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एक अदद फ्लैट - 1

एक अदद फ्लैट

अर्पण कुमार

(1)

नंदलाल यादव दिल्ली में नौकरी करते हैं और साहिबाबाद में किराए के एक फ्लैट में रहते हैं। लोकल ट्रेन से आना-जाना करते हैं। आई.टी.ओ. पर उतर कर बस से आर.के.पुरम जाते हैं।सुबह शाम सप्ताह में पूरे पाँच दिन उनकी यही दिनचर्या रहती है। किसी दिन छुट्टी हो गई तो उस दिन बल्ले-बल्ले। नंदलाल शायरी पढ़ने के शौकीन हैं और जब तब किसी पसंदीदा शे’र को गुनगुनाते रहते हैं। जो शे’र उनके मनोभावों को जम जाए या जिसका निहितार्थ उनकी ज़िंदगी पर फिट हो जाए, वह उनका पसंददा शे’र बन जाया करता था। उसे वे कभी अकेले तो कभी दुकेले गुनगुना लिया करते। उनसे शे’र सुननेवाले या कई बार उसे झेलनेवाले ज़्यादातर उनके पुराने दोस्त और सहकर्मी सुदर्शन पाठक हुआ करते। नंदलाल उन्हें अपनी या अपनी पसंद की हर चीज़ सुनाया करते और उनसे अपना सुख सुःख भी साझा करते। ज़्यादातर यह बातचीत उनके साथ लंच में टहलते हुए संपन्न होती। अभी कल ही की बात है...उन्होंने ‘शहज़ाद अहमद’ का एक शे’र सुनाया :-

“तलाश-ए-रिज़्क़ में हमने चमन तो छोड़ दिया

मगर दिलों में हैं तिनके भी आशियाने के”

नंदलाल आदतन इस शे’र को अपना बनाकर और उसका भवार्थ समझाते हुए सुदर्शन से मुख़ातिब हुए, “यार पाठक, हमलोग रोजी-रोटी की तलाश में यहाँ शहर आ गए। अपने अपने गाँव छोड़कर। हमारे लिए तो अपना गाँव ही चमन था। मगर यार, क्या यहाँ दिल्ली में तो कभी इसके आउटस्कर्ट में अपनी सारी ज़िंदगी किराए के मकानों में रहते हुए ही खप जाएगी! रह रहकर दिल मसोसता है और कहता है...यादव, क्या कभी ख़ुद के घर में नहीं रहोगे? पाठक भाई, कहीं अंदर अंगड़ाई मारते अपने इस सपने का क्या करें!”

सौंफ चबाते पाठक जी बोले, “तुम सही कह रहे हो यादव। हम सभी के दिलों से एक जैसी चिनगारी उठती है”।

लोग लंच में जहाँ ताश के खेल में डूब जाते, वहीं ये दोनों मित्र इन चर्चाओं में डूबे रहते। कभी कभार इस चर्चा में मूँगफली के दौर भी शुरू हो जाते।

कोई सवा वर्ष बाद .....

