झुकी हुई फूलों भरी डाल - 7 Neelam Kulshreshtha द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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झुकी हुई फूलों भरी डाल - 7

झुकी हुई फूलों भरी डाल

[कहानी संग्रह ]

नीलम कुलश्रेष्ठ

7 - झुकी हुई फूलों भरी डाल

सुबह सुबह पेड़ों की कतारों से सजी, हल्की रोशनी में नहाई लम्बी सड़क कितनी ख़ामोश लेकिन दिल को सहलाती सी लगती है। उन्हें ऐसे में अपनी ही पदचाप सुनना बहुत भला लगता है। आज भी वे नहा धोकर घूमने निकल आईं हैं। उनके अशांत मन को सुबह की ताज़ा हवा थपेड़े देकर सहला रही है। मन जब कुछ शांत होता है तो कविता बेन की कोठी की तरफ लौट लेतीं हैं। भला हो कविता बेन का जिन्होंने अपनी कोठी की दो कमरों की एनेक्सी उन्हें रहने के लिए दे दी है। उनकी मनपसंद साफ़ सुथरी जगह -छत से लटकती लताएं, फूलों की क्यारियाँ, लॉन में सजे गमले। जैसे ही वे अंदर दाखिल होतीं हैं उनकी नज़र सामने की क्यारी में अभी अभी खिले पीले गुलाब पर जाती है. उन्होंने साड़ी भी हलके पीले रंग की ऑर्गेन्डी पहन रक्खी है। उनकी उंगलियां मचलकर उस पीले गुलाब को तोड़कर अपनी लम्बी चोटी के ऊपर लगा लेतीं हैं। और फ़िर ख़ुद ही सकुचा जातीं हैं कि उन्हें ये क्या होता जा रहा है। अब कहीं साड़ी से मैचिंग फूल लगाने उनकी उम्र रही है?मांग के दोनों ओर सफ़ेद बाल झिलमिला रहे हैं।वे सकुचाकर फूल निकाल लेतीं हैं लेकिन फेंक नहीं पातीं। अपनी मुठ्ठी में लिए अपने कमरे में आ जातीं हैं.

"मिस शुचि !येलो कलर रियली सूट्स टु यू. `कितनी मुलाक़ातों के बाद पहली बार उस दिन विद्वान, गंभीर चेहरे से ये वाक्य निकला था।

"थैंक्स।"`कहते हुए वे सकुचा गईं थीं पता नहीं क्यों यूनिवर्सिटी के इस कमरे में आकर वे अपने आपको निरस्त्र सा महसूस करने लगतीं हैं।

"आपके लिए एक गुड न्यूज़ है पुलिस विभाग ने पिछले वर्ष के स्त्री आत्महत्यायों के रिकॉर्ड को अपडेट कर लिया है।"

"रियली ?"अब तक उन्होंने अपने आपको सम्भाल लिया था,"केन आई सी ?"

"डेफ़िनेटली। इन्हें अभी डाउनलोड नहीं किया है। कमिश्नर मेरे मित्र हैं इसलिए मुझे ये डाटाज़ मिल गए हैं। कहते हुए उन्होंने एक फ़ाइल उनके सामने रख दी।

अपने शहर में तब संजीव भैया ही ने सलाह दी थी कि जब तू ने सारा जीवन समाज सेवा की है, विवाह नहीं किया। स्त्रियों की समस्यायों से जूझती रही हो। उनकी आत्महत्यायों के कारण खोजती रही हो, तो क्यों नहीं इस विषय पर शोध कर डालतीं। उनके शोध का काम काफ़ी कुछ पूरा हो गया था। तभी उनके गाइड ने उन्हें सुझाव दिया था जब तक वे बड़ोदरा के प्रोफ़ेसर शाह से नहीं मिलेंगी तब तक उनका काम अधूरा ही रहेगा, तब से वे तीन महीनों के लिए अपने दो सूटकेस व दो बैग्स में उठाये इस प्रदेश में चलीं आईं थीं जहां स्त्रियां सबसे अधिक आत्महत्या करतीं हैं।

