समीक्षा - फैलसूफ़ियां (राजीव तनेजा का व्यंग्य कहानी संग्रह) Anju Sharma द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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समीक्षा - फैलसूफ़ियां (राजीव तनेजा का व्यंग्य कहानी संग्रह)

भूमिका
मैं राजीव तनेजा जी को मैं कई वर्षों से जानती हूँ। उनसे पहला परिचय फेसबुक पर ही हुआ। वे अक्सर लोगों के स्टेट्स से एक पंक्ति उठाकर टू लाइनर लिखते थे। उसी क्रम में कई बार उन्हें पढ़ने का अवसर मिला। उनके सेंस ऑफ़ ह्यूमर से ही परिचित थी। बाद में, जिन दिनों मैं अकादमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के साहित्यिक कार्यक्रम डायलाग से जुड़ी हुई थी, उनसे कई बार कार्यक्रम में मुलाकात हुई। राजीव जी अक्सर अपनी पत्नी संजू तनेजा जी के साथ आते थे। एक ही रूट था तो साथ आते-जाते हम लोगों में बातचीत होने लगी और इसी दौरान उन्हें और करीब से जानने का अवसर मिला। साथ ही उनकी एक और खूबी के बारे में मालूम पड़ा। वे बेहतरीन फोटोग्राफर होने के साथ ख्यात ब्लॉगर भी हैं, एक मिलनसार मित्र और उम्दा इंसान भी।
ये उन्हीं दिनों की बात है कि फेसबुक पर मिले लिंक से ब्लॉग पर उनकी एक कहानी पढ़ने का मौका मिला। संवाद शैली में लिखी यह रोचक मुझे कहानी पसंद आई और उससे सम्बन्धित संदर्भ के विषय में जानकर उस कहानी को दोबारा पढ़ा तो मालूम पड़ा एक विनम्र, स्नेही, संकोची व्यक्ति के पीछे एक समर्थ कथाकार भी छिपा है जिसके पास न केवल शब्द हैं बल्कि उन्हें साधकर व्यंग्य कहानी में ढालने की अद्भुत क्षमता भी है। मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य था। अब से पहले वे मेरे मित्र थे और मैं उन्हें, उनके भीतर के लेखक को साहित्यिक दृष्टि से इतनी गंभीरता से नहीं लेती थी। इन कहानियों से गुज़रने के बाद मुझे समझ में आया कि साहित्य उनके लिए टाइमपास की विषयवस्तु नहीं बल्कि एक लेखक और एक पाठक होने के नाते वे साहित्य से मन की गहराइयों से जुड़े हुए हैं। अपने आस-पास घट रही घटनाओं को एक व्यंग्यकार की दृष्टि से देखने की उनकी क्षमता ने मुझे प्रभावित किया तो मैंने कुछ और कहानियाँ पढ़ीं।
फिर दो साल बाद हम लोग जब सुरभि संस्था के माध्यम से जुड़े तो लगातार उनकी नई कहानियाँ सुनने का भी अवसर मिलता रहा। उन्हीं दिनों मैंने लगातार उनसे संग्रह के विषय में कहना शुरू किया। मुझे हमेशा से लगता रहा कि वे संकोचवश न तो कहानियाँ प्रकाशन के लिए भेजते हैं और न ही उनके प्रस्तुतिकरण को लेकर बहुत आग्रही हैं। वे न तो कहानियाँ कहीं छपने भेजते हैं और न ही उन पर खुद बात करते हैं। अपने ब्लॉग पर कहानियां लगाकर खुश रहते हैं और उनके मित्र उनके पाठक और श्रोता बनते हैं तो ऐसे में मुझे लगता था कि उनकी कहानियों की किताब का आना बेहद जरूरी है ताकि उनकी व्यंग्य कहानियाँ उनके मित्रों के सीमित दायरे से निकलकर पाठकों तक पहुँच बनायें।
मुझे ख़ुशी है कि इस किताब के जरिये उनकी कहानियाँ जो ब्लॉग जगत में एक समय खूब धूम मचा चुकी हैं, नये रंग रूप और कलेवर में उनके पाठकों के सामने आ रही हैं। एक मित्र होने के नाते मैं इससे अधिक क्या कामना कर सकती हूँ कि ये किताब लोगों को पसंद आये और राजीव तनेजा के कथाकार रूप से लोगों का भली भांति परिचय हो। यदि राजीव तनेजा की रचना प्रक्रिया पर बात की जाए तो आप पाएंगे कि किसी भी कहानी के घटनाक्रम को बुनते हुए जिस शैली का सहारा लेते हैं उसमें संवादों का महत्वपूर्ण स्थान है। चुटीले संवाद और भाषाई प्रयोग उनकी कहानियों की विशेषता है। ये पढ़कर देखिये,
“चिंता ना कर…तेरा अच्छा समय बस…अब आने ही वाला है।”
“सही झुनझुना थमा रहे हो बाबा…यहाँ खाने-कमाने को है नहीं और आप हो कि दो-चार साल बाद का लॉलीपॉप थमा रहे हो ताकि ना रुकते बने और ना ही चूसते बने।” बिना बोले मुझसे रहा न गया।
“यहाँ स्साली…चिंता इतनी है कि सीधे चिता की तैयारी चल रही है और ये बाबा..
“प्यासा….प्यास से ना मर जाए कहीं…..इसलिए…मुँह में पानी आने का जुगाड़ बना दिया कि बेटा..तू इंतज़ार कर।”

