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कांट्रैक्टर - 1

कांट्रैक्टर

अर्पण कुमार

(1)

सब अपने-अपने हिसाब से नौकरी करने आए थे। सब अपने-अपने हिसाब से नौकरी किए जा रहे थे। अगर देखा जाए तो आख़िरकार कोई ऑफिस भला क्या होता है! राजनीति और कार्यनीति का अखाड़ा ही तो। एन.आई.सी.एल. भी कुछ वैसा ही ऑफिस था। बड़े पदों वाले बॉस आते-जाते रहते थे मगर कुछ स्थानीय लोग छोटे और मंझोले पदों पर वहीं जमा रहा करते थे। बॉस को भी आने से पहले हर बात की पूरी जानकारी रहा करती थी। कोई भी बॉस अपेक्षाकृत इस पिछड़े माने जानेवाले इलाके में अव्वल तो आना नहीं चाहता था, मगर जब उसकी एक भी न चलती थी, तो वह भाया भोपाल, इस इलाके में आ जाया करता था। उसे आने से पहले ही अपने जाने का इंतज़ार रहा करता था। उसे मालूम होता था, किसी तरह उसे सिर्फ़ तीन साल यहाँ बिताने हैं। समय के साथ, इस बड़ी संस्था का हरास हो रहा था। स्टॉफ एक साथ काइयाँ और बेचारे दोनों थे। काइयाँ इस मायने में कि सबकुछ देखकर भी वे चुप रहा करते थे। बेचारे इसलिए कि वे ख़ुद भी हर तरह के समझौतों में आकंठ डूबे हुए थे।

कार्यालय-प्रमुख के रूप में रजिंदर मित्तल ने नया-नया कार्यभार सँभाला था। ऑफिस अपने हिसाब से चल रहा था। यह एक बीमा कंपनी थी और इसकी विभिन्न शाखाएँ अन्य राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ में भी फैली हुई थीं। रजिंदर मित्तल के कार्यभार ग्रहण करने के कुछ समय बाद ही उसी एन.आई.सी.एल. में विकास अधिकारी राकेश साहू भी नया नया नियुक्त होकर आया। नए नए आए रजिंदर मित्तल से सभी ख़ूब डरा करते थे। वे एक तेज़-तर्रार उच्च अधिकारी थे। महाप्रबंधक। पूरे सूबे में जी.एम.सर, जी.एम. सर के नाम से उन्हें हाथों-हाथ लिया जाने लगा। उनकी प्रशंसा में जितने गीत गाए जाते, वे उतना ही प्रसन्न हो जाया करते। मगर बाहरी रौब-दाब वाले अफसर के पीछे एक चालाक और मतलबपरस्त व्यक्ति भी था। आते ही पूरे राज्य को उन्होंने अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश की। एक तरफ़ ऑफिस के लिए वे व्यवसाय ला रहे थे तो दूसरी तरफ़ अपने लिए कुछ निजी फ़ायदों के जुगाड़ भी लगाने लगे थे। उन्हें अपने लिए हरेक सुविधाएँ मुफ़्त में ही चाहिए होती थीं। वह चाहे फिर दफ़्तर में दोपहर का भोजन हो या फिर शहर में अपनी श्रीमती के लिए शॉपिंग आदि की व्यवस्था करना, अपने जन्मदिन पर शानदार दावत देनी हो या फिर परिवार सहित कहीं सैर पर जाना हो, वे हर चीज़ के लिए या तो कार्यालय के संसाधनों का दोहन करते या फिर या फिर टीसीएस के ऊपर निर्भर होते। टीसीएस दिन-रात उनकी सेवा में लगे रहते । वे जानते थे कि रजिंदर पर बीस-पच्चीस हजार रुपए खर्च कर वे बड़े आराम से अपने चार-पाँच लाख का काम निकलवा सकते हैं। व्यावसायिक बुद्धि में टीसीएस का कोई शानी न था। एन.आई.सी.एल. के कुछ ऐसे शीर्ष प्रबंधन के लोगों को पटाकर ही वे आज इस मुकाम तक पहुँचे थे। उसे क़रीब से जाननेवाले पवन गुप्ता एक दिन राकेश साहू को बताने लगे, "अरे साहू जी, यह जो टीसीएस है न, यह विकट चालू चीज़ है। ऊपर के कुछ अफसरों की चापलूसी करता है और हम सबके नाक में नकेल कसे रहता है, यार। भोपाल से आने वाले सभी जी.एम. को कभी बस्तर तो कभी अमरकंटक तो कभी रतनपुर घुमा लाता है। उनसे कोई पैसा नहीं लेता। और उसके बदले में, उनकी मार्फ़त हमारे यहाँ नए-नए वर्क ऑर्डर लेता रहता है।"