कैसा सुन्दर इत्तेफ़ाक था। कविता बेन ने उसके पहुँचते ही कहा था,"आप बहुत सुन्दर मौके पर यहां आईं हैं। गुजरात में सबसे अच्छा अनुशासित गरबा वड़ोदरा में ही होता है और कल से नवरात्रि शुरू हो रही है। आप काम बाद में आरम्भ करिये पहले मेरे साथ गरबे का आनंद लीजिये।"

दूसरे दिन कार में उन्हें कविता बेन लेकर चल दी थीं. उफ़ !ऐसा लग रहा था सारा शहर इस उत्सव में डूब गया है। रास्ते में जगह जगह रोशनियों की झालर में लोग एक घेरे में घूम कर गरबा कर रहे थे। उस घेरे में बच्चे भी थे, तीन ताली मारती मध्य वयस की औरतें भी। वृद्ध रंगीन कपड़ों में कुर्सियों पर बैठे आनंद ले रहे थे। सड़कों पर लड़कियां, स्त्रियां सोलह सिंगार किये व पुरुष सुन्दर कपड़े पहने, सर पर कांच की कड़ाई की पगड़ी पहने दोपहियों में, कारों में पैदल चले जा रहे थे. उन जैसी रूखी सूखी भी अलाहादित हो गईं थीं,"वाह !कितने सुन्दर लहंगे ब्लाउज़ हैं। लड़के भी कैसी सुन्दर ट्रेडीशनल ड्रेस पहनें हैं।"

कविता बेन मुस्करा उठीं थी,"लड़कियों के लहंगे को यहाँ चणिया चोली कहा जाता है। लड़के अक्सर कड़ियों व धोती पहनते हैं या झब्बा [कुर्ता ] व पायजामा। ।"

अम्ब्रेला एन जीओ यूनाइटेड वे के गरंबा ग्राउंड पर जाकर उनकी आंखें फ़ैल गईं थीं. अनेक गोल घेरों में घूमते गरबा या डांडिया करते सजे धजे सैकड़ों स्त्री पुरुष. लाल नीली पीली रोशनियों में जैसे रूप का कहर टूटा पड़ रहा था, जिसे संतुलित कर रहा था सजा धजा पुरुष सौंदर्य। उनकी आँखें चौंधिया कर रह गईं थीं। वे बता नहीं सकतीं थीं कि कौन सी लड़की सुन्दर है, किसकी ड्रेस सबसे अच्छी है। मज़े की बात ये थी कुछ लड़कियां राजस्थानी कुर्ती व पूरी बाहों में भरे चूड़ले से या कांजीवरम की साड़ी में या ज़री वर्क की साड़ी में गरबा कर रहीं थी। केंद्र में अम्बे माँ की मूर्ति के सामने दिया जल रहा था व बड़े मंच पर दस बारह गायकों का दल वाद्यों के साथ गरबा गा रहा था। तभी दल के प्रमुख ने नया गरबा आरम्भ किया,"तारा बिन शाम मने एकलड़ू लागे, गरबा रमवे आवजो। ---श्याम ---- श्याम।"

"उफ़ --क्या सुन्दर गाते हैं, क्या अलाप है।"

कविता बेन ने बताया था,"इन सिंगर का नाम अतुल पुरोहित है। हर वर्ष इन्हीं का ग्रुप गरबा गाने आता है।मज़े की बात ये है कि आप अगर अहमदाबाद या राजकोट में गरबा देखेंगी तो उनके गीत अलग मिलेंगे। ये गीत सुन नहीं पाएंगी। वहां हर जगह इतना अनुशासित गरबा नहीं होता है। लोग जगह जगह अपने अपने घेरे बनाकर गरबा करते हैं। साथ में पानी की बोतलें खाने पीने की चीज़ें भी ले जाते हैं."