इन दिनों नंदलाल यादव निन्यानबे के फेर में हैं। या कहिए ग्यारह के चक्कर में हैं। कभी सोसायटी फ्लैट लिया न था और न उनमें रहा था। बस ससुराल के कुछ संबंधियों के यहाँ जाना हुआ था। नंदलाल की पत्नी ऊषा को उन्हीं लोगों के यहाँ आने-जाने से यह ख़याल जन्म लिया जो वक़्त के साथ अपनी जड़ें जमाता चला गया। यह ऊषा के ही लगातार बनाए गए दबाव का असर था कि नंदलाल घर बनाने की जगह बना-बनाया एक फ्लैट लेने को तैयार हुए। हालाँकि मियाँ-बीबी दोनों के लिए सोसायटी फ्लैट का ख़रीदना अंधों के लिए हाथी खरीदना सरीखना था। एकाध-दो बिंदुओं को छोड़कर उन्हें इस मामले में ज़्यादा कुछ पता न था। मगर दोनों अब बाज़ार की ओर अपने क़दम बढ़ा चुके थे। वे ग़ाज़ियाबाद में एक फ्लैट खरीद रहे हैं। फ्लैट क्या है, तीन कमरों का एक सेट है। पचास पार नंदलाल ने अपनी पूरी जमा पूंजी इसमें झोंक दी है, मगर फ्लैट की ज़रूरत है कि सुरसा के मुँह की तरह फैलती ही चली जा रही है। नंदलाल परेशान हैं और उनके पास दूर दूर तक कोई रास्ता नहीं है। रास्ते...मानो दुनिया के सभी रास्ते इन दिनों मोहन नगर एक्सटेंशन के उस फ्लैट तक जा रहे हैं और वहीं समाप्त हो रहे हैं। उन्हें सूझ नहीं रहा कि वे क्या करें और क्या न करें! आए दिन पैसों का टोटा। कभी इस मद में तो कभी उस मद में। वे बिल्कुल ही परेशान हो गए थे। अपने दोस्त और सहकर्मी सुदर्शन पाठक से एक दिन कहने लगे, “बैंक से लोन लेना क्या आकाश के तारे तोड़ लेने से कम है!”

नंदलाल यादव राँची के रहनेवाले थे और सुदर्शन पाठक मूलतः गया के। सुदर्शन स्वयं ऋण पर ऐसे किसी घर के लेने जाने के ख़िलाफ़ थे। मगर वे नंदलाल के घर में चलनेवाले महाभारत को जानते थे। वे अपने मित्र की कशमकश को भलीभाँति समझ रहे थे। उसके अरमानों को बुझते देखना नहीं चाहते थे। मुस्कुराकर बोले, “यादव साहब, मैं तो जानता ही था, यह सब कितना उलझाऊ काम है! मगर आपके यहाँ तो निर्णय सीधे ‘होम मिनिस्ट्री’ से ली जा रही है न! इसमें आपका भी कहाँ कोई दोष है! दूसरे, यह भी सच्चाई है कि आजकल हम जैसे लोग लोन के बग़ैर घर ले भी तो नहीं सकते।”

नंदलाल क्या बोलते! सुदर्शन पाठक ने उनकी दुखती रग पर अँगुली रख दी थी। वे मन मसोस कर रह गए। पत्नी की अभिलाषाओं को पूरा करने में मानो यह पूरी ज़िंदगी खप जाएगी और शायद तब भी वे उसके मनमाफिक खरे नहीं उतरें। यही गृहस्थी है। नंदलाल ने एक लंबी आह भरी। फिर सोचा, इसमें ऊषा का भी क्या दोष! उसके भी तो कुछ सपने होंगे और उसकी अपनी प्राथमिकता भी तो हो सकती है। वह क्या मेरी थोपी हर चीज़ वह मानने-सहने को तैयार है! क्या पत्नी होना अनिवार्यतः गुलाम होना है! नंदलाल अपनी पत्नी को लेकर एक करुणा से भर गए। क्या वह आजीवन अनवरत रूप से अपने को होम करती रहेगी! क्या उसकी इच्छा अपने पति से अलग नहीं हो सकती है! उन्हें अच्छे से याद है, जब से विवाह हुआ है, ज़्यादातर मामलों में वे ऊषा पर हुकूमत ही चलाते रहे हैं और वह हँसती हुई सब कुछ झेलती रही है! आज जब एक घर के लिए वह किसी खास पक्ष को लेकर अड़ी हुई है, तो क्या वे ऊषा की तरह हँसते हुए उसे पूरा करने की कोशिश नहीं कर सकते! नंदलाल के भीतर उमड़ती भावनाओं की नदी ने उन्हें कुछ बृहत्तर सोचने करने के लिए मज़बूर किया। वह सोच कुछ उतनी ही चौड़ी नज़र आ रही थी, जितनी चौड़े सोन नदी के पाट हैं। नंदलाल को दिल्ली की अपनी ज्वाइनिंग याद हो आई। वे राँची से पहली बार दिल्ली जा रहे थे। उन्होंने पहली बार सोन नदी को पार किया था। क्या दृश्य था वह भी! आज भी किसी नदी के चौड़े पाट की बात जब आती है, तब नंदलाल के ज़ेहन में उसी पाट का ख़याल आता है और उसके साथ उन्हें अपनी वह पहली ट्रेन-यात्रा भी याद हो आती है। जितनी ट्रेन काँप रही थी उतना ही नंदलाल का मन काँपता चला जा रहा था। दिल्ली को लेकर उनके मन में एक आतंक तो उस समय ज़रूर था, जो इतने वर्षों तक वहाँ रहते हुए भी भला कहाँ कम हो सका है! नंदलाल जाने कब तक अपने ख़यालों में खोए रहते मगर उनके मित्र सुदर्शन पाठक ने उनके कंधे पर अपनी हथेली रखते हुए कहा, “शाम हो आई है। घर नहीं जाना है क्या!”

