“उनका प्रश्न”
दूसरे स्टेशन पर समय के साथ पहुँचने का वादा निभाना था न सो ट्रेन ने सीटी दी और धीरे - धीरे अपने वृत्ताकार पाँवों को लोहे की पटरियों पर गतिशील किया । “वो” ट्रेन के भीतर और मैं बाहर । वो लगातार मेरी आँखों में आँखें गढ़ाए थीं ,जैसे छूटना नहीं चाहती थीं मुझसे । मैं उनसे हर बार दृष्टि बचाने का प्रयत्न करती परंतु मेरी आँखों में धँसी उनकी दृष्टि मुझे हर बार असफल कर देती । जैसे पटरियों पर ट्रेन के वृत्ताकार पाँवों की गति और मेरी आँखों में उनकी दृष्टि की गढ़न का कोई गहरा संबंध था । जैसे – जैसे ट्रेन अपनी पटरी पर खिसक रही थी वो खिड़की पर झुक कर मुझे और भी पास से देखे जा रही थीं । स्टेशन पर खड़े सैकड़ों लोग, उनकी चिल्लपौं, चाय, बिस्किट, फल, पानी आदी बेचने वालों की तीखी आवाज़ें, या जल्दी – जल्दी ट्रेन में चढ़ते हुए असावधानी से भागते, गिरते पड़ते लोगों के छिले घुटनों की जलन से उस वक्त उनका कोई सरोकार नहीं था । उनके लिए उस खचाखच भरे स्टेशन पर सिर्फ मेरा वजूद था या फिर उनके अपने मन की टूटन का । खैर मेरी आँखों में गढ़ी उनकी दृष्टि ट्रेन को आगे खिसकने से रोक नहीं पाई । उन्होने उसकी गतिशीलता के आगे अपनी हार से घबरा कर एक बारगी मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया था । वो लगभग चार माह के मेरे साथ होने की अनुभूति को समेट कर, अपने बाजू में बैठाने के लिए अपने साथ ले जाना चाहतीं थीं शायद । बामुश्किल यही कह पाईं थीं,
“फोन करती रहना बिन्नी”
उनका बेटा लेने आए था उन्हें । बेटे ने जैसे आँख के इशारे से कहा था,
‘बस बहुत हो गया । अब छोड़ भी दो उनका हाथ ।’
उन्हें ट्रेन के साथ – साथ प्लेटफार्म पर मेरी तेज़ होती गति का ध्यान आया , तो उन्होने मेरी उँगलियों के पोरुओं तक अपनी उँगलियों को लाकर हौले से मेरा हाथ छोड़ दिया था । मेरे हाथ की पकड़ ने ही जैसे सीपी बनकर मोतियों जैसे आंसुओं को आँखों के भीतर सहेज रखा था । हाथ छूटते ही उनकी छोटी – छोटी काली पुतलियों वाली आँखों से आँसू बिखर पड़े थे । उनके बुढ़ाते गालों की हड्डियों के नीचे मांसहीन गड्ढों से गुजर कर कुछ आँसू तो सारे वातावरण को गीला करते हुए मेरी आँखों की कोर तक भी पहुँच गए थे ।
ट्रेन स्टेशन छोड़ चुकी थी । वो अभी तक खिड़की से बाहर झांक रहीं थीं । उन्हें मेरी आँखों की नमी तो दिखाई नहीं पड़ रही होगी पर मुझे अभी तक देख पा रहीं थीं वो । नियमों की प्रतिबद्धता से निर्ममता को पोसती ट्रेन ने मुझे पलों में उनकी आँखों से ओझल कर दिया । अकेले रहते – रहते आंसुओं से रिश्ता तोड़ चुकी मैं यही सोच रही थी कि कितना भी मशीनी सही पर महानगर का जीवन इंसान की मूलभूत अनुभूतियों को तो पूर्णतः मार नहीं सकता । न जाने कौन सी अनुभूति कहाँ मरणासन्न पड़ी हो और कब अपनी उपस्थिति का ऐहसास कराने जीवंत हो उठे । उस दिन उन्हें उन्हीं के बेटे के साथ जाते देखकर मुझे उनकी जिस निरीहता और पराएपन का अनुभव हो रहा था मैं कितने भी शब्द क्यों न ले आऊँ, उसे बींध नहीं पाएंगे ठीक - ठीक, कह नहीं पाएंगे पूरा - पूरा । कैसी विचित्र अनुभूति हुई थी मुझे उस दिन । जैसे मैं उस पल उनकी माँ ही बन गई थी और उन्हें ससुराल विदा करते हुए घबरा उठी थी ।
