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एक नींद हज़ार सपने

एक नींद हज़ार सपने

उस नामुराद रात का दूसरा पहर भी बीत चुका था! दिन भर की चहलकदमी और तमाशे से ऊबी गली अब चाँद के साए में झपकियां ले रही थी और दूर किसी कोने से आती किसी कुत्ते की आवाज़ पर रह-रहकर जाग उठती थी। तमिल कॉलोनी की चौथी गली के तीसरे नम्बर का पीले रंग के एक कमरे वाला झुग्गीनुमा घर भी वहीं फर्श घुटने पेट में गढाए हुए, सिमटे पड़े सूर्या की रुक-रुककर आती सुबकियों से सिहर उठता। उसका सांवला, मासूम चेहरा जो कुछ पहले आंसुओं से तरबतर था, अब वहां सूखे आंसुओं से कई लकीरें बन गई थी जैसे तपती गर्मीं में नदी की धाराएँ सूखकर भी अपने निशान छोड़ जाती हैं। एक साइड से कटे होंठ पर छलछला आया खून, बह आई लार के साथ मिलकर, सूखकर जम चुका था। उसके नन्हे बदन पर पड़े डंडी की मार के निशान से त्वचा कई जगह से छिलकर उखड़ गई थी। पर इन निशानों और चोटों के दर्द से कहीं अधिक दर्दनाक था, उसके इर्द-गिर्द घूमता यह मासूम सवाल कि आखिर अम्मा ने उसे इतनी बेदर्दी से क्यों पीटा?

वैसे उस पुनर्वास कॉलोनी में बच्चों का यूँ पिटना कोई अजूबा नहीं था! यह तो वहां रोज का काम था पर ग्यारह साल का सूर्या समझ ही नहीं पा रहा था कि वह उन रोज पिटने वाले बच्चों और अपनी पिटाई में तुलना कैसे स्थापित करे। मतलब ये कि वह न तो मुरुगन की तरह बीड़ी पीते पकड़ा गया था, न ही रामन की तरह अप्पा की जेब से पैसे निकालते पकड़ा गया। न वह मुत्थू की तरह किसी फैक्ट्री से स्क्रैप चुराते धरा गया था और न ही सेल्वराज की तरह नहर के किनारे जुआ खेलते शराबियों के पास बैठा मिला था तो फिर अम्मा ने उसे क्यों मारा? वह तो खाली.....

नौ साल का था सूर्या जब अप्पा गया और मंगला चार की! अप्पा के जाने के बाद के इन दो सालों में जाने कितनी बार अम्मा ने उसके चेहरे को हाथों में भरकर भीगती, धुंधलाती आँखों संग कहा होगा, "अयईओ...नी एप्पो पेरी पयै आउवै? तू कब बड़ा होगा रे सूर्या? कब पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा, एक दिन तू भी कमाकर लाएगा.... कब मेरको बोलेगा, अम्मा, तू कल से सेठ लोग के यहाँ काम पर नई जाएगी। तेरा सूर्या बड़ा हो गया है। अब मैं कमाएगा, मंगला का ध्यान रखेगा, तू खाली रेश्ट करेगी।"

इन दो सालों में उसने हर दिन अयप्पा से जल्दी बड़े होने की प्रार्थना की है! अभी तो उसके हाथ दरवाजे की चौखट भी छूने लगें हैं! छत पर सोते समय रात में उठकर अकेले पेशाब जाने में नही डरता! अम्मा को तो बिल्कुल भी नहीं जगाता! अब तो पेंट की जिप भी नहीं उलझाता! पैजामे का नाड़ा भी खुद बांध लेता है! और तो और मंजू अन्ना की दुकान से सामान लाने में भी कोई गड़बड़ नहीं करता! वो सचमुच बड़ा हो गया है! पर अम्मा.....

