अपनी अपनी मरीचिका - 15 Bhagwan Atlani द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपनी अपनी मरीचिका - 15

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(15)

5 जनवरी, 1956

बाबा ने जब डायरी लिखना सिखाया था तो कई बातों के साथ उन्होंने यह बात भी बताई थी कि डायरी के माध्यम से जितना अच्छा आत्मविश्लेषण किया जा सकता है, उसका जोड़ तुम्हें कहीं नहीं मिलेगा। इसीलिए डायरी की गोपनीयता बहुत जरूरी है। सोचता हूँ, हमारे कार्य-व्यवहार में ऐसा कुछ होना ही क्यों चाहिए कि उसे छिपाना पड़े? अच्छा या खराब, भला या बुरा जो कुछ हम करते हैं यदि उसके पीछे गलत इरादा नहीं है तो सार्वजनिक रूप से खोलकर रख देने में क्या बुराई है? दुनिया तो खेल ही नीयत का है। अच्छी नीयत से किए गए काम को, देखने वाले चाहे किसी भी नजर से देखें किंतु काम करने वाले को भयभीत होने की क्या आवश्यकता है? आत्मविश्लेषण का सर्वश्रेष्ठ उपकरण जरूर है डायरी। किंतु एक आदत सिंध में ही बाबा ने मुझमें पक्की कर दी थी। रात को सोने से पहले मैं अपनी दिनभर की गतिविधियों, दिनभर के कार्यकलापों, दिनभर की उठा-पटक के बारे में चिंतन करता हूँ। मैंने जो किया वह ठीक था या नहीं? मैं किसी दूसरे ढंग से काम करता तो परिणाम सुधरता या बिगड़ता? मैंने किसी के साथ दुर्व्यवहार तो नहीं किया? मेरे कारण किसी के मन को कोई तकलीफ तो नहीं हुई है? मैंने किसी की भावनाओं को ठेस तो नहीं पहुंचाई? स्वयं से ये प्रश्न पूछते हुए आत्मविश्लेषण होता चलता है। हाथों-हाथ सुधार और परिमार्जन भी होता रहता है।

गोपनीयता और आत्मविश्लेषण दोनों डायरी के साथ अनिवार्यतः जुडे़ तत्त्व मुझे निरर्थक लगने लगे तो मैंने डायरी लिखना बंद कर दिया। ये विचार पहले भी आए थे, किंतु डायरी लिखने का नशा मेरी आदत में आ गया था। अवसर मिलते ही या कोई महत्त्वपूर्ण घटना होते ही डायरी लिखने की हूक उठने लगती थी मन में। निरर्थकता का अहसास धीरे-धीरे गहराता गया। जब पलटकर देखता ही नहीं हूँ अपनी लिखी हुई डायरी को तो लिखता क्यों हूँ उसे? तीखापन लिये हुए प्रश्न उठा तो मैंने डायरी लिखना बंद कर दिया। दो वषोर्ं से अधिक समय तक मैंने डायरी नहीं लिखी। आज भी लिखने बैठा हूँ तो केवल इसलिए, क्योंकि इस बीच इतना कुछ इकट्‌ठा हो गया है मेरे भीतर कि मैं किसी के साथ बाँटकर कुछ हलका होना चाहता हूँ।' मन का बोझ, अहसासों की तुर्शी, अपने ढंग से देखी हुई घटनाएँ जिसे बताकर हलका हो सकूं, ऐसा व्यक्ति कोई नहीं है मेरे आसपास। मुझ जैसे लोकप्रिय, मिलनसार और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्ति की यह विचित्र त्रासदी है।

एक मीनू है जिसे मैं अपनी हर बात उसी रूप में बता सकता हूँ। मुझे महसूस होता है कि मेरे सोच का सुर-ताल मीनू के सोच के सुर-ताल से पूरी तरह मिलता है। मेरे मन की कई बातें मीनू बिना बताए समझ जाती है। अपने अहसास, उलझनें उसको बताता हूँ तो वह उन्हें इतना जल्दी ग्रहण करती है जैसे कि वे अहसास और उलझनें उसकी अपनी हों। सारी परेशानियों के बावजूद उसने तलाक के बाद स्वयंपाठी छात्रा के रूप में पिछले साल राजस्थान बोर्ड से मैट्रिक उत्तीर्ण करके दूसरे साल उत्तर प्रदेश बोर्ड से इंटर की परीक्षा का फार्म भरा है। उत्तीर्ण वह तृतीय श्रेणी में हुई है। किंतु विपरीत वातावरण, विपरीत मानसिक स्थितियाँ, भविष्य की अनिश्चितता और छोटी बच्ची के पालन-पोषण के साथ जितनी जल्दी मीनू इंटर तक की सीढियाँ चढ जाएगी, वह उसकी छोटी उपलब्धि नहीं होगी। काका भोजामल के घर जाकर मीनू से गप-शप करते हुए उसे अपनी अंतरंग बातें बता सकूं, उसके अंतरंग अहसास सुन सकूं, इतनी सुविधा नहीं होती। कभी मीनू हमारे घर आती है और अवसर मिल जाता है तो सलीके से मन-चाही बातचीत हो जाती है। अम्मा ने शब्दों में कभी इजहार नहीं किया, किंतु मीनू जब भी आती है और मैं घर में होता हूँ तो अम्मा कोशिश करती है कि हम दोनों को कुछ समय मिल जाए ताकि हम अकेले में बात कर सकें। मीनू की व्यस्तताएँ इतनी बढ गई हैं कि उसके लिए जल्दी आना संभव नहीं होता। यों भी रोजाना हमारे घर आने के लिए कोई बहाना मीनू के पास है ही कहाँ! इसलिए मन में बातें इकट्‌ठी होती गई हैं। मन पर बोझ बढ गया है। डायरी लिखने बैठा हूँ, ताकि किसी जीते-जागते इनसान के साथ न सही, डायरी के पृष्ठों के साथ तो अपनी भावनाएँ बाँट लू।