वे खो सी गईं थीं,"तो सारा गुजरात ही गरबे में डूब जाता है। हमारा यू पी होता तो अब तक लोग औरतों को ट्रक में भरकर किडनैप करके ले जाते।"

"हा ---हा ---हा।"

इसके विपरीत थी वडोदरा की यूनिवर्सिटी फ़ाइन आर्ट्स फ़ैकल्टी का गरबा। बिना रोशनियों की चमक धमक के उसके ग्राउंड में सिर्फ़ ढोलक पर नितांत खालिस ग्रामीण गरबा गीत गाते बालों की पोनी बनाये दो प्रोफ़ेसर्स व छात्र. बीच में एक से एक सुन्दर परिधानों बैकलेस चोली, ऑफ़ शोल्डर चोली में नाचतीं देशी, बहुत गोरी विदेशी लड़कियाँ। विदेशी लड़के भी लाल पीले कुर्तों व धोती में बहुत लुभावने लग रहे थे। जब बेहद द्रुत गति से अनेक स्टेप्स वाला दोड़ियो आरम्भ हुआ तो राजस्थानी चुनरी में सजी दो प्रोफ़ेसर महिलायें घेरे से अलग हो गईं। इस द्रुत गति के नृत्य से युवा लड़कियों की बैकलेस पीठ पर पसीने की बूँदें झिलमिला रहीं थीं।फ़ैकल्टी के अन्दर की भीड़ व बहार रस्सी बांधकर सीमा रेखा के पार की भीड़ की आँखें इन्हीं पसीनों के बूँदों पर टिकी हुईं थीं लोककला, गीत, संगीत व नृत्य का अद्भुत संगम लगा था ये गरबा।

वे उस दिन कमिश्नर के दिए डेटाज़ लेकर बहुत उत्साहित होकर एनेक्सी में लौट आईं थीं। ये डाटाज़ मिल गये समझो काम पूरा हो गया। अपने कमरे में आकर चाय पीकर वे इत्मीनान से फ़ाइल लेकर बैठ गईं। उनकी दृष्टि आंकड़ों पर फिसलती जा रही थी। वे चौंक उठीं थीं, स्त्रियों की आत्महत्यायों का इस प्रदेश में सबसे बड़ा कारण था विवाहेतर प्रेम और इसका भी बड़ा कारण था प्रौढ़ कुमारियाँ। उन्होंने यहां आकर गरबा भी देखा है। देखकर हैरान भी हुईं हैं किस तरह स्त्रियां, लड़कियां सोलह सिंगार करके गरबा के घेरे में पुरुषों के साथ नृत्य करतीं हैं। बैकलेस चोली, ऑफ़ शोल्डर चोली, कमर के कटाव की लचक इनके शरीर के प्रति झिझक निकाल देती है। गरबे में या यहाँ के उन्मुक्त वातावरण के कारण दोस्तियां होती हीं हैं। ज़रूरी नहीं है मित्र अविवाहित ही हो ---जहां स्त्री पुरुष संबंधों के समीकरण बदलते रहेंगे, वहां कुछ उलझनें भी होंगी ही। ज़ाहिर है हर खेल का अंजाम स्त्री पर से गुज़रता है और उनमें से कुछ आत्महत्याएँ कर बैठतीं हैं। यदि पहले जैसा समय होता तो वे इन आंकड़ों को पढ़कर बेहद उत्तेजित हो जातीं और क्रोध में भरकर कुछ अपनी फ़ाइल में लिख डालतीं। लेकिन अब ?अब वे स्वयं ही लाचार हो उठीं हैं। कुर्सी पर पड़ी हुई वे पहली बार अपने अंतर्मन में महसूस कर रहीं थीं कि दिल कहीं इन आंकड़ों में बंधकर रह पाए हैं ? वे तो अपनी रौ में बह उठते हैं। उन्हें कब ख़ौफ़नाक परिणामों का भय सताया है ?