दूर कहीं अनधिकृत बनी झुग्गी-झोपड़ियों को हटाकर तत्कालीन सरकार ने मखमल में पैबंद के लगने से बचाने की जुगत में इस झुग्गी-झोंपड़ी कालोनी को बसाया था जिसे आम भाषा में ज़े ज़े कॉलोनी पुकारा जाता था! देश, दुनिया, सरकार की नीतियों में कहीं उन स्लम बस्तियों के लिए कोई जगह नहीं थी जो ऊँची अट्टालिकाओं की आँखों में कंकड़ सी रड़का करती हैं! एक छोटी रकम के बदले मिलने वाले पच्चीस गज के प्लाटों के एवज में ये लोग अपने घरों से उजड़ यहाँ आ बसे थे! इनमें तमिल लोग बहुतायत में थे तो यहाँ एक बड़ा इलाका तमिल बस्ती के नाम से मशहूर हो गया! ये तमिल बस्ती बसी तो धीरे-धीरे बहुत से तमिल लोग यहाँ आकर बसने लगे! अपनी जड़ों से एक बार उखड़े इन विस्थापितों के जीवन में उजड़ना अब एक स्थाई शब्द बन गया था! और अब जब इन्हें जड़ें ज़माने का मौका मिला तो कुछ ने मेहनत, कर्ज़ और जुगाड़ से छोटे-छोटे कई मंजिला घर बना लिए जिनमें तमिल किरायेदार आ बसे और सूर्या के अप्पा की तरह कुछ ने यहाँ कामचलाऊ झुग्गियां डाल लीं इस उम्मीद में कि कभी खाते-कमाते चार पैसे हुए तो उनका भी एक पक्का घर होगा! कुछ लोग हुकूमत की सोच से अधिक समझदार निकले! वे प्लाट अपने तमिल परिचितों या रिश्तेदारों को बेचकर फिर कहीं अनधिकृत कब्ज़ा करके बैठ गये! शायद विस्थापन उनके खून में समा चुका था अब वे इसी में भविष्य तलाशने में लगे थे!

इस ज़े ज़े कॉलोनी के बाहर निकलो तो वहीं पास में किनारे पर बहुत पुरानी एक नहर थी जो किसी ज़माने में साफ पानी से भरी, हहराती थी और जिसके इर्द गिर्द जीवन फलता फूलता था! सुना था सभ्यताएं नदियों के किनारे फली फूलीं! और यह नहर भी इलाके के लोगों के लिए किसी नेमत से कम नहीं थी! उन दिनों आस पास के इलाकों से यहाँ बच्चों-बड़ों का ताँता लगा रहता था! इसके किनारे खूब रौनक लगी रहती और आने-जाने वालों की सरगोशियों से ये नहर-किनारा आबाद रहता! तब धोबीघाट को यहाँ से खूब रोजगार मिलता और इसके किनारे एक पूरी दुनिया बसी रहती शाम ढलने तक! पर बीते दशकों में शहरीकरण का असर यहाँ भी हुआ! फक्ट्रियों के रासायनिक कचरे और शहर के भर की गंदगी को खपाते-खपाते एक दिन यह थककर चूर हो घुटने टेक बैठी और आहिस्ता-आहिस्ता एक गंदे नाले में तब्दील हो गई! नगर निगम ने धोबियों को वहां से कहीं ओर बसा दिया! धोबी क्या गए अपने साथ यहाँ की सारी रौनक ही ले गये और छोड़ गए एक उजाड़ मनहूस ख़ामोशी! वैसे बारिशों में यहाँ थोड़ा पानी भी भरता पर साल के बाकी महीने यह अपनी गंदगी और अपने किनारे लगने वाले मच्छी-बाज़ार के लिए याद की जाती! वहां से उठती बदबू एक खास माहौल रचने लगी!

इसके आसपास की जगह उजाड़ और सुनसान थी जो कुछ रहस्यमयी लगा करती थी और इसके बारे में उन निम्नवर्गीय अशिक्षित और धर्मभीरू लोगों में काफी कहानियों के पनपने की गुंजाईश थी और ऐसा ही हुआ भी! उनके नीरस जीवन में फिर हलचल हुई! अब सबके पास सुनाने के लिए नहर किनारे के किस्से थे! किसी को वहां काला भूत दिखा तो किसी ने किनारे लगे पेड़ पर सफेद चांदी से चमकते प्रेत होने की बात सुनाई! किसी को अँधेरे में दहकती सुर्ख आँखें दिखती तो किसी ने काम से रात को लौटते पायल की झंकार सुनी यानि जितने मुंह उतनी ही बातें! औरतों और बच्चों पर इन कहानियों का खास असर पड़ा पर इन तमाम कहानियों के बावजूद उजाड़ पड़ा वह एरिया भी कॉलोनी के बसने के साथ फिर से कुछ हलचलों का आदी होने लगा!

