अपनी अपनी मरीचिका - 14 Bhagwan Atlani द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपनी अपनी मरीचिका - 14

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(14)

2 नंवबर, 1953

आज दीपावली की रात है। चारों ओर उल्लास का वातावरण है। बमों और आतिशबाजी की आवाजों के साथ बच्चों की किलकारियाँ एकाकार हो गई हैं। थड़ी से पूजन करके बाबा आज जल्दी लौट आए हैं। अम्मा-बाबा के साथ बैठकर मैंने भी लक्ष्मीपूजन की औपचारिकता निभाई है। बिजली और दीपकों की कृत्रिम रोशनी अमावस्या के अंधकार को परास्त -करने में अक्षम है। मेरे हृदय में फैला घना अंधकार निर्णय पर पहुँचने के बाद भी आज की रात की तरह दिशाभ्रम पैदा करता है। निराशा, निरुत्साह, वैराग्य, असहायता की स्थिति से इतना अधिक क्लांत हूँ कि प्रकाश की कोई किरण मुझे दिशा दिखाने का साहस नहीं जुटा पा रही है। इच्छा होती है, सब कुछ छोड़कर कहीं चला जाऊं या दस-बीस लोगों को अंधाधुंध गोलियों से छलनी कर दूं या आत्महत्या कर लूं। किंतु जब अपना निर्णय ही मुझे बेचैनी से मुक्त नहीं कर पा रहा है तो पलायन की पीड़ा को कैसे कम करेगा? निर्णय मैंने सोच-विचार कर लिया है। मीनू पर रहम या दया करके नहीं लिया है। भावुकता में बहकर निर्णय नहीं लिया है मैंने। फिर भी अनेक प्रश्न मथ-मथकर इस निर्णय की वास्तविकता को किरचों में बदलने पर तुले हैं।

छात्रसंघ के महासचिव के दायित्व इतने अधिक थे कि किसी तरह पढाई की जरूरतों को मैं पूरा करता रहा। सारा साल कॉलेज छात्रसंघ और पढाई की चुनौतियों को पूरा करते-करते इस तरह निकला जैसे कि दुनिया में मेरे लिए कुछ और था ही नहीं। चकरघिन्नी की तरह होशोहवास खोकर पागलों की तरह घूमता रहा। यह भी नहीं सोचा कि सिंधी परिवारों में लड़की जापे के लिए सामान्यतः मायके नहीं आती है। फिर मीनू ने बच्ची को जन्म मायके में कैसे दिया? जापे से दो माह पहले वह मायके आ गई थी। कभी ध्यान नहीं गया कि ऐसा क्यों हुआ है? मीनू का विवाह हो गया, इसका अर्थ यह तो नहीं था कि मैं उसकी तरफ से आँखें बंद कर लूं? उसके हाल-चाल, उसके दुःख-सुख की जानकारी मुझे नहीं रखनी चाहिए थी क्या? मीनू को खुश देखने की इच्छा के तकाजे क्या सिर्फ इतने थे कि मैं निष्क्रिय हो जाऊँ? आँखें बंद कर लूं उसकी तरफ से? जिस काम को हाथ में उठाता हूँ, परिणाम आने तक उसको छोड़ता नहीं हूँ। मीनू के मामले में कहां गया मेरा यह स्वभाव? उसे खुश देखने तक सचेत क्यों नहीं रहा मैं? मेरे पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। अपराध-बोध है कि समय रहते सब बातें मालूम हो जातीं तो संभव है मैं मीनू को आज की स्थिति से बचा लेता। मन पर भारी बोझ है कि उसकी दुरावस्था का जिम्मेदार मैं हूँ। कैसे हुई मुझसे यह भूल? कैसे हो गया मैं इतना लापरवाह? कैसे बंद कर ली मैंने अपनी आँखें उस तरफ से जिधर मुझे आँखें फाड़-फाड़कर देखते रहना चाहिए था?