राकेश भला क्या बोलता, वह चुपचाप पवन गुप्ता की बातें सुनता रहा। बस इतना ही कहा, "क्या कहें गुप्ता जी। हम लोग पॉलीटिशियन को दोष देते फिरते हैं और हमें ख़ुद जहाँ मौका मिलता है, हम ऐसे टीसीएस पाल लेते हैं। आपको बताऊँ, जब मैं जबलपुर से यहाँ रायपुर आया था तो ये महाशय मेरे पीछे भी पड़ गए। मेरे घर के सामानों को जमाने के लिए कहने लगे। यार गुप्ता जी, मुझे बड़ा अजीब लगा। मान न मान, मैं तेरा मेहमान।"

पवन गुप्ता ने धीरे से राकेश के कानों में कहा, "अरे यार साहू, तुम बच गए। नहीं तो तुम्हें ऑबलाइज करके तुम्हारा भी किसी न किसी रूप में वह फ़ायदा लेता। और कुछ नहीं तो अपने कुछ पुराने एसी के पार्ट्स को इधर-उधर करके तुम्हारे घर में नया एसी कहकर लगवा देता। तुमसे रेट भी कुछ कम ले लेता और ऑफिस में उसी बहाने तुमसे जाने कैसे -कैसे काम करवा लेता!"

राकेश कुछ देर चुप रहा और फिर कहा, “चलिए, जो होता है, अच्छा ही होता है, बॉस। मैं उसके चंगुल से बच गया। वैसे भी मुझे यह चीज़ कुछ समझ में नहीं आती है कि हम अपने पारिवारिक कार्यों में किसी कांट्रैक्टर को क्यों इंगेज़ कर लेते हैं। अपने काम में हम ख़ुद सक्षम हैं, बॉस। हर तरह के ट्रांसफर और अलग-अलग जगहों पर रहने का हमारा अनुभव कोई कम है क्या! फिर हर जगह थाने की तरह हमारी शाखाएँ और कार्यालय हैं जिनके बंदों से हम सही राय ले सकते हैं। यार गुप्ता जी, मैं तो बमुश्किल दो सप्ताहों के अंदर किसी भी नए शहर में पूरी तरह ढल जाता हूँ। नया घर ढ़ूँढ़ने से लेकर गृहस्थी जमाने की सारी जगहों, दुकानों, बाज़ारों, लोग-बाग तक हर चीज़ का मुझे भलीभाँति आइडिया हो जाता है।"

ऑफिस की दूधिया रोशनी में पवन गुप्ता का गौर-वर्ण चेहरा दमक रहा था। उनके चेहरे पर हरदम मुस्कान खिली रहती थी और ललाट पर लगा लाल टीका उनके व्यक्तित्व को कुछ अधिक ख़ास बना दिया करता था। जब वे हँसते थे तो उनके ललाट पर कई रेखाएँ बनती थीं। और फिर उस टीके की लंबाई कुछ कम और चौड़ाई कुछ अधिक हो जाया करती थी। सुनहरी फ्रेम वाले अपने चश्मे के शीशे से झाँकते हुए उन्होंने राकेश को देखा और कुछ गंभीर होते हुए बोले, "यह ठीक है राकेश कि तुम इतना कुछ कर लेते हो। मगर ज़्यादातर लोग तो यहाँ इस टीसीएस के भरोसे ही रहते हैं यार। अभी जगदलपुर में जहाँ अपना डिस्ट्रिक्ट लेवल का ऑफिस है, प्रमोशन लेकर और उसके हेड बनकर मनोज मिश्र यहीं से वहाँ गए। यहाँ भी उनका टीसीएस से पटता ही था। यह पट्ठा उनके जाने से पहले ही जगदलपुर में उनके लिए घर खोजकर रेडी था। सामान पहुँचने और जमने में कोई चार-पाँच दिन लग गए। तब तक टीसीएस की ओर से फ्री में दोनों टाइम पूरे परिवार के लिए खाना आदि की व्यवस्था थी। और जब सामान आया तो एसी, पलंग, आर.ओ. आदि का इंस्टॉलेशन भी फ्री में इसके लेबर द्वारा ही किया गया। और हाँ, बदले में वहाँ बंद पड़ी कैंटीन का टेंडर महीने भर के भीतर टीसीएस के फर्म को मिल गया। यह बहुत ऊँची चीज़ है यार। इससे पार पाना बहुत मुश्किल है। यह विकट खिलाड़ी है।"