तृतीय वर्ष एम.बी.बी.एस. में छात्रसंघ के कारण व्यस्तताएँ इतनी अधिक रहीं कि पूरे प्रयत्नों के बावजूद मैं परीक्षा में दूसरे स्थान पर ही आ सका। इतना जरूर हुआ कि प्रगति का सिलसिला टूटा नहीं किंतु सर्वाधिक अंक लाने का मेरा लक्ष्य पूरा हो नहीं पाया। सोचता हूँ तो लगता है कि महासचिव पद के साथ जुड़ी अपेक्षाओं को दो कदम आगे बढकर निभाते हुए मैं परीक्षा में जो जगह बना पाया, वह छोटी उपलब्धि नहीं है। पद, प्रतिष्ठा और पैसे जैसे उपादानों का नशा सीधा दिमाग पर हमला करता है। ईमानदारी से विशिष्ट प्रकार के काम करने की ललक रखने वाले लोगों को भी यह नशा इतना दिग्भ्रमित करता है कि मूल पगडंडी का पता ढूंढे से नहीं मिलता। पद के नशे से अपने दिमाग को बचाते हुए मैंने पढाई को अपनी प्रथम वरीयता के सिंहासन से गिरने नहीं दिया, इस बात का मुझे संतोष है। वैसे भी अंतिम वर्ष एम.बी.बी.एस. के बाद योग्यता-क्रम द्वितीय वर्ष, चतुर्थ वर्ष और पंचम वर्ष में विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित परीक्षाओं में प्राप्त अंकों को जोड़कर बनता है। प्रथम वर्ष और तृतीय वर्ष में परीक्षाएँ कॉलेज की ओर से होती हैं। उनमें योग्यता-प्रदर्शन का लाभ तात्कालिक होता है। चतुर्थ वर्ष और पंचम वर्ष में प्रथम स्थान तथा द्वितीय वर्ष में तृतीय स्थान पर रहने के कारण कुल मिलाकर अंतिम वर्ष एम ० बी ० , बी ० एस० में मेरा योग्यता सूची में प्रथम स्थान रहा। यों तो मेडीकल कॉलेज के इतिहास में मेरा नाम कई कायोर्ं के साथ प्रथम छात्र के रूप में जुड़ा है किंतु ऐसा छात्र जो छात्रसंघ का महासचिव रहा हो और जिसने एम ० बी० , बी ० एस ० की परीक्षा सर्वोच्च स्थान पर रहते हुए उत्तीर्ण की हो, मेडीकल कॉलेज को शायद कभी न मिल सके।

अंतिम वर्ष का परीक्षा परिणाम जून में आया। जून के अंत में प्रारंभ हुई छः माह की इंटर्नशिप दिसंबर में पूरी हुई। विश्वविद्यालय में सर्वाधिक अंक होने के कारण स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए चुना हुआ विषय मुझे आसानी से मिल गया। मैंने जनरल मेडीसिन में एम ० डी ० करने का निर्णय लिया है। भविष्य में संभावनाओं की दृष्टि से मेरा आकलन और अन्य लोगों की सलाह जनरल मेडीसिन में एम ० डी ० करने के पक्ष में थी। पहला साल हाउस जॉब, दूसरा साल रजिस्ट्रार, तीसरा साल सीनियर रजिस्ट्रार। इंटर्नशिप से शुरू हुआ स्टाईपैंड प्रतिवर्ष क्रमशः बढता जाएगा। एम.बी.बी.एस. अंतिम वर्ष तक छात्रवृत्ति मिलती थी। वह बंद हुई तो स्टाईपैंड शुरू हो गया। सोचकर संतोष होता है कि डॉक्टर बनने के लिए मैंने बाबा पर विशेष आर्थिक बोझ नहीं पड़ने दिया।

यों तो अब बाबा भी आर्थिक दृष्टि से सक्षम हैं। फलों का काम छोड़कर उन्होंने शहर के मुख्य बाजार में पगड़ी देकर ली हुई दुकान में किराने का थोक व्यापार शुरू किया है। जमीन खरीद ली है। उस जमीन पर मकान बनवाने का काम साल-छः महीने में शुरू हो जाएगा। काका भोजामल नए काम में भी बाबा के भागीदार हैं। फलों की थड़ी का मालिक अब वीरू है। उसने भी किसी के साथ भागीदारी कर ली है। थड़ी को बेचने वाले बाबा और काका भोजामल। थड़ी को खरीदने वाले काका भोजामल और वीरू का भागीदार। भागीदार से उसके हिस्से की रकम नकद लेकर काका भोजामल को अपने हिस्से का रुपया ब्याज सहित किश्तों में देने की छूट दी है बाबा ने। बाबा और काका भोजामल ने अपनी सारी जमा पूँजी किराने के थोक व्यापार में लगाई है। काम और मुनाफा जिस रफ्तार से बढ रहा है, उससे दोनों संतुष्ट नजर आते हैं।

एम.बी.बी.एस. के तीसरे साल में अस्पताल के काम-काज और तौर-तरीकों से परिचित कराने के लिए हमारी वार्ड पोस्टिंग हुई थी.। गंभीरता से लेने के कारण परिचय से आगे बढकर काम सीखने, मरीजों को देखने, रोगों को समझने की दृष्टि से आधारभूमि उसी साल बन गई थी। चौथे और पाँचवें साल में अन्य विषय छूट चुके थे। मेडीसिन, सर्जरी, आपथैलमालॉजी और प्रीवेंटिव एंड सोशल मेडीसिन की शाखाएँ-प्रशाखाएँ हमारे अध्ययन-क्षेत्र में आ गई थीं। चर्म रोग और रेडियोलॉजी मेडीसिन तथा कान, नाक, गला और स्त्री रोग सर्जरी के अंतर्गत आने वाले महत्त्वपूर्ण विषय थे। चौथे साल से हमारा वास्ता ऐसे अध्यापकों के साथ निकटता से पड़ने लगा जो मुख्य रूप से दवाओं या ऑपरेशन के माध्यम से रोगियों का इलाज करते हैं। पढाना इन वरिष्ठ डॉक्टरों के काम का अपेक्षाकृत कम जरूरी हिस्सा था। लैक्चरार, रीडर या प्रोफेसर पदनाम जरूर मिला हुआ है उन्हें, किंतु वे सब किसी-न-किसी यूनिट के साथ जुड़े हुए हैं, जिसका अर्थ है मरीजों का इलाज। कक्षाएँ लेते हैं। विद्यार्थियों के लिए क्लिनिक में निश्चित केसों पर विस्तृत बातचीत होती है। मगर छः घंटे के निर्धारित कार्य समय में से औसत एक घंटा प्रतिदिन भी अध्यापन नहीं करना पड़ता है उन्हें। अध्यापन उनके दायित्वों का एक छोटा भाग है, बस।