कॉलोनी की जरूरतों ने जोर मारा और कुछ समय बाद वहीँ पास में कुछ दूरी पर एक सब्जी बाज़ार लगने लगा जहाँ बाकी मौसमी सब्जियों के साथ ऐसा काफी सामान मिलता जो तमिल लोगों के रोजमर्रा के जीवन में जरूरी होता जैसे करी पत्ता, ड्रम स्टिक, कच्चा केला, कच्चा नारियल, केले के चिप्स, दक्षिण भारतीय मसालें आदि! कालान्तर में तमिल लोगों को अपनी जरूरतों के लिए इधर उधर भटकना नहीं पड़ता था और हफ्ते में एक दिन रविवार को यहाँ वीकली बाज़ार भी लगने लगा जो इस कॉलोनी के स्तर के अनुसार सस्ता सामान मुहैया कराने का ही साधन नहीं बना, बहुतों के लिए रोजगार भी जुटाने लगा! वे लोग गाँव से सामान लाते और यहाँ अस्थाई दुकान जमाकर चार पैसे कमा लेते! वहां रहने वाले लोगों में विस्थापन की पीड़ा कुछ कम होने लगी जब उन्हें लगा उनके इर्द गिर्द एक छोटा तमिलनाडु बस गया है! कुछ दूरी पर एक दो खराद के छोटे कारखाने भी लगने लगे! कुछ लोगों को यहाँ रोज़गार भी मिलने लगा! कुल मिलाकर मामला जमने लगा था!

पर जीवन में सब केवल सकारात्मक कहाँ होता है! जीवन बहुरंगी है यहाँ सफ़ेद के साथ काले की छाया भी अवश्यम्भावी है! नहर के किनारे के खास माहौल में जल्द ही तब्दीली के कुछ नकारात्मक लक्षण भी नजर आने लगे! थोड़े दिन बाद हुआ यूँ कि नहर के किनारे तमाम गैर-कानूनी धंधे यूँ पनपने लगे जैसे हौले-हौले खेती की जमीन पर फसल के साथ-साथ खरपतवार उपज आती है! ये जगह कच्ची शराब और नशे की बिक्री के लिए मुफीद समझी जाने लगी! वहां हर शाम के धुंधलके में जुआरियों और छोटे-मोटे अपराधियों की बैठकें जमने लगीं! रात को इस सुनसान जगह से बेहतर उनके लिए क्या होता! फिर अँधेरा और उजाड़ बुराई की तासीर है और उसे अँधेरा ढूंढने में देर कहाँ लगती है! तमाम आवारा और काले धंधे वाले लोग इस बदनाम जगह की ओर चुम्बक की तरह खिंचे चले आने लगे!

इन तमाम बातों का असर कॉलोनी पर पड़ना स्वाभाविक ही था! अँधेरे की छाया क्या पड़ी, आहिस्ता-आहिस्ता कॉलोनी को बुराइयों ने अपनी चपेट में ले लिया! और आज ये हाल है कि इस कॉलोनी में लगभग सब मर्द शराब पीते हैं क्योंकि भरपेट साभंर-चावल के भी पहले इनके लिए शायद यही सबसे महत्वपूर्ण चीज बन गई है। वे चाहे कुछ भी करते हैं, फैक्ट्री में काम करते हैं, चौकीदारी करते हैं, शराब बेचते हैं, गाड़ी धोते हैं, मालीगिरी करते हैं, छोटा-मोटा काम धंधा करते हैं पर दारू ने सबके जीवन को खोखला कर उनकी खुशियों को लील लिया है और इसके महत्व का अनुपात सुखी जीवन पर काल की तरह छा गया है! नशे की सहज उपलब्धता ने उनके जीवन पर जो असर डाला उसके लक्षण अब साक्षात नजर आने लगे हैं! नशे में रोज शाम पड़ोसियों और बीवियों से झगड़ा और मारपीट उनका रूटीन है! नशे की लत ने उन्हें जीते-जी जानवर में बदल दिया है! कुछ के तो दिन की शुरुआत ही इसी से होती है!

