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एक अदद फ्लैट - 3

एक अदद फ्लैट

अर्पण कुमार

(3)

नंदलाल ऊषा की बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे। उन्हें अपनी माँ से कुछ ऐसी ही शुष्कता की उम्मीद थी। उन्हें हमेशा यह मलाल रहा कि उन्हें कभी भी समय पर अपने घर से कोई मदद नहीं मिली। आर्थिक मदद तो ख़ैर बिल्कुल ही नहीं। एक वक़्त था जब नंदलाल अपने दो छोटे भाइयों को अपने साथ रखकर पढ़ाते-लिखाते थे। अपने मामूली से वेतन में उनके लिए जितना हो सका, सब कुछ किया। मगर आज हालात ये हैं कि दोनों भाई अपने कार्य में सफल होकर नंदलाल को भूल चुके हैं। किसी ‘इमरजेंसी’ में नंदलाल उनसे किसी मदद की उम्मीद नहीं रख सकते थे। वे जब तब बहुत निराश हो जाते हैं। जाने कैसे और किसने उनके अपने घर में खलनायक की छवि बना दी थी। कभी ग़ौर से अपने पंजों और नाखूनों को देखने लगते। कहीं सचमुच में वे दानव तो नहीं हैं! कभी आईने में अपने चेहरे और सिर की ओर देखने लगते। क्या उनके होंठों पर किसी निर्दोष के ख़ून के धब्बे हैं! क्या उनके सिर पर सींग तो नहीं उग आए हैं! वे पसीने पसीने हो उठते। आत्मपीड़ा से बलबला उठते। ग़ौर से उनकी पत्नी ऊषा उन्हें समझाती है, "अजी इसमें भाइयों का क्या दोष! उन्होंने तो नहीं कहा आपको कि आप उन्हें बनाए! जिन माँ-बाप की वे संतान हैं, आपके किए का कोई महत्व जब वे नहीं जानते, तो ऐसे में उन भाइयों की क्या ग़लती!”

ऊषा का स्पष्ट इशारा अपनी सास की ओर था। वह कहने लगी, "ये बच्चे उनके बच्चे हैं। इनके लालन पालन की, पढ़ाई लिखाई की जिम्मेदारी उनकी है। स्कूल के बाद का इन दोनों का खर्च आपने उठाया । जब आपकी माँ को ही इसका एहसास नहीं है तो फिर बचता है क्या!"

नंदलाल वापस वर्तमान में आ गए। उन्हें किसी भी तरह फ्लैट के मूल्य के दस परसेंट और उसकी राशि का इंतज़ाम करना था। स्टिल्ट पार्किंग सहित फ्लैट की क़ीमत लगभग साठ लाख हो रही थी। सो उन्हें अपनी जेब से पहले छह लाख रुपए निकालने थे। यह कोई आसान काम नहीं था। अब ये पैसे आएँ तो आएँ कहाँ से! नंदलाल एक एक पैसे का हिसाब करने लगे। अभी हाल ही में सातवें वेतन आयोग का एरियर आया था। मगर काट कूट कर यही कोई नब्बे हज़ार प्राप्त हुए थे। पत्नी से कहने लगे, " चलो, इसको मैं एक लाख कर दूँगा। मगर बाकी के पैसे!"

ऊषा को झट एक ख़याल आया और एक साँस में अपनी पूरी बात बोल बैठी, "ठीक है, मेरे आभूषण गिरवी रख कर कुछ पैसे निकालिए। ‘मूथहूत’ का आजकल कितना ऐड आता है।इनसे एक बड़ा काम हो जाएगा,इससे अच्छी बात भला क्या हो सकती है! बाद में जब अपनी हालत पटरी पर आ जाएगी, तो वापस करा लेंगे। वैसे भी आपके यहाँ से जो पुराने ढंग के भारी आभूषण मिले थे, उन्हें तो मैं वैसे भी पहनती नहीं हूँ।”

