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कांट्रैक्टर - 5

कांट्रैक्टर

अर्पण कुमार

(5)

जिस दिन सांस्कृतिक संध्या का आयोजन था, सुबह से ही गहमागहमी शुरू हो चुकी थी। टीसीएस अपनी आदत के मुताबिक ऑफिस में इधर-उधर घूमता फिर रहा था। राकेश भी अपने कार्यालयी कार्यों के साथ नीचे की जा रही तैयारी का मॉनीटर कर रहा था। दोनों दो दिशाओं में व्यस्त थे। मामूली से दुआ सलाम के बाद दोनों अपने-अपने काम में व्यस्त थे। राकेश ने दो दिन पहले ही बैनर वाले वेंडर चंदर कश्यप को अपनी सीट पर बुलाकर बैनर बनाने से लेकर माला, चंदन, कपूर, पोस्टर आदि कई सामग्री लाने के कुछ छोटे-मोटे काम दे दिए थे। ऑफिस में कुछ निश्चिंत भाव से वह एक-एक सभी कार्यक्रमों की सूची को क्रमवार अंतिम रूप दे रहा था। कई सारे शे'र भी उसने मौक़े के अनुरूप छाँट रखे थे ताकि दो प्रतिभागियों के बीच की कड़ी को प्रभावी और आकर्षक रूप से जोड़ा जा सके। लंच के बाद वह कार्यालय के पास ही स्थित सुषमा गिफ्ट सेंटर से कुछ आकर्षक गिफ्ट प्रतिभागियों के लिए चयनित कर रहा था। उसने वहीं से चंदर को बुलाने और बैनर लगाने एवं अन्य सामानों को जमाने के लिए फोन किया। उसे आश्चर्य हुआ कि वह फोन नहीं उठा रहा था। राकेश के साथ में उसका एक सहकर्मी चरणजीत भी था। कुछ शक व्यक्त करते हुए राकेश के दाएँ कान के पास अपना मुँह करके चरणजीत बुदबुदाया, "यार राकेश, कहीं टीसीएस ने उसे भड़का तो नहीं दिया! न आने से मना कर दिया हो, ताकि हमारा प्रोग्राम खराब कर सके।"

राकेश को शुरू में कुछ अजीब लगा। उसने चरणजीत की ओर अपना मुँह बनाते हुए कहा, "आप भी बॉस, बड़े शक्की हो। क्या टीसीएस इतना नीचे गिर कर पॉलीटिक्स करेगा कि किसी वेंडर को भी हमारे ख़िलाफ़ भड़का दे। हो सकता है कि कश्यप बाइक चला कर इधर ही आ रहा हो और ट्रैफिक के शोर में हमारा फोन नहीं उठा पाया हो।"

यह कहकर राकेश ने उसे दुबारा फोन किया। इस बार उसका फोन बंद मिला। राकेश ने चरणजीत की ओर संदेहभरी नज़रों से देखा और कहा, "यार चरणजीत जी, उसका मोबाइल बंद आ रहा है।"

चरणजीत ने अपने अंदेशे के सही सिद्ध होने की ख़ुशी में लगभग चीखते हुए कहा, "मैं कह रहा था न बॉस, वही बात निकली।"

राकेश के आगे यह एक नई चुनौती आ खड़ी थी। ऐन समय पर वह क्या करे! बैनर तो चाहिए ही था। साथ ही सजावट और गेम्स के कई आइटम उसी के पास थे। वह उधेड़बुन में पड़ गया। दोनों उसके न आने की स्थिति से निपटने की तैयारी में लग गए। गिफ्ट का आर्डर देकर दोनों वापस कार्यालय में आ गए। राकेश को यह अंदाज़ा हुआ कि क्या पता चंदर उसे नीचे मिल जाए। लगभग आधे घंटे के बाद उसने चंदर को फिर फोन किया। इस बार फोन का रिंग गया मगर पूर्ववत उसने फिर से कोई रेस्पॉंस नहीं दिया। चरणजीत राकेश के पास ही बैठा था। अब राकेश को भी यकीन हो चुका था कि चंदर हो-न-हो किसी गेम-प्लान के अंतर्गत ही ऐसा कर रहा हो। तभी इनके समक्ष टीसीएस आया और यूँ ही किसी शुभचिंतक की तरह राकेश से पूछा, " क्या हुआ राकेश जी, कुछ परेशान लग रहे हैं?"