घर के मुखिया का ये हाल और घर की हालत बिगड़ने लगी तो औरतें कब तक मूक दर्शक बनीं रहतीं! अपनी संतान और घर की चिंता में कब तक स्थितिप्रज्ञ बनी रहतीं! उन्होंने शिकायतें की, विद्रोह किये, हस्तक्षेप किया पर कुछ हासिल न हो सका! घर और बच्चों की दुर्दशा उनसे देखी न गई तो उन्होंने घर पालने के लिए अपने कदम उठाने शुरू किये! कुछ ने फैक्ट्रीरियों से घरों में लाकर छोटा-मोटा काम कारण शुरू किया तो कुछ गुज़ारा करने के लिए करीब की पॉश कॉलोनियों में मेड का काम करने लगीं! सड़क के उस पार कई संभ्रांत कालोनियां थीं तो इन मेहनतकाश औरतों को काम की कोई कमी न रही!

ये कॉलोनी हाड़तोड़ मेहनत के बाद उन्हें उन के बच्चों के लिए बच्चों के लिए दो जून की रोटी, पुराने कपडे और सामान ही मुहैया नहीं कराती बल्कि बेहद ख़ामोशी से उन्हें कुछ सपनों की सौगात भी सौंप देती है। पेटभर दो जून रोटी खाने का सपना, बेबी-बाबा की माफ़िक साफ़-सुथरी ड्रेस पहनकर उनके बच्चों के स्कूल जाने और बड़ा आदमी बनने का सपना! इन तमाम सपनों में शानदार कोठी या लम्बी गाड़ी हो न हो पर बच्चों की पढाई, जरूरत भर का सब सामान, बेटे के लिए एक नौकरी और बेटी के लिए कुछ तौले सोना जुटाने का सपना है जो हर उस तमिल औरत की पलकों के कोरों पर रोज़ सुबह जन्मता है जो कोठियों में झाड़ू-पोछा करने, बरतन- कपड़े धोने, खाना बंनाने से लेकर साहब लोगों के बच्चों की आया बनने के लिए रोज़ उन पॉश कॉलोनियों का रुख करती हैं और हर शाम ढलने पर उन झुग्गियों और छोटे मकानों से आती झगड़ा, किट-किट और मारपीट की आवाज़ों के साये में आंसू की तरह पलकों से झड़ जाता है।

एक और सपना है जो ये तमाम मेहनतकश औरतें जागी आँखों से दिन-रात देखती हैं वह है अपने बच्चों को नहर किनारे से दूर रखने का सपना पर जो अक्सर टूट जाता और जिसकी किरचें आये दिन उनके दिलों को छलनी किये रहतीं हैं! अजीब बात यह है कि यह सपना आये दिन कड़वी हक़ीकत में बदलता है तो छलनी किसी एक का दिल होता है और चुभन का अहसास वे सभी झेलती हैं! उन्हें लगता है नहर का प्रेत उनके सपनों पर एकटक अपनी कुदृष्टि जमाये रहता है पर वे जुझारू औरतें इसके साए में भी जिन्दगी से जूझने के गुर एक दूसरे को सिखाती रहतीं हैं! इसके बावजूद नहर के प्रेत के साए में आये उनके अपने, उनके सपनों की जद से दूर बहुत चले जाते थे!

सूर्या का अप्पा भी तो पीता था रोज़ और आधी कमाई दारू में ही उड़ा देता! सुबह अम्मा और बच्चों को खूब प्यार करता था! लंच बॉक्स की थैली के साथ नये-नये वायदों की ऊँगली थामे, वह ख़ुशी-ख़ुशी घर से निकलता पर ऐसा हर तीसरे दिन होता कि सुबह बच्चों का माथा चूमकर निकलने वाला अप्पा रात के अँधेरे में नहर किनारे से लड़खड़ाता हुआ लौटता तो कोई और होता, सूर्या और मंगला का अप्पा नहीं जिसे देखते ही वे सहमकर अम्मा के पीछे छुप जाते! नशे में पैसे न मिलने पर वो हैवान बन जाता तो सबकी हड्डी-पसली एक कर देता। कभी-कभी यूँ भी होता कि अम्मा पर सुबह जान लुटानेवाला अप्पा रात में सब भूल जाता और महिना भर हाड़तोड़ मेहनत के बाद सामने की कॉलोनी से कमाए गये उसके चार पैसे भी छीनने से बाज न आता! सुबह से रात तक, प्यार से मार और चुम्बन से तमाचों तक के इस सफर का बदलाव सूर्या की छोटी-सी बुद्धि में कभी घुसता ही नहीं था। क्या हो जाता है अप्पा को? डरी, सहमी उदास मंगला पूछती तो अम्मा बोलती थी नहर के प्रेत का साया है अप्पा पर! सूर्या देखता था, ऐसा कहते समय कैसा धुआं-धुआं हो जाता था अम्मा का चेहरा! दुःख का एक बादल कहीं से आकर उसके चेहरे पर छा जाता और उसकी आँखों से बरसने को आतुर हो उठता!