अम्मा ने बता दिया था कि मीनू गर्भवती है। अम्मा ने यह भी बता दिया था कि मीनू मायके में रह रही है। अम्मा ने ही खबर दी थी कि मीनू एक बच्ची की माँ बन गई है। अम्मा ने ही करुणा-भाव के साथ सूचना दी थी कि मीनू को उसके पति ने छोड़ दिया है। पहली बार सुनकर मुझे अम्मा की बात इतनी अविश्वसनीय लगी कि आंखों में प्रश्न भरकर मैं उसे देखने लगा था। अम्मा ने अपनी बात दोहरा दी, ‘‘मीनू को उसके पति ने छोड़ दिया है।''

‘‘क्यों?'' मुझे अम्मा की बात पर अब भी विश्वास नहीं आ रहा था।

‘‘थी तो नहीं ऐसी, लेकिन वह कहता है कि शादी से पहले मीनू के किसी दूसरे के साथ नाजायज ताल्लुकात थे।''

यह बात मेरे लिए और अधिक अविश्वसनीय थी, ‘‘मीनू को तो अम्मा, तुम और मैं शुरु से देखते रहे हैं। मैंने तो किसी के साथ बिना जरूरत के बात करते भी नहीं देखा उसे।''

‘‘मैं भी यही कहती हूँ बेटा। लेकिन वह मुआ कहता है कि मीनू खुद इस बात को मानती है।''

‘‘मीनू से तुम्हारी बात हुई?''

‘‘हाँ, मैंने बात की थी उससे।''

‘‘क्या कहती है?''

‘‘कुछ नहीं बताती, बस चुप रहती है।''

‘‘काकी को या अपनी भाभियों को तो बताया होगा उसने?''

‘‘नहीं, किसी को न कुछ बताती है और न इस मामले में कोई बात करती है।''

‘‘बाकी बातें कर लेती है?''

‘‘हां, दुनिया जहान की बातें कर लेगी। मगर खाविंद के लगाए हुए इलजामों की बात निकलते ही खामोश हो जाती है।''

‘‘तलाक की कार्यवाही हो गई या होनी है?''

‘‘अदालत में तो जाना नहीं था। चार पंचों ने बैठकर जो फैसला किया, दोनों ने मान लिया।''

‘‘क्या फैसला किया?''

‘‘ससुराल और मायके दोनों तरफ से जो जेवर बने थे, मीनू को मिले। चालीस हजार रुपए उसके अपने गुजारे के और दस हजार रुपए बेटी की शादी के लिए बैंक में जमा कराए।''

थोड़ी देर मैं पसोपेश में रहा फि यह बात अम्मा से कहूँ या न कहूँ। आखिर अपनी आदत के अनुसार आम्मा से आँखें मिलाते हुए मैंने पूछ लिया, ‘‘अम्मा, तुम कहो तो एक बार मैं मीनू से बात करना चाहता हूँ।''

‘‘तू बात करके क्या करेगा? जब सगी माँ को मीनू कुछ नहीं बताती तो तुझे क्या बताएगी?''

‘‘फिर भी मैं एक बार उससे बात करना चाहता हूँ। तुम उसे यहीं बुला सकती हो?''

‘‘बुला तो लूँगी, मगर मुझे कोई फायदा नजर नहीं आता।''

‘‘कोई बात नहीं, एक बार उसे बुला ही लो अम्मा!''

कौन है वह जिसके साथ विवाह से पहले मीनू के अनैतिक संबंध थे? मीनू इस विषय में कोई बात क्यों नहीं करती? तलाक जितनी बड़ी घटना के बाद किस बात का डर लगता है उसे जो बोलने नहीं देता? पति के आरोप का प्रतिवाद यदि मीनू नहीं करती तो क्या इसका अर्थ यह नहीं निकलता कि आरोप निराधार नहीं है? मीनू अगर उस व्यक्ति का नाम बता दे तो बात की जा सकती है उससे कि वह मीनू को स्वीकार कर ले। मीनू की बातचीत, उसका व्यवहार, उसका चाल-चलन, उसके तौर-तरीके, उसका आचार-विचार, उसके व्यक्तित्व का कोई भी पहलू इस बात का संकेत नहीं देता था। मुझसे बात करते हुए कभी ऐसी हरकत नहीं की उसने कि उसका कोई दूसरा अर्थ निकाला जा सके। यदि बहुत समर्पित-भाव से मीनू संबंधों का निर्वाह कर रही थी तो उसने मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रखने का आग्रह क्यों किया काकी से? उसके साथ विवाह की बात चलाने के लिए क्यों नहीं कहा जिससे उसके संबंध थे?