बाइस वर्ष में ही वे अविवाहित रहने का व्रत ले चुकीं थी. डैडी कुछ समझाते तो वे क्रोधित हो कहतीं,"डैडी आई वांट टु फ़ाइट दिस मेल`स वर्ल्ड। जहाँ औरत को शोषण की जाने वाली गुड़िया बनाकर रख दिया है। मैं औरत को उसका सही हक़ दिलाने में अपना जीवन लगाना चाहतीं हूँ।"

"यह तो शादी के बाद भी किया जा सकता है।"

"शादी ?पहले शादी फिर बच्चे ?नहीं, नहीं, मैं इन झंझटों से मुक्त रहना चाहतीं हूँ जिससे अपने काम पर पूरा ध्यान दे सकूँ।"

अपनी सामर्थ्य के अनुसार क्या नहीं किया उन्होंने स्त्रियों के लिए। खुद भूल बैठीं कि वे भी एक स्त्री हैं। उनकी गोरी दुबली देह पर होती एक मामूली हैंडलूम साड़ी, पैरों में लटकती चप्पल, पीठ पर लहराती चोटी। कहीं किसी समरोह में जाना होता तो मम्मी अपने गहरे मेकअप को आख़िरी टच देते हुये कहतीं,"शुचि तैयार हो गई ?"

"हाँ."शुचि सादे लिबास मेंउनके सामने आ जातीं। उनकीसदगी देखकर मम्मी जलभुन जातीं,"क्या मातम मनाने जा रही हो ?

"मम्मी !मैं तो ऐसे ही जाउंगी। यदि ले चलाना हो तो ले चलिये।"

"अच्छा कम से कम एक बिंदी तो लगा ले।"वे प्यार से बिंदी के पैकेट में से निकालकर एक बड़ी बिंदी उनके माथे पर सजा देतीं।वे समारोह में ऐसे सकुचातीं रहतीं जैसे उन्होंने बिंदी लगाकर पुरुष प्रधान समाज के आगे हथियार डाल दिए हैं।

वे जितना सोच रही थीं स्त्रियों की स्थिति उससे भी ख़राब थी। वे पूरी तरह से उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई मान कर उनके लिए संघर्ष करती रहीं थीं। कितनी कितनी व्यस्तताएं थीं उनके जीवन में सुबह उनके ऑफ़िस में स्त्रियों की कतारें लगीं रहतीं थीं। अस्पताल से फ़ोन आ जाता तो तुरंत ही किसी जलकर मर रही स्त्री का मजिस्ट्रेट के साथ बर्न वॉर्ड में `डाइंग डिक्लरेशन `लेने जा पहुंचतीं। अपने टेपरिकॉर्डर में काले जले हुए वीभत्स चेहरे की डूबती फुसफुसाती आवाज़ को रिकॉर्ड करते समय उन्हें लगता जैसे उस स्त्री के बदन की आंच उनका रोम रोम सुलगा रही है। वे दुगुने वेग से काम में लग जातीं। अस्पतालों व पुलिस विभाग से आंकड़े इकठ्ठे करके निष्कर्ष निकलतीं रहतीं। कभी समय लेते सूचना मिल जाती तो वह किसी पुरुष का अपनी संस्था की स्त्रियों से घिराव करवाकर उस स्त्री को आत्महत्या से बचा लेतीं। उनके इस काम में कितने ही लोग साथ हो लिये थे। अमित जी तो और भी साथ होना चाहते थे, कितने बार उन्हें संकेतों से समझा चुके थे की जब दोनों के जीवन का लक्ष्य एक ही है तो क्यों न एक ही सूत्र में बंध जाएँ। लेकिन वे तो अपने दिल को वज्र बना चुकीं थीं। किसी का आकर्षण उन्हें डिगा नहीं सकता था।