उन बाकी बुरी शामों की तरह उस शाम भी अम्मा खूब रोई थी! अप्पा ने भी बाकी शामों की तरह उस शाम वादा किया कभी दारू नहीं पिएगा! दारु को हाथ नहीं लगाएगा! पर अम्मा जानती थी अप्पा के वादे की, उसकी कसमों की उम्र एक शाम और एक बोतल से बढ़कर कभी नहीं होती! अगली ही शाम, जब पिघलते नारंगी सूरज की गेंद नहर किनारे के बड़े पीपल के पीछे गुम हो रही थी, कॉलोनी में तेज़ संगीत गूंजने लगा! “व्हाई दिस कोलावरी कोलावरी कोलावरी डी........”! ये पिछली गली में रहने वाले परचून की दुकान वाले मंजुनाथन के बेटे श्रीकांत के विवाह की दावत थी! पूरी कॉलोनी जमा थी! ख़ुशी का मौका था, सबकी साझी ख़ुशी का मौका! जो कल तक लड़ने-मरने की कसमें खाते थे, आज सब मिलकर मस्ती में नाच रहे थे, झूम रहे थे, खा रहे थे, पी रहे थे! पर नहर के प्रेत की नज़र से कौन बच पाया था! उसने अंगड़ाई ले अपने पांव पसारे और उसका कद बढने लगा! और अब उसके काले साए तले अब पूरी कॉलोनी थी!

देखते ही देखते कोहराम मच गया! मातम वहां स्थायी भाव बन गया था! कैसा तो बुरा समय था! जिसे देखो वही मौत से लड़ रहा था! रुदन और हाहाकार ऐसा कि पत्थर का कलेजा भी काँप जाए! चारों ओर अफरातफरी मची थी! देखते ही देखते लगभग आधी कॉलोनी सरकारी अस्पताल पहुंच गई। कुछ इसे प्रेत का कहर बताते रहे और कुछ कहते रहे, ये नहर किनारे बिकने वाली सस्ती नकली दारू का असर था जो जहर बन गई थी! अप्पा फिर कभी घर नहीं लौटा। बाकी कईयों के साथ उसकी बॉडीभी उस गाड़ी में थी जिसके आते ही कॉलोनी के रुदन ने आसमान तक हिला कर रख दिया था! उस दिन सूर्या को मालूम पड़ा, उसका अप्पा अब अप्पा नहीं डेड बॉडीथा!

और अम्मा, वो तो रो-रोकर पत्थर हो गई थी! उस पर तो पहाड़ टूट पड़ा था! उसकी लुटी-पिटी दुनिया एक झटके में तबाह हो गई! पर सपनों की लाश पर सारी उम्र आंसू बहाते रहने की सुविधा अम्मा के पास कहाँ थी! उसने जान लिया था कि मरनेवाले के साथ मर नहीं सकती, उसे तो उन दो नन्ही जानों के लिए जीना ही था जो टुकुर-टुकुर उसके चेहरे को देखा करतीं, जिन्हें खाना, कपड़ा, पढाई सब तो चाहिए था! जीवन में कभी-कभी जीना मरने से कहीं ज्यादा कठिन होता है! उन्ही कठिन दिनों ने अम्मा को चुन लिया था! मौत के लिए मिला मुआवजा जीवन की आश्वस्ति तो नहीं होता न! अप्पा के जूठे वादों में ज़िदगी के नन्हेनन्हे सपने ढूंढने वाली अम्मा के लिए वादों का मौसम बीत चला था! वक़्त की टोकरी में अब कोई वादा बाकी न था! अब उसे खुद से वादे करने थे और खुद ही निभाने थे!