राकेश चुपचाप पवन गुप्ता के धाराप्रवाह वक्तव्य को अपनी आँखें फाड़े सुनता रहा। पवन गुप्ता ने अपना पूरा करिअर छत्तीसगढ़ में रायपुर के आसपास के इलाकों में गुज़ारा था। अतः उन्हें यहाँ के चप्पे-चप्पे की जानकारी थी। रायपुर से लगे दुर्ग, राजनाँदगाँव, कांकेर, जगदलपुर, बिलासपुर, कोरबा, रायगढ़, अंबिकापुर आदि बड़ॆ जिला-मुख़यालयों पर उद्घाटित और विकसित होते कई कार्यालयों और शाखाओं में से कुछ के साथ उनके सीधे संबंध रहे और कुछेक में तो उस अवधि में वे वहीं नियुक्त रहे। राकेश उनकी बातों को बड़े डूबकर सुनता। इनके पीछे बहती अनुभव की नदी की धारा में तरोताज़ा होकर बाहर निकलना उसे बड़ा अच्छा लगता। जब भी मौक़ा मिलता, वह उनसे पुराने दिनों की कुछ बातें ज़रूर सुनता। उसे इससे इस ऑफिस को, यहाँ के लोगों को और कई ज़रूरी प्रसंगों को समझने में सहायता मिलती। पवन गुप्ता ने अपने चश्मे के शीशे के ऊपर से सीधे राकेश की आँखों में झाँकते हुए आगे कहना शुरू किया, "आप तो अभी अभी आए हो राकेश जी, मगर हमलोग तो इसे शुरू से जान रहे हैं। रायपुर में टीसीएस सचमुच पहुँची हुई चीज़ है। एक समय तो यह हो गया था कि लोग अपनी यूनियन और ऐसोशिएशन से न कह कर ट्रांसफर जैसे कामों के लिए इससे संपर्क करने लग गए थे। अरे भइया, यह विकट तोप चीज़ है।"

राकेश, 'विकट' शब्द पर ध्यान देकर थोड़ा हँस पड़ा। उसने गौर किया कि पवन गुप्ता को अपने इस तकिया-कलाम से कुछ ज़्यादा ही प्यार है। पवन गुप्ता रायपुर के पुराने वाशिंदे थे और काफ़ी समय से इस इलाके में ही नौकरी करते रहे, सो वे टीसीएस के कई कारनामों के अंतरंग क़िस्सों से अवगत थे। वे भी टीसीएस के बारे में हर किसी से तो बात नहीं करते थे मगर राकेश के साथ-साथ बैठने और उससे कुछ घनिष्ठता हो जाने के कारण वे कभी-कभी रौ में आकर टीसीएस की कोई चर्चा उससे कर दिया करते। उस दिन भी पवन गुप्ता अपनी पूरी धुन में थे और शायद टीसीएस को रुई की तरह धुन कर रख देना चाहते थे।

....

वित्त-वर्ष का अंत होनेवाला था। कार्यालय में स्टॉफ वेलफेयर के नाम पर लगभग अस्सी हजार रुपए बचे हुए थे, जिन्हें किसी कार्यक्रम पर खर्च करना था। एक दिन रजिंदर मित्तल ने राकेश साहू को अपने केबिन में बुलाया। शुरू में उन्होंने राकेश के कार्यों की प्रशंसा की और बाद में असली मुद्दे पर आए, "राकेश, अपने पास बच-बचाकर वेलफेयर के लिए अस्सी हजार रुपए बचे हुए हैं। इसे हम साठ लोगों पर खर्च करना है। देखो, कोई ढंग का एक कर्चरल प्रोग्राम बनाओ। और हाँ, मैंने टीसीएस को भी बोल दिया है। वह तुम्हारी सहायता करेगा। बाकी बातें आप महतो जी से समझ लो।"

"जी सर", राकेश इतना बोलकर रह गया। बगल में ही एच.आर. के सेक्शन हेड हरिकिशन महतो भी बैठे हुए थे। हरिकिशन सेवानिवृत्ति के कगार पर थे और कई घाटों के पानी पीए हुए थे। राकेश ने उनकी ओर देखा मगर वे चुप और प्रतिक्रियाविहीन रहे।

राकेश उसी दिन सब कुछ पता करके अपना होमवर्क पूरा कर लिया। मगर वह जानबूझकर अपनी ओर से आगे बढ़कर हरिकिशन के पास नहीं गया। अगले दिन रजिंदर मित्तल ने पहले हरिकिशन को बुलाकर इस संबंध में हुई प्रगति के बारे में पूछा। मगर हरिकिशन की ओर से कोई उन्हें कोई अपडॆट नहीं मिला। फिर उन्होंने राकेश को बुलाया और उससे पूछा। उसने अपनी पूरी तैयारी बता दी। हरिकिशन को यह अंदाज नहीं था कि कल का आया छोकरा इतनी ज़ल्दी इतना कुछ करके बैठ जाएगा। मगर उन्होंने उल्टॆ रजिंदर मित्तल से राकेश की शिकायत लगा दी, "मुझसे इन्होंने कुछ भी नहीं पूछा, सर। जो कुछ किया, अपनी मर्ज़ी से ही किया।"

रजिंदर भी हरिकिशन के ढीलेपन से परिचित थे मगर राकेश पर नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा,"आप दोनों मिलकर सब कुछ तय कीजिए। और हाँ, याद रहे, टीम स्पिरीट से।"

यह कहकर रजिंदर ने अपनी सिगरेट सुलगा ली और अपने केबिन से संलग्न टॉयलेट में चले गए। दरवाज़ा दोनों की चेतना और अहं पर जाकर ठक्क से लगा और बंद हो गया।

हरिकिशन, राकेश से एक पद वरिष्ठ थे और उन्होंने केबिन से बाहर निकलकर राकेश के आगे एक सीनियर की भूमिका में आते हुए कहा, "राकेश, आओ, मेरी केबिन में। आगे का प्रोग्राम बनाते हैं।"

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