मेडीकल कॉलेज और अस्पताल में कार्यरत अधिकांश लैक्चरार, रीडर, प्रोफेसर पैसा कमाने के लिए नौकरी करते हैं। पैसा उन्हें मरीजों से मिलता है, विद्यार्थियों से नहीं। इसलिए उनका अधिक ध्यान मरीजों की तरफ रहता है। यदि डॉक्टर का अधिक ध्यान मरीजों की तरफ जाता है तो यह अच्छी बात है। मगर क्यों जाता है उसका ध्यान मरीजों की तरफ? इस एकमात्र प्रश्न में गुँथे अनगिनत प्रश्न, अनगिनत मंतव्य, अनगिनत पैंतरे, अनगिनत चालबाजियाँ, अनगिनत झूठ, अनगिनत धोखे और अनगिनत फरेब देख-भाँपकर चिकित्सा-व्यवसाय से विरक्ति होने लगती है। छिटपुट उदाहरणों से भ्रष्ट मानसिकता की सतही जानकारी तो तृतीय वर्ष में पहली बार हुई वार्ड पोस्टिंग में ही मिल गई थी। मगर अब लगता है, यह सब कीचड़ के समुद्र की तरह है। इसकी लंबाई, चौड़ाई, गहराई को नापना साधारण आदमी के लिए संभव नहीं है। घटनाओं और उदाहरणों के रूप में बात करूँगा तो यह अनंत कथा बन जाएगी। बात सूत्रों के रूप में ही की जा सकती है।

जीवन की तरह अस्पताल में कार्यरत चिकित्सकों को भी सिद्धांतवादी, मध्यममार्गी और भ्रष्ट इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। तीनों श्रेणियों में नरम और गरम प्रकृति के लोग हैं। उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं। उसी के अनुसार मरीज से संबंध बनाते और बढाते हैं। तीनों श्रेणियों में कानून से डरकर, नियमानुसार काम करते हुए अपनी मंजिल पर पहुँचने में प्रयत्नशील लोग हैं। तीनों श्रेणियों में अति करने वाले लोग हैं। मानसिक पीड़ा, नियमों का चक्कर किसी-न-किसी दौर में तीनों श्रेणियों के डॉक्टरों को परेशान कर चुका है। हालांकि अट्‌ठाईस-त्तीस साल की उम्र में एम ० डी ० या एम ० एस ० करके आए हैं ये लोग। मेडीकल कॉलेज और अस्पताल में फिर भी कुछ लोग मानसिक रूप से यथेष्ट परिपक्व नहीं है। इस कारण से कोई-न-कोई घटना सिद्धांतवादी खेमे के डॉक्टरों में से एक-आधे को तोड़कर मध्यममार्गी या भ्रष्ट खेमे में धकेलती रहती है। सिद्धांतवादी खेमे की सदस्य संख्या इसलिए समय के साथ कम होती गई है जबकि भ्रष्ट और मध्यममार्गी खेमे की सदस्य संख्या समय के साथ बढती गई है।

वैचारिक दृष्टि से परिपक्व सिद्धांतवादी, झटकों को बरदाश्त कर जाते हैं। अन्य सिद्धांतवादियों को भ्रष्टाचार की गोद सब समस्याओं का समाधान नजर आती है। अगर ईमानदारी का यही सिला मिलता है तो बाज आए ऐसी ईमानदारी से, सोचा और पाला बदल लिया। शायद यह अस्वाभाविक नहीं है। पानी बहेगा। कोई चेष्टा नहीं की जाएगी तो उसका रुख नीचे की तरफ होगा। पानी को ऊपर चढाना है तो मोटर का इस्तेमाल करना पड़ेगा। झटकों के परिमाण के अनुसार शक्तिशाली सिद्धांत प्रदत्त बल जब तक नहीं है, गिरावट की दिशा भ्रष्टाचार की तरफ ही हो सकती है। आत्मबल तय करता है कि सिद्धांतवादी कितने पत्थरों की मार सह सकेगा। आत्मबल जितना कम होगा, पत्थरों की मार सहन करने की शक्ति उतनी ही कम होगी। पत्थरों की मार सहन करने की शक्ति जितनी कम होगी, अपनी जगह दृढता के साथ खड़े रहने की संभावनाएँ उतनी कम होंगी। भ्रष्ट श्रेणी आए दिन ऐसे लोगों का तत्परता के साथ स्वागत करती है।

नरम प्रकृति के भ्रष्ट डॉक्टर घर पर आने वाले मरीजों को देखते हैं। लैक्चरार की दिन में देखने के लिए निर्धारित फीस दस रुपए, रीडर की पंद्रह रुपए और प्रोफेसर की अट्‌ठारह रुपए है। लेकिन निर्धारित फीस कोई नहीं लेता है। बीस से तीस रुपए तक सबने अपनी फीस स्वयं ही निर्धारित कर ली है। माँगने वाले को, निर्धारित फीस के अनुसार अलग-अलग तारीखों में रसीदें दे देते हैं। बाकी मरीजों से ली गई फीस न इनकम टैक्स में दिखाते हैं और न बैंक में जमा कराते हैं। घर पर देखे हुए जिन मरीजों को भरती करते हैं, नरम प्रकृति के भ्रष्ट डॉक्टर वार्ड में उनका पूरा ध्यान रखते हैं। मल, मूत्र आदि की जाँच और एक्स-रे ‘मरीज आयकर नहीं देता' लिखकर निःशुल्क करा देते हैं। मरीज खुश हो जाता है। ठीक होकर लौटने के बाद स्वयं भी घर पर दिखाकर इलाज कराना चाहता है। मिलने-जुलने वालों, मित्रों, परिचितों, रिश्तेदारों को भी यही सलाह देता है।