वो पिछले चालीस बरसों से उस घर में थीं जिसे स्त्री के ब्याह के बाद उसका अपना कहा जाता है । पर क्या अब तक भी जुड़ पाईं थीं वो अपने उस तथाकथित घर से ? पिछले चार महीनों के साथ में मैं यह तय नहीं कर सकी थी ।
अपने माता पिता की लाड़ली इकलौती बेटी थीं । ससुराल में उन्हें जीवन की साधारण सुविधाएं तक तो मिली नहीं फिर माता - पिता जैसा प्यार मिलने का तो प्रश्न ही कहाँ था । वो कहती थीं कि,
“बिन्नी मैंने ब्याह के बाद एक बार जो संतोष की मोटी चादर ओढ़ी न, तो फिर भूल से भी कभी मैंने , अपने पाँव उसके बाहर नहीं पसारे ।“
उनका पति उन्हें नीचा दिखाने के लिए कोई पत्थर पलटे बगैर न छोड़ता। वो अपमानित तो महसूस करतीं ज़रूर और उसके लिए मन में अरुचि भी पनपती जाती परंतु सब सह जातीं, चुपचाप । आखिर पति था उनका, उनके दो बच्चों का पिता । मन का ना सही, तन का स्वामी तो ज़रूर ही था । परंतु बच्चों के अस्तित्व और बढ़ती उम्र ने भी उनके पति को ज़रा भी जिम्मेदार या समझदार न बनाया । विवश होकर उन्होने पति से किसी भी अपेक्षा का त्याग कर दिया । सास, ससुर, ननद ,देवर यहाँ तक कि बेटा - बहू भी यही कहते कि,
“ समझा नहीं सकतीं तुम इन्हें ? कैसी अर्धांगिनी हो जो इतने बरसों में भी अपने साँचे में नहीं ढाल सकीं अपने पति को ?”
वो मन ही मन सोचतीं, मैंने कौन सा जन्म दिया है इसे, जो मेरे साँचे में ढल जाता यह । सोचकर मुस्कुरातीं कि अर्धांगिनी का अर्थ समझते भी होंगे ये नासमझ ? आधे अंग के स्थान पर आधा मस्तिष्क होना चाहिए था । तभी बात बन सकती थी अर्धांगिनी होने की तो । इस तरह सोचकर वे स्त्री के पुरुष की अर्धांगिनी होने के भारतीय दर्शन को चुनौती देतीं । परंतु विवाह पूर्व के सुखी जीवन के प्रेत के साथ जीती हुई सी वो इस उम्र में भी लोगों के संवेदनहीन चेहरे पहचानने में बिलकुल कोरी थीं ।
खैर, कंघा पट्टी कर बस इधर - उधर घूमते रहने वाला गैरजिम्मेदार पुरुष जीवन में भी गैरजिम्मेदार ही निकला और बीच राह में उनका साथ छोड़ कर चलता बना ।
घर की सत्ता तो जैसे हर्डल जंप में माहिर थी । पहले सास - ससुर के हाथों में रही, फिर उन्हें उलांघती हुई सीधी बेटे बहू के हाथों में समा गई थी । और वे घर का झगड़ा बचाने की जद में, संतोष की अपनी वही पुरानी मोटी चादर ओढ़ कर बैठ रहीं ।
किसान की फसलें पुरुषों के हाथों में ही होती हैं । अतः वहाँ बेटे का वर्चस्व हो गया । जो थोड़ा बहुत पैसा और जेवर था उनके पास, उसे बेटे बहू ने वापस करने के वादे के साथ ले लिया । पर वादा कभी पूरा नहीं हो सका । इस तरह कानूनन वे सैकड़ों बीघे की मालकिन कौड़ी – कौड़ी को मोहताज हो गईं । और बेटे को तो पैदा करके भी अपने साँचे में नहीं ढाल पाईं थीं । साधन हीन, अर्थहीन का अधिकार होना भी ना होने के बराबर ही तो होता है ,उसके द्वारा किया गया कर्तव्य भी किसी गिनती में नहीं आता और उसका संयम उसकी मजबूरी समझा जाता है । उसका प्रेम और स्नेह दिखावा या ढौंग कहलाता है । उसकी जरूरतें व्यर्थ की होती हैं और उसकी बातें अर्थहीन, उसकी बीमारियाँ बहाने करार दे दी जाती हैं ।