पहली बार उन्होंने प्रोफ़ेसर शाह के गौरवर्ण चेहरे को ध्यान से देखा था। उठी नासिका के ऊपर काले फ़्रेम के चश्मे से झांकती गंभीर दृष्टि को देखकर ऐसा कुछ विशेष नहीं लगा था। पता नहीं बाद में कैसे अपने शोधार्थियों के शोध को समझाती उनकी धीर गंभीर आवाज़ कब इनके दिल में उतरती चली गई, पता ही नहीं चला। उनके पास बैठकर उनके शोध परिणामों को सुनते हुए उन्हें बड़ी बेचैनी महसूस होने लगी थी।यहां बड़ोदरा में चौथी बार उनके कमरे की तरफ़ जाते पैर लरजने लगे थे। कंठ सूखने लगा था। दिल ने बिलकुल दूसरी तरह धड़कना शुरू कर दिया था। वे अपने बदलाव से बेहद अस्त व्यस्त हो गईं थीं। उन दोनों के बीच शोध की बातचीत के साथ अनवरत अंदर ही अंदर बहुत कुछ घटता चला जा रहा था, बिना किसी आहट के, बिना किसी वश के। इस बदलाव से वे घबरा भी रहीं थीं। कभी उन्हें अनुभूति होती की प्रकृति की दो सर्वश्रेष्ठ विपरीत कृतियों के बीच कजोकुछ रुई के नाज़ुक फाहे जैसा कोमल पनपता चलाजा रहा है, वह बिलकुल नैसर्गिक सी प्रक्रिया है -उतनी ही जैसे कलियों का प्रस्फ़ुटन या बादलों की हथेलियों से सूरज का उगना या उन्हीं में सांझ ढले सिर छिपा लेना।

"ये फ़ाइल देखिये मिस शुचि !ये एक वीमन एन जी ओ की मदद से हमने तैयार करवाई है,"कहते हुए वे अपनी चाहत भरी दृष्टि उन पर गढ़ा देते, वह जड़ हो जातीं। आश्चर्य ये था कि मन में कोई क्रोध या उत्तेजना नहीं उपजती। उस मासूम सी आस भरी चाहत के आगे वे स्वयं बह उठतीं थीं। उन्हें लगता उनके अंदर नख से शिख ताक पिघलता हुआ कुछ स्वयं ही समर्पित हो जाना चाहता है।

वे सोचतीं क्या आदमी रिश्तों में बंधकर भी पूरी तरह अपनों में बंट नहीं पता ?कहीं कुछ, अपना निजत्व, कुछ चाहतें शेष रह जातीं हैं। वे तो अकेली थीं। लेकिन वे तो है ज़िम्मेदार पति व पिता थे। फिर पता नहीं क्यों उनके सानिध्य में ऐसा क्यों लगता था कि वे सारे रिश्ते एक तरफ़ झटक अपनी इस चाहत को मासूमियत से उचित ठहरा रहे थे। उन्हें जैसे ज़िद चढ़ गई थी, वह इस बदलाव का गला घोंट देंगी। डॉकटर शाह उन्हें जो टाइम देते उससे वे आधा घंटा तो लेट ही पहुंचतीं। प्रोफ़ेसर शाह को जब तक क्लास लेने जाना ही पड़ता। जब वे रजिस्टर लिए वापिस आते तो निर्विकार भाव से इस ऐसे बात करतीं जैसे उनकी भावनाएँ समझ नहीं रहीं हों। उनका आहत अहं से चेहरा देखकर उन्हें अजीब सा संतोष मिलता। उन्हें विश्वास हो चला था कि उनका रूखा व्यवहार देखकर वे भी अपनी चाहत का गला घोंट देंगे.