नरम और उग्र प्रकृति के भ्रष्ट डॉक्टरों को इतने मात्र से संतोष नहीं होता है। वे मरीज को उतनी ही सेवाएँ देते हैं, जितना वह पैसा देता है। वार्ड में भरती होने के बाद भी उसे घर आकर फीस देनी चाहिए। आउटडोर में आने वाले मरीजों को वे ध्यान देकर नहीं देखते। घर पर दिखाने के संकेत समर्थ मरीजों को देते रहते हैं। अस्पताल से जांच केवल उन मरीजों की कराते हैं जिन्होंने कम-से-कम तीन-चार बार फीस दी है। अन्यथा जांच अस्पताल से बाहर कराने के लिए कहते हैं। आउटडोर में दिखाने वाले मरीजों को तो वे निजी प्रयोगशालाओं में भेजते ही हैं, वार्ड में भरती मरीज को भी जाँच के लिए बाहर भिजवा देते हैं। निजी प्रयोगशालाएँ पर्चे में लिखी हुई प्रत्येक जाँच का जितना पैसा मरीज से लेती हैं, उसका पच्चीस प्रतिशत संबंधित डॉक्टर के पास पहुँच जाता है। आउटडोर में लिखें चाहे घर पर या अस्पताल में भर्ती मरीजों की पर्चियों पर, कुछ ऐसी दवाएँ वे जरूर लिखते हैं जो निश्चित दुकान से ही मिलती हैं। इन दवाओं पर दुकानदार के माध्यम से कंपनी उन्हें पच्चीस से पचास प्रतिशत तक कमीशन देती है। अस्पताल के अधीक्षक ने तो अपने बेटे के नाम से बी-कांप्लेक्स सिरप बनाने की एक यूनिट लगा रखी है, जिसमें बी-कांप्लेक्स के नाम पर गुड़ का सुगंधयुक्त घोल शीशियों में भरा जाता है। प्रत्येक नुस्खे में इस बी-कांप्लेक्स सिरप को वे जरूर शामिल करते हैं। उनकी यूनिट के डॉक्टर भी प्रत्येक मरीज के लिए अधीक्षक के बनाए बी-कांप्लेक्स सिरप को जरूरी मानते हैं।

आक्रामक किस्म के भ्रष्ट सर्जन मरीज के साथ ऑपरेशन की कीमत तय कर लेते हैं। हैसियत के अनुसार दो सौ से एक हजार के बीच रकम तय हो जाती है और सर्जन ऑपरेशन तभी करता है जब पूरी रकम उसे अग्रिम रूप से मिल जाती है। इस तरह के मरीज वार्ड में अत्यंत महत्त्वपूर्ण मरीज माने जाते हैं।

यूनिट हैड रीडर हो या प्रोफेसर, अपनी यूनिट का राजा होता है। नियमानुसार प्रत्येक यूनिट में कार्यरत लैक्चरार, रीडर और प्रोफेसर के लिए पद के अनुसार पलंगों की संख्या निश्चित होती है। उतने पलंगों पर भरती मरीजों का दायित्व संबंधित डॉक्टर का होता है। वह भरती, इलाज, जांच, निःशुल्क दवाएँ, अस्पताल से छुट्‌टी आदि सभी मामलों में निर्णय लेकर निश्चित पलंगों के मरीजों की देखभाल करता है। किंतु व्यवहार में यूनिट हैड ही अपनी यूनिट के सभी पलंगों के बारे में निर्णय लेता है। पदनाम यूनिट हैड के अधिकारों की दृष्टि से कहीं आड़े नहीं आता। जो मरीज अस्पताल की व्यवस्था से परिचित होते हैं, यूनिट हैड को घर पर दिखाकर अस्पताल में भरती होते हैं। यूनिट में कार्यरत अन्य डॉक्टरों के पास केवल ऐसे मरीज पहुँचते हैं जो या तो इस व्यवस्था से परिचित नहीं होते या आस्था, जान-पहचान, संदर्भ से बँधे होते हैं। घोषित रूप से यूनिट में कार्यरत अन्य डॉक्टर यूनिट हैड को लाभ पहुँचाने की चेष्टा करते रहते हैं। सैकंड ओपीनियन के नाम से हो या एक्सपर्ट एडवाइस के आवरण में, मरीजों को बाकायदा यूनिट हैड के घर भिजवाते रहते हैं।

जो अधीनस्थ डॉक्टर यूनिट हैड को खुश नहीं रखते हैं उन्हें सीधे तरीके से तो कोई कुछ नहीं कहता लेकिन जिन मरीजों को वे भरती करते हैं उन्हें अहसास जरूर करा दिया जाता है कि यूनिट में चलती सिर्फ यूनिट हैड की है। यूनिट में मरीज भरती हुआ है। एक डॉक्टर को उसने घर पर दिखाया है अर्थात्‌ वह पैसा खर्च कर सकता है। स्वयं पैसे वाला नहीं है तो कहीं से उधार लेगा। लेकिन इलाज कराने में कंजूसी नहीं करेगा।

राउंड के समय नाक-भाैं सिकोड़कर अधीनस्थ डॉक्टर की लिखी हुई दवाओं को बदल देंगे। बदली हुई दवाओं में एक ऐसा इंजेक्शन भी शामिल होगा जिसकी कीमत एक सौ तीस रुपए होगी। रजिस्ट्रार को दवाएँ लिखवाते समय मरीज या उसके निकटस्थ को बुलाकर यूनिट हैड कहेंगे, ‘‘मरीज की हालत को देखते हुए हम एक महँगा इंजेक्शन ,लिख रहे हैं। इंपोर्ट होता है। शहर में केवल अमुक दुकानदार मंगवाता है। एक इंजेक्शन अस्सी रुपए का आएगा। आप खर्च कर सकें तो लिखें। इस इंजेक्शन के बिना मरीज की हालत नहीं सुधरेगी। आप देख लीजिए।''

जाहिर है मरीज या उसके परिजन वश चलते इनकार नहीं करेंगे। ढेर सारी महँगी जाँचें, एक्स-रे बाहर से कराने के लिए लिख देंगे। कहेंगे, ‘‘केस बहुत बिगड़ चुका है। बाहर से जाँच जल्दी भी होगी और सही भी होगी। अस्पताल के बारे में तो आप जानते ही हैं।''

एक बार जाँच हो गई। कुछ जांँचें नई और कुछ रिपीट लिखकर मरीज को दूसरी बार निजी लेबोरेटरी में भेजा जाएगा। तब तक अस्सी रुपए वाला इंजेक्शन रोजाना लगता रहेगा। पच्चीस प्रतिशत कमीशन इंजेवशन पर और पच्चीस प्रतिशत कमीशन निजी प्रयोगशाला से कराई गई जाँचों पर यूनिट हैड को मिलता रहेगा। पाँच दिनों में मरीज को फायदा हुआ तो ठीक है अन्यथा मरीज में खर्च करने की हिम्मत के अनुसार या तो जाँच पर जाँच होती चलेगी या फिर झगड़ा करने के बाद या खामोशी से मरीज भागकर किसी दूसरे डॉक्टर की शरण लेगा।