राकेश ने इस बार अपने विरोधी को एक मौक़ा देने की गरज़ से पूरी बात टीसीएस को बता दी। टीसीएस ने तभी चंदर को फोन किया और उसे किसी गुंडे की तरह फोन पर डाँटा। फिर राकेश की ओर मुख़ातिब होता हुआ बोला, "बस आ ही रहा है वह। और बताइए, इस गरीब के लायक कोई सेवा!" राकेश ने भी अपने होंठों पर मुस्कुराहट लाने की कोशिश करते हुए टीसीएस को धन्यवाद दिया। किसी विजेता की तरह सफेद कुर्ता-पाजामा लहराता हुआ और अपने श्याम हाथों में सफ़ेद रंग का एप्पल का महँगा मोबाइल लिए टीसीएस आगे बढ़ गया। राकेश ने अपनी बड़ी आँखों को और बड़ी करते हुए चरणजीत से कहा, "मान गए बॉस, आप बिल्कुल सही थे। यह 'देवदूत' तो किसी भी हद तक जा सकता है। हमारे अपने लोग ही नहीं, बल्कि बाहर के कुछ भी लोग टीसीएस के इशारे पर नाचते हैं। अब तो आगे से मैं चंदर को कोई काम नहीं दूँगा। और मुझे ऐसा कोई काम आगे से मिलेगा, मैं साफ साफ मना कर दूँगा। इस नीचता तक मैं नहीं उतर सकता, बॉस।" इतन कहकर एक साँस में राकेश ने अपनी मेज़ पर रखे पानी से भरे गिलास कोख़ाली कर दिया।

....

शाम तक किसी तरह राकेश के मनमाफिक सारी तैयारी हो चुकी थी। राकेश ने जान-बूझकर चंदर से अपने गुस्से का इज़हार नहीं किया। टीसीएस, हरिकिशन आदि सभी से वह हँस-हँसकर बातें कर रहा था। उसे कार्यक्रम को सही तरीके से संपन्न कराना था। एक सामाजिक उद्देश्य के आगे अपने निजी पूर्वाग्रहों या इस बीच पता चले कुछ नग्न यथार्थों को एक तरफ़ रखना ही उसे उचित लगा। सांस्कृतिक कार्यक्रम जो साढ़े सात बजे शुरू हुआ तो लगभग साढ़े दस बजे तक बेधड़क चला। इस बार ऐसे स्टॉफ सदस्य भी मंच पर आए जो पहले कभी नहीं दिखे। कई नई प्रस्तुतियाँ हुईं। गणॆश वंदना से लेकर समवेत स्वर में गाए जानेवाले एन.आई.सी.एल. के कॉर्पोरेट गीत तक सभी कुछ अच्छे से संपन्न हुआ। बच्चों, महिलाओं और बड़ों ने ख़ूब मज़े किए। इस पूरे कार्यक्रम में राकेश ने हरेक के लिए कुछ-न-कुछ सोच रखा था। गेम भी चुन चुनकर रोमांचक और सर्वसमावेशी तैयार किए गए थे।कार्यक्रम के अंत अंत तक चारों ओर से राकेश की वाहवाही होने लगी। रजिंदर मित्तल ने भी मंच पर सार्वजनिक रूप से उसकी पीठ थपथपायी।

हाँ, खान-पान में कुछ कमी रह गई थी, जिसका अंदाज राकेश को था। मगर यहाँ उसके हाथ बँधे हुए थे। इसका ज़िम्मा उसके पास नहीं था। ऐसे में जो लोग इस मुद्दे को लेकर राकेश के पास आए, उसे राकेश ने सादर हरिकिशन के पास भेज दिया। पूरे कार्यक्रम के दौरान हरिकिशन का चेहरा लटका रहा। हरिकिशन से मीठा बनकर टीसीएस ने उसे ही अच्छे से 'मामू' बना दिया था। गोलगप्पे, चाउमीन और आलू की टिक्की ऐन समय पर ख़त्म हो गई थी। कुछ आइटम अच्छे थे, मगर वे खाना खाने के समय तक ठंडे हो चुके थे। उन्हें गर्म रखने का समुचित इंतज़ाम नहीं किया गया था।

...

अगले दिन कार्यालय के अधिकारी-कर्मचारी राकेश के पास आ-आकर व्यक्तिगत रूप से उसे बधाई दे रहे थे। व्यक्तिगत रूप से सभी को जोड़ कर चलने की उसकी प्रकृति की हर जगह ख़ूब प्रशंसा हो रही थी। तभी राकेश को जी.एम. रजिंदर मित्तल के केबिन में उपस्थित होने का बुलावा आया। वह उत्साहित मन से अंदर गया। वहाँ पहले से टीसीएस और हरिकिशन बैठे थे। रजिंदर मित्तल ने जान-बूझकर राकेश को बैठने के लिए नहीं कहा। राकेश उनकी बड़ी सी रिवॉलविंग चेयर के सामने खड़ा रहा। राकेश ने गौर किया...इस समय उसके बॉस बिल्कुल अलग मूड में ही थे। उसे लगा, कोई कार्यालयी उलझन होगी। वह अपनी सीट से जुड़े कार्यों के लंबित मामलों को याद करने लगा। उसे आश्चर्य हुआ, यहाँ मुद्दा ऑफिस का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संध्या की आड़ में चल रहे आरोपो-प्रत्यारोपों का था। कुछ देर तक कल के कार्यक्रम की चर्चा होती रही। राकेश को लगा, इस बार पुनः उसके बॉस उसकी प्रशंसा करेंगे। मगर यहाँ बैठा रजिंदर मित्तल कल के रजिंदर मित्तल से अलग था। वह पुनः एक खूंखार जीएम में बदल चुका था। अचानक रजिंदर मित्तल ने अपना सख्त चेहरा बनाए हुए राकेश से कहा, "देखो राकेश, रात गई बात गई।...अभी तुम्हें बहुत आगे जाना है। यह ऑफिस कई लोगों के टीम वर्क के साथ चलता है। देखो आख़िर टीसीएस के सहयोग से इतना अच्छा कार्यक्रम हो सका। तुम्हें हरिकिशन ने भी कितना गाइड किया!"