मैं अपने भीतर उग आए प्रश्नों के जंगल को काट नहीं पा रहा था। हजारों में से एक प्रश्न का उत्तर मिलता तो रक्तबीज की तरह उसकी जगह दस प्रश्न नए खड़े हो जाते थे। मेरी स्थिति विचित्र थी। इच्छा होती थी, उठूं और काका भोजामल के घर जाकर सीधा मीनू के सामने खड़ा हो जाऊं। दीमक की तरह चिपके प्रश्न दिखाकर उसे कहूँ कि इन्हें अगर मार सकती हो तो मारो, वरना मैं पागल हो जाऊँगा। जिसे खुश देखने की कामना की थी, वही मीनू चरित्र-हीनता के आरोप के साथ जलालत की मार सह रही है। मार खा रही है, फिर भी चुप है। इतना असमर्थ तो नहीं हूँ मैं कि कुछ कर ही न सकूं। लेकिन मीनू जुबान खोलकर बताए तो सही कि सच्चाई क्या है? क्यों लगाया पति ने उसके ऊपर यह आरोप? क्यों स्वीकार कर लिया मीनू ने उस आरोप को? अगर इस आरोप में सच्चाई थी तब भी समझौते का कोई रास्ता तलाश किया गया क्या? दूसरे दिन अम्मा को मैंने काका भोजामल के घर भेजा ताकि वह मीनू को अपने साथ ला सके। अम्मा को लौटने में दो घंटे लगे। इस अवधि में मैं व्यग्रता के साथ उसका इंतजार करता रहा। अम्मा लौटी तो साँस ले सके इससे पहले ही मैंने पूछ लिया, ‘‘मीनू से बात हुई?''

‘‘हाँ,'' अम्मा ने चारपाई पर बैठते हुए कहा।

‘‘क्या बात हुई?''

‘‘अभी बताती हूँ। जरा एक गिलास पानी पिला दे।''

मैंने रसोईघर में जाकर मटके में से पानी भरा और गिलास लाकर अम्मा के हाथों में दिया। पानी पीकर अम्मा कुछ स्वस्थ हुई तो मैंने फिर प्रश्नसूचक निगाहों से उसकी तरफ देखा।

‘मैंने उससे कहा कि आ तुझे घर ले चलती हूँ। सारा दिन घर में बैठी-बैठी परेशान होती होगी।''

मेरे होंठों पर मुसकान की एक रेखा उभरी और लुप्त हो गई, ‘‘हूँ।''

‘‘मीनू ने टकटकी लगाकर मेरी तरफ देखा और तेरे लिए पूछ लिया। मैंने बताया कि दीपावली की छुट्टियों के कारण तू घर पर है। फिर वह टाल गई।'' मैं समझ गया, अम्मा के चेहरे पर मीनू ने पढ़ लिया होगा कि मैं उससे बात करना चाहता हूँ। यही कारण था कि वह टाल गई।

अगले दिन कह-सुनकर मैंने फिर अम्मा को मीनू के पास भेजा। जैसा मैंने कहा था, अम्मा ने मीनू को ठीक वही बात कह दी कि कल भी मैं उसके कहने से आई थी और आज भी मुझे उसी ने भेजा है। उसने कहलवाया है, अगर तुम्हें आने में दिक्कत है तो कोई बात नहीं। कल वह खुद आ जाएगा। मीनू पर तुरंत असर हुआ। उसने स्वीकृति दे दी तो अम्मा ने काकी से बात करके मीनू की नवजात बिटिया को गोद में उठा लिया।

यह उम्मीद तो मुझे थी कि आज मीनू अम्मा को टालेगी नहीं, किंतु आज ही वह हमारे घर आ जाएगी, यह आशा मैंने नहीं की थी। मीनू की बिटिया अम्मा की गोद में ही थी जब मीनू और अम्मा ने घर में प्रवेश किया। मुझे देखकर मीनू ने मुसकराने की कोशिश की। वह पहले से कुछ कमजोर हो गई थी। खड़ा होकर मैंने भी मुसकराकर उसकी तरफ देखा और आगे बढ़कर उसकी बिटिया को अम्मा से ले लिया। मेरी गोद में आते ही बच्ची पता नहीं क्यों रोने लगी।

