एक अदद फ्लैट - 4 Arpan Kumar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक अदद फ्लैट - 4

एक अदद फ्लैट

अर्पण कुमार

(4)

नंदलाल बैठे हुए सोचने लगे...ये बुज़ुर्ग कोई पैंसठ साल के होंगे। व्यास जी पचपन के और वे स्वयं भी तो पचास पार कर ही गए हैं। अलग अलग उम्र के ये तीनों अधेड़ लोग अपने अपने हिसाब से अपना जीवन जी रहे हैं। हर व्यक्ति अपने तरीके से और अपने दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ रहा है। अपने अनुभवों से अपने परिवार-वृक्ष को सींचता आगे बढ़ता चला जा रहा है। कुछ देर पहले जिस युवक को देखकर नंदलाल अपने अतीत में चले गए थे, अब इन बुज़ुर्ग को देख वे अपने भविष्य में चले गए। कुछ देर पहले उन्हें लग रहा था कि फ्लैट खरीदने में वे ज़ल्दी कर रहे हैं, वहीं अब यह लग रहा था कि अगर अब नहीं खरीद पाएंगे तो और देर हो जाएगी। सोचते हुए अजीब और अमानवीय लगा मगर उन्हें ख़याल आया कि काँपते हाथों से आखिर किस घर की नींव रखी जा सकती है! शाखा प्रबंधक व्यास जी उन बुज़ुर्ग से कह रहे थे, "देखिए श्रीमान, आपको एस.एम.एस. की सुविधा चाहिए तो उसके चार्ज लगेंगे। रही बात कभी इसके आने और कभी न आने की तो मैं उसको अपने आई.टी. विभाग से दिखा लेता हूँ। वे आपका नंबर एक बार फिर से प्रायोरिटी में लगा देंगे। बाहर काउंटर पर रणजीत साहा बैठे हैं, कृपया उनसे मिल लीजिए।"

नंदलाल काफी देर से बैठे हुए थे। ऊपर ही उनका दफ़्तर था। उन्हें अपने लंबित कई काम याद हो आए। अपने बॉस से आधा घंटा कहकर बाहर निकले थे, पैंतालीस मिनट हो गए। प्रकटतः शाखा प्रबंधक से कहा, "व्यास साहब, मेरे लिए आपके पास क्या समाधान है? कुछ है तो बताइए वरना मैं चलूँ। पहले ही काफी देर हो गई है।" कुछ औपचारिक और सख्ती से अपनी बात रख गए नंदलाल।

शाखा प्रबंधक भी औपचारिक ही रहे, "देखिए यादव जी, आपका लोन अप्रूव हो चुका है। आप साठ लाख के लिए इलीजिवल हैं। सबको इतनी बड़ी राशि का लोन मिलता भी नहीं। आपको मिल रहा है, क्योंकि आपने अबतक कोई लोन लिया नहीं है और आपकी उम्र भी अभी अनुकूल है। रही बात बाक़ी पैसों की तो वो आपको स्वयं ही इंतज़ाम करना होगा।"

नंदलाल के मन में एक और खटका था। पूछ बैठे, मगर इस बार चेहरा पहले की तरह सख़्त नहीं था, "मैनेजर साहब, सुना है कि आप रजिस्ट्री के लिए भी लोन देते हैं, मगर मेरी फ़ाइल में तो उस राशि का ज़िक्र नहीं है।"

"हाँ, बैंक की ओर से यह सुविधा दी जाती है। मगर मुझे बताइए क्या आपने अपने ऋण आवेदन में इसकी माँग की थी?" व्यास सख़्त तो नहीं, मगर औपचारिक ही बने रहे।

थोड़ा हिचकते हुए नंदलाल बोले, "यह तो मुझे मालूम ही नहीं था। अब कोई उपाय हो सकता है?" सीधे मुद्दे पर आ गए नंदलाल।

"देखिए, आपका लोन ऊपर अथॉरिटी से अब अप्रूव हो हमारे पास वापस आ चुका है। अब कुछ नहीं हो सकता। अगर नए सिरे से फ़ाइल चलेगी, तो और विलंब होगा। मेरी मानिए, आप शेष राशि का इंतज़ाम कीजिए और अपने मकान का सुख भोगिए।" इस बार व्यास जी कुछ दोस्ताना मूड में नज़र आए।

नंदलाल ने कुछ खिन्न होते हुए अपनी उदास आवाज़ में कहना शुरू किया, "अगर रजिस्ट्री की राशि मैं इंतज़ाम न कर सका तो काहे का पज़ेशन और काहे का सुख!”

