िंदगी भर विक्लांग बन उन ठग-गिरोहों के लिए भीख माँगते रह जाएँ। अनुरंजन के माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आईं। नीचे खड़े कुछ बच्चे एक-एक कर कागज़ इन्हें पकड़ाते चले जा रहे थे। थोड़ा-थोड़ा करके भी ये लगभग साठ-सत्तर कागज़ों की पुड़िया नीचे फेंक चुके थे। नीचे क्या हुआ, इसे देखा नहीं जा सकता था। हाँ, वे पूरे दर्जन भर बच्चे बस किसी चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे थे। बीच-बीच में ट्रेन की आवाज़ आ रही थी, इससे अनुमान लगाया जा सकता था कि वे मुगलसराय स्टेशन से बहुत दूर नहीं हैं। सभी की भूख-प्यास से हालत बद से बदतर हो रही थी। कभी भी अंग, भंग होने का अंदेशा सिर पर तेज़ धार के किसी तलवार की तरह लटका हुआ था। उन्हें उस दिन भगवान पर भरोसा कुछ अधिक बढ़ गया था। सभी बच्चे शिद्दत से यही चाह रहे थे कि यह दरवाज़ा न खुले और कोई शैतान न आए। चाहे वे भूख से दम ही क्यों न तोड़ दें! या फिर अगर दरवाज़ा खुले तो उससे कोई देवदूत आए और उसे वापस उनकी दुनिया में भेज दे, जहाँ गरीबी थी, सादगी थी मगर ऐसी अनिश्चिंतता और ज़िंदगी पर ऐसे आक्रामक अँधेरे तो नहीं थी। शरीर के किन-किन अंगों की तस्करी की जाती है, कुछेक के बारे में तो अनुरंजन को पता था मगर उसके ज्ञान से आगे अंगों की एक बड़ी शृंखला थी, जिसके बारे में अनुरंजन भी अवगत नहीं था।बाक़ी बच्चे तो ख़ैर कम पढ़े-लिखे थे, मगर डर सभी में समान रूप से व्याप्त था।
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गाँव में अमूमन हर चीज़ को बहुत दिल से लगाकर नहीं देखा जाता है। प्यार भी वहाँ अक्सरहाँ अदृश्य रह जाता है। अनुरंजन को भी अपने प्रति अपनी माँ के प्यार को लेकर कोई बहुत अपेक्षा नहीं थी। कई बच्चों की देखरेख और पशुपालन सहित घर की रसोई, साफ-सफाई के इतने सारे कार्य होते हैं कि वहाँ प्यार के प्रदर्शन के लिए कोई अतिरिक्त समय नहीं बचता है। एकदम से एकल घरों या एकाध बच्चों वाली मातओं को छोड़ दें, तो अमूमन वहाँ सभी स्त्री-पुरुष अपने-अपने रूटीन में व्यस्त रहते हैं। हर तरह की बातें होती हैं, मगर शहरों की तरह अभिभावकों / माता-पिता का प्रेम एक 'क्लोज विसिनिटी' में नहीं दिखता है। यह, गाँव वालों के लिए कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। वहाँ लाड़-प्यार और मार-पीट की घटनाएँ एक साथ देखी जा सकती हैं। मगर जब किसी बच्चे को कुछ हो जाए, वह खो जाए तो फिर माँओं की छटपटाहट के हमॆं वे मंज़र दिखते हैं, जो शहर की माँओं में भी कई बार नहीं दिखते। जब अनुरंजन शाम तक नहीं पहुँचा, तो लाली देवी की भी वही स्थिति हो गई। जैसे-जैसे रात गहराती जा रही थी, उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही थी। लेकिन जब वह देर रात तक नहीं पहुँचा, तब तो वे एक के बाद एक मूर्छे की स्थिति में आने लगीं। वे लगातार रोए जा रही थीं। अनुरंजन की बड़ी बहन एक तरफ़ अपनी माँ को सँभाल रही थी और दूसरी तरफ़ अपने चार छोटे भाइयों को भी सँभाल रही थी। लाली देवी कुल छह बच्चों की माता थीं। पाँच उसकी नज़रों के सामने थे और छठा जो बाहर गया था, वह देर रात भी आ नहीं पाया था।
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