‘‘तेरी गोद इसे पसंद नहीं है,'' कहकर अम्मा ने बच्ची मुझसे वापस ले ली। अम्मा और मीनू इस बात पर जोर से हँसीं। मीनू को बैठने के लिए कहकर अम्मा बच्ची को पानी पिलाने रसोईघर में चली गई।

मीनू मामूली-सी कमजोर जरूर हो गई थी अन्यथा उसका व्यवहार, उसकी मुसकान, उसकी हँसी, उसकी बातचीत सुनकर ऐसा आभास नहीं होता था कि वह इतने बडे संकट से गुजर रही है। अम्मा के जाते ही मैंने ध्यान से देखकर उसके चेहरे की पर्तों में छिपे परिवर्तनों को तलाश करना चाहा कि हँसते हुए उसने पूछ लिया, ‘‘इतने ध्यान से क्या देख रहे हो?''

‘‘देख रहा हूं कि तुम पहले वाली मीनू ही हो या कोई और?''

‘‘क्यों, यह शंका कैसे हुई?''

‘‘इतना बड़ा हादसा हो जाने के बाद यह शंका तो किसी को भी हो सकती है।''

‘‘तुम्हें भी?'' मीनू गंभीर हो गई।

‘‘हाँ, मुझे भी।''

‘‘इसीलिए अम्मा के साथ धमकी भिजवाई थी?''

‘‘तुम कल टालमटोल क्यों कर गईं?''

‘‘मैं जानती थी कि तुम मुझसे क्या पूछोगे।''

‘‘बताना नहीं चाहती हो क्या?''

‘‘तुम्हें बताने में कोई एतराज नहीं है मगर बताकर भी क्या होगा।''

‘‘बताने से लाभ होगा या हानि, यह फैसला तो सुनने के बाद ही किया जा सकता है।''

‘‘मैं जानती हूँ, बताने से लाभ या हानि कुछ नहीं होगी।''

‘‘न सही, मैं जानना चाहता हूँ, इसलिए बता दो।''

बच्ची को दुलारती-पुचकारती अम्मा कमरे में आ गई। वह अम्मा की गोद में चुप भी थी और खुश भी।

‘‘बहुत प्यारी बच्ची है,'' अम्मा ने कहा।

मीनू हँसी, ‘‘ऐसा क्या प्यारा नजर आया आपको इसमें?''

‘‘गुदगुदी है। खूबसूरत है। गोरी-चिट्‌टी है। और किसे कहते हैं प्यारा बच्चा?'' अम्मा ने अँगुली में थूक लगाकर बच्ची के गाल पर लगा दिया।

‘‘कोई नजर-वजर नहीं लगेगी इसे।'' मीनू का स्वर किंचित्‌ तिक्त था।

‘‘अरी, तुझे क्या मालूम? छोटे बच्चों को वैसे ही नजर ज्यादा लगती है। इसकी तो बात ही कुछ और है। तू इसके गाल पर काला टीका लगा दिया कर।''

‘‘ठीक है।'' कहते हुए मीनू के अंदाज से स्पष्ट था कि वह बात को यहीं समाप्त करना चाहती है।

‘‘तुम लोग बातें करो। मैं बाजार से पकौड़े और डबलरोटी लेकर आती हूँ। बिटिया को साथ ले जाऊँ न?''

‘‘तुम्हें पूछने की जरूरत है क्या अम्मा?'' मीनू ने उलाहना-सा दिया।

अम्मा चली गई तो छूटी हुई डोर को मैंने फिर पकड़ा, ‘‘बताओ।''

‘‘कई बातें तो वैसे ही तुम्हें पता लग गई होंगी। जो जानना हो, पूछ लो। बता दूंगी।''

‘‘पति के साथ क्या बात हुई थी कि उन्होंने तुम्हारे ऊपर आरोप लगाया?''

‘‘कहीं से उन्हें पता लगा कि मैंने तुमसे शादी करनी चाही थी।''

‘‘किसने बताया?''

