कांट्रैक्टर
अर्पण कुमार
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देखते-देखते एक साल और बीत गया। रजिंदर मित्तल का तीन वर्षों का कार्यकाल पूरा हो चुका था। एक आदेश जारी हुआ और रजिंदर मित्तल रायपुर से दिल्ली के लिए रवाना हुए। जाते-जाते भी टीसीएस ने उनकी सेवा में कोई कमी नहीं छोड़ी। उनके पीछे उनके घर का एक-एक सामान मूवर्स एंड पैकर्स वाले के साथ मिलकर पैक करवाया और उन्हें दिल्ली पहुँचाया।
इस बार रायपुर में भोपाल से स्थानांतरित होकर वरुण मिश्र ने कार्यालय-प्रमुख का कार्यभार सँभाला। सदा की भाँति टीसीएस करबद्ध उन्हें गुलदस्ता देने के उद्देश्य से ऑफिस पहुँच गए। पी.ए. बिकास चटर्जी को अंदर जाकर सूचित करने के लिए बोले। कुछ देर में बिकास चटर्जी बाहर आए और उन्हें अंदर जाने को कहा। सगर्व भाव टीसीएस गुलदस्ता सहित अंदर जाने को उद्यत हुए। तभी बिकास ने उन्हें टोकते हुए कहा, "राव साहब, यह गुलदस्ता आप यहीं छोड़ दीजिए। साहब को गुलदस्ता वगैरह लेना पसंद नहीं है।"
कुछ देर के लिए टीसीएस का चेहरा उतर गया मगर साठ वसंत देख चुके राव को अपने अंदर की भावना को बख़ूबी छुपाना आता था। वे इस स्थिति को सँभालने की गरज से मुस्कुराए और खिसीयानी हँसी हँसते हुए उन्होंने बिकास से कहा, "चटर्जी जी, यह गुलदस्ता आपके लिए। साहब न लें तो साहब के पी.ए. ही सही।" मगर बिकास ने हाथ जोड़ लिए, "राव साहब, हमारे साहब ने हममें से किसी को भी कोई गिफ्ट लेने से मना किया है।"
अचानक से एक बॉस के आने से उन्हें यह सब सुनना पड़े, एकबारगी टीसीएस तिलमिला गए मगर अपने ड्राइवर के हाथ में गुलदस्ता पकड़ाते हुए बोले, "जा बेटा भगत, इसे गाड़ी में रख दे। साहब लोग आज कुछ उखड़े-उखड़े नज़र आ रहे हैं।"
केबिन में जाकर अपना परिचय देते हुए टीसीएस ने चिर-परिचित अंदाज में कुछ धीरे से रुक-रुक कर बोलना शुरू किया , "सर, कैसे हैं? यहाँ रायपुर में मेरा पूरा जीवन गुज़रा है। मेरे रहते किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं होगी, सर। आप बताएँ सर, मैं आपके लिए निवास किधर ढूँढ़ दूँ? और आप जब तक गेस्ट हाउस में हैं, आपके लिए यहाँ ऑफिस में लंच आ जाएगा, सर। मैंने अपने स्टॉफ को बोल दिया है।"
वरुण मिश्र ने राव के ऐसे प्रस्तावों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। वे अपने टेबल पर लगे कंप्यूटर पर काम कुछ-कुछ काम करते रहे। तब तक टीसीएस चुपचाप बैठे रहे। कुछ देर में वरुण मिश्र मुस्कुराते हुए राव की ओर मुखातिब हुए और बोले, " हाँ, तो क्या नाम हुआ आपका?"
कुछ देर के लिए राव झेंप गए मगर फिर सहज होने का प्रयत्न करते हुए बोले, "सर, मैं टीसीएस राव हूँ। छत्तीसगढ़ में आपके इस ऑफिस की जितनी ब्रांचेज हैं, उनमें मेरा ही जेनरेटर लगा हुआ है सर। साथ ही यहाँ मीटिंग के दिन जितने हाई-टी होते हैं, उसकी व्यवस्था यह सेवक ही करता है, सर। आपकी इस ऑफिस में दो गाड़ियाँ लगी हैं, वे मेरी ही ओर से प्रोवाइड कराए जाते हैं, सर।"
"ठीक है।" वरुण मिश्र ने अपनी ओर से कुछ अतिरिक्त उत्साह नहीं दिखाया।
"आप कुछ लेंगे, चाय...कॉफी?" कंप्यूटर के स्क्रीन पर नज़र गड़ाते हुए औपचारिकता वश वरुण ने टीसीएस के अनुभवी कानों को निमंत्रण के पीछे की शुष्कता को समझने में देर नहीं लगी। पूरे केबिन को टावर एसी ने भरपूर ठंडा कर रखा था। मगर इस शीतल माहौल में भी उनके चेहरे पर पसीने चुहचुहा आए। उन्होंने एसी की ओर देखा। यह ऐसी और ये कुर्सियाँ-टेबल, केबिन की साज-सज्जा सब उन्होंने ही तो करवाया था। हर सामान के पीछे भरपूर कमीशन कमाया था उन्होंने। उन्होंने एक निगाह उसी एसी की ओर डाली। वरुण मिश्र ने मामले को भाँपते हुए कहा, "एसी की कूलिंग और बढ़ाऊँ क्या? "ठीक है। मैं निकलता हूँ।"
फिर कुछ देर रुकते हुए बोले, "मेरे लायक कोई सेवा हो तो ज़रूर बताएँ सर।" अबतक टीसीएस की आवाज़ में हकलाहट का स्पष्ट बोध होने लगा था।
" "
सामने की ओर से कोई जवाब न मिलता देख, टीसीएस कुछ असहज हो रहे थे। कुर्सी से उठते हुए उन्होंने कहा, "चलता हूँ सर।"
और फिर वरुण की ओर थोड़ा मुँह झुकाते हुए उन्होंने अपनी ओर से ब्रहास्त्र फेंका, "कोई घर ढ़ूँढ़ना है क्या सर?"