कुछ सर्जन आउटडोर में आए मरीज को घर बुलाकर और घर आए मरीज को समझाकर प्राइवेट नसिंग होम में ऑपरेशन कराने के लिए तैयार करेंगे। कहेंगे, ‘‘अस्पताल में भी मैं ही ऑपरेशन करूँगा। मगर वहाँ की गंदगी और बदइंतजामी में आपका केस बिगड जाएगा। कुछ पैसा जरूर खर्च होगा लेकिन पैसा तंदुरुस्ती से बड़ा तो नहीं होता।''

मरीज पूरी कोशिश करेगा कि सर्जन की सलाह के अनुसार प्राइवेट नसिर्ंग होम में ऑपरेशन कराए। नसिर्ंग होम में एनेस्थीसिया, ऑपरेशन थियेटर, ऑपरेशन, नसिर्ंग केयर, जाँच, कमरा हर एक के लिए पैसा वसूल किया जाएगा। डिसचार्ज जान-बूझकर निर्धारित समय से एक घंटा बाद दिया जाएगा ताकि कमरे का एक दिन का किराया अतिरिक्त वसूल किया जा सके। मेडीकल स्टोर नर्सिंग होम वालों का चलता होगा। सर्जन तीन दिन की दवाएँ लिखेगा। अगले दिन बदलकर दूसरी दवाएँ लिख देगा। मेडीकल स्टोर से दवाओं की बिक्री बढी। मुनाफा बढा। नर्सिंग होम के मालिक को फायदा हुआ। सर्जन की फीस एक सौ रुपए प्रति ऑपरेशन बढ गई। उसके माध्यम से भरती हुए मरीज का कमीशन अलग।

अस्पताल में मरीजों से संबंधित सभी चीजें खरीदी जाती हैं। सबके लिए कंपाउंडर, नर्स, डॉक्टर इंचार्ज या डॉक्टरों की समिति नियुक्त होती हैं। चादरें, गद्‌दे, तकिए, थियेटर में ले जाने से पहले मरीज को पहनाने के लिए पाजामा और गंजी, ऑपरेशन थियेटर में काम करने वाले डॉक्टरों के लिए एप्रन, मुँह पर बाँधने के लिए पट्‌टी, सिर पर बाँधने के लिए स्कार्फ, पलंग, यूरीन पॉट, स्टूल पॉट, तसला हर चीज की अस्पताल में जरूरत होती है। कोटेशन लिये जाते हैं। लेखा नियमों के अनुसार औपचारिकताएँ पूरी होती हैं। संबंधित लोगों के पास उनका तयशुदा हिस्सा पहुँच जाता है। अच्छी और स्तरीय चीजों के स्थान्‌ पर खराब और घटिया सामान की आपूर्ति हो जाती है। दवाओं, ड्रेसिंग के लिए पट्टियों, रुई, स्पिरिट आदि की खरीद में प्रतिवर्ष लाखों रुपए इधर से उधर होते हैं। परिणामतः कभी ऐसी दवाओं का ढेर लग जाता है जिनकी अधिक जरूरत नहीं पडती, जो एक्सपायरी डेट निकल जाने के कारण फेंक दी जाती हैं और कभी सर्जीकल आउडोर, सर्जीकल वार्ड, इमरजेंसी, ऑपरेशन थियेटर में स्पिरिट की एक बूंद तक नहीं होती। मरीजों से पट्टियाँ, रुई, अडहेसिव प्लास्टर मंगवाकर ऑपरेशन के दौरान और ऑपरेशन के बाद इस्तेमाल करने पड़ते हैं।

मध्यममार्गी डॉक्टर ज्यादा उठा-पटक नहीं करते। अवसर मिलता है तो लाभ उठा लेते हैं। नहीं मिलता है तो पीछे नहीं दौड़ते हैं। वार्ड ब्वाय, नर्स, कंपाउंडर, प्राइवेट डॉक्टर उनके घर मरीजों को नहीं भेजते हैं क्योंकि मध्यममार्गी डॉक्टर उन्हें मरीज भेजने के लिए कमीशन नहीं देते हैं। करते सब कुछ हैं, सही भी, गलत भी। यह करें, वह न करें इस तरह की जिद्‌द उनमें नहीं होती। आराम तलबी के साथ अस्पताल जाएँगे, राउंड लेंगे, कॉफी क्लव में बैठकर कॉफी पीते हुए गपशप करेंगे, चुटकुले सुनाएंगे और समय पूरा होने से कुछ देर पहले चले जाएंगे। किसी से ज्यादा दोस्ती नहीं करते, किसी से दुश्मनी नहीं करते। कोई खतरा उठाकर किसी का काम नहीं करते, खतरा न हो तो किसी का काम करने से इनकार नहीं करते। निरापद होते हैं इसलिए अस्पताल में इस वर्ग के डॉक्टरों की तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं देता।

सिद्धांतवादी डॉक्टर अस्पताल की नाक भी होते हैं और झगड़े का कारण भी। प्राइवेट प्रेक्टिस नहीं करेंगे। कहेंगे, इससे हमारे व्यक्तिगत जीवन पर खराब असर पड़ता है। मरीज आया है। आप पत्नी से बात कर रहे हों या मेहमानों से, छोड़कर उठेंगे। मरीज जब तक है उसे खुदा मानेंगे। आप सो रहे हैं। रात के दो बजे हैं। मरीज घंटी बजाकर आपको जगाता है। आप उसे एक्जामिन करते हैं। प्रेस्क्रिप्शन लिखते हैं। भरती करना है तो इमरजेंसी में फोन करते हैं, मरीज भेज रहा हूँ। दवाएँ लिख दी हैं। मेरे वार्ड में भरती कर दो। तबीयत ठीक नहीं है। सिर दर्द से फटा जा रहा है। मरीजों की लाइन लगी है। देखना पड़ेगा। चंद रुपयों के लिए नहीं खोलकर बैठना है हमें कोठा। ग्राहक जब चाहेगा, आएगा। नोटों के बल पर नचवाएगा। दस का एक नोट नजर करेगा और चल देगा। पिक्चर देखने की इच्छा है। शहर में अच्छा नाटक चल रहा है। बच्चे कहते हैं, आज रात का भोजन किसी होटल में करेंगे। जीजा या साला आया है, उसे घुमाने आमेर ले जाना है। बरसात का मौसम है। पिकनिक पर रामगढ जाएँगे। भांजे से मिलने का मन कर रहा है। दो दिन के लिए दिल्ली हो आते हैं। नहीं, आप कुछ नहीं कर सकते। कहीं नहीं जा सकते। क्योंकि सुबह, दोपहर, शाम मरीज आपको घर पर दिखाने आते हैं। एक दिन में दस मरीज भी आएँ तो सौ रुपए का नुकसान हो जाएगा। जेब से जो पैसा खर्च होगा सो अलग। उपन्यास पढ़ना चाहते हैं? नहीं पढ़ सकते, मरीज देखने का समय है। बच्चों के साथ साँप-सीढी खेलना चाहते हैं। नहीं खेल सकते, मरीज देखने का समय है। लखनऊ से बचपन का दोस्त आया है। पुराने दिन याद नहीं कर सकते, मरीज देखने का समय है। मरीजों को देखना हमारा कर्त्तव्य है। इसका मतलब यह कहाँ है कि हम न शादी करें, न माँ या पिता बनें, न दोस्त हों हमारे, न रिश्तेदारी निभाएँ और न समाज में उठें-बैठें।