‘‘यह बात उन्होंने मुझे नहीं बताई।''

‘‘फिर?''

‘‘मैंने स्वीकार किया।''

‘‘वे उखड़ गए। बोले, जब कोई दूसरा तुम्हारी निगाह में था तो मुझे धोखा देने की क्या जरूरत थी? मैंने समझाने की बहुत कोशिश की, मगर वे नहीं माने। कहने लगे, एक बार तुमने जिसे पति के रूप में देख लिया, वह मुझसे पहले तुम्हारा पति है। मेरी किसी दलील का उनके ऊपर असर नहीं हुआ। मैंने उन्हें यहाँ तक कहा कि तुमने कभी मुझसे शादी की बात सोची भी नहीं होगी। ये मेरी एकतरफा भावनाएँ थीं। हारकर मैंने उनसे कहा कि आप जिसकी चाहें मैं कसम खाने को तैयार हूँ। मेरा किसी के साथ नाजायज संबंध नहीं रहा। जवाब में उन्होंने कहा कि मुझे तुम्हारे ऊपर अब कोई भरोसा नहीं है। तुम कसम भी झूठी खा सकती हो। नाटक तो तुम इसमें भी कर सकती हो। अगर तुम उसे राखी बाँधो तो मैं तुम्हारी बात की सच्चाई पर विचार कर सकता हूँ।''

‘‘राखी बाँधने वाली बात तो बहुत आसान थी। तुम आकर या वहां बुलाकर बाँध देतीं मुझे राखी।''

‘‘जब तक वे मेरे ऊपर अविश्वास करते थे, तब तक बात समझ में आती थी। मैंने तुमसे विवाह करना चाहा था, वे मुझे दोषी मान सकते थे। किंतु तुम्हारे ऊपर अविश्वास करने का उन्हें क्या अधिकार था? तुमने तो विवाह करना नहीं चाहा था मुझसे। राखी बाँधने का अर्थ है, मैं उन्हें विश्वास दिलाने के लिए तुम्हारे ऊपर अविश्वास की तोहमत लगाऊँ। फिर उन्होंने राखी बाँधने के बाद भी विचार करने की बात कही थी। मैं तो दोनों जहानों से गई। निर्दोष पर सार्वजनिक रूप से राखी बाँधकर आरोप लगाया कि तुम भी मुझे किसी और नजर से देखते थे। पति मेरी बात मान लेंगे, इसका भी भरोसा नहीं। इसलिए राखी बाँधने वाली बात मानने से मैंने इनकार कर दिया।''

‘‘मेरे विचार से राखी बाँधने वाली बात तुम्हें मान लेनी चाहिए थी।''

‘‘एक बात बताऊँ, तुमसे मैंने कभी कुछ कहा नहीं है, मगर मुझे हमेशा लगता रहा है कि मेरे पति तुम हो। जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता है या बचपन से साथ रहने के कारण पैदा हुआ वहम, मैं नहीं जानती। झूठ-मूठ की राखी बाँधकर दूसरे जन्म में खोना नहीं चाहती हूँ तुम्हें मैं। इस जन्म में मैं तुम्हें पा न सकी। किसी तरह दिन गुजार दूंगी। लेकिन राखी बाँधकर हमेशा-हमेशा के लिए तुमसे पति-पत्नी का नाता तोड़ दूं, यह मुझसे नहीं होगा।'' मीनू फफक फफककर रो रही थी। मैं हतप्रभ था। समझ में नहीं आ रहा था, क्या कहकर उसे सांत्वना दूूं।

मैंने उठकर मीनू को पानी पिलाया। वह स्वस्थ हुई तो मैंने कहा, ‘‘तुम अभी अट्‌ठारह साल की हो। तुम्हारे सामने सारा जीवन ज्यों-का-त्यों पड़ा है। ऊपर से एक बच्ची की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर आ गई है। मायके में धीरे-धीरे तुम्हारी उपेक्षा होने लगेगी। लोगों की नजरें तुम्हें खा जाना चाहेंगी। इस तरह अकेले जीवन कैसे गुजार सकोगी?''

