माँ बाप Shubham Prajapati द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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माँ बाप

मिस्टर गुप्ता मॉर्निंग वॉक के लिए निकले ही थे कि उनके पड़ोसी मिस्टर मुखर्जी भी अपने घर से वॉक के लिए मिस्टर गुप्ता के साथ चल देते हैं। गुप्ता जी मिस्टर मुखर्जी को आज वॉक पे जाते देख थोड़ा आश्चर्य में आ जाते हैं । क्योंकि गुप्ता जी ने उन्हें काफी बार अपने साथ वॉक पर जाने को बोला था पर वो हमेशा किसी नए बहाने के साथ गुप्ता जी को मना कर दिया करते थे । लेकिन आज वो गुप्ता जी के बिना बुलाये ही वॉक के लिए तैयार हो गए थे। गुप्ता जी मिस्टर मुखर्जी से पूछते है "अरे भाई आज सूरज कहाँ से निकला है जो आज आप मेरे बिना बुलाये ही वॉक के लिए चल दिये।"

श्रीमान मुखर्जी कहते है "क्या बताऊँ बाबू मोशाये दो-तीन दिन से तबियत कुछ ठीक नही था, डॉक्टर को दिखाया तो उसने सेहत का ध्यान रखने के साथ साथ वॉक के लिए भी बोला और फिर तुम तो जानते ही हो अपनी बौउदी को एक बार जिस चीज़ के पीछे पड़ जाती है तो छोड़ती नही है आज मेरे वॉक के पीछे पड़ गयी तो आना पड़ा"
गुप्ता जी को मिस्टर मुखर्जी की हालत पर हशी आ जाती है और मुखर्जी भी साथ मैं हसने लगते हैं ।

मुखर्जी का पहला नाम रविन्द्र था। बैसे तो वो कोलकत्ता के थे पर जबसे उनके बेटे की नोकरी जयपुर लगी है तब से वो और उनकी पत्नी दोनों जयपुर में ही अपने बेटे और बहू के साथ रहते थे।

रविंद्र 'कल आप वॉक पर कितने बजे आएंगे?'
मिस्टर गुप्ता 'नही नही कल मैं नही आऊँगा वॉक पर'
रबिन्द्र 'क्यों?'
गुप्ता जी 'कल हमारी पोती का जन्मदिन है तो आज निकल रहे हैं उसके पास जाने के लिए, पूरे दो साल हो गए तब से बेटे, बहू और पोती से नही मिले, पता है बेटे और बहू ने कभी भी उसने हमे दूर होने का एहसास ही नही होने दिया। हमेसा फ़ोन पर पूछते रहते कि हम कैसे है, हम अपनी दवाइयां ले रहे है या नही ।'
रबिन्द्र 'भगवान सबको ऐसा ही बेटा दे, एक तुम्हारे बेटे और बहू है और एक मेरे जो कभी पास रहकर भी हाल चाल नही पूछते मर रहे है या जी रहे किसी को परवाह ही नही बल्कि बात बात पर खरी खोटी सुनाते रहते हैं।'
गुप्ता जी 'बच्चे कब बड़े हो जाते हैं पता ही नही चलता, लगता है जैसे कल की ही बात हो जब निखिल छोटा था और अकेले बाजार या किसी भीड़ बाली जगह पर जाने से डरता था। वो जब भी मेरे साथ बाजार जाता तो मेरी उंगली को जोर से पकड़ लेता था और मैं सोचता था कि मैं उसकी उंगली हमेसा ऐसे ही पकड़े रहूंगा कभी उसे अकेले होने का एहसास नही होने दूंगा ज़िन्दगी के हर मोड़ पर उसके साथ खड़ा रहूंगा, उसे MBA कराने के लिए पैसे नही थे हमारे पास तो उसकी माँ ने अपने सारे गहने बेच दिए थे बोली थी कोई बात नही गहने दोबारा बन जायेंगे।'
बातें करते करते दोनो अपने अपने घर आ जाते है ।

मिसेज़ गुप्ता बहुत ही उत्सुक थी अपनी पोती के पास जाने के लिए उन्होंने सारी पैकिंग भी कर ली थी जैसे वो बस अभी जाने वाली हों सब तैयार था सिर्फ उनकी पोती श्रुति के गिफ्ट को छोड़ कर। दोनों पति पत्नी ने सोचा था कि गिफ्ट श्रुति से पूछ कर उसकी पसंद का कुछ लेकर जायेगे, मिसेज़ गुप्ता श्रुति से यह पूछने को फ़ोन करती हैं कि उसे क्या चाहिए पर कोई फ़ोन नही उठता, दोबारा फ़ोन करने पर भी दूसरी ओर से कोई जबाव नही मिलता और तीसरी बार भी कोई फ़ोन नही उठाता, अब मिसेज़ गुप्ता परेसान हो जाती है और चौथी बार फ़ोन करती है थोड़ी देर तक फ़ोन बजने के बाद निखिल फ़ोन उठाता है।
'हैलो माँ'
'क्या हुआ बेटा फ़ोन क्यों नही उठा रहे थे? पता है मैं कितना डर गई थी!'
'माँ फ़ोन साइलेंट था'
'अच्छा बेटा हमने ना ये पूछने को फ़ोन किया है कि कल श्रुति को अपने जन्मदिन पर क्या गिफ्ट चाहिए'
'माँ इस बार हम उसका जन्मदिन नही मना रहे है'
'क्यों??? क्या हुआ बेटा?'
'माँ अभी यहाँ मुंबई में नया घर और कार भी ली तो बहुत पैसे खर्च हो गए तो इस बार बर्थ डे मनाने के पैसे नही है'
'तो कोई बात नही बेटा हम किसी और को नही बुलायेंगे बस हम सब परिवार बाले मिलकर जन्मदिन मना लेगे।'
'पर माँ अभी उसके लिए भी पैसे नही है मेरे पास'
'तो कोई बात नही बेटा'
इतना कहकर मिसेज़ गुप्ता फ़ोन रख देती हैं। और सारी बात मिस्टर गुप्ता को बताती हैं।
दोनो बहुत उदास हो जाते हैं कोई दिनों से वो अपने बेटे, बहु ओर पोती से मिलने के बारे में सोच रहे थे पर अब क्या कर सकते हैं!!!!