नंदलाल वर्तमान में आ गए। मुस्कुराते हुए बोले, “बस उठ ही रहा था।”

कुर्सी से उनका शरीर ही नहीं उठा, बल्कि हौसलों और संकल्पों से भरा उनका मन भी उठा। कई बार ऐसी निःशब्दता किसी मनुष्य के लिए कितनी आवश्यक होती है! नंदलाल कमर कस कर तैयार हो गए। पाठक जी समेत सभी ने समझा...वे घर जाने को निकल रहे हैं। वे सब ठीक समझे, मगर इसे कोई नहीं समझा कि आज वे एक नई रोशनी के साथ घर जा रहे थे। कोई किसी को कितना भी जान ले, पूरा जानने का दावा कैसे कर सकता है। मनुष्य के मनोजगत का निर्माण भी कुछ इस तरह हुआ है। सीधा से सीधा आदमी भी कितना जटिल हो सकता है, नंदलाल अपने अंतर्जगत से अपने निकट मित्र की अनभिज्ञता को लेकर सोचते हुए हल्की हँसी हँस दिए। मगर अगले ही पल उन्हें ध्यान आया...अरे यही बात तो पाठक जी के संबंध में भी हो सकती है न! क्या पता वे भी कितनी सारी चीज़ें अपने अंदर दबाए जी रहे होंगे। ओह, इस संसार में मनुष्य को भी कितना जटिल प्राणी बनाया गया है! कुछ देर के लिए अपनी निजी समस्याओं को भूल अर्थशास्त्री नंदलाल एक दार्शनिक की तरह वैश्विक आधार पर मनुष्य मात्र के बारे में सोचने लगे। कुछ ही देर में मगर उनकी आत्मा ने धरती पर लैंड किया और उन्होंने ‘पुनर्मुषको भव’ के तर्ज़ पर अपनी समस्याओं पर ख़ुद को केंद्रित किया। बस स्टैंड पर विदा लेते हुए नंदलाल ने पाठक जी का हाथ ज़ोर से दबाते हुए धीमे स्वर में कहा, “यार पाठक, बेसिकली हम सभी चूहे हैं। एक अदना सा चूहा, जो बीच बीच में अपनी औकात भूल जाता है मगर फिर किसी न किसी उसे अपने अस्तित्व का भान हो ही जाता है।”

“क्या मतलब?” पाठक जी ने उजबक सी आँखें किए अपने सवाल पूछे।

“कुछ नहीं यार। बस ऐसे ही। कल मिलते हैं।” नंदलाल तेज़ी से अपनी मंज़िल की ओर बढ़ चले।

उन्होंने मन ही मन संकल्प लिया...चाहे जो हो जाए, वे यह फ्लैट ख़रीद कर रहेंगे। इस बार ऊषा की बात मान कर देखेंगे।

वे आई.टी.ओ. की ओर जानेवाली एक बस में झट से सवार हो गए। बस ड्राइवर भी मानो उनकी तरह कुछ तेज़ सोच रहा था, बस रुकते ही प्रस्थान कर गई।

.................