एक दिन तो वे उनके दिए समय से दूसरे दिन ही उनसे मिलने पहुंचीं। उन्हें विश्वास था कि अब वे क्रोध में आकर उनका बाकी काम नहीं करवाएंगे और वे अपने दो सूटकेस, दो बैग उठाकर इस शहर से चल देंगी, इस सब को भुला देने के लिए, अपने काम में डूब जाने के लिए।

"कल आप नहीं आ पाईं क्या कुछ ख़ास कारण था ?"उनके चेहरे पर क्रोध नहीं था, वही शांति व चाहत थी।

"हाँ, कल कविता बेन की बेटी का बर्थडे था।"एकदम से यही बहाना सूझा। हड़बड़ाहट में ये भी भूल गईं की कविता बेन के घर का कोई घरेलू समारोह शाह परिवार के बिना पूरा हो ही नहीं सकता।

"लगता है आपको मेरे साथ काम करना अच्छा नहीं लग रहा है ?"

"नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।"वे एकदम घबरा गईं थीं,. मन तड़प उठा था, वे कैसे कह दें कि उनका साथ, उनका व्यवहार उनकी वर्षों की तपस्या को भांग करता जा रहा है,. वर्षों से पड़े निष्प्राण मन में धड़कनें स्पंदित करने लगा है। वो भी ऐसी जिनका उनके जीवन में न कोई मोल बचा है, न उपयोग।

"आप एक सप्ताह बाद जा रहीं है ?"

"जी।"

"क्या ऐसा सम्भव नहीं है कि आप मेरे साथ सिर्फ़ एक शाम बिता सकें।"

उफ़, फिर वही उनकी तड़पती, उन्हें बेबस करती, आकर्षित करती तीखी चाहत। उन्हें लगा यदि वे उनसे अकेले में मिलीं तो अब तक वर्षों से संजोयी कवच को तोड़कर किसी वेगवती धारा सी बह निकलेंगी। उन्होंने जबरन चेहरे को रूखा बनाते हुए उत्तर दिया,"हाऊ इज़ इट पॉसिबल ?आप एक शादीशुदा व्यक्ति हैं, मुझे ये सब पसंद नहीं है।"

"मैं जब जब तुम्हें देखता हूँ तो रिश्ते की बात भूल जाता हूँ। मैं स्वयं हैरान हूँ कि ऐसा क्यों हो रहा है जो होना नहीं चाहिए। वह भी इस उम्र में।"कहते हुए उनका चेहरा एक कश्मकश में जकड़ गया।

अपने लिए` तुम` सुनकर व उनकी साफ़गोई ने उन्हें एकदम हड़बड़ा दिया था। वह सन्न बैठी रह गईं थीं। कुछ उनसे बोलते नहीं बन रहा था।

डॉक्टर शाह के मन की छटपटाहट उनके स्वर में उभर आई थी,"तुमसे मैं ग़लत अपेक्षा नहीं कर रहा। पता नहीं इतने दिनों में तुम कैसे अपनी सी लगने लगी हो, बस एक शाम तुम्हारे पास बैठकर गुज़ारना चाहता हूँ।"वे चकित थीं यह देखकर कि पद, प्रतिष्ठा व पैसे से मंडित पुरुष भी प्रेम याचना करते समय कैसा कातर हो उठता है। कहाँ चला जाता है उसका अहं ?

"सॉरी प्लीज़ !"कहते हुए वे सकते की हालत में लड़खड़ाती आईं थीं. अपने कमरे में आकर ध्यान आया था कि अपना पर्स तो उनकी मेज़ पर भूल आईं हैं।