तभी मिसेज़ गुप्ता कहती है 'क्यों न हम श्रुति को बो क्या कहते है!! अरे.....हाँ सरप्राइज दे तो?'
मिस्टर गुप्ता 'कैसा सरप्राइज?'
मिसेज़ 'क्यों न हम श्रुति के जन्मदिन के लिए केक बनाये और बो लेकर मुंबई चले वो लोग कितने खुस होंगे न!'
मिसेज़ गुप्ता ने हालाकि अबतक कभी भी केक नही बनाया था फिर भी वो ऐसे बोली जैसे वो इनके बांये हाथ का खेल हो।
मिस्टर 'पर तुम्हे तो केक बनाना आता ही नही है ना'
मिसेज़ 'नही आता है तो क्या हुआ सीख लूंगी बाजार में बहुत सारी कुकरी बुक आती है उनमे से पढ़कर हम दोनो केक बना लेंगे'
मिस्टर 'हां ठीक है तो मै अभी बाजार जा कर कुछ किताबें लेकर आता हूँ और सुनो मैं कह रहा था कि कुछ गुब्बारें भी ले लूंगा सजाने के काम आएंगे'
मिस्टर गुप्ता बाजार से ढेर सारी किताबें लेकर आ जाते हैं और दोनों लोग मिलकर केक बनाना सुरु कर देते है कुछ घंटों की कोशिश के बाद कुछ ठीक ठाक केक बनकर तैयार हो जाता है। अँगले दिन शाम को दोनों मुम्बई पहुँच जाते हैं रेलवे स्टेशन से निकलकर वो एक ऑटो में बैठकर निखिल के घर के लिए रवाना हो जाते हैं। कुछ देर बाद ऑटो एक बहुत बड़े घर के आगे आकर रुक जाता है पूरा घर रोशनी से जगमगा रहा था। घर के बाहर बड़ी बड़ी गाड़ियों में लोग अपने बच्चों के साथ आ रहे थे।
तभी मिस्टर गुप्ता ड्राइवर से बोलते हैं 'अरे भाई कहाँ रोक दिया!'
ड्राइवर 'बाबूजी आपने यही एड्रेस तो बताया था।'
मिस्टर गुप्ता बाहर निकल कर घर के बाहर लगी नेम प्लेट को देखते हैं, घर का नाम था अनामिका विला, निखिल ने अपनी वाइफ के नाम पर घर का नाम रखा था। घर के नाम के नीचे निखिल और अनामिका का भी नाम लिखा था।
मिस्टर और मिसेज़ गुप्ता अपने हाथ मे उस केक के डब्बे को लिए घर के अंदर जाते हैं।

निखिल ने श्रुति के जन्मदिन के साथ साथ नए घर के लिए भी पार्टी रखी थी। जिसमे शहर के बहुत सारे बड़े लोग आए हुए थे सब ने काफी अच्छे कपड़े पहन रखे थे श्रुति अपने दोस्ते के साथ खेल रही थी और वही एक बड़ी सी मेज पर एक बहुत ही खूबसूरत सा केक रखा हुआ था।
मिसेज़ गुप्ता ने एक पुरानी सी साड़ी पहन रखी थी और एक मध्यवर्गीय घरेलू महिला की तरह बड़े ही सादे तरीके से जूड़ा बना रखा था और मिस्टर गुप्ता ने एक सादा सी चैक बाली शर्ट पहन रखी थी जिसमे वो एक सरकारी क्लर्क की तरह लग रहे थे। दोनो ही लोग सबसे अलग दिखाई दे रहे थे।
मिसेज़ गुप्ता ने मिस्टर गुप्ता की आखों में देखा और कुछ नही बोली शायद कुछ कहने की जरूरत ही नही थी क्योंकि उस वक्त बिना कुछ बोली भी कितना कुछ कह गयी थी उनकी आंखें।
जो निखिल बचपन में अपने पापा की उंगली को कभी छोड़ना नही चाहता था शायद आज उसे उस उंगली को पकड़ने में शर्म महशूस हो रही थी ।

इससे पहले कि कोई उन दोनों को वहां देखता वो वहां से चले गए ।
दोनो चले जा रहे थे सूनसान सड़क पर किसी अनजानी मंजिल की तलाश में , घर से बहुत दूर निकल जाने के बाद दोनो सड़क के किनारे लगे गुलमोहर के पेड़ के नींचे पड़ी एक बैंच पर बैठ गये उस समय उनके बगल में रखा वो केक का डिब्बा बड़ा ही जीवंत महशूस हो रहा था और मानो जैसे बार बार उनका उपहास कर रहा हो।

।।समाप्त।।