शुरू में कितनी तरह की औपचारिकताओं और कितने तरह के कागज़ों के भरने और उनके जमा करने के काम उन्हें करने पड़े! के.वाई.सी. के नाम पर दुनिया भर के दस्तावॆज़ों को उसकी मूल प्रति से सत्यापित करो। अव्वल तो आदमी का तेल, लोन लेने की प्रक्रिया में निकल जाता है। बची-खुची चिकनाहट ऋण-राशि के मार्जिन-मनी के इंतज़ाम में सूख जाता है।

एक दुपहरी ऑफिस के बाहर चाय की थड़ी पर नंदलाल, सुदर्शन पाठक से कहने लगे, “यार पाठक जी, ये जो बैंक हैं न, ये भी तो 100 प्रतिशत लोन नहीं देते ना। अगर पूरा हाउसिंग लोन साठ लाख का है तो बैंक, मार्जिन मनी के नाम पर 10% आप को ही देने को कहेगा। मतलब छह लाख आपकी जेब से। आपकी सारी बचत राशि इस लोन के हवाले। सैंकड़ों की जो राशि आपको बड़ी लगती थी, वह आपको सहसा छोटी लगने लगती है। आप वहीं रहते हैं मगर आप पर किसी लखपति / करोड़पति का साया मँडराने लगता है। कुछेक दिनों के लिए तो कभी कुछ कुछेक महीनों के लिए आप बड़ा सोचने लगते हैं। सचमुच के तो आप बड़े होते नहीं, मगर उतने समय सचमुच बड़ा सोचने लगते हैं। ऐसे में तनाव की एक तिर्यक रेखा आपके ललाट पर खींच जाती है। वह तनाव आपको ताकत क्या देगा अंदर ही अंदर आप को तोड़ देता है। घर खरीदने की ख़ुशी घर में प्रवेश करने से बहुत पहले ही आप से अपनी कीमत माँगने लगती है।”

सुदर्शन पाठक ने अपने चेहरे पर चिंता के भाव अवश्य दिखाए मगर अगले ही पल अपने विशालकाय उदर पर उन्होंने इत्मिनान भाव से हाथ फेरे मानो ईश्वर को शुक्रिया कह रहे हों कि उसने उन्हें इस झमेले से बचाए रखा। फिर कुछ सोचते हुए बोले, “यादव साहब, जब इतना बड़ा फ्लैट ले रहे हैं तो परेशानी तो आएगी ही ना! एक तरफ़ दिल्ली के पार्श्व में रहेंगे तो दूसरी तरफ़ उसकी आँच को भी सहना ही होगा न! आख़िर दोनों हाथों में आप कैसे लड्डू रख सकते हैं?”

नंदलाल चुपचाप चाय की चुस्की लेते रहे। अपने दोस्त की चुभती बात भी उन्हें चुभी नहीं। मानो इस क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ आए हों। समंदर के किसी तैराक सा, जिसे अब दुनिया की कोई परवाह नहीं रह गई हो। बस जो अपने श्रम पर भरोसा करते हुए आगे बढ़ता चला जा रहा है। नंदलाल ने प्रकटतः कहा, “कोई बात नहीं पाठक जी। आपने वह कहावत तो सुनी ही होगी। जब ओखल में सर दिया तो मूसल से क्या डरना! येन केन प्रकारेण मैं समस्याओं के इस बीहड़ जंगल को सही सलामत पार कर ही जाऊँगा।”

लंच पर ऑफिस से बाहर निकले काफी देर हो गई थी। दोनों मित्र तेज़ तेज़ कदमों से ऑफिस की ओर बढ़ निकले। पाठक जी की चाल में तसल्ली थी तो यादव जी के चाल में एक छटपटाहट। दो मित्र एक साथ एक सड़क पर चल रहे थे। दोनों को पहुँचना भी एक जगह ही था। मगर दोनों के दिलो-दिमाग में बिल्कुल भिन्न चीज़ें गतियमान थीं। पाठक जहाँ निश्चिंत थे वहीं यादव परेशानमना। पाठक जी के पास गया में खूब बड़ा एक पुश्तैनी मकान था जहाँ वे सेवानिवृत्ति के बाद बसने की सोच रहे थे, वहीं यादव शायद अब इन्हीं इलाकों में रमने को लगभग तैयार थे।

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