यह सब सुनकर राकेश हक्का-बक्का रह गया। उसे लगा, किसी ने उसकी सारी मेहनत का बैंड बजा दिया हो। सारा श्रेय ये दोनों महानुभाव लेने पर उतारू थे। उसे अब तक आभास हो चला था कि ये दोनों मिलकर अच्छी और सुपाच्य खिचड़ी मित्तल के आगे पका चुके हैं। अब वह अकेला था। उसकी लोकप्रियता का पहाड़ यहाँ इस तिकड़ी के सामने टुकड़े-टुकड़े टूटता चला जा रहा था। रजिंदर की कड़कती आवाज़ उसके कानों में पिघले शीशे की तरह पड़ रही थी और उसकी चुभती आखों की तपिश उसे बेहाल किए जा रही थी। रजिंदर ने आगे कहा, "तुमने अपनी हद से आगे जाकर टीसीएस को बहुत कुछ सुनाया है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। इनसे सॉरी कहो।"

टीसीएस और हरिकिशन की ओर देखता हुआ राकेश ने कहा, "सर, मैंने कोई ग़लती नहीं की है। मुझे इन दोनों महानुभावों से न के बराबर सहयोग मिला है। उल्टे, इन्होंने मेरे काम में रोड़े ही डाले हैं। इस कार्यक्रम को असफल करके ये मुझे बदनाम कर देना चाहते थे। यह प्रोग्राम कैसे संपन्न हुआ है, यह मैं ही जानता हूँ।"

हरिकिशन ने अपनी कर्कश आवाज़ में कहा, "अरे वाह, एन.आई.सी.एल. के सबसे कमाऊ पूत मानो आप ही हैं न! जैसे कि हमलोग निठल्ले बैठे हुए थे।और आप यह मत भूलिए मिस्टर राकेश साहू, आप घर में नहीं, अपने ऑफिस में हैं। अपने सीनियर से बात कर रहे हैं। ऐसे बेहूदा आरोप-प्रत्यारोप से ज़रा बचें। यह कार्यक्रम, आप अकेले का नहीं था, इससे हम सबकी प्रतिष्ठा जुड़ी थी।माना कि आपने अच्छी मेहनत की, मगर क्या हमलोगों ने कुछ नहीं किया!"

राकेश फीकी हँसी हँसता चुप रह गया। वह कहना चाहता था, "यह तो आप अपने आप से ही पूछिए सर या बाहर हॉल के किसी भी स्टॉफ सदस्य को यहाँ बुलाकर पूछवा लीजिए।"

मगर इस समय उसे कुछ न बोलना ही मुनासिब लगा।

अचानक रजिंदर मित्तल की रोबीली आवाज़ पूरे केबिन में गूँज पड़ी, " राकेश, तुमने मन से काम किया। इसका मतलब यह नहीं कि अपने सीनियर्स से बात करने की तमीज़ भूल जाओ। मुझे मालूम है, तुमने राव जी का भी खुलेआम अपमान किया है।”

“लेकिन सर, ज़रा राव साहब से पूछिए, ये मुझसे किस लहजे में बात कर रहे थे!” इस बार राकेश चुप रहना नहीं चाह रहा था।

बीच में ही टोकते हुए रजिंदर ने राकेश की तीखी फटकार लगाई, “यह कोई मछली बाज़ार नहीं है। बिहैव यूओरसेल्फ, मिस्टर राकेश।"

राकेश कुछ सकते में आ गया और चुप ही रहा। राकेश को मिली इस डाँट से टीसीएस संभवतः कुछ उत्साहित हुए और इस उत्साह में अपनी ओर से कुछ कहना चाह रहे थे, मगर रजिंदर ने उन्हें इशारों से ही चुप रहने को कहा। वापस राकेश की ओर मुखातिब होते हुए बोले, "राकेश, टीसीएस से सॉरी बोलो और इस मामले को समाप्त करो।"

मरता क्या न करता, राकेश ने धीमे से सॉरी कहा और केबिन से बाहर निकल गया। अंदर से तीनों की समवेत हँसी का स्वर, राकेश की धमनियों भीतर ज़हर की तरह उतर रहा था।

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