हजारों बार कही जा चुकी है यह बात, फिर भी कहना प्रासंगिक ही होगा कि अकेली, बूढ़ी माँ घर का गैरज़रूरी समान सी हो जाती है । यही हुआ था उनके साथ भी । तभी तो चली आईं थीं मेरे गाँव की विजिट पर मेरे ही साथ दिल्ली । किसी ने रोका भी तो नहीं था उन्हें । मुझसे उनका नाता आखिर था ही कितना । बस इतना कि मैं उनके किसी दूर के रिश्तेदार की बेटी थी । जो साल में एक ही बार उनसे मिलने आ पाती थी उनके गाँव । आयु में भी तो उनसे चौदह पंद्रह बरस छोटी थी मैं । मैं उनके ममतामई होने की कायल थी । इसीलिए ले आई थी उन्हें अपने साथ दिल्ली, अपने घर ।
उनकी स्थिति देखकर ही मेरा कभी ब्याह करने का मन नहीं किया । यह मैंने उन्हें बताया भी था । हाँ कुछ दिन मैं कबीर के साथ ज़रूर रही थी, यूं ही लिव इन । पर ब्याह करके हमेशा उसके साथ रहने का साहस नहीं जुटा सकी थी । कबीर के साथ रहने वाली बात एक झिझक के साथ बता दी थी मैंने उन्हें । जिसके बाद उन्होने एक पौराणिक कथा सुनाई थी मुझे कि,
“बहुत पुराने युग में स्त्री पुरुष बिना विवाह के ही साथ रहते थे बिन्नी । वृहदारण्यक छान्दोग्य उपनिषदों के एक प्रमुख ऋषि थे श्वेतकेतु , एक बार उनकी माता को कोई कामग्रस्त ब्राह्मण अपने साथ ले गया, यह उन्हें अच्छा नहीं लगा और उन्होने स्त्री पुरुष के साथ रहने की नियमावलि बनाई । यही नियमावलि विवाह संस्था कहलाई बिन्नी ।“ और थोड़े व्यंग्य से बोलीं थीं कि,
“यह नियम उन्होने अपनी माता के पक्ष में उनकी रक्षा के लिए बनाया था बिन्नी । जो बाकी स्त्रियॉं के लिए एक तरफ रक्षक रहा तो भक्षक भी उसने किसी और को नहीं बनने दिया ।“ संदर्भरहित यह कथा उन्होने मुझे कबीर के साथ रहने वाली बात पर सहज करने के लिए सुनाई होगी । समझ ही सकती हूँ ।
अपना घर छोड़कर मेरा घर तो उन्हें अपना नहीं लगा पर हाँ मैं उन्हें अपनी ज़रूर लगी । इसी लिए शायद अपनी वो सब बातें जो अपने घर में किसी को बताने के विषय में वो सोच भी नहीं सकतीं थी, बिना रोक - टोक मुझे बता देतीं । जाने से पहले कई बार कहा था उन्होने मुझसे,
“बिन्नी तू इस बात की पड़ताल ज़रूर करना कि, जो बेटा ब्याह से पहले माँ के साथ दो बदन एक जान होने का दम भरता है, वही बेटा विवाह के बाद इतना पराया कैसे हो जाता है ? आखिर ऐसा हो क्या जाता है ? जब पत्नी रूप वाली स्त्री आती है, तो माँ रूप वाली स्त्री महत्वपूर्ण क्यों नहीं रह जाती ? तो क्या पुरुष को स्त्री भोग्या रूप में ही अधिक पसंद होती है ? शारीरिक संपर्क वाली स्त्री ही सब कुछ हो जाती है और अशरीरी रिश्ता पीछे छूट जाता है कहीं ? पुरुष यह क्यों नहीं समझता बिन्नी कि जो स्त्री उसे अपने भीतर, अपने गर्भ में महीनों पालती है , बरसों उसे अपने सीने से लिपटाए घूमती है और आजीवन अपने अनगिनत आशीषों की छाँव तले ढाँपे रखती है, उससे अधिक शरीरी रिश्ता भी और किससे हो सकता है किसी पुरुष का । तू पढ़ी लिखी है, पढे लिखों में बैठती है , तू इसकी पड़ताल तो ज़रूर करना बिन्नी ।“
रेलवे स्टेशन से लौटते हुए उन के ये शब्द मेरे कानों में बार – बार गूंज रहे थे ।
निर्देश निधि, द्वारा – डॉ प्रमोद निधि, विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर(उप्र) पिन 203001 email –nirdesh.nidhi@gmail.com Mob - 9358488084