इस उम्र में किसी के स्पष्ट अनुरोध ने उन्हें बेहद घबरा दिया था। वे अपने कमरे में आकर बिस्तर पर गिरकर पता नहीं क्यों सिसक उठीं। वे क्यों इस अनुनय भरे आमंत्रण को ठुकरा आईं थीं ?क्या वे उनकी तरफ़ बुरी तरह से आकर्षित नहीं हैं ?एक शाम उनके नाम कर देतीं तो क्या बदल जाता ?वे समझ चुकीं थीं, यदि शाम उनके नाम कर देतीं तो वह क्या अपने को संम्भाल पातीं ?थोड़ी देर बाद वे आंसुओं को पौँछ कुर्सी पर बैठकर ज़रूरी फ़ाइल को पढ़ती पहले जैसी शुचि यानि कि रूखी सूखी समाज सेविका बन गईं।

वे नहीं बदलेंगी, बिलकुल भी नहीं। कितने ही मंचों से लाउडस्पीकर से अपनी गूंजती तेज़ आवाज़ को जैसे नस नस में भर लेना चाहतीं हैं जिससे अपने वक्तव्य से हटकर कुछ सोच न सकें। वे कितनी आत्मविश्वास भरी उत्तेजना से कहा करतीं थीं,"यदि औरत अपनी इच्छाशक्ति को दृढ़ बनाये रक्खे तो कोई भी पुरुष उसकी तरफ़ कदम बढ़ाने की हिम्मत नहीं कर सकता।"फिर वे हिकारत से होंठ सिकोड़ लेतीं,"औरत को ही सम्भलना चाहिए। इस बात को ग़लत साबित करना चहिये कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है। उसे दूसरी औरत का हक़ छीनते हुए शर्म आनी चाहिए।"

उन्हें लगता है, वे गूंजती आवाज़ें काफ़ी नहीं है जो अपनी गूँज से अंदर उठती इस नई आहट को दबा सकें। इस वय में वे ख़ुद ना जाने कैसी लाचार हो उठीं हैं। पता नहीं कैसे विवाहित पुरुष की तरफ़ खिंची जा रहीं हैं। शायद उन्हें पहली बार महसूस हो रहा है कि औरत का दिल मोम का होता है, कब किसके समर्थ पुरुषत्व की आंच से पिघलने लगता है, उसे पता भी नहीं चलता। तब उसमें जन्म लेती है एक मासूम समर्पण की चाह। ये कितनी निर्दोष होती है, कितनी निष्कपट होती है, दुनियाँदारी से बिलकुल अलग।

वे सुबह ही सुबह अपनी मुठ्ठी में लिए पीले गुलाब को देखते हुए क्या कुछ सोच गईं हैं। उन्हें लगता है इस फूल के रंग के कारण फिर कमज़ोर होती जा रहीं हैं कि कोई उन्हें इस रंग में पसंद करता है। तुरंत ही इस फूल की पंखुरियाँ नोचकर उसे खिड़की से बाहर फेंक देतीं हैं। नहीं, वे कमज़ोर नहीं पड़ेंगी। वे अपने सामान को समेटने में लग जातीं हैं।

कविता बेन उनके बंधे सामान को देखकर हैरान हैं,"शुचि !तुम चार दिन पहले ही क्यों चल दीं ?"

"यहाँ का काम समाप्त हो गया है तो बेकार ही अपना समय क्यों बिगाड़ूँ ? उधर मेरी एन जी ओ का काम भी धीमा चल रहा है।"

"कुछ छिपा तो नहीं रही ? चेहरा तो ऐसे लग रहा है जैसे कोई बीस बरस की लड़की इश्क में गिरफ़्तार हो गई हो। `

"धत।"वे सकुचा उठीं,"तो क्या इश्क की भी भाषा होती है जो चेहरे से पढ़ ली जाए ?"