मैनेजर साहब ने नंदलाल की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। उन्हें दूसरे कई काम भी निपटाने थे।व्यास जी इस मामले में काफ़ी ‘प्रैक्टिकल’ जो थे।

नंदलाल अब नदी में कूद चुके थे। जहाँ तक किनारा था, वहाँ तक घर-परिवार और रिश्तेदारों का सहारा मिला। अब आगे की तैराकी उन्हें स्वयं करनी थी। आगे तैरना था और उस पार जाना भी था। आदमी विकल्पहीनता की अवस्था में अचानक कोई बड़ा निर्णय लेता है। नंदलाल ने भी वैसा ही एक निर्णय लिया। उनके पास उनके गाँव में जो पुश्तैनी ज़मीन थी, उसमें अपने हिस्से की ज़मीन उन्होंने बेचने का निर्णय ले लिया। यह व्यावहारिक और संवेदनात्मक रूप से आसान नहीं था, मगर घर में ज़ोर लगाकर और किसी तरह अपनी माँ को समझाकर अपना हिस्सा अलग करवा लिया। उसके पिता के कभी विरोधी रहे यदुनंदन बाबू ने ही उसकी ज़मीन ख़रीद ली। यदुनंदन बाबू को लगा कि उन्होंने अपने चिर-परिचित प्रतिद्वंद्वी को हरा दिया है। भले ही उनके निधन के बाद ही। नंदलाल कुछ सोचते रहे। क्या उन्होंने अपने पिता का दिल दुखाया है! ऊपर जाकर वे अपने पिता से आँखें मिला पाएंगे या नहीं! नंदलाल को उलझन में अड़ी देख उन्हें उनकी पत्नी ने समझाते हुए कहा, “चलो, जो होता है, अच्छा होता है। ज़मीन ज़ायदाद का यही उपयोग है कि वह किसी न किसी रूप में आपके काम आए। आख़िर पिताजी ने भी तो यह ज़मीन किसी से खरीदी ही थी न! उन्हें आपको खुश देखकर क्या ख़ुशी नहीं मिलेगी!”

लगभग महीने भर की दौड़ धूप में बाक़ी पैसे का इंतज़ाम भी हो गया और वह दिन भी आख़िरकार आ ही गया, जब नंदलाल ने अपने फ्लैट की रजिस्ट्री करवा ली। ऊषा देवी उस दिन काफ़ी ख़ुश थीं। मकानमालिक सहित मुहल्ले में आसपास के मकानों और दुकानों तक भी मिठाई के छोटे-छोटे पैकेट पहुँचाए गए। यह सारा काम सोत्साह ऊषा ने अपने बच्चों सहित पूरा किया। बेटी बारहवीं में और बेटा दसवीं में था। दोनों को शुरू में झेंप हुई मगर पैकेट के साथ लौटते में लोगों से मिलनेवाली शुभकामानाओं ने उनके संकोच को रुई की तरह उड़ा दिया।

अक्टूबर का वह आख़िरी सप्ताह था। ठंड ने दस्तक दे दी थी। अँधेरा ज़ल्दी घिरने लगा था। नंदलाल अभी भी अपने समय से घर लौट रहे थे, मगर आते आते रास्ते में अँधेरा घिर जाया करता था। भारमुक्त हुए नंदलाल ट्रेन की खिड़की से डूबते सूरज को देर तक देखते रहते। उन्हें पश्चिम में लोहित आकाश पर डूबता सूरज बड़ा अपना सा लगता। उन्हीं की तरह दिन भर का थका और और लोगों की नज़र में रहते हुए भी कहीं स्वयं में खोया हुआ। नंदलाल को अपनी हालत भी कुछ ऐसी ही लगती। वे देर तक खिड़की से अपनी कुहनी टिकाए कभी नीचे तो कभी ऊपर देखते रहते। नीचे पटरी से लगे पेड़ और उसके आगे सड़क तो कभी घनी पुरानी आबादी। दिल्ली का विस्तार और उसका बढ़ता और कोलाहल करता सब-अर्बन एरिया। धूल-धुएँ से गंदलाते पेड़ और उनपर मँडराते कुछ पक्षी-वृंद। पेड़ घनघोर प्रदूषण से प्रभावित ज़रूर हो रहे थे मगर स्वयं को बचाए रखने का उनका संघर्ष ज़ारी था। परिंदों के लिए वे अँकवार थे और नंदलाल को यह सब देखकर बड़ा अच्छा लगता था। ख़ुद हैरान परेशान रहकर भी ये पेड़ किसी के लिए बसेरा बने हुए थे। इन पेड़ों में से एक मँझोले आकार का बरगद का पेड़ था। नंदलाल को उसमें अपनी छवि नज़र आई। और उसपर बैठे परिंदों में अपने बच्चे नज़र आए। इस तुलना के साथ उनके भीतर उछाह मारती उमंग पैदा हुई और उनकी सारी थकान रफूचक्कर हो गई।

.........