चार घंटे सुबह और दो घंटे शाम को अस्पताल में काम करते हैं। मरीजों को देखते हैं। राउंड लेते हैं। इमरजेंसी निपटाते हैं। लड़कों को पढाते हैं। कॉल पर होते हैं तो चौबीसों घंटे घर पर बने रहते हैं ताकि कॉल आने पर ऐसा न हो कि हम घर पर न मिलें। होली, दीपावली लोग त्योहार मनाते हैं। ड्‌यूटी लगती है तो ऐसे अवसरों पर भी हम अस्पताल जाते हैं। जितना वेतन सरकार देती है, उससे ज्यादा ही काम करते हैं। घर पर मरीजों को देखना या न देखना हमारी सेवा शतोर्ं में शामिल होता तो सोच-समझकर नौकरी करते। नौकरी स्वीकार करते तो मरीजों को नियमानुसार देखते, नहीं तो नौकरी नहीं करते। अब तो घर पर मरीजों को देखना, न देखना हमारी मर्जी पर निर्भर करता है। सरकार ने घर पर मरीज देखने की फीस तय की है। घर पर मरीज नहीं देखते तो आर्थिक नुकसान हमें होता है। व्यक्तिगत जीवन, स्वेच्छा से कुछ भी करने की स्वतंत्रता हमें उस फीस से ज्यादा अच्छी लगती है। छः घंटे अस्पताल को देते हैं, बहुत है। अपने पंख कटवाकर सोना नहीं चाहिए हमें।

देख भी लें घर पर मरीज, मगर बात यहां खत्म नहीं होती। ईमानदारी को अलविदा कहने और बेईमानी को अंगीकार करने का संकेत है अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टर के लिए प्राइवेट प्रेक्टिस। घर पर मरीज केवल पैसे के लिए, फीस के लिए देखते हैं न? मरीज कितना पैसे वाला है, इसका अनुमान मरीज के पहनावे, उसकी बातचीत, उसकी चाल-ढाल से लगाने की कोशिश होगी। अगर वह पैसे वाला है तो उसके प्रति दृष्टिकोण अलग होगा और अगर सामान्य या निर्धन है तो उसके प्रति दृष्टिकोण अलग होगा। हम फीस लेकर देखना चाहते हैं। मरीज फीस देकर दिखाना चाहता है। हम चाहेंगे कि जिस तरह भी बन पड़े, उससे ज्यादा फीस मिल जाए। फीस ज्यादा न मिले तो कोई दूसरा लाभ मिल जाए। मरीज धनवान होगा, उच्च पद पर होगा तो हमारे वे स्वार्थ पूरे हो सकेंगे। घर पर फीस देकर दिखाने वाला निर्धन मरीज हमारे लिए उपेक्षणीय हो जाएगा। घर पर मरीज देखने के साथ मानसिकता में ऐसे परिवर्तन अनिवार्यतः आते हैं। किसी में कम, किसी में ज्यादा। लेकिन मरीज को उसकी बीमारी के आधार पर न देखकर उसकी हैसियत के आधार पर देखने की प्रवृत्ति वर्चस्व स्थापित कर लेती है। अस्पताल में मरीजों को देखने में मन नहीं लगता। यदि यह मरीज घर आता तो बीस रुपए देता, तीस रुपए देता। तुलना करता हुआ मस्तिष्क अस्पताल में मरीज को चलताऊ ढंग से देखेगा।

अस्पताल में आने वाले मरीजों में से कुछ ऐसे होंगे जिन्हें हम घर पर देख चुके हैं। हमारे कहने से ही वे अस्पताल में दिखाने आए हैं। ये मरीज हमारे मरीज हो जाएँगे। शेष मरीज क्या हुए? पराए मरीज? सरकारी मरीज? लावारिस और अनाथ मरीज? जिन्हें हम अपना मरीज मानते हैं, उन्हें दूसरों से पहले देखेंगे। उनसे दूसरों की तुलना में ज्यादा प्यार से बात करेंगे। उन्हें दूसरों की तुलना में अधिक समय लगाकर एग्जामिन करेंगे। उन मरीजों में हमें अपना ग्राहक नजर आता रहेगा। फिर जिस काम के लिए सरकार हमें वेतन देती है, उसका क्या हुआ?

वार्ड में चालीस मरीज भरती हैं। उनमें से चार मरीजों ने मुझे घर पर फीस देकर दिखाया था। मेरी पर्ची के आधार पर उनकी भरती हुई है। रीडर के छः और प्रोफेसर के दस मरीज भरती हैं। चालीस में से बीस मरीजों ने पैसे के बल पर किसी-न-किसी का ध्यान खरीदा है। राउंड पर वार्ड में गया। चालीस में से चार मरीजों के प्रति मेरे मन में जो भावनाएँ होंगी, छतीस मरीजों को संलग्नता के साथ वे भावनाएँ देखने ही नहीं देंगी मुझे। यह भी हो सकता है कि अगर मैं समर्थ हूँ, दबंग हूँ, सरकार में मेरी पहुँच है. तो मैं देखूँ ही उन चार मरीजों को और राउंड पूरा मानकर वार्ड से निकल जाऊँ।