किसी भी सूरत में नंदलाल स्त्रीधन को छूना नहीं चाह रहे थे। फिर भी 'मरता क्या ना करता' की तर्ज़ पर उन्होंने मुथूत को मैसेज किया। बाद में जब उनके प्रतिनिधि की ओर से कॉल आया और उसने सोना गिरवी रखने के नियमों को विस्तार से और पूरी शर्तों के साथ समझाया, तो नंदलाल को इसमें आगे न बढ़ना ही ज़्यादा मुनासिब लगा।

अगला दिन सोमवार था और समय से पहले ही नंदलाल तैयार हो ऑफिस चले गए। उन्हें फ्लैट को खरीदने संबंधी कई आवश्यक कार्य करने थे। बिल्डर, कोर्ट, वकील, बैंक, स्टैंप वेंडर आदि कइयों से कुछ न कुछ काम निकलता आ रहा था। ऊषा सबकुछ जान रही थी। जिस फ्लैट को लेकर उसने इतने मंसूबे बांध रखे थे, वही फ्लैट उसके परिवार की सुख शान्ति को भंग किए जा रहा था। जो नंदलाल पहले सोल्लास अपने दोनों बच्चों को पढ़ाया करते थे, अब उनका इस काम में तनिक भी जी नहीं लग रहा था। इससे उनका बच्चों पर नियंत्रण कम हो गया था। उनकी पढ़ाई भी प्रभावित हो रही थी। वे अनाथ से कभी मोबाइल पर गेम खेलते तो कभी टी.वी. देखते। घर भी अस्त व्यस्त हो गया था। सोफे के कवर इधर उधर बेतरतीबी से फैले रहते। बेडरूम में आलमारियों में रखी बच्चों की पुस्तकें समय पर मिल नहीं पा रही थीं। जैसे तैसे दोनों बच्चे तैयार होकर स्कूल जाते। पहले नंदलाल उन्हें सुबह सुबह स्वयं मुहल्ले के चौक पर छोड़ने जाते थे। मगर आजकल उचटे उचटे रहनेवाले नंदलाल से यह काम भी छूट गया था। बच्चे कभी गंदे यूनीफॉर्म पहनकर जा रहे थे तो कभी उनके जूते सही से पॉलिश किए हुए नहीं होते। ऊषा इस संबंध में कुछ बोलना चाहती थी मगर वह जानती थी, एक बार बिल्डर को एडवांस देकर और बैंक में लोन के लिए आवेदन कर देने के बाद पीछे हटना इतना आसान नहीं था। एक तरफ़ बिल्डर उनसे लिए पैसे वापस नहीं करता तो दूसरी तरफ़ बैंक ने प्रोसेसिंग फीस और स्टांप पेपर के पैसे पहले ही पोस्ट डेटेड चैक के माध्यम से अपने पास रख लिए थे।

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“जो चीज़ अभी से पूरे घर को परेशान किए बैठी है, वह आगे भी हमें ऐसे ही डिस्टर्ब करती रहेगी। मैं अपने बीस सालों की नौकरी में कभी इतना परेशान नहीं हुआ।" नंदलाल यह बात ज़ोर देकर कहना चाह रहे थे, मगर उन्होंने अपनी आवाज़ को यथासंभव धीमी ही रखी। नंदलाल पहले से ही ख़ार खाए बैठे हुए थे। मगर वो ऊषा पर बरसकर पहले से ही घर के माहौल को और ख़राब नहीं करना चाह रहे थे। मगर इस ख़ामोशी में भी दबाव या तनाव की धुंध घर में हरदम छाई रहती। नंदलाल के जीवन की नियमित लय अपनी चूल से हट चुकी थी। उनके चेहरे से उनकी हँसी गायब हो गई थी। घर का माहौल पहले की तरह हल्का और आनंददायक नहीं रह गया था। हर चीज़ का हिसाब किया जाने लगा था और घर की हवा दिनोंदिन बोझिल होती चली जा रही थी। घर की अस्त व्यस्त हालत से तंग होती ऊषा ने एक दिन हिम्मत जुटाकर अपने पति से बात करनी शुरू की, " अजी सुनते हैं, क्या कोई उपाय है, फ्लैट न हुआ कोई क्लेश हो गया हो। मुझे बताएँ, इस क्लेश को ख़त्म करने में मैं आपकी क्या मदद करूँ?”