अब तक अनुत्साहित रहनेवाले नंदलाल रजिस्ट्री के बाद कुछ जोश में आ गए। एक सुबह पत्नी को कहने लगे, “ऊषा चलो, घर चलने की तैयारी करो।”

ऊषा चौंकी। ख़ुश भी हुई मगर अपनी ख़ुशी को कुछ छुपाती हुई बोली, “अर्थशास्त्री महोदय! मुझे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा। आपने हमारे फ्लैट को घर की संज्ञा दी। बड़ा अच्छा लगा। ऐसा लग रहा है कि आपने मेरी ज़िद को आगे बढ़ाकर उसे अपना प्यार दिया। उसे दिल से स्वीकृत किया|”

काम के सफलतापूर्वक पूरा होने की तसल्ली और फ्लैट में शीघ्र ही शिफ्ट होने की उम्मीद और उससे प्रतिमाह बचनेवाले किराए की राशि के डबल बोनांजे से नंदलाल कुछ ‘रिलैक्स्ड’ महसूस कर रहे थे। उन्हें लगा कि इतने दिनों तक हुए घिस्सम-घिस्सा का चलो कुछ तो फ़ायदा हुआ। पत्नी की कमर में हाथ डाले एक गीत के बोल गुनगुनाने लगे। ऊषा को भान हुआ कि यह किसी फिल्म का गीत नहीं है। मगर वह जानती थी कि उत्साह के अतिरेक में वे अपनी ओर से कुछ न कुछ रच लिया करते थे। वह मानती थी कि अपने आनंद के चरम क्षणों में व्यक्ति ब्रह्मा में रूपांतरित हो जाता है। उसके पति भी बीच बीच में ब्रह्मावतार में आ जाया करते थे। नंदलाल अपने अनभ्यस्त गले से अपनी लिखी तुकबंदी ऊषा को सुनाने लगे :-

“घने शहर में एक सुंदर सा घर है अपना

जिसके आसमाँ पर तैरे अपना सुनहरा सपना

हम अब चैन से इस आबो-हवा में साँस लेंगे

धूप हवा सब मानेंगी यहाँ अपना कहना।”

“क्या बात है, आप तो आज वापस कवि के रूप में ढल गए जी!”, ऊषा ने सोल्लास कहा।

“हाँ, अपना घर छठी मंज़िल पर है न! वहाँ से शहर का व्यू काफ़ी अच्छा आता है। धूप, हवा और रोशनी भी ख़ूब आती है।” नंदलाल एक रौ में बोल गए। फिर सहसा उदास हो गए।

“क्या हुआ जी?” पत्नी कंधे पर हाथ रखते हुए बोली।

“कुछ नहीं ऊषा, वो अपनी पैतृक ज़मीन की याद हो आई। काश कि हम उसे बचा पाते।”, नंदलाल की आँखें नम हो उठीं। वे उठकर अपने बेडरूम की तरफ़ चले गए।

पत्नी पूरे घर में दीया दिखाते हुए इस बेडरूम में भी आई। उसके दाएँ हाथ में घी का दीया था। दीए की लौ उसके चेहरे पर आ रही थी। उसके चेहरे पर हल्की स्मित की रेखाएँ फैली हुई थीं। उन्हें ढाढ़स देते हुए बोली, “अभी आपके रिटायर होने में कुछेक बरस हैं। हम कुछ कुछ पैसे जोड़कर उसे वापस खरीदने की कोशिश करेंगे।”

नंदलाल को लगा....वह अपनी पत्नी को नहीं साक्षात किसी शक्ति-स्वरूपा को देख रहे हैं। संतोष और आत्मविश्वास के वशीभूत उन्होंने अपने कमरे की खिड़की खोल दी। बाहर गलियों में छोटे छोटे बच्चों के खेलने-कूदने और हो हल्ले की आवाज़ आ रही थी। नंदलाल उनके बचपन को निहारने में मशगूल हो गए। बचपन की निश्चिंतता ने उन्हें एकदम से तरोताज़ा कर दिया। वे एक बार पुनः नवीन ऊर्जा से भर स्वयं किसी भास्कर सदृश हो गए।

***