यदि मैं सभी चालीस मरीजों को देखता हूँ तब भी सर्वाधिक रुचि उन चार मरीजों के प्रेस्क्रिप्शन में लूँगा, जो मुझे घर पर दिखाकर भरती हुए हैं। निदान के लिए आवश्यक जाँचें हुई हैं या नहीं, नहीं हुई हैं तो हो जाएँ। इंजेक्शन निर्धारित समय पर लग रहे हैं या नहीं, नहीं लग रहे हैं तो लग जाएँ। राउंड लेते समय बाकी मरीजों के पलंगों पर जाते समय मेरे चेहरे पर पत्थर जैसी तटस्थता होगी। इन चार मरीजों के पलंगों पर पहुँचते ही मेरे होंठ मुसकराने लगेंगे। कोई दूसरा मरीज या उसका परिजन मुझसे कुछ पूछने आएगा तो मैं सीधे मुँह बात नहीं करूँगा उससे। उन चार में से कोई एक या उसका परिजन आएगा तो मैं उसे संतुष्ट करके भेजूंगा। मेरे व्यवहार में यह दोहरापन उस फीस के कारण आता है जो उन मरीजों ने घर पर दी थी मुझे। घर पर दी हुई फीस का असर अस्पताल में भी मेरे ऊपर है। जबकि सरकार अस्पताल में मरीजों को देखने, उनका इलाज करने की कीमत मुझे देती है। अगर मैं कहता हूँ कि सरकार वेतन बहुत कम देती है, इतने से रुपयों में क्या होता है आजकल? अगर इसी वेतन में गुजारा करने की नौबत आ जाए तो कार और वैस्पा छोड़कर मुझे साइकल पर अस्पताल में आना पडे़गा। मैं एक सीधा-सा सवाल पूछता हूँ, ‘‘भाई, तुम्हें किसने कहा यह नौकरी करने के लिए? वेतन कम है तो छोड़ो नौकरी। वह काम करो, जिससे ज्यादा पैसा मिले।''

आँशिक रूप से आदर्शवादियों से में सहमत हूँ। सरकारी अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टर की प्राइवेट प्रेक्टिस ही सब झंझटों की जड़ है। सुबह आठ बजे गरमियों में और सुबह नौ बजे सर्दियों में अस्पताल जाने का समय है। घर पर मरीज देखने वाले डॉक्टर के पास अस्पताल जाने के समय के एक-एक घंटे बाद तक मरीज आते रहते हैं। कोई देखने निकले तो अस्पताल जाने का समय गुजरने के बाद भी डॉक्टरों को घर में नहाता हुआ या नाश्ता करता हुआ देख सकता है।

कुछ बड़े दिल वाले, मैं उन्हें दुःसाहसी कहूँगा, डॉक्टर ऐसे भी हैं जिन्होंने घर के एक कमरे में पलंग आदि लगवाकर इनडोर हॉस्पीटल खोल रखा है। आठ बजे की बजाय दस बजे अस्पताल जाते हैं। आधा घंटा वहाँ रुककर लौट आते हैं। मरीजों को खुले आम घर बुलाते हैं। अस्पताल में मरीज को हाथ भी नहीं लगाते। घर में यूरीन और ब्लड टैस्ट करने के लिए प्रयोगशाला चलती है। एक स्क्रीनिंग मशीन घर में लगी हुई है। मरीज को उसके अंदरूनी हिस्सों की स्थिति खुद देखने के लिए कहते हैं। फेफड़ों को मरीज स्क्रीनिंग मशीन पर देखता है। डॉक्टर साहब बताते हैं, अमेरिका से यह मशीन मंगवाई है। हिंदुस्तान में केवल मेरे पास है। मरीज सोचता है, डॉक्टर साहब अद्‌भुत हैं। एक्स-रे फिल्म बीस रुपए में मिल जाती है। वे मरीज से पचास रुपए लेते हैं। बीस साल की नौकरी अभी नहीं हुई है। दस लाख रुपए लगाकर एक आलीशान अस्पताल बनवाया है। जल्दी ही नौकरी छोड़ने का विचार है उनका। सरकार और प्रशासन में जबरदस्त पैठ है। इसलिए उनके खिलाफ कार्यवाही की बात कोई सोचता ही नहीं है।

एक बार शुरुआत हो जाए तो भ्रष्ट आचरण की कोई सीमा नहीं होती। जिन्हें अवसर नहीं मिलता वे यदि भ्रष्ट नहीं हैं तो उनकी प्रशंसा करने योग्य कोई बात नहीं है। तारीफ तो तब है कि भ्रष्टाचार करने की सुविधा हो और पाक-साफ रहा जाए। एक बार प्राइवेट प्रेक्टिस के नाम पर स्वाद चखा नहीं कि हवस बढती जाती है। फिर मानवता, पीड़ा, दुःख, दर्द गौण हो जाते हैं। फीस नहीं है तो अस्पताल में दिखाओ और अस्पताल में तुम्हें अच्छी तरह देखा नहीं जाएगा। प्राइवेट प्रेक्टिस शुरू करते समय भले ही डॉक्टर एक सीमा निर्धारित कर ले किंतु अपनी तय की हुई हदों में वह रह पाएगा और हर इनसान के आँसुओं का खारापन उसे हमेशा एक जैसा लगता रहेगा, ऐसा व्यवहार में होता नहीं है।