‘‘ईश्वर जो कुछ करता है, अच्छा करता है। धीरे-धीरे अपने आप रास्ता निकलने लगेगा।''

‘‘मैं चाहता हूँ, एक बार तुम्हारे पति से मिलकर उन्हें समझाने की कोशिश करके देखूँ।''

‘‘कोई फायदा नहीं है। उनके दिमाग में यह बात जमकर बैठ गई है कि मेरे तुम्हारे साथ नाजायज संबंध थे। मेरे इनकार पर जिस तरह उन्हें विश्वास नहीं आया, उसी तरह तुम्हारे समझाने से भी वे समझेंगे नहीं।''

‘‘फिर भी मैं चाहता हूँ कि एक बार कोशिश करके देख लूं।''

‘‘मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं। मेरा अहित तुमसे बरदाश्त नहीं होगा। तुम दुखी होते रहोगे। इसलिए बात करके तसल्ली कर लो कि तुमने अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।''

अम्मा बाजार से लौट आई थी। मीनू से बात करने की इच्छा बढ़ गई थी। किंतु अम्मा की उपस्थिति में खुलकर बात करना संभव नहीं था। अम्मा ने बाजार के बहाने मीनू से बातचीत का पर्याप्त समय पहले ही दे दिया था। उसे मालूम था कि मीनू ने अपनी माँ के सामने मुझसे विवाह करने की इच्छा जाहिर की थी। इसी वजह से हँसते-हँसते उसने पूछ भी लिया था मुझसे, ‘‘मीनू के साथ तेरा कोई चक्कर तो नहीं था?'' आज मीनू को अम्मा मेरे कहने से बुलाकर लाई थी। मीनू के तलाक की बात सुनने के बाद जो प्रतिक्रिया मुझ पर हुई थी, उसे अम्मा ने देखा और महसूस किया था। मीनू और मेरे संबंधों को लेकर जो शक का कीड़ा अम्मा के दिमाग में था, चक्कर वाली बात सुनकर थाली छोड़कर चले जाने वाली घटना के कारण संभव है तब थोड़ा कमजोर पड़ा हो। किंतु मीनू को चरित्र दोष के आरोप के साथ मिले तलाक के कारण अम्मा के दिमाग में वह कीड़ा फिर मजबूत हुआ होगा। इसके बावजूद अम्मा मीनू को बुलाकर लाई थी। बाजार के बहाने अम्मा ने मीनू को और मुझे घर में अकेला छोड़ा था। मुझे लगा, संदेह से अधिक अम्मा को मेरे ऊपर विश्वास है। उसी विश्वास ने उसे मीनू के साथ मुझे घर में अकेला छोड़ने का साहस दिया।

अम्मा ने संदेह का मुझे लाभ दिया है। हालाँकि मैंने और मीनू ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया जो समाज या नैतिकता की दृष्टि से गलत कहा जा सके, फिर भी परिस्थितियों के संकेत को अम्मा ने नकार दिया। मीनू के पति के सामने सब बातें खुली किताब की तरह थीं। मोती जैसे सुंदर साफ-साफ लिखे हुए अक्षरों के बीच में उन्होंने वह पढने की कोशिश की जो लिखा हुआ नहीं था। नजर नहीं आया तो आरोपित किया। मीनू ने स्पष्टीकरण दिया तो अपनी कल्पना पर उन्हें थोड़ा-बहुत संदेह हुआ। किंतु संदेह का लाभ उन्होंने मीनू को नहीं दिया। अपनी कल्पना को सच सिद्ध करने के चक्कर में वे मीनू की विचारणा के ऐसे नाजुक बिंदु पर चोट कर बैठे कि मीनू उसे बरदाश्त नहीं कर पाई। हो सकता है, राखी बाँधकर भावनाओं के सँजोकर रखे गए फूलों को वह अपने हाथों से नोंचकर फेंकेने को तैयार हो जाती, किंतु उसे भरोसा नहीं था कि पति इसके बाद उस पर पूरा विस्वास कर लेंगे। तुम्हारी बात की सच्चाई पर विचार कर सकता हूँ, कहने वाला व्यक्ति कब राखी के बंधन को मानने से इनकार कर देगा, क्या भरोसा? मीनू अन्य पत्नियों की तरह रोई नहीं, गिड़गिड़ाई नहीं। स्वाभिमान के साथ खड़ी रही। नारी की अस्मिता को खिलौना स्वीकार करने से इनकार कर दिया उसने। यह सोचे बिना कि भविष्य के विकराल जबड़ों के बीच एक बच्ची को साथ लेकर वह अपना अस्तित्व कैसे बचा पाएगी।