नंदलाल चुप रहे। वे अपनी पत्नी की भावना समझ रहे थे। मगर वे उसकी सीमाएँ भी समझ रहे थे। उन्हें तो इस बात की ही तसल्ली थी कि वह इन विपरीत स्थितियों में यथासंभव घर को संभालने की कोशिश तो कर ही रही है। “मैं ही अभागिन हूँ कि आपको इसके लिए ज़िद की।जाने वह कौन सी कुलक्षण घड़ी थी कि मैंने आपसे इसकी इच्छा की।"

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नंदलाल ने अपने पी.एफ. की राशि को जोड़ा। हिसाब लगाया, कितना पैसा उसमें से निकाला जा सकता है! 10% की मार्जिन मनी के अलावा फ्लैट के ऐसे कई मद थे, जिनपर बैंक लोन नहीं देता था। बिजली कनेक्शन का, वन टाइम सोसायटी मेंबरशीप का, क्लब मैंम्बरशीप का, गैस पाइपलाइन आदि का। नंदलाल ने शाखा प्रबंधक से सवाल किया, "यह कैसा सिस्टम है व्यास साहब! आप दस परसेंट मार्जिन मनी हमें देने को कहते हैं। उधर बिल्डर ऐसे कई चार्जेज़ रखता है, जिसपर आप फिनांस ही नहीं करते। ऐसे में यह दस परसेंट तो एक्चुअल में 20 परसेंट बन गया न!"

एन.के.व्यास समझदार और पके पकाए शाखा प्रबंधक थे। वे पचपन के आसपास के एक परिपक्व इंसान थे। अलग अलग ग्राहकों से बात करते हुए वे ग्राहकों के मनोभावों को भी बख़ूबी समझने लगे थे। उन्हें टाइमिंग का ध्यान रखना आ गया था। वे नियम से अलग तो कुछ नहीं कर सकते थे, मगर नियमों के बीच रहकर भी वे ग्राहकों के दृष्टिकोण से सोचने में माहिर थे। उनकी इस आदत से उन्हें फ़ायदे ही फ़ायदे थे। इससे उनके ग्राहकों के बीच उनकी छवि विश्वसनीय थी। उनको व्यवसाय भी प्राप्त होते थे और कई दूसरे बैकों से ऋण प्रस्ताव भी उनके पास आ रहे थे। ख़ैर व्यास जी ने उन्हें समझाते हुए कहा, "देखिए यादव जी, आप एक बड़ा काम करने जा रहे हैं। आपको मुश्किलें तो आएँगी और वक़्त के साथ उनका समाधान भी मिल जाएगा। मगर उनसे घबराकर अगर इस अवसर को छोड़ देंगे, तो यह आपके जीवन की सबसे बड़ी भूल साबित होगी।"

अन्यमनस्क भाव से नंदलाल शाखा प्रबन्धक की बात सुनते रहे। बोले, "व्यास जी, यह सब तो सैद्धांतिक बातें ठीक हैं। मगर जीवन सिद्धांत से तो नहीं चलेगा न! पैसे की व्यवस्था के लिए तो कोई ठोस आर्थिक आधार चाहिए ना! अगर आप एक बैंकर हैं तो मैं भी इकोनॉमिक्स ग्रैजुएट हूँ। जिस तरह लोहे को लोहा काटता है, उसी तरह अर्थजन्य किसी समस्या का समाधान धन के इंतज़ाम से ही हो सकता है।"