अम्मा ने इन कठिन दिनों के लिए खुद को संभाला! कुछ दिन के शोक के बाद उसने बच्चों को स्कूल भेजा! अपनी सारी हिम्मत को संजोकर वह खड़ी हुई और घर की चाबी पड़ोसन को सौंप, भारी क़दमों से फिर सामने की कॉलोनी की ओर निकल पड़ी! जीवन उसी गति से चलने लगा बस इस बार वह दो नहीं एक अकेले पहिये की गाड़ी था जिसे अम्मा खींच रही थी! सूर्या ने देखा अम्मा उन कुछ दिनों में कितनी बुड्ढीलगने लगी थी! उसका जवान सांवला चेहरा, मुरझाकर, झुर्रियों से भर गया था! उसके कंधे दोहरी जिम्मेदारी के बोझ से झुकने लगे थे! वह चलती तो लगता था पांव में नहर किनारे पड़े बड़े पत्थर बंधे हैं! उसकी हंसी ग्रहण लगे चाँद की तरह फीकी और ओझल हो गई थी! सूर्या जब कभी अम्मा को देखता तो पाता कि उसकी उदास आँखें तो पुरानी अम्मा से कुछ मेल खाती पर उसके चेहरे की सख्ती अप्पा में बदलने लगी थी!

समय की करवट का असर सूर्या और मंगला पर कुछ यूँ पड़ा कि दोनों का बचपन सहम-सा गया था! मंगला अब अम्मा से हर बात के लिए ज्यादा जिद नहीं करती थी! और सूर्या, वो जेसे इन दो सालों में उम्र के कई सोपान तय कर चुका था! सच ही है, गरीब का बच्चा मुसीबतों की खुराक पाकर जल्द परिपक्व हो जाता है! सूर्या के मन में हमेशा कुछ न कुछ उधेड़बुन चलती रहती! अम्मा दोनों बच्चों को दुनिया की सारी बुराइयों से बचाकर यूँ सहेजना चाहती जैसे चिड़िया नन्हे चिरौटों को हौले से अपने पंखों में समेट लेती है!

टुक- टक- टुक– टक.....जिन्दगी की ये एक पहिये वाली डांवाडोल गाड़ी पटरी पर चलना सीख ही रही थी कि फिर ये क्या हुआ कि खामोश रहने वाली स्नेहिल अम्मा की ताज़ा इडली-सी कोमल आवाज़ ने एक दिन झुग्गी ही नहीं पूरी गली को दहला दिया!

नी एन्ना पंडीटै सूर्या? ये क्या किया? बोल, कायको इस्कूल नई गया तू! तेरा अप्पा मर गया तो मैं बी मर गई! अयईओ....इस्कूल नहीं जायेगा....गाड़ी धोएगा!

सटाक...सटाक....सटाक.....अम्मा पागलों की तरह डंडी से सूर्या को पीट रही थी! सब लोग इकट्ठे हो गए! उनके चेहरों पर सवाल तैर रहे थे!

बोल....इसी वास्ते पढ़ाती मैं तेरेको! अयईओ अयप्पाssssss ....अरे नई चाइये मेरको तेरा पैसा! बोल क्यों नई गया इस्कूल? कौन बोला तेरेको गाड़ी धोने को? तम्बी बोला तू इस्कूल नई जाता रे, नहर पे जाता! बोल ना कायको गया था रे तू नहर पे? अबी क्या मुंह में दही जमाकर बैठा है! मेरा जैसा नौकर बनेगा? मालूम है कितना रिक्वेष्ट किया था बड़े साहब को कि तेरेको तमिल इस्कूल में डाला! इस्कूल नई जायेगा तो नाम कट जायेगा! कौन लिखायेगा फिर से नाम? किसका पैर पकड़ेगी मै! बोल...... बोलता कायको नई रे?”

अम्मा हिस्टीरियाई मरीज की तरह काँप रही है और मारती जा रही है! उसके सामने अब सूर्या नहीं नहर का प्रेत है जो उसके सपनों को डसने के लिए फन पसारे है! बच्चों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का सपना बह गया है नहर के गंदे पानी में! पडोसी औरतें उसे खींचकर ले गईं! इस सारे हंगामे से सहम गई मंगला भी रोते-रोते सो गई!