पति ने अविश्वास किया। मीनू ने समझाने की कोशिश की। बात बिगड़ती चली गई। परिणति तलाक में हुई। किंतु इस दुर्धटना की जड़ में तो मैं हूँ। मेरे कारण मीनू के पति ने संदेह किया। मुझे राखी बाँधने से इनकार कर देने के कारण मीनू के पति का संदेह विश्वास में बदला। मीनू ने यदि विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी तो क्या हो गया? लड़का और लड़की एक-दूसरे को देखते हैं। लड़का लड़की को पसंद कर लेता है। लड़की लड़के को पसंद नहीं करती। बात नहीं बनती। रिश्ता नहीं होता। कौन कह सकता है कि लड़के को पसंद करने वाली लड़की या लड़की को पसंद करने वाला लड़का दूषित चरित्र है? मीनू को दोषी सिद्ध करने का औचित्य किसी भी दृष्टि से समझ में नहीं आता। फिर भी यदि मीनू को दोषी ठहराया जाता है, उसे जीवन-भर उस अनकिए जुर्म की सजा भोगने को विवश किया जाता है तो उसका कारण मैं हूँ। उस प्रकरण में मूल अपराधी का कर्त्तव्य है कि वह निर्दोष को सजा भोगने न दे। मैं मीनू के पति से मिलूंगा। उन्हें समझाने की पूरी कोशिश करूँगा कि अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। एक निर्दोष का जीवन अब भी बरबाद होने से बचाया जा सकता है। हाथ जोड़ूंगा। पाँव पकडं़ूगा। मगर उन्हें मीनू को ससम्मान स्वीकार करने के लिए राजी करूँगा। मेरा अपराध इसी तरह धुल सकता है।

दूसरे दिन मैं मीनू के पति की दुकान पर गया। देखते ही उन्होंने मुझे पहचान लिया। उठकर मिले। मुझे बैठाने के बाद स्वयं बैठे। नौकर को भेजकर सोडा मँगवाई। अतिथि को आदर देने की सिंध की परंपरा को उन्होंने बखूबी निभाया। उसके बाद उन्होंने आने का कारण पूछा। मैंने मीनू के साथ उनके संबंधों की बात की तो मुझे रोकते हुए बोले, ‘‘डॉक्टर साहब, वह मामला अब खत्म हो चुका है। गड़े मुरदों को उखाड़ने से किसी को कुछ भी हासिल नहीं होता है।''

‘‘आप ठीक कहते हैं, लेकिन इस मामले में तो अभी मुरदा भी कहीं नहीं है। कब्र का सवाल तो बाद में उठेगा।''

‘‘आप मेरे मेहमान हैं। चलकर मेरी दुकान पर आए हैं। आपका अनादर मैं करना नहीं चाहता। इसलिए इस मुद्‌दे को छोड़कर मेरे लायक कोई और सेवा हो तो बताइए।'' उठकर वापस चले आने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा था उन्होंने। मीनू के पति के प्रति वितृष्णा का भाव मुझमें पहले को तुलना में बढ गया।

कैसा आदमी है यह जो किसी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है? जो खुद को ठीक लगता है, वही करता है। उसके कारण किसी का कितना नुकसान हो रहा है, इस पर विचार नहीं करता। अपनी सनक के आधार पर सजा सुनाता है और अपील का अधिकार किसी को नहीं देता।

मैं लौटा तो मीनू के पति के प्रति जबरदस्त आक्रोश था मुझमें। धीरे-धीरे मीनू के पति के स्थान पर मेरी अपनी मूर्ति आती चली गई। वितृष्णा और आक्रोश का निशाना मीनू के पति के स्थान पर मेरी मूर्ति बनती चली गई। मैं अपराधी हूँ। मीनू को अट्‌ठारह साल की उम्र में यह कलंकपूर्ण सजा मेरे कारण सुनाई गई है। यह भाव मुझे पीड़ा की अतल गहराइयों में घसीटकर ले जाता रहा। मेरा दम घुटने लगा। सांस लेना दूभर हो गया। लेकिन अपराध-बोध पल-पल बढ़ता चला गया।