“अभी तक अच्छा समय आने का इंतज़ार ही तो कर रहा हूँ…और क्या कर रहा हूँ।" मैं मन ही मन बुदबुदाया।

“ना जाने कब आएगा अच्छा समय?” मैंने उदास मन से सोचा।
अब चूँकि उनके पात्र विशिष्ट नहीं बल्कि आम रोजमर्रा के जीवन से जुड़े पात्र हैं तो उनकी भाषा भी उसी तरह की है यानि कभी-कभी चलताऊ और अमूमन मुहावरों से भरपूर भाषा। वे अक्सर अपने जीवन के आस-पास घटित घटनाओं से पात्र चुनते हैं और उसी के इर्द-गिर्द कथा का तानाबाना बुनते हैं यही कारण है कि उनकी कहानियाँ बहुत रोचक अंदाज़ में पाठक से संवाद कायम करती चलती हैं। राजीव की कहानियों का शिल्प कुछ ऐसा है कि वे बतौर कथाकार कम से कम बात करते हैं। वे अपने पात्रों को खुलने का पूरा मौका देते हैं और उनसे बखूबी खेलते हुए, उनकी मानसिकता को खोलते हैं और कहानी रचते हैं। ऐसे में लगभग पूरी कहानी या तो संवादों के माध्यम से आगे बढ़ती है या फिर किसी नाटक की तरह दृश्य दर दृश्य आगे चलती जाती है जैसे कोई फिल्म चल रही हो!
अपनी कहानियों के कथ्य और शिल्प को लेकर, राजीव बहुत साहित्यिक होने का दावा कभी नहीं करते और न ही उनकी कहानियाँ क्लिष्ट शब्दों और शिल्प का सहारा लेती हैं। वे लगभग आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए कहानी में सहजता बनाये रखते हैं और यही बात उनकी कहानियों से आम पाठक को जोड़ती है। उनकी सभी कहानियों के पात्र आम लोग हैं और यदि आप नज़र दौडाएं तो ये सभी पात्र आपके इर्द-गिर्द दिखाई देंगे। ये एक ढोंगी बाबा हो सकता है जिसने धर्म के नाम पर समाज में लूट मचा रखी है, विज्ञापनों की दुनिया से उकताया एक आम आदमी हो सकता है जिसकी खीज अब पागलपन के स्तर पर पहुँच चुकी है, एक फ्रॉड लड़की हो सकती है जो फोन के माध्यम से मोटी असामी फंसाकर ऐश करना चाहती है या फिर कोई आम छोटा व्यापारी जिसके पास विसंगतियों को देखने की अपनी अलग दृष्टि है, अलग नज़रिया है! ये कहानियाँ आजकल के हालात पर सजग राजनीतिक निगाह भी रखती हैं और अक्सर इनमें टिप्पणियों के माध्यम से लेखक की अपनी पक्षधरता भी सामने आती है!
इस किताब में कुल 11 व्यंग्य कहानियाँ हैं और ये सबकी सब कहानियाँ या तो समाज में व्याप्त किसी न किसी विसंगति पर चोट करते हुए कथाकार की पैनी दृष्टि और सजग चेतना की गवाही देती हैं या फिर जीवन से जुड़े सहज प्रसगों से जुड़े कुछ हल्के फुल्के क्षणों को रोचक ढंग से सामने लाती हैं। मैं कहानियों के विषय में विस्तार से न लिखते हुए उसे पाठकों के लिए छोड़ते हुए, यही कहना चाहूँगी कि धर्म के नाम पर मची लूट, विशेषकर बाबागिरी पर लिखी उनकी कहानियाँ आँख खोल देने वाले कई प्रसंगों को सामने लाती हैं जिन पर चली उनकी कलम जाने कितने नक़ाब उठाने में सफल हुई है।
बहरहाल किताब आपके हाथ में है और कहानियाँ अब आपके सामने हैं। अब देखना यह है कि उनकी कहानियाँ आपको और साहित्य जगत को कितनी पसंद आती हैं। अभी तो इस पहले कहानी-संग्रह पर उन्हें ढेर सारी शुभकामनायें कि उनकी आमद शुभ और सार्थक हो और वे लिखना जारी रखें। पूरी उम्मीद है कि ब्लॉग जगत की तरह हिंदी साहित्य में भी उनकी कहानियाँ खूब धूम मचायेंगी और पहली किताब से चला ये सिलसिला अपनी रवानगी पायेगा।
मेरी हार्दिक शुभकामनायें।
---अंजू शर्मा