भ्रष्ट आचरण यदि सीमाओं को स्वीकार नहीं करता है तो सिद्धांत भी समझौता करना नहीं जानता। सिद्धांतवादी टूटकर घोर भ्रष्टाचारी बन जाए, यह तो हो सकता है किंतु झुककर वह सिद्धांत के साथ समझौता कर ले, ऐसा नहीं होता। इसी अस्पताल में एक प्रोफेसर हैं। आउटडोर में बैठने से पहले कंपाउंडर के माध्यम से वे मरीजों में टोकन बँटवा देते हैं। ठीक समय पर अस्पताल आते हैं। वार्ड में राउंड लेते हैं। इसके बाद एकाग्र-भाव से टोकन नंबर के अनुसार मरीजों को एक-एक करके देखते रहते हैं। टाई लगाकर कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति आए या फटे कपड़े पहने कोई गरीब, वे सबको उतनी ही तन्मयता के साथ देखते हैं। सबको टोकन नंबर के क्रम में ही देखते हैं। अस्पताल का कोई सहयोगी डॉक्टर, प्रिंसिपल यहाँ तक कि मंत्री भी चाहे कि वे किसी मरीज को बीच में देख लें, तो स्पष्ट इनकार मिलता है। निर्धारित समय के अतिरिक्त मरीज से मिलने की अनुमति उनके वार्ड में किसी को नहीं मिलती है। राउंड के समय वे केवल मरीज को एक्जामिन नहीं करते। यह भी देखते हैं कि जो अलमारी मरीज के सामान के लिए पलंग के पास रखी है, वह व्यवस्थित है या नहीं? सफाई ठीक नहीं हुई है तो वार्ड ब्वाय को बुलाकर डाँटेंगे। चादर, तकिए के गिलाफ बदले नहीं गए हैं तो नर्स को बुलाकर जवाब तलब करेंगे। मरीज के पहने हुए कपड़े गंदे हैं, अलमारी अस्त-व्यस्त है, दवाएँ बिखरी पड़ी हैं तो मरीज के परिचारक से पूछेंगे कि यदि इन बातों का ध्यान भी तुम नहीं रख सकते तो यहां बैठने की क्या जरूरत है? घर जाकर आराम से सोओ। मरीज की देखभाल हम खुद ही कर लेंगे। घर पर मरीज को देखते नहीं हैं। कोई निकटस्थ असमय घर आ जाए, गंभीर बात हो, उसी समय उसे अस्पताल पहुँचने के लिए कहेंगे और स्वयं अस्पताल आकर उसे देखेंगे। मरीज वार्ड में पलंग उपलब्ध न होने के कारण फर्श पर लेटे होते हैं। राउंड के समय नीचे बैठकर वे ऐसे मरीजों को एग्जामिन करते हैं। मरीज का हित उनकी दृष्टि में सर्वोपरि है। अपनी छवि खराब करके, कटु बातें कहकर उद्‌दंड व्यवहार करके, सहयोगियों के साथ संबंध बिगाड़कर, प्रिय-अप्रिय कदम उठाकर, सब कुछ दाँव पर लगाकर वे सुनिश्चित करना चाहते हैं कि मरीज के हितों की रक्षा हो रही है। मरीज के मन में चाहे उनके प्रति अगाध श्रद्धा हो किंतु सारा कॉलेज उन्हें सनकी कहता है। वे पैदल अस्पताल आते हैं। उनके घर में बैठने के लिए पुराने जमाने का आबनूसी लकड़ी का बना एक सोफा रखा है।

यदि वह अति अच्छी नहीं है तो यह अति भी अच्छी नहीं कही जा सकती। आदर्श और व्यावहारिकता का कोई खूबसूरत संगम नहीं हो सकता है क्या? शायद यह बहुत मुिकल काम नहीं है। हम लोग इस कोण से विचार नहीं करते। इसलिए अपने-अपने दायरों में घूमते-भटकते रहते हैं।

तृतीय वर्ष एम.बी.बी.एस. में लायन क्लब और रोटरी क्लब के सहयोग से गरीब मरीजों को दवाएँ उपलब्ध कराने के लिए मासिक अनुदान की व्यवस्था की थी। बाद में शहर के कुछ दानवीरों और पैसेवालों से बात करके स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट नाम से एक संस्था का गठन मैंने कराया। पाँच लाख रुपए की मूल राशि से मैंने इस ट्रस्ट के लिए आर्थिक सहयोग देने वालों में से ही कुछ लोगों को चुनकर ट्रस्टी बना दिया। ट्रस्ट का कार्यालय अस्पताल परिसर में है। अस्पताल परिसर में कार्यालय खुलवाने की दृष्टि से प्रयत्न तो बहुत करने पड़े किंतु अंत में सफलता मिल गई। अस्पताल में भरती कोई भी मरीज ट्रस्ट के कार्यालय में आवेदन करके दवाओं के लिए अनुरोध कर सकता है। तुरंत ट्रस्ट की ओर से मौके पर जाकर मरीज की स्थिति की जाँच हो जाती है और प्रेस्क्रिप्शन के अनुसार दवाएँ उपलब्ध करा दी जाती हैं। इसके अतिरिक्त भी ट्रस्ट कई काम करता है। लोगों से पुरानी पत्रिकाएँ लेकर वाडोर्ं में भरती मरीजों व उनके परिचारकों को दी जाती हैं। कोई मरीज चाहे तो समाचार लिखकर पोस्टकार्ड उसके बताए हुए पते पर भेजा जाता है। मरीज को खून की जरूरत है। खून खरीदने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं। खून दान में दे सके ऐसा कोई परिजन उपलब्ध नहीं है। ट्रस्ट की ओर से दानदाता की व्यवस्था करके खून उपलब्ध करा दिया जाता है। इसके लिए ट्रस्ट में स्वेच्छा से खून दान में देने के इच्छक व्यक्तियों की एक सूची है।

एक और काम स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट करता है जो मेरी दृष्टि में बहुत जरूरी है। ट्रस्ट ने कुछ पैंफलेट, कुछ पुस्तिकाएं और कुछ पोस्टर तैयार कराए हैं। यह सामग्री स्वास्थ्य शिक्षा देने के उद्‌देश्य से तैयार कराई गई है। डॉक्टरों की लूट-खसोट, धोखाधड़ी इसलिए चल जाती है क्योंकि अधिकांश लोगों को उन बातों की जानकारी नहीं है, जिनके कारण डॉक्टर उन्हें अँधेरे में रखने में सफल हो जाते हैं। फिलहाल अस्पताल में भरती मरीजों के परिचारकों को, अस्पताल के सामने बनी धर्मशाला में रहने वाले मरीजों के रिश्तेदारों को ट्रस्ट इस सामग्री के माध्यम से बताने की कोशिश करता है किं अच्छे स्वास्थ्य के लिए उन्हें क्या करना चाहिए? ट्रस्ट के पास फोटो स्लाइड हैं। प्रोजेक्टर है। इन लोगों के लिए प्रति सप्ताह एक स्लाइड शो का आयोजन ट्रस्ट करता है। खुलकर तो डॉक्टरों के हथकंडों की बात अभी नहीं करते, किंतु प्रतीकों और संकेतों में कोशिश होती है कि लोग हकीकत को समझें। जितना समय मिल पाता है उसके अनुसार प्रतिदिन मैं भी ट्रस्ट के कार्यालय में जाकर बैठता हूँ।

स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट को व्यावहारिक आदर्श का प्रतिरूप बनाने के लिए कुछ योजनाएँ मेरे मस्तिष्क में हैं। अभी तीन साल यही अस्पताल मेरा कार्यक्षेत्र रहेगा। इस अवधि में उन योजनाओं को किस सीमा तक अमली जामा पहनाया जा सकेगा, इसी पर निर्भर करेगा मेरे उस प्रश्न का उत्तर कि आदर्श और व्यावहारिकता का कोई खूबसूरत संगम नहीं हो सकता है क्या?

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