अपराध-बोध के मारक शिकंजे से मुक्ति के लिए तड़पते हुए मैं उपायों पर विचार करता रहा। मीनू की कोई रोजगार शुरू कराने की दृष्टि से मदद करूँ? रोजगार पति का विकल्प नहीं हो सकता। मीनू को दूसरा विवाह करने के लिए तैयार करूँ? फिलहाल तो ऐसा संभव नहीं लगता। एकाएक एक सवाल तैरता हुआ आया और मेरे सामने स्थिर हो गया। क्या मीनू की मदद मैं केवल अपने अपराध-बोध के अहसास के कारण करना चाहता हूँ? मेरे हृदय के किसी कोने में मीनू के लिए क्या और कुछ भी नहीं है जो उसके बारे में सोचने के लिए मुझे प्रेरित करता है? क्या मेरे मन में मीनू के लिए जुड़ाव, आत्मीयता और अपनत्व नहीं है जो उसके हित के लिए मुझे चिंतित करता है? यदि ऐसा है तो केवल अपराध-बोध नहीं है जिसके कारण मैं मीनू के भविष्य के बारे में विभिन्न विकल्पों पर विचार कर रहा हूँ। कुछ और भी है जो मुझे मीनू के दुःख के साथ एकाकार कर रहा है। मुझे लगा कि परिस्थितियों ने कभी विचार करने का अवसर नहीं दिया, इसलिए अपने मन की भावनाओं को मैं समझ नहीं पाया। मीनू कम उम्र होते हुए भी उन भावनाओं को संज्ञा प्रदान कर सकी, जिन्हें अपने भीतर होते भी मैं पहचान तक नहीं सका। जब मेरे मन में भी मीनू के प्रति वही भावनाएँ हैं जो उसके मन में मेरे प्रति हैं तो उन्हें कोई नाम देने से क्यों हिचकिचा रहा हूँ मैं? अब तो मीनू का अपराधी भी हूँ मैं। मीनू जिसे जन्म-जन्मातर का रिश्ता कहती है वह किसी भटकाव के कारण साल-डेढ साल के लिए दिशा खो बैठे तो उसे पूरे जन्म के लिए व्यर्थ मानना कहाँ तक उचित है?

मन-ही-मन मैंने तय किया कि अपने अपराध का प्रायश्चित मैं मीनू से विवाह करके करूँगा। पढ़ रहा हूँ। परिवार का दायित्व सँभालने की स्थिति में अभी नहीं हूँ। बाबा पर बोझ बढाना नहीं चाहता। इसलिए विवाह भले ही पढाई पूरी करके नौकरी मिल जाने के बाद करूँ, किंतु मीनू और उसकी बिटिया का भविष्य अब मेरा दायित्व है। इस बीच मीनू पर लगे आरोप के कारण उड़ी धूल बैठ जाएगी। मीनू इन दिनों भोगे त्रास के आतंक से मुक्त हो जाएगी। मीनू से विवाह करने का मेरा प्रस्ताव अम्मा और बाबा के लिए आज की तुलना में अधिक ग्रहणीय हो जाएगा। अधिक-से-अधिक पाँच वषोर्ं में एम ० डी ० या एम ० एस ० कर लूँगा। इतना समय काफी होगा सब स्थितियों को विवाह की दृष्टि से उचित बिंदु पर पहुँचाने के लिए। मीनू से तब तक अपने निर्णय की चर्चा नहीं करूँगा। अन्यथा अकारण ही वह दबाव-ग्रस्त हो जाएगी। नौकरी मिलने के तुरंत बाद विवाह का प्रस्ताव लेकर उसके पास जाऊँगा।

निर्णय बहुत सोच-समझकर लिया है। अपने अपराध-बोध से मुक्ति का इससे सुंदर रास्ता मेरे पास नहीं है, मैं जानता हूँ। फिर भी आज दीपावली की रात को होते बमों के धमाके मेरे निर्णय की परखच्चियाँ उड़ाने पर तुले हैं।

***