एक साँस में सारी बात ख़त्म कर नंदलाल अपने सामने कांच के साफ़ चमकते गिलास में रखे शीतल पानी को एक घूँट में पी गए। इस बीच एक दो ग्राहक गुस्से में तमतमाए हुए आए और व्यास जी ने अपनी चिर परिचित मुस्कान से न सिर्फ उनके गुस्से को ठंडा किया बल्कि उनकी समस्याओं को भी ध्यान से सुना। एक नौजवान ग्राहक हाँफता हुआ कह रहा था, "अभी अभी मुझे मैसेज़ मिला है कि उसके खाते से किसी ने पच्चीस हज़ार रुपए निकाल लिए। ऑनलाइन शॉपिंग करके। जबकि मैंने तो कोई शॉपिंग की ही नहीं है।"

अनुभवी बैंकर्स को माज़रा समझते देर न लगी। मगर व्यास जी चाहते थे कि यह उतावला युवक अपने मन की भड़ास अच्छे से निकाल ले ताकि उसका मन हल्का हो जाए। जब वह अपनी पूरी बात खत्म कर चुका तब व्यास जी ने उसे समझाने की कोशिश की, "सुनिए महोदय, दरअसल आप किसी हॉक्स कॉल के शिकार हो चुके हैं। किसी गिरोह ने आपसे आपके एटीएम संबंधित गुप्त जानकारियाँ लेकर ऑनलाइन शॉपिंग कर ली है। संभव है, किसी लड़की का फोन आया होगा और आप उसके झाँसे में आ गए।"

'काटो तो खून नहीं', वह नवयुवक अपनी भूल पर पछता रहा था और जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो, वह स्वयं पर झेंप भी रहा था। व्यास जी ने उसे चाय का ऑफर दिया मगर अभी उसे अपने पैसे की चिंता सता रही थी। नंदलाल देख रहे थे, कैसे बैंक पर आक्रोशित हो रहा वह नवयुवक अब अपनी ही ग़लती पर शर्मिंदा हो रहा था। कुछ देर के लिए उस नवयुवक में उन्हें अपना अक्स दिख रहा था। वह व्यास जी से कुछ रहा था और उन्हें लगा कि वे स्वयं उनसे यही बात कहना चाह रहे हैं। वह कह रहा था, "मैनेजर साहब, आप ही कोई रास्ता बताएं। बड़ी मुश्किल से मैंने इतने रुपए जमा किए थे। सालभर अलग अलग घरों में होम ट्यूशन दिया। मेरे पिता किसान हैं। मैं किसी तरह इस शहर में गुजर बसर करता हूँ। मेरी सारी जमा पूँजी चली गई। मैं क्या करूँ!"

व्यास जी ने अपने पेशेवर रूप में उसे दिलासा देते हुए कहा, "देखिए, घबराइए नहीं। पहले इस संबंध में आपको एफ.आई.आर. करना होगा। फिर पुलिस मामले की जाँच करेगी। बैंक पुलिस को अपना पूरा सहयोग देगा। अगर आपकी किस्मत अच्छी रही, तो वे पकड़े जाएँगे और स्थिति अनुकूल रही, तो आपके पैसे आपको मिल भी सकते हैं। आप बाहर हॉल में जाइए। वहाँ काउंटर नम्बर तीन पर रणजीत साहा बैठे हुए हैं। वे हमारी शाखा के चैनल मैनेजर हैं। एटीएम और ऑनलाइन की शिकायत वही देखते हैं। आप उन्हें लिखित में अपनी शिकायत दर्ज़ कराएँ।"

अभी वह नवयुवक बाहर निकला ही था कि एक बुज़ुर्ग अंदर आए और काँपते हाथों से अपनी स्टिक को एक किनारे रखते हुए और कुर्सी पर साधिकार एवं निःसंकोच बैठते हुए बोले, "मैनेजर साहब, आपको मैं पहले भी कह चुका हूँ, हर तिमाही आपका बैंक मेरे खाते से पंद्रह रुपए निकाल लेता है और मुझे एटीएम से लेनदेन के अलावा कोई दूसरा मैसेज नहीं मिलता। फिर पैसे क्यों कटते हैं!"

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