"अभी बड़ा तो हो गया मैं। इत्ता बड़ा, अम्मा के कंधे तलक बड़ा। अम्मा रोज़ कित्ता काम करती। मेरेको सब मालूम। रात में गरम तेल मालिश करने को भी नहीं होता। मैं ई करता तो करता। इत्ता थक जाती अम्मा। हफ्ते भर से बुखार चढ़ता है पर बोलती कल से काम पे जाएगी! काम का हर्जा नहीं होने देती अम्मा पर बुखार में कैसे जाएगी। मैं बोला अम्मा को कमाकर देगा, दवाई लाएगा। स्कूल नई गया पर पूरा एक हफ़्ता गाडी धोया मैं। मेरेको पइसा चाहिए! खूब सारा पइसा! अम्मा के वास्ते...मंगला के वास्ते....अम्मा झूठ बोलती नहर पर भूत है! नहर पर भूत नई सबको काम मिलता है, पइसा बनता है! मुरुगन बोला मेरेको! पइसा लाया मैं पर अम्मा रोती... मारती....कायको? मैं अम्मा को रोने नइ देगा....

सूर्या के जिस्म का तनाव अब कसावट छोड़ रहा है! उसकी कसी मुट्ठियाँ धीरे-धीरे ढीली पड़ने लगी हैं! उसकी आँखें अब मुंदने लगीं हैं! अम्मा ने उसे उठाकर बिस्तर पर लिटा दिया है! बरसती आँखों के साथ अम्मा मंगला और सूर्या के बीच लेटकर उसका बदन सहलाने लगी है! मन में विचारों के झंझावात और अपने चेहरे पर कई सवालों की छाया लिए सूर्या सुबकते हुए नींद की ओर बढ़ रहा है! उसके हाथों में अम्मा का हाथ है, उसने एक तेज सुबकी ली और सरककर अम्मा से सट गया है! वह दुखी है कि उसकी वजह से अम्मा दुखी है, रोती है! उसके मन में कहीं पश्चाताप का उजाला है जिसकी रोशनी में विद्रोह जलती मोमबत्ती की तरह धीमे-धीमे पिघल रहा है! उसके सपनों में अब कहीं रात का अँधेरा नहीं सुबह का उजाला है! ये सपने कमरे में खुश्बू की तरह महक रहे हैं....तैर रहे हैं......

ओरू.... रेंडू..... मून.... नाल.... अंज... मंगला सपने में गिनती गिन रही है! अम्मा फिर से बुखार में तप रही है! उसके होंठ अब भी बुदबुदा रहे हैं, “सूर्या इस्कूल जायेगा.....पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा......सूर्या नहर पर नई जायेगा! बचाएगी सूर्या को..... इस्कूल .....बड़ा आदमी.....मेरा सूर्या....मंगला ......” बाहर तेज़ शीतल हवा चल रही है! उसके अस्फुट शब्दों के साथ संताप बहकर रिस रहा है!

वह सूर्या को स्कूल जाते देखना चाहती है पर उसकी मुंदी आँखों में अब सूर्या का अप्पा है जो सूर्या में बदल रहा है! बंद आँखों से वह देख रही है, नहर के प्रेत ने धीरे-धीरे अपना कद बढ़ाया और रात के अंधकार में कुछ सपनों को ग्रास बनाने के लिए पीले मकान पर छाने गया! अम्मा ने जल्दी से आगे बढ़कर दोनों बच्चों को अपने आंचल में छुपा लिया जैसे सहेज कर बचा लिए हों अपने सपने! उसके सपनों के आड़े अब कोई नही आएगा, कोई भी नहीं, नहर का प्रेत भी नहीं! अम्मा के संकल्प की दृढ़ता में हर काली छाया को मुरझाने का हौंसला है!

अगले दिन मुंह अँधेरे ही पीले मकान की हलचलों ने सूरज को यकायक नींद से जगाया तो हडबडा कर वह उठा और बादलों की ओट से निकलकर मुस्तैदी से अपने काम में जुट गया। कुछ देर बाद, इधर संसार का पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा रोशन हो रहा था, दुनिया का रोजगार शुरू हुआ और उधर वे तीनों अपनी राह पर निकल रहे थे। अम्मा अपने काम पर और बच्चे एक दूसरे का हाथ थामे अपने स्कूल की ओर।

- अंजू शर्मा

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