वरुण मिश्र संयत स्वर में बोले, " नहीं आपको तकलीफ़ करने की कोई ज़रूरत नहीं है। एक ऑनलाइन वेबसाइट पर जाकर मैंने कुछ घर देखे थे। आज शाम उन्हें देखने जाऊँगा। उन्हीं में से कोई एक घर फाइनल कर लूँगा।"
वरुण मिश्र को हर चीज़ में यूँ टीसीएस का किसी स्टॉफ की तरह घुसना पसंद नहीं था। उन्होंने अपने पी.ए. बिकास को बुलाया और उन्हें स्पष्ट ताकीद दी, "पहले के बॉस की छोड़ो बिकास। मैं बिल्कुल अलग क़िस्म का हूँ। तुम अबतक जान गए होगे। मेरा मिज़ाज कुछ हटकर है। मैं न तो स्वयं किसी की खुशामद करता हूँ और न ही किसी से अपनी करवाना चाहता हूँ। ये टीसीएस जैसे लोग, मुझसे अधिक से अधिक दूर ही रहें।"
.......
यह टीसीएस के लिए एक नई बात थी। इतना बड़ा अफसर उसे घास नहीं डाल रहा था और अपने सारे काम वह बड़ी चतुराई से संपन्न किए जा रहा था। टीसीएस एक मँजे हुए ठेकेदार थे और अबतक इस कंपनी के कुछ बड़े अधिकारियों को मिलाकर वे इस पूरी कंपनी पर जाने कितने सालों से राज करते चले आ रहे हैं। वे अमूमन पूरे ऑफिस में कुछ चुनिंदा लोगों से ज़रूर मिलते थे, मगर उस दिन बिना किसी से मिले ऑफिस से बाहर निकल गए। ऑफिस के कॉरीडोर में तृतीय तल पर लिफ्ट को आने में कुछ वक़्त लग रहा था। टीसीएस ने अपने सहयोगी साले से कहा, "चलो अनूप। आज साली लिफ्ट को भी आने में देरी हो रही है। जाने हमलोग किस मुहुर्त में निकले थे!"
"हउ जीजाजी, आज का दिन ठीक नहीं रहा। चलो, सीढ़ियों से ही चलते हैं। कुछ वज़न ही कम होगा।"
टीसीएस ने अपनी आँखें तिरछी करती हुई अपने साले की ओर देखा और चेहरे पर क्रोध के कुछ भाव लाते हुए पूछे, "क्या मतलब अनूप? तुम क्या कहना चाह रहे हो? मेरा वज़न तुम्हें कहाँ से ज़्यादा लग रहा है? क्या तुम मुझसे चिढ़ते हो?"
अनूप उम्र में टीसीएस से कोई पंद्रह साल छोटा था और अपनी बहन से 11 साल। कुछ झेंपता और रहस्यमय तरीके से मुस्कुराता हुआ उसने जवाब दिया,"कैसी बात करते हैं जीजाजी, मेरी इतनी मज़ाल !"
अनूप अभी 45 वर्ष का था और साठ साल पूरा कर चुके अपने बहनोई के व्यवसाय में हाथ बँटाता था। अनूप के बाकी दो भाई अपनी-अपनी नौकरियों में आ गए थे और वे धीरे-धीरे टीसीएस से दूरी बना चुके थे। उन्होंने अपने छोटॆ भाई अनूप को भी कई बार टीसीएस के चंगुल से बाहर निकालने की कोशिश की मगर वे कामयाब नहीं हुए। बेरोजगार अनूप शुरू से ही टीसीएस की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया था। वे दोनों कई बार साथ-साथ हमप्याला भी होते थे। टीसीएस ने धीरे-धीरे उसे अपने प्रभाव में ले लिया था। पहले उन्होंने उसे उसके परिवार से अलग किया और फिर उसका अपने हिसाब से इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। अनुप को कुल व्यवसाय से होनेवाले लाभ का एक छोटा हिस्सा मिलता था और वह उसके लिए काफ़ी था। टीसीएस ने उसे ऐसी पट्टी पढ़ाई कि वह अब शादी भी नहीं करना चाहता था। कई बार दोनों को हमबिस्तर होता हुआ भी देखा गया था, मगर टीसीएस के किले में सभी चुप रहते थे। आँखें खुली रख सकते थे, मगर ज़ुबान को बंद ही रखना होता था। मानसिक तनाव की किसी अवस्था में टीसीएस ख़ासकर बड़ा आक्रमक हो उठते थे और वे अपना सारा पुरुषार्थ अनूप पर निकालते थे । उस रात भी देर तक दोनों हमप्याला हुए। टीसीएस ने वरुण मिश्र को मनभर गाली दी। अपने मन की पूरी भड़ास उन्होंने अनूप पर उड़ेल दी। सुबह लस्त-पस्त जीजा-साला दोनों देर तक सोते रहे। जीजा हल्का होकर अपने घर बनाम होस्टल में इधर-उधर घूम रहा था तो दूसरी ओर मंद-मंद कराहता और लंगड़ाता साला, घर-भर में सभी से ख़ासकर अपनी बहन से नज़रें बचाता फिर रहा था।
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