"लगता तो ऐसा ही है तुम्हें किसी बड़ोदरा वाले से प्यार हो गया है । हमें बता दो शादी की बात कर लेंगे।"

"आपको तो पता है मुझे शादी या ऐसी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है।"वे फिर अपने अंदर का रूखापन चेहरे पर लाकर निर्विकार हो गईं।

"तुम तो बुरा मान गईं। मैं तो भूल ही गई थी कि मैं एक ऐसी समाजसेविका से बात कर रहीं हूँ जो देश की सबसे महान समाजसेविका होने वाली है।"

गाड़ी का समय नज़दीक आ रहा है। कविता बेन ने ढोकला, खाखरा, खमण के डिब्बे ज़बरदस्ती उसके बैग में रख दिए हैं। रास्ते के लिए मेथी के थेपले व गुड़ व आम का मीठा अचार भी रखवा दिए हैं। कच्छ की कड़ाई की हैंडलूम साड़ी भी उपहार में दी है। इस स्नेह ने उन्हें आंदोलित कर दिया है। विभाग के दो प्रोफ़ेसर व तीन चार छात्र उन्हें बुके लेकर विदा देने आये हैं। आतुरता से उनकी आँखें उन्हें ढूंढ़ रहीं हैं, जिन्हें ढूंढ़ना नहीं चाहतीं। बार बार उनकी दृष्टि दरवाज़े के हल्के सी ग्रीन पर्दे की और उठकर मायूस हो लौट आती है। कविता बेन हैरान हैं,"डॉक्टर शाह को मैंने ख़बर कर दे थी कि शुचि अचनाक जा रही है, पता नहीं फिर भी वे मिलने क्यों नहीं आये ?"

कविता बेन का सेवक ख़बर देता है कि ड्राइवर ने कार निकाल ली है। इस सूचना से उन्हें लगता है कि उनके गले में कुछ अटक गया हो। वे चलते समय उन्हें आख़िरी बार भी ---नहीं, नहीं, जिसे छोड़ना ही है, उसका मोह कैसा।

उनका सामन डिक्की में रख दिया है। दो छात्र, जो उन्हें स्टेशन छोड़ने आ रहे हैं, ने अपना स्कूटर स्टार्ट कर लिया है. कविता बेन भी कार में बैठकर दरवाज़ा बंद करतीं हैं। वह कार के दरवाज़े पर हाथ ही रखती है कि दूर से शाह साहब का पटावाला [चपरासी ] तेज़ी से आता दिखाई देता है. उसके हाथ में शुचि का पर्स है, जो वह शाह जी के कमरे में भूल आई थी। वह उसके हाथ में पर्स देते हुए कहता है,"बेन !साब ने आ पॉकेट मोकलायो छे। पॉकेट तमे साब ना आफिस मा भूलवाया हता। साब तने मोकवाना न आवी सक्या। आ कागज़ मोकलायो छे।"

वे उसके हाथ से वह पत्र ले लेतीं हैं। पत्र में लिखी लाइनें पढ़कर जैसे उनकी धड़कनें रुक सी गईं हैं, `तुम अचनाक जा रही हो शुचि !मेरे अनुरोध ने तुम्हें शायद रुष्ट कर दिया है. उस दिन तुम मेरी मेज़ पर अपना पर्स भूल गईं थीं भेज रहा हूँ। मैं फिर अपने अनुरोध को दोहराने की धृष्टता कर रहा हूँ कि मेरे आमंत्रण को स्वीकार कर लो, सिर्फ़ एक बार, सिर्फ़ एक बार।. `

शुचि अपने पर्स में से पेन निकालतीं हैं। आस पास के लोगों को सम्बोधित करके कहतीं हैं,"मैं मिस्टर शाह को लैटर ऑफ़ थैंक्स लिख दूँ, उन्होंने मेरा पर्स लौटाने की बात याद रक्खी।"वे स्वयं अपने आत्मविश्वास को पहचान नहीं पा रहीं, उनके अंदर ये कौन सी शुचि बैठी थी जो पत्र केपीछे के पृष्ठ पर यह लिख गई है, `मैं आपसे, अपने आप से हार गईं हूँ। मैं अगले स्टेशन पर उतर रहीं हूँ, सिर्फ